शारीरिक शिक्षा की धारणा एवं आधुनिक युग शारीरिक शिक्षा का महत्त्व समझाइये ।

 शारीरिक शिक्षा की धारणा एवं आधुनिक युग शारीरिक शिक्षा का महत्त्व समझाइये । 

उत्तर— शारीरिक शिक्षा की अवधारणा – शारीरिक शिक्षा दो शब्दों से मिलकर बनी है। शारीरिक और शिक्षा अर्थात् शारीरिक शिक्षा ऐसी शिक्षा है जो पूरी तरह शरीर से सम्बन्धित समग्र प्रकरणों का अध्ययन करती है। दूसरे शब्दों में शरीर के सम्बन्ध में शिक्षा देने वाली विषय सामग्री को शारीरिक शिक्षा के नाम से उच्चारित किया जा सकता है। शारीरिक शिक्षा विषय में व्यक्ति की समस्त शारीरिक गतिविधियों, क्षमताओं, क्रियाओं, विकास के समस्त पहलुओं, विकास में गति अवरोध करने वाले तत्त्वों तथा उनके उपचार का अध्ययन किया जाता है । शारीरिक शिक्षा के मूल अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि “शारीरिक शिक्षा वह शिक्षा है जो स्वस्थ शारीरिक विकास हेतु विभिन्न आंगिक क्रियाओं एवं कार्यक्रमों द्वारा दी जाती है। यह बालक के मात्र व्यक्तित्व का ही विकास नहीं करती है अपितु उसके मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक एवं नैतिक पक्ष को सबल बनाकर संसार का श्रेष्ठतम मार्ग प्रदर्शन करती है।”
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शारीरिक शिक्षा के सन्दर्भ में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं—
“शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य कार्यक्रमों का एक अति अनिवार्य भाग है। इसकी विभिन्न क्रियाओं को इस प्रकार कराया जाये कि शिक्षार्थियों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सुदृढ़ हो, उनकी मनोरंजनात्मक क्रियाओं की रुचि में वृद्धि हो तथा उनमें आन्तरिक रूप से सामूहिक भावना, खेल भावना एवं दूसरों को आदर देने का विकास हो। अतः शारीरिक शिक्षा मात्रा शारीरिक ड्रिल तथा व्यायाम से ऊँचा स्थान रखती है। शारीरिक शिक्षा में सभी प्रकार के खेल एवं शारीरिक क्रियाएँ सम्मिलित, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास होता है। “
” शिक्षा मन्त्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, “शारीरिक शिक्षा एक ऐसी शिक्षा हैं, जो बालक को सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास हेतु विभिन्न क्रियाओं द्वारा शरीर, मन तथा आत्म को पूर्णता की ओर बढ़ाती है।
शारीरिक शिक्षा का महत्त्व – प्रत्येक राष्ट्र की समृद्धि उसकी कार्य उत्पादन क्षमता पर आधारित है। कार्य उत्पादन शारीरिक स्वास्थ्य पर निर्भर है। जिस राष्ट्र के निवासी स्वस्थ होंगे, उस राष्ट्र की कार्य उत्पादन क्षमता अधिक होगी, क्योंकि जिस व्यक्ति में जितनी अधिक कार्य करने की क्षमता होगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक उत्पादन करेगा। इसलिए राष्ट्र को आत्म-निर्भर, स्वावलम्बी और प्रगतिशील बनाने के लिए शारीरिक शिक्षा को महत्त्व देना होगा। राष्ट्र के व्यक्तियों की शारीरिक कल्याण में रुचि बढ़ाने के लिए और उनके स्वास्थ्य सुधार के लिए हमारी सरकार ने शारीरिक शिक्षा की और विशेष ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भारत में एशियाई 1982 के खेलकूद आयोजन का सफलतापूर्वक समापन है। इससे विश्व – बन्धुत्व की भावना भी बलवती हुई और हमारा देश विश्व की खेलकूद राजनीति में शीर्षस्थ स्थान पर आ जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के प्रसार और प्रचार में इसने उल्लेखनीय योगदान दिया है, अतः हम कह सकते हैं कि शारीरिक शिक्षा का राष्ट्रीय जीवन में विशेष महत्त्व है। शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत व्यक्ति अपने अमूल्य जीवन के महत्त्व को समझें तथा स्वस्थ रहने के लिए नियमित व्यायाम और खेलकूद को जीवन का अभिन्न अंग मानकर स्वयं लाभान्वित होकर समाज और राष्ट्र को भी लाभान्वित करें। शारीरिक शिक्षा के महत्त्व को उपर्युक्त कथनों के अतिरिक्त निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर भी स्पष्ट किया जा सकता है जैसे—
