भावनाओं से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
भावनाओं से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर— भावनाओं से सम्बन्धित सिद्धान्त – भावनाओं से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त प्राचीन काल से ही प्राप्त होते रहे हैं। इन सिद्धान्तकारों में प्लेटो एवं अरस्तू का नाम मुख्य रूप से आता है। इसके अतिरिक्त रेने डेसकार्टेस, बारुक स्पिनोजा एवं डेविड ह्यूम जैसे दार्शनिकों के सिद्धान्त भी प्राप्त होते हैं। अधिकांश सिद्धान्त अलग नहीं हैं तथा कई शोधकर्ताओं ने अपने काम में विभिन्न दृष्टिकोण शामिल किए हैं। भावनाओं से सम्बन्धित बाद के सिद्धान्त विभिन्न शोधों में उन्नति के परिणामस्वरूप प्राप्त हुए हैं।
प्रमुख सिद्धान्त एवं उनका वर्गीकरण–निम्नलिखित प्रकार है—
(1) दैहिक सिद्धान्त — भावनाओं के दैहिक सिद्धान्त के अनुसार, शरीर भावनाओं के प्रति आवश्यक निर्णयों के बजाय सीधे प्रतिक्रिया करता है। इस तरह के सिद्धान्तों का पहला आधुनिक संस्करण 1880 में विलियम जेम्स ने प्रस्तुत किया था। 20वीं सदी में इस सिद्धान्त ने अपनी पहचान खो दी थी परन्तु आधुनिक शोधकर्ताओं के प्रमाणों के स्वरूप इसने फिर से लोकप्रियता प्राप्त कर ली है।
जेम्स लैंग सिद्धान्त—
विलियम जेम्स ने एक लेख ‘व्हॉट इज इन इमोशन’ (What is an Emotion, 1884) के द्वारा यह तर्क दिया कि अधिकांश भावनात्मक अनुभव शारीरिक बदलावों के कारण होते हैं। लगभग इसी समय डेनिश मनोवैज्ञानिक कार्ल लैगं ने भी इसी से मिलता-जुलता सिद्धान्त पेश किया इसलिए इसे जेम्स-लैंग सिद्धान्त के रूप में जाना जाता है। इस सिद्धान्त और इसके तथ्यों के अनुसार परिस्थिति के बदलने से शारीरिक बदलाव होता है।
इस सिद्धान्त को प्रयोगों द्वारा साबित किया गया है जिसमें शरीर की स्थितियों में बदलाव लाकर वांछित भावना प्राप्त की जाती है। इस प्रकार के प्रयोगों को चिकित्सा में भी प्रयुक्त किया जाता है। जैसेलाफ्टर थेरेपी इत्यादि में। जेम्स-लैग सिद्धान्त को अक्सर गलत समझा जाता है क्योंकि यह विरोधाभासी है।
(2) संज्ञानात्मक सिद्धान्त – कुछ ऐसे सिद्धान्त है जो तर्क देते हैं कि संज्ञानात्मक क्रिया एक निर्णय, मूल्यांकन या विचार – किसी भावना को उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है। रिचर्ड लॉरस के अनुसार यह इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक है कि भावना किसी चीज के बारे में या जानबूझकर पैदा होती है। इस प्रकार की संज्ञानात्मक क्रिया चेतन या अवचेतन हो सकती है तथा वैचारिक प्रक्रिया का रूप ले सकती है या नहीं ले सकती है।
यह लॉरस का एक प्रभावशाली सिद्धान्त है— भावना एक बाधा है जो निम्न क्रम में उत्पन्न होती है—
(i) संज्ञानात्मक मूल्यांकन – व्यक्ति उस घटना का तर्कपूर्ण आंकलन करता है जो भावना को इंगित करती है।
