शारीरिक शिक्षा की शिक्षण विधियों का वर्णन कीजिए ।
शारीरिक शिक्षा की शिक्षण विधियों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर— शारीरिक शिक्षा की शिक्षण विधियाँ — शारीरिक शिक्षा की शिक्षण विधियों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) अनुकरण विधि—
अर्थ – अनुकरण का अर्थ नकल करना या अवलोकित क्रिया का अनुसरण करना होता है। अनुकरण विधि द्वारा शारीरिक शिक्षा देने का अभिप्राय यह है कि सर्वप्रथम शारीरिक शिक्षा प्रशिक्षक किसी शारीरिक क्रिया, व्यायाम या खेल में अपना प्रदर्शन करते हुए साथ-साथ प्रशिक्षणार्थियों को भी अपनी क्रियाओं का अनुकरण करने को कहता है। प्रशिक्षणार्थी प्रशिक्षक की क्रियाओं का ध्यानपूर्वक अवलोकन कर उसका अनुसरण करते हैं।
विधि के सोपान—विधि के सोपान निम्नांकित हैं—
(i) प्रशिक्षक द्वारा सम्पूर्ण क्रिया या उसके किसी भाग का क्रमशः क्रियान्वयन — उदाहरण यदि प्रशिक्षक छात्रों को यौगिक आसन-धनुरासन का प्रशिक्षण देना चाहता है तो वह इस आसन की सम्पूर्ण क्रियाओं को अथवा इस आसन की आंशिक क्रियाओं को क्रमशः सम्पन्न कर धनुरासन की स्थिति में आयेगा तथा साथ ही प्रशिक्षणार्थियों को भी अपना अनुकरण करते रहने का निर्देश देगा।
(ii) प्रशिक्षणार्थियों द्वारा अनुकरण क्रिया – प्रशिक्षणार्थी प्रशिक्षक को इस आसन की प्रत्येक क्रिया को करते देखकर क्रमशः करते रहने का निर्देश देगा।
(iii) प्रशिक्षक द्वारा त्रुटियों का निराकरण – प्रशिक्षक अपने सामने उसका अनुकरण करते छात्रों की क्रियाओं में यदि कहीं त्रुटि होती है वह पुनः उसी क्रिया को दुहराकर उन्हें ठीक अनुकरण करने का निर्देश देगा।
(iv) अभ्यास – जब प्रशिक्षणार्थी धनुरासन अथवा अन्य किसी क्रिया का अनुकरण ठीक विधि से कर लेते हैं तो प्रशिक्षक बारम्बार अपनी क्रियाओं के अनुकरण करने का अभ्यास प्रशिक्षणार्थियों को कराता है जिससे वे उस क्रिया में निष्णात या कुशल हो जायें ।
(v) मूल्यांकन – प्रशिक्षणार्थियों से अनुकरण द्वारा सीखी क्रियाओं को बिना प्रशिक्षक की क्रियाओं को देखे करने को कहेगा व उनका मूल्यांकन करेगा। त्रुटिपूर्ण क्रिया करने वालों को पुनः प्रशिक्षण (re – training) अनुकरण द्वारा ही देगा।
गुण-दोष — अनुकरण विधि के गुण यह हैं कि बालक स्वभाव से भी अनुकरण प्रिय होते हैं और वे अनुकरण द्वारा दूसरों की क्रियाओं को सीख लेते हैं, अत: यह मनोवैज्ञानिक विधि है। त्रुटियों का निवारण भी अनुकरण द्वारा बार-बार अभ्यास कराने से हो जाता है। इसके अतिरिक्त समय की भी बचत होती है, क्योंकि प्रशिक्षक प्रशिक्षणार्थियों को व्यक्तिगत प्रशिक्षण देने की अपेक्षा एक साथ अनेक प्रशिक्षणार्थियों को प्रशिक्षण दे सकता है।
इस विधि का दोष यह है कि इसके द्वारा व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर प्रशिक्षणार्थियों पर व्यक्ति द्वारा ध्यान नहीं दिया जा सकता। प्रशिक्षणार्थी प्रशिक्षक का अंधानुकरण कर प्रत्येक क्रिया व उसके अंशों को विवेकपूर्ण ढंग से समझने में असमर्थ रहता है।
( 2 ) प्रदर्शन विधि—
अर्थ – प्रदर्शन का अर्थ किसी शारीरिक क्रिया का प्रशिक्षक द्वारा प्रदर्शन हेतु सम्पन्न कराना होता है जिसमें प्रशिक्षणार्थी प्रदर्शन का अवलोकन सीखने हेतु करता है । इस विधि का उद्देश्य किसी क्रिया अथवा उसकी सहयोगी क्रियाओं को विधिवत् क्रियान्वित कर प्रशिक्षणार्थियों को उससे सम्बन्धित कौशल का प्रदर्शन करना होता है ।