(1) स्वास्थ्य तथा पुष्टि का विकास – शारीरिक क्रियाओं का नियमित अभ्यास करने से शरीर के अंग समान रूप से विकसित होते रहते हैं तथा सभी अंग पूरे कौशल के साथ अपने कार्यों को सम्पन्न करने में समर्थ होते हैं। ऐसे सुन्दर व स्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति ही जीवन का वास्तविक आनन्द लेते हैं तथा देश की उन्नति एवं विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शारीरिक शिक्षा न केवल स्वास्थ्य तथा पुष्टि का विकास करती है अपितु इन गुणों को जीवन पर्यन्त बनाए भी रखती है।
(2) मानसिक सजगता – शारीरिक संगठन बच्चे की मानसिक जागरूकता से जुड़ा है। शरीर आकर्षक होने से व्यक्ति में आत्म विश्वास व मानसिक सन्तुष्टि विकसित होती है इससे उसकी मानसिक जागरूकता में वृद्धि होती है। शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों के द्वारा सजगता तथा ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति का विकास होता है तथा प्रतिक्रिया समय (Reaction Time) भी कम हो जाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि शारीरिक व्यवहार और विद्वता का परस्पर सम्बन्ध तो नहीं परन्तु शारीरिक गठन के कारण व्यक्ति की बुद्धि सम्बन्धी शक्ति कम या अधिक हो जाती है।
(3) स्वस्थ भावात्मक विकास – अनेक शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से बच्चों की मूल प्रवृत्तियों, संवेगों, भावनाओं, संवेदनशीलता, आक्रामकता की समग्र अभिव्यक्ति के लिए शारीरिक शिक्षा अनेक अवसर प्रदान करती है। बच्चे की समूह और समाज में रहने की प्रवृत्ति, बाहर व टीमों में खेले जाने वाले खेलों में भाग लेकर ही परितुष्टि प्राप्त की जा सकती है। बच्चे की ठोकर मारने पत्थर फेंकने आदि मूलभूत प्रवृत्तियाँ फुटबॉल खेलने व एथलेटिक्स में भाग लेकर सन्तुष्ट होती हैं? ऐसी प्रतियोगिताओं में भाग लेने से बच्चों में हार का भय, जीत की खुशी, दबाव व तनाव आदि भाव का नियन्त्रण करने, कष्ट को सहन करने आदि की योग्यता विकसित होती है। इस तरह भावात्मक सन्तुलन बनाए रखने में ये क्रियाएँ अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं ।
(4) यह सहनशक्ति को बढ़ाती है – शारीरिक शिक्षा बच्चों में सहनशीलता की वृद्धि करती है। सहनशीलता मानव का श्रेष्ठ गुण है। इसलिए व्यक्ति में जितनी सहनशीलता या सहनशक्ति होती है वह समाज में उतना ही अधिक सम्मान व आदर का पात्र होता है। वह समाज में अपने आपको सुगमता से समायोजित कर लेता है। शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम ऐसे अवसर बच्चों को अनेक बार प्रदान करता है जिनसे सहनशीलता व धैर्य को विकसित और उनका प्रदर्शन कर सकें ।
(5) अवकाश का सदुपयोग – अवकाश के क्षणों का सदुपयोग करने में शारीरिक शिक्षा की विशिष्ट भूमिका है। इसकी गतिविधियों से बच्चा अपनी ऊर्जा और समय का सही उपयोग कर सकता है। बेकार बैठे व्यक्ति को यह काम में व्यस्त रखता है और असामाजिक व्यवहार विकसित नहीं होने देता। बच्चों के पास पढ़ाई के अतिरिक्त भी काफी समय होता है और खेलना हर बच्चे की प्राकृतिक इच्छा व आवश्यकता होती है। बच्चे शारीरिक क्रियाओं में भाग लेकर इस समय का सदुपयोग कर सकते हैं जिसमें मनोरंजन भी शामिल है।
(6) सामाजिक समायोजन में सहायक – शारीरिक शिक्षा व्यक्ति में अनेक सामाजिक गुणों, जैसे—सहयोग, प्रेम, आपसी भाईचारा, सहानुभूति, दया, खेल भावना, नेतृत्त्व, वफादारी, साहस, आज्ञाकारिता, आत्म सम्मान, न्याय व सहनशीलता आदि गुणों को विकसित करने के अवसर प्रदान करती रहती है। खेलों के अपने नियम होते हैं उनका पालन करने से कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों को निभाने की भावना विकसित होती है। शारीरिक कमजोरी व रोगों से ग्रस्त बच्चा हीन भावना के कारण अपने आप में परेशान रहता है और दूसरों के साथ अपना सामंजस्य (Adjustment) करने में असमर्थ रहता है। शारीरिक शिक्षा इस प्रकार के अवसर प्रदान करती है कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए । वह समाज के अन्दर रहकर सामाजिक जीवन के आदर्शों और मूल्यों को अपनाने का प्रयास करता है। वह अपनी पूरी योग्यता व सामर्थ्य के अनुसार सामाजिक, नैतिक एवं सांसारिक गुणों व कर्त्तव्यों को कुशलता से निभाने की योग्यता प्राप्त करता है। इस प्रकार उसमें सामाजिकता की भावना विकसित होती है।