(ii) शारीरिक बदलाव – संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप जैविक बदलाव होते हैं; जैसे दिल की धड़कन का बढ़ना या पिट्यूटरी एड्रिनिल की प्रतिक्रिया ।
(iii) क्रिया–व्यक्ति भावना को अनुभव करता है और प्रतिक्रिया चुनता है। उदाहरण के लिए – जेनी एक साँप देखती है।
(a) जेनी सांप को देखती है, जिसके कारण उसे डर लगता
(b) उसका दिल जोर से धड़कने लगता है। एड्रिलिन का रक्त में प्रवाह तेज हो जाता है।
(c) जेनी चिल्लाती है और भाग जाती है। लॉरन्स जोर देकर कहते हैं कि भावनाओं की गुणवत्ता और तीव्रता को संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाओं द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ये प्रतिक्रियाएँ बचाव रणनीति बनाती हैं जो व्यक्ति और उसके वातावरण के बदलाव के अनुसार भावनात्मक प्रतिक्रिया बनती है।
संज्ञानात्मक सिद्धान्त के अन्तर्गत भी कुछ सिद्धान्त हैं—
(i) अवधारणात्मक सिद्धान्त — भावनाओं के दैहिक और संज्ञानात्मक सिद्धान्त का एक नया संकर सिद्धान्त अवधारणात्मक सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त इस तर्क में अलग है कि शारीरिक प्रतिक्रियाएँ भावनाओं पर केन्द्रित हैं, तथापि ये भावनाओं की सार्थकता पर जोर देती हैं या इस विचार पर कि भावनाएँ किसी चीज के बारे में हैं जैसा कि संज्ञानात्मक
सिद्धान्तों द्वारा पाया गया है। इस सिद्धान्त का नया दावा है कि इस प्रकार के अर्थ के लिए कल्पना पर आधारित संज्ञानात्मकता अनावश्यक है। बल्कि शारीरिक परिवर्तन खुद को परिस्थितियों के किसी कारणवश क्रिया में बदलने के कारण भावनाओं की सार्थक सामग्री के हिसाब से ढाल लेते हैं। इस सम्बन्ध में भावनाएँ मन की शक्ति के अनुरूप होती है, जैसे दृष्टि या स्पर्श, जो विभिन्न तरीकों से हमें वस्तु तथा दुनिया के अनुरूप होती है, जैसे— दृष्टि या स्पर्श, जो विभिन्न तरीकों से हमें वस्तु तथा दुनिया के बीच में सम्बन्ध के बारे में सूचना प्रदान करती है।
(ii) अफेक्टिव इवेंट्स सिद्धान्त ( भावात्मक घटना सिद्धान्त ) – यह संचार आधारित हावर्ड एम. वाइस तथा रसेल क्रोपानजेनो (1986) के द्वारा विकसित सिद्धान्त है जो भावनात्मक अनुभवों के कारणों, संरचनाओं और परिणामों (विशेषकर कार्य सन्दर्भों में) पर ध्यान देता है। यह सिद्धान्त बताता है कि भावनाएँ घटनाओं द्वारा प्रभावित और घटित होती हैं जो परिणामस्वरूप दृष्टिकोण और व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यह सैद्धान्तिक ढाँचा उस समय पर भी जोर देता है जिसमें व्यक्ति अनुभव को महसूस करता है एवं जिसे भावनात्मक प्रकरण कहते हैं—“भावनात्मक स्थितियों का एक क्रम जो समय के साथ बढ़ता है और एक मूल विषय के आसपास व्यवस्थित होता है। ” इस सिद्धान्त को कई शोधकर्ताओं द्वारा भावना को संचार के द्वारा बेहतर ढंग से समझने के लिए प्रयुक्त किया गया है ।
(iii) कैनन – बार्ड सिद्धान्त–कैनन बार्ड सिद्धान्त में, वाल्टर ब्रेडफोर्ड कैनन बॉडिली चेजेस इन पेन, हंगर, फियर एण्ड रेज में भावनाओं के शारीरिक तथ्यों पर जेम्सलेंग के प्रभावी सिद्धान्त के विपरीत तर्क देते हैं। जहाँ जेम्स का तर्क था कि भावनात्मक व्यवहार अक्सर आगे की ओर बढ़ता है या भावना की व्याख्या करता है, कैनन और बार्ड का तर्क था कि पहले भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और उसके बाद विशिष्ट व्यवहार उत्पन्न होता है।
(iv) टू फैक्टर सिद्धान्त – एक और संज्ञानात्मक सिद्धान्त सिंगरशाश्टर सिद्धान्त है। यह प्रयोगों के अभिप्रायों पर आधारित है जो बताता है कि एक ही मानसिक अवस्था में होने के बावजूद एड्रेनेलिन के एक इन्जेक्शन द्वारा व्यक्तियों की विभिन्न भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ हो सकती है। व्यक्तियों का दूसरे व्यक्ति की स्थिति के अनुसार व्यक्त की गयी भावना के अनुरूप गुस्सा या प्रसन्नता व्यक्त करते हुए निरीक्षण कियागया। इस प्रकार स्थिति (संज्ञानात्मक) के मूल्यांकन और प्रतिभागी द्वारा एड्रेनेलिन या प्लेसेबो लेने के संयोजन ने एक साथ प्रतिक्रियाएँ निर्धारित की । इस प्रयोग की जेसी पिन्ज (2004) की गेट रियेक्शंज में आलोचना की गई है।
(v) कोम्पोनेंट प्रोसेस (घटक प्रक्रिया ) मॉडल – संज्ञानात्मक सिद्धान्त का एक ताजा संस्करण भावनाओं को मोटे तौर पर कई विभिन्न शारीरिक और संज्ञानात्मक घटकों के एक समय में होने वाली अवस्था बताता है। भावनाएँ समग्र प्रक्रिया द्वारा पहचानी जाती हैं जिससे कम स्तर का संज्ञानात्मक मूल्यांकन, विशेष रूप से प्रासंगिक प्रसंस्करण में, शारीरिक प्रतिक्रियाओं, व्यवहार, भावनाओं और क्रियाओं को शुरू करता है।
(3) न्यूरोबायोलॉजिकल सिद्धान्त – मस्तिष्क संरचना की तंत्रिकाओं की मैपिंग से मिली जानकारी से मानव भावनाओं की न्यूरोबायोलॉजिकल व्याख्या यह है कि भावना एक प्रिय या अप्रिय स्थिति है जो स्तनधारी के मस्तिष्क में पैदा होती है। यदि इसकी सरीसृपों से तुलना की जाए तो भावनाओं का विकास, सामान्य हड्डियों वाले जन्तु का स्तनधारी के रूप में बदलने के समान होगा, जिनमें न्यूरोकेमिकल (उदाहरण के लिए डोपामाइन, नोराड्रेनेलिन और सेरोटोनिन) में मस्तिष्क की गतिविधि के स्तर के अनुसार उतार-चढ़ाव आता है जो कि शरीर के हिलने डुलने, मनोभावों तथा मुद्राओं में परिलक्षित होता है ।
उदाहरण के लिए प्यार की भावना को स्तनधारी के मस्तिष्क के पेलियोसर्किट की अभिव्यक्ति माना जाता है (विशेष रूप से सिंगुलेट जाइरस मॉड्यूल की), जिससे देखभाल, भोजन कराने और सौन्दर्य जैसी भावनाओं का बोध होता है। पेलियोसर्किट शारीरिक भावनाओं को तंत्रिकाओं द्वारा प्रदर्शित करने का माध्यम है जो बोलने के लिए बनी कोर्टिकल तंत्रिका से लाखों वर्ष पहले बनी थी। इसमें पहले से बने हुए रास्ते या मस्तिष्क के अगले हिस्से, ब्रेन स्टेम तथा मेरुरज्जु में तंत्रिका कोशिकाओं का जाल होता है। इनका उद्भव क्रियाएँ नियंत्रित करने के लिए स्तनधारियों के पूर्वजों से भी पहले हुआ है लगभग जबडेरहित मछली के समय के आस-पास माना जाता है कि स्तनधारी के मस्तिष्क के विकसित होने से पहले, जानवरों की जिन्दगी, स्वचालित सचेत और नपी तुली थी । सरीसृपों का शरीर दृष्टि के संवेदी संकेतों, आवाज, स्पर्श, रसायन, गुरुत्वकार्षण के प्रति, पूर्व निर्धारित शरीर क्रियाओं और मुद्राओं के साथ प्रतिक्रिया करता है। इसके अन्तर्गत दो दृष्टिकोण शामिल हैं—