विधि के सोपान — विधि के सोपान निम्नांकित हैं—
(1) प्रदर्शन पूर्व तैयारी – क्रिया शारीरिक क्रिया, व्याायम या खेल के प्रदर्शन के पूर्व प्रशिक्षक उस क्रिया से सम्बन्धित उपयुक्त स्थल सम्बन्धित उपकरणों, साज-सामान, प्रशिक्षणार्थियों व स्वयं के प्रदर्शन हेतु बैठने या खड़े होने की व्यवस्था करता है ताकि प्रदर्शन निर्बाध गति से निर्धारित समय पर सम्पन्न हो सके।
(ii) प्रशिक्षणार्थियों का अभिप्रेरण – प्रशिक्षणार्थी अभिप्रेरण द्वारा किसी क्रिया को सीखने हेतु जिज्ञासु, उत्सुक व अभिरुचि एवं अवधान सहित तैयार होते हैं। बिना अभिप्रेरण के कोई भी प्रदर्शन सार्थक व प्रभावी नहीं हो पाता। अतः प्रदर्शन के पूर्व छात्रों को प्रदर्शन क्रिया का अर्थ, महत्त्व एवं उद्देश्य तथा जीवन से उसका सम्बन्ध बतलाकर उन्हें प्रदर्शन के अवलोकन हेतु अभिप्रेरित कर्ना चाहिए। जैसे किसी यौगिक आसन के शारीरिक व मानसिक लाभों से अवगत करा कर छात्रों में उसके सीखने के प्रति जिज्ञासा जाग्रत की जा सकती है।
(iii) क्रिया का प्रदर्शन – इस सोपान में शनैः शनैः तथा क्रमश: प्रशिक्षक किसी क्रिया की सहक्रियाओं को इस प्रकार सम्पन्न करता है कि प्रशिक्षणार्थी उन्हें सूक्ष्मता से देख सके व उससे सम्बद्ध शारीरिक कौशल की विधि को भी समझ . सके। प्रदर्शन के मध्य प्रशिक्षक प्रत्येक सह-क्रिया की व्याख्या भी करते हैं।
(iv) प्रशिक्षणार्थियों द्वारा शंका-समाधान – प्रदर्शनोपरान्त प्रशिक्षणार्थी अपनी शंकाओं व कठिनाइयों को प्रशिक्षक के समक्ष प्रस्तुत कर उनका समाधान प्राप्त करते हैं।
(v) मूल्यांकन – अन्त में प्रदर्शन से सम्बद्ध प्रश्न पूछकर प्रशिक्षणार्थियों के उत्तरों से उनका मूल्यांकन किया जाता है।
गुण-दोष – प्रदर्शन विधि के गुणों में इस विधि की बोधगम्यता, सरलता तथा रोचकता प्रमुख होती है। प्रशिक्षणार्थी शारीरिक क्रिया, व्यायाम या खेल को उत्सुकता से अवलोकन कर स्वयं भी उसे करने को उत्प्रेरित होते हैं। उनकी शंकाओं का समाधान भी तत्काल हो जाता है।
इस विधि के दोषों में सर्वप्रमुख यह है कि प्रदर्शन के समय प्रशिक्षक ही क्रियाशील रहता है और प्रशिक्षु मात्र दर्शक बने रहते हैं । प्रदर्शन स्थल से दूर खड़े या बैठे हुए तथा संकोची प्रवृत्ति के प्रशिक्षणार्थी प्रदर्शित क्रिया को ठीक से नहीं देख पाते ।
(3) सम्पूर्ण विधि या प्रायोगिक विधि – सम्पूर्ण विधि में किसी शारीरिक क्रिया, व्यायाम या खेल की सभी क्रियाओं व सह-क्रियाओं अथवा खेल के नियमों का अनुसरण आद्योपान्त करके दिखाया जाता है। जिसमें शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों साथ-साथ भाग लेते हैं। उदाहरण के रूप में फुटबाल के खेल का प्रशिक्षण देते समय प्रशिक्षक व प्रशिक्षणार्थी खेल के मैदान में पूरे समय खेल कर इस खेल की सम्पूर्ण क्रियाओं टॉस करना, किक लगाने, गेंद को रोकने, पास देने, फाउल न करने, नियमों का पालन करने, गोल करने, थ्रो इन, कॉर्नर किक, फ्री किक, पैनल्टी, ऑफ साइड आदि का अभ्यास करते हैं ।
सम्पूर्ण विधि से सभी सहायक क्रियाओं व खेल के नियमों का सामंजस्य एवं उनका यह सम्बन्ध समझ में आ जाता है किन्तु एक साथ सभी नियमों का समझना भी कठिन हो जाता है तथा उनका अभ्यास भी ठीक प्रकार से नहीं हो पाता।
