“शिक्षा राष्ट्रीय विकास का महत्त्वपूर्ण कारक है।” इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए ।
“शिक्षा राष्ट्रीय विकास का महत्त्वपूर्ण कारक है।” इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए ।
अथवा
शिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास में सम्बन्ध बताइये ।
उत्तर— शिक्षा एवं राष्ट्रीय विकास–“शिक्षा स्वयं में विनियोग है।” वर्तमान अर्थतंत्र में शिक्षा मात्र सुसंस्कृत, सदाचरण का स्रोत नहीं है वह राष्ट्र एवं व्यक्ति की आर्थिक उन्नति का आधार भी है। पर्याप्त भूमि अच्छी भौगोलिक परिस्थितियाँ होने पर भी यदि किसी देश के व्यक्ति प्रशिक्षित एवं कुशल हो तो उस देश की आर्थिक उन्नति निश्चित है। ‘मानव को पूँजी’ (Human Capital) के रूप में मानने का विचार जब से प्रचार में आया है शिक्षा के प्रतिफल पर भी चिन्तन किया जाने लगा है। जिस अनुपात में शिक्षा पर व्यय किया जाता है उसी अनुपात में प्रतिफल भी प्राप्त होता है या नहीं यह शोध का विषय बन गया है। वर्तमान युग में शिक्षा के आर्थिक पहलू को जानने के लिये अनेक अनुसंधान किये जा रहे हैं। इन सभी शोध कार्यों ने शिक्षा से मिलने वाले आर्थिक प्रतिफलों ( Economic Returns) को स्पष्ट किया है। यह निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि शिक्षा व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में, प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में उत्पादकता को बढ़ाती है ।
शिक्षा न केवल उत्पादकता की बढ़ोतरी द्वारा राष्ट्रीय विकास को गति प्रदान करती है अपितु व्यक्तियों में श्रम के प्रति निष्ठा का भाव भी उत्पन्न करती है तथा ‘श्रम संस्कृति’ को विकसित करती है। राष्ट्रीय विकास में शिक्षा की दोहरी भूमिका है। राष्ट्र के मूल आधार भारतीय संस्कृति को बनाये रखना तथा राष्ट्र की देह भौतिक संