भय / डर से आप क्या समझते हैं ? ये किस प्रकार से स्व अन्वेषण पर प्रभाव डालते हैं ?

 भय / डर से आप क्या समझते हैं ? ये किस प्रकार से स्व अन्वेषण पर प्रभाव डालते हैं ?

                                                                अथवा
भय का स्वयं की खोज में क्या योगदान है ?
उत्तर— भय का अर्थ –भय एक सापेक्षिक शब्द है। प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग ढंग से भय महसूस करता है। अप्रिय होने की भावना से, खतरे की भावना से भय महसूस करता है। यह व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं है अपितु सभी प्राणियों में होता है। इस भय से व्यक्ति या अन्य प्राणी इस पृथ्वी पर अपने अस्तित्व की रक्षा करते हैं।
शास्त्रों में भी भय को विनाश का कारण माना गया है राजा के भय से मन्त्री यदि असत्य बोलता तो राज्य का विनाश, वैद्य यदि असत्य बोलता है तो शरीर का विनाश गुरु यदि असत्य बोलता है तो धर्म का विनाश होता है। लेकिन भय सदैव व्यक्ति का विध्वंस की ओर ले जाए, ये उचित नहीं है। कई बार व्यक्तित्व निर्माण के लिए भय नियंत्रित करने की इकाई का कार्य करता है। स्व- दर्शन, स्व- विश्लेषण, आत्म स्वीकृति, आत्म-अभिव्यक्ति, आत्म-ज्ञान और आत्म- मूल्यांकन के मूल में भय ही है जो स्वयं की क्षमताओं को पहचानने में सहायक होता है। यदि किसी प्राणी में आत्मरक्षा की भावना न हो तो वह स्वयं को बचाने के भय से प्रयास नहीं करेगा भय उसे आत्म-रक्षा के लिए प्रेरित करता है और अपने अस्तित्व को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। ये भय का सकारात्मक पहलू है इसके विपरीत नकारात्मक भय व्यक्तित्व में सामंजस्य, स्वीकृति और आत्म-विश्लेषण को अव्यवस्थित कर व्यवहार को अवांछनीय रूप में बदल देता है जो स्वयं द्वारा स्वीकार्य हो सकता है लेकिन अन्य द्वारा नहीं।
भय आयु व घटना की आवृत्ति से कम होता जाता है। प्राकृतिक आपदाएँ इस दायरे में आ सकती हैं। जैसे—अधिक आयु का व्यक्ति अपने जीवन में इस तरह की आपदाओं को अनुभव करके अपनी मन:स्थिति को वैसा ही बना लेता है और भय का अनुभव स्तर पहली घटनाओं से व्यवस्थित कर लेता है।
भय का स्वयं की खोज में योगदान—
भय किसी कार्य को न करने के लिये प्रभावी रूप से कार्य करता है। जब कानून का भय होता है तो व्यक्ति नियमों का पालन करता है। जब धार्मिक नियमों को तोड़ने पर नरक में जाने का भय होता है तो व्यक्ति धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करता है। भय के माध्यम से व्यक्ति अनेक प्रकार के अच्छे कार्यों को करता है। भय का सार्थक उपयोग हमारे समाज में प्राचीनकाल से वर्तमान समय तक चला आ रहा है। पुलिस के भय से चोर चोरी नहीं करता है, शिक्षक के भय से छात्र गृहकार्य करके लाता है। भय के अभाव में अनेक अव्यवस्था उत्पन्न होने का भय बना रहता है। इस प्रकार भय द्वारा व्यवस्था को नियमित एवं व्यवस्थित रूप प्रदान करने में सहायता मिलती है। अतः व्यक्ति के स्वयं की खोज की प्रक्रिया में भय के योगदान को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है—