(4) भाग विधि – इस विधि में किसी खेल या व्यायाम के विभिन्न भागों या सह-क्रियाओं का पृथकतः अभ्यास कराया जाता है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में फुटबॉल खेलते समय किसी एक क्रिया गोल करने या पास देने या किक लगाने आदि का पृथक रूप से अभ्यास कराया जाता है। ताकि टीम में विभिन्न स्थानों पर खेलने वालों को अपने स्थान के अनुसार खेलने का कौशल प्राप्त हो सके।
भाग विधि यद्यपि सुविधाजनक होती है किन्तु इस विधि से विभिन्न सहायक क्रियाओं में सम्बन्ध व उनका सम्मिलित प्रयोग करने के कौशल का प्रशिक्षण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता ।
(5) सम्पूर्ण भाग सम्पूर्ण विधि – इस विधि में उपर्युक्त दोनों प्रकार की विधियों का चक्रवत् प्रयोग किया जाता है। अर्थात् पहले सम्पूर्ण विधि द्वारा किसी शारीरिक क्रिया, व्यायाम या खेल की सम्पूर्ण क्रियाओं को एक साथ सम्पन्न करने के बाद पृथकतः एक-एक क्रिया या सोपान का अभ्यास कराया जाता है तथा इसके पश्चात् पुनः सम्पूर्ण भाग विधि का प्रयोग कर सम्पूर्ण व भाग विधि को पृथक्-पृथक् करने के दोषों से बच कर उनके गुणों का सामंजस्य किया जाता है।
यह विधि ही सर्वोत्तम है किन्तु इसमें प्रदर्शन विधि का संयोग भी आवश्यक है। इसमें उन सभी विधियों का समन्वय हो जाता है तथा बालक ‘करके सीखने’ के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार किसी व्यायाम या खेल-कूद का कौशल अर्जित कर लेते हैं। अभ्यास द्वारा इस कौशल को और परिमार्जित बना लिया जाता है।
(6) मौखिक या कथन विधि — इस विधि में प्रशिक्षक किसी व्यायाम या खेल के नियम मौखिक रूप से कथन कर प्रशिक्षणार्थियों को समझा कर उन्हें उन क्रियाओं को करने का निर्देश देता है। प्रदर्शन अनुकरण तथा अभ्यास के अभाव में यह विधि नीरस व प्रभावहीन हो जाती है। अतः इसे उपर्युक्त विधियों की अपेक्षा निकृष्ट कोटि में माना जाता है ।
शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत शारीरिक क्रियाओं, व्यायाम, खेलकूद आदि के प्रशिक्षण में शारीरिक कौशल का विकास करना प्रमुख होता है। अतः शारीरिक प्रशिक्षक को प्रशिक्षणार्थियों की आयु, शारीरिक व मानसिक अभिवृद्धि एवं विकास के स्तर, अभिरुचि, उपलब्ध साधनों आदि को दृष्टिगत रखते हुए प्रशिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए।
(7) विचार-विमर्श विधि प्रश्नोत्तर – विचार-विमर्श विधि उपर्युक्त मौखिक विधि की ही पूरक विधि है। अध्यापक की मौखिक अभिव्यक्ति के पश्चात् विद्यार्थी अपनी विभिन्न शंकाओं और समस्याओं को प्रकट करते हैं और परस्पर विचार-विमर्श से उनका समाधान किया जाता है। इस विधि को बहुत प्रभावशाली और उपयोगी माना जाता है, क्योंकि इसमें शिक्षक और विद्यार्थी दोनों सक्रिय रहते हैं और शिक्षार्थियों के मन में किसी प्रकार की शंका नहीं रह जाती है। विचार-विमर्श विधि से विद्यार्थियों को अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिलता है जिससे उन्हें शारीरिक क्रियाओं में सक्रिय भाग लेने की प्रेरणा तो मिलती है, साथ ही उनका बौद्धिक और मानसिक विकास भी होता है। अतः मौखिक विधि से सिखाई जा रही शारीरिक क्रियाएँ विचार-विमर्श द्वारा प्रशिक्षणार्थियों के लिए तर्कसम्मत, सुबोध व प्रेरणास्पद बन जाती हैं तथा उनकी त्रुटियों का सुधार भी हो जाता है।
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