(7) राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ाती है – शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रमों के अन्तर्गत बच्चों को एक-दूसरे से मिलने के अवसर प्राप्त होते रहते हैं। ऐसे में विभिन्न प्रान्तों, राज्यों व भारत के कोने-कोने से आने वाले बच्चों को एक-दूसरे राज्यों की संस्कृति, रहन-सहन आदि का ज्ञान प्राप्त होता है तथा आपसी प्रेम, सहयोग, एकता, सामूहिक रूप से कार्य करना, समायोजन, समन्वय, भाईचारा व त्याग व बलिदान की भावना उत्पन्न होती है जिससे देश के प्रति समर्पितता व राष्ट्रीय एकीकरण में वृद्धि होती है।
(8) राष्ट्र की शक्ति तथा चरित्र निर्माण में सहायक – केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि समग्र समाज तथा राष्ट्र के लिए भी शारीरिक शिक्षा पहली आवश्यकता है। एच. सी. बक का कथन है, ” सुन्दर ढंग से सुनिर्दिष्ट शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य यही है कि वह स्वास्थ्य, सुख, योग्यता और चरित्र को विकसित करें।”
राष्ट्र का निर्माण उसके स्वस्थ व चरित्रवान नागरिकों द्वारा होता है। बच्चे के वर्तमान तथा भावी स्वास्थ्य के लिए ऐसा उपयुक्त कायिक विकास, नैतिक तथा सामाजिक गुणों का विकास बहुत महत्त्वपूर्ण है और इस कार्य की उपलब्धि का सर्वोत्तम साधन शारीरिक शिक्षा है। इस प्रकार व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण करने के लिए और व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान के लिए शारीरिक शिक्षा एक सशक्त बल है। यह व्यक्ति एवं राष्ट्र की शक्ति तथा चरित्र का निर्माण करती है।
(9) मनोवैज्ञानिक उपयोगिता – शारीरिक क्रियाएँ, खेल और व्यायाम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रखते हैं। इन क्रियाओं में भाग लेने से बच्चों के अन्दर अतिरिक्त शक्ति होती है उसका सही ढंग से उपयोग किया जा सकता है जिससे बच्चे का शरीर शान्त होकर सृजनात्मक कार्यों में लगा रहता है, अन्यथा यह फालतू शक्ति उसे असामाजिक कार्यों की तरफ प्रवृत्त कर देती है ।
(10) नेतृत्त्व की शिक्षा – शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम बच्चों को इन क्रियाओं के माध्यम से नेतृत्त्व के गुणों को विकसित करने के अवसर प्रदान करती है। उन्हें इन क्रियाओं के आयोजन करने के अवसर दिए जाते हैं। सामूहिक खेलों में अपने समूह का नेतृत्त्व करना पड़ता है जिससे उनमें एक नेता के आवश्यक गुणों जैसे स्फूर्ति, त्वरित, निश्चयात्मकता तथा निर्णयात्मकता, विचारशीलता, विजय-पराजय में आत्म नियंत्रण, संयम, अनुशासन, दल भावना आदि नेतृत्त्व संबंधी गुणों को विकसित करने में सहायता मिलती है।
उपर्युक्त कथन से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बच्चे के व्यक्तित्व के सन्तुलित विकास के लिए शारीरिक शिक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है। भारतीय शिक्षा आयोग (1964-1966 ) की रिपोर्ट में शब्दों के आधार पर यह और भी स्पष्ट हो जाता है, “शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक सम्पूर्णता में ही योगदान नहीं देती अपितु इससे शारीरिक योग्यता एवं मानसिक जागरूकता के साथ अन्य गुणों का भी विकास होता है। जिसके अन्दर हम साहस, सामूहिक चेतना, नेतृत्त्व, आज्ञापालन तथा जय-पराजय में सन्तुलन की भावना को रख सकते हैं। “
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