(1) सामाजिक भय का स्वयं की खोज में योगदान – सामान्य रूप से व्यक्ति समाज में रहकर ही अपना जीवनयापन करता है। समाज में ही प्रतिष्ठा पाने के लिये वह निरन्तर प्रयास करता है। समाज में प्रतिष्ठा उस व्यक्ति को ही प्राप्त होती है जो समाज के नियमों का पालन करता है। एक आदर्श समाज के नियम व्यक्ति के सर्वांगीण विकास से सम्बन्धित होते हैं। व्यक्ति इन नियमों का पालन इसलिये करता है कि उसको समाज द्वारा दण्ड दिया जा सकता है जो कि विविध रूपों में संभव होता है। इसलिये सामाजिक भय के कारण ही एक व्यक्ति समाज के नियमों का पालन करता है जिससे वह एक ओर स्वयं की खोज हेतु कार्य करता है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विकास एवं उत्थान के लिये भी कार्य करता है ।
(2) पाप के भय का स्वयं की खोज में योगदान–पाप के भय के कारण भी व्यक्ति समाज विरोधी कार्यों को सम्पन्न नहीं करता तथा उन कार्यों को सम्पन्न करता है, जिनमें उसको पाप नहीं लगता; जैसे- एक व्यक्ति जानता है कि ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम्’ तो व्यक्ति जो परोपकार सम्बन्धी कार्य सम्पन्न करता है, दूसरों को दुःख पहुँचाने वाले कार्यों से बचता है। इस प्रकार वह एक ओर स्वयं की खोज करता है तथा दूसरी ओर समाज के समक्ष आदर्श एवं अनुकरणीय व्यवहार प्रस्तुत करता है।
(3) नरक के भय का स्वयं की खोज में योगदान – हमारे हिन्दू ग्रन्थों में विविध प्रकार के धर्मग्रन्थ बताते हैं कि जो व्यक्ति हिंसा सम्बन्धी एवं समाज विरोधी कार्य करते हैं उनको नरक भोगना पड़ता है। नरक में व्यक्ति को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है। ग्रन्थों में 27 प्रकार के नरकों का वर्णन है जिनमें व्यक्ति अपने बुरे कर्मों के द्वारा ही पहुँचता है। नरक के भय से व्यक्ति सदैव अच्छे कार्य करता है तथा आदर्श जीवन व्यतीत करता है ।
(4) दुःख के भय का स्वयं की खोज में योगदान– सामान्यतः व्यक्ति का उद्देश्य अपने जीवन में सुखों की प्राप्ति करना होता है। सुखों की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को सदैव ज्ञान, योग, ध्यान एवं साधना का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि इस संसार में आसुरी एवं तामसी कार्यों से व्यक्ति को सदैव दुःखों की प्राप्ति होती है। कोई व्यक्ति दुःख नहीं चाहता। इसलिये वह सदैव बुराई के कार्यों से बचने का प्रयास करता है। इससे उसका जीवन ज्ञान मुक्त एवं सदाचार युक्त बन जाता है।
(5) धार्मिक भय का स्वयं की खोज में योगदान — धर्म का सम्बन्ध विविध प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों से होता है, जो मानव के सर्वांगीण विकास हेतु सम्पन्न किये जाते हैं। यज्ञ, हवन, ब्राह्मण भोजन, दान एवं मांगलिक कार्यक्रम धर्म के अन्तर्गत आते हैं। यदि व्यक्ति इन कार्यों को सम्पन्न नहीं करता तो उनका दण्डन भी लिखा जाता है। इस दण्ड के भय से व्यक्ति धार्मिक क्रियाओं का व्यापक रूप से संचालन करता है। धार्मिक क्रियाओं के पालन करने से ही व्यक्ति का आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास सम्भव होता है। दूसरे शब्दों में, धार्मिक भय स्वयं की खोज का प्रमुख साधन है।
(6) दण्ड के भय का स्वयं की खोज में योगदान–दण्ड के भय का स्वयं की खोज में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। दण्ड व्यवस्था के कारण ही व्यक्ति उन कार्यों को करने से बचता है जो कि समाज विरोधी एवं नियम विरुद्ध होते हैं। संसार में समस्त कार्य सही एवं व्यवस्थित रूप में चलते हैं तथा समाज में शान्ति व्यवस्था स्थापित रहती है। इसके मूल में दण्ड का भय ही कार्य करता है। इस प्रकार दण्ड का भय स्वयं की खोज के साथ-साथ आदर्श कार्यों को करने की प्रेरणा प्रदान करता है।
(7) कानून के भय का स्वयं की खोज में योगदान–किसी भी व्यवस्था में कुशलतापूर्वक संचालन के लिये कानून की आवश्यकता होती है। कानून का पालन न करने पर दण्ड दिया जाता है। इस दण्ड से बचने के लिए व्यक्ति सदैव कानून का पालन करता है तथा आपराधिक या समाज विरोधी कार्य करने से बचने का प्रयास करता है। इस प्रकार कानून के भय के कारण ही व्यक्ति स्वयं की खोज सम्बन्धी उपयोगी कार्य करता है।
(8) आत्मा सम्बन्धी भय का स्वयं की खोज में योगदान – जब हम किसी कार्य को करते हैं तो हमारी आत्मा द्वारा उस कार्य की स्वीकृति या अस्वीकृति प्रदान की जाती है। जिस कार्य की स्वीकृति आत्मा द्वारा दी जाती है, उस कार्य को करने में आनन्द का अनुभव होता है। इसके विपरीत जब किसी कार्य को करने में आत्मा अस्वीकृति प्रदान करती है, उसमें भय का अनुभव होता है। इस भय के कारण ही व्यक्ति आत्मिक विकास एवं सर्वांगीण विकास के लिये कार्य करता है तथा पतन एवं समाज विरोधी कार्यों को नहीं करता ।
(9) मानसिक तनाव के भय का स्वयं की खोज में योगदान– मानसिक तनाव के भय का स्वयं की खोज में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। सामान्यतः जब कोई व्यक्ति हिंसात्मक एवं समाज विरोधी कार्य करता है तो उसके मन में तनाव उत्पन्न होता है। यह तनाव उसकी दिनचर्या को कष्टमय बना देता है । वह शान्ति के लिये प्रयास करने लगता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति मानसिक तनाव से बचना चाहता है तथा आदर्श एवं सदाचारी कार्यों को करता है। इस प्रकार मानसिक तनाव के भय के द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है।
(10) अशान्ति के भय का स्वयं की खोज में योगदान –व्यक्ति अपने जीवन में कभी अशान्ति नहीं चाहता। वह सर्वत्र शान्तिमय जीवन जीने का प्रयास करता है। शान्तिमय जीवन जीने के लिये उसमें अच्छे कार्य करने की इच्छा सर्वत्र बनी रहती है तथा वह हिंसात्मक एवं विध्वंसात्मक कार्यों से बचने का प्रयास करता है। इस प्रकार अशान्ति के भय से बचने के लिये व्यक्ति योग, ध्यान एवं आध्यात्मिक अभ्यास का सहारा लेता है तथा स्वयं की खोज करता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं की खोज में भय को समझना आवश्यक है, क्योंकि ये दो प्रकार के पक्ष रखते हैं। इनके सकारात्मक पक्ष का अनुकरण किया जाता है तो व्यक्ति स्वयं की खोज करता है । जब इनके नकारात्मक पक्ष का अनुकरण किया जाता है तो व्यक्ति अपने को अवरुद्ध कर लेता है। इसीलिये प्रत्येक छात्र एवं शिक्षक का यह दायित्व बनता है कि इन सभी उपर्युक्त तथ्यों के बारे में व्यापक ज्ञान प्राप्त करें तथा इसके सकारात्मक पक्षों का उपयोग करें, क्योंकि ज्ञान के अभाव में छात्र इन सभी तथ्यों के वास्तविक स्वरूप एवं इनके सकारात्मक उपयोग को नहीं समझ पाता। इसलिये डर को स्वयं की खोज में उपयोग करने के लिये इसके तथ्यों की व्यापकता को समझना आवश्यक है ।
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