(i) प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स—इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि बांया प्रीफ्रटल कोर्टेक्स उस उत्तेजना से क्रियाशील होता है जो सकारात्मक सोच से उत्पन्न होती है। यदि आकर्षक उत्तेजना मस्तिष्क के कुछ चुने हुए हिस्से को सक्रिय कर पाए तो तर्क पूर्ण ढंग से उल्टा होना चाहिए अर्थात् अधिक सकारात्मक ढंग से निर्णय लेने के लिए मस्तिष्क के उस हिस्से की चुनिंदा क्रियाशीलता की उत्तेजना उत्पन्न करनी चाहिए। इसका प्रदर्शन माध्यम आकर्षण वाले उत्तेजक दृश्यों के साथ किया गया था और बाद में इसका विस्तार करके नकारात्मक उत्तेजना को शामिल करके इसे दोहराया गया ।
प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स में न्यूरोबायोलॉजिकल मॉडलों ने भावनाओं के दो विपरीत परिणाम बताए। वैलेंस मॉडल ने भविष्यवाणी की कि गुस्सा, जो एक नकारात्मक भावना है दाहिने प्रीफंटल कोर्टेक्स को क्रियाशील करेगा। डायरेक्शन मॉडल ने भविष्यवाणी की कि गुस्सा, एक दृष्टिकोण की भावना है अतः यह बाएँ प्रीफंटल की क्रियाशील करेगा। दूसरे मॉडल का समर्थन मिला हालांकि अभी भी कई सवाल अनुत्तरित है।
(ii) होम्योस्टेटिक भावनाएँ–एक और स्नायुविक दृष्टिकोण हैं, जो 2003 में बड क्रेग द्वारा वर्णित किया गया, भावनाओं की दो श्रेणियों के बीच का अन्तर बताता है। “प्राचीन भावनाओं” में वासना, क्रोध और डर शामिल हैं और वे वातावरण के उन कारकों से उत्पन्न होते हैं जो हमें प्रेरित करते हैं। (उपर्युक्त उदाहरणों में मैथुन/हिंसा/भागना) “होम्योस्टेटिक भावनाएँ” शरीर की आन्तरिक अवस्था द्वारा उत्पन्न भावनाएँ हैं जो हमारे व्यवहार को व्यवस्थित करते हैं। प्यास, भूख, गर्म या ठंडा अनुभव करना (आन्तरिक तापमान) नींद से वंचित महसूस करना, नमक खाने की इच्छा तथा हवा की इच्छा, ये सभी होम्योस्टेटिक भावनाओं के उदाहरण हैं। इनमें से प्रत्येक शारीरिक प्रणाली द्वारा दिया गया संकेत है जो कहता है कि “सब कुछ ठीक नहीं है। पियो/खाओ/छाया में जाओ / कुछ गरम पहनो/सो जाओ/नमकीन टुकड़ा चाटो/सांस लो” इसमें से किसी भी प्रणाली का सन्तुलन खराब होने पर हम होम्योस्टेटिक भावना का अनुभव करने लगते हैं और यह भावना हमें वही कराती है जो उस प्रणाली का सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है। दर्द एक होम्योस्टेटिक भावना है जो हमें बताती है “सब कुछ ठीक नहीं है, पीछे हटो और बचो।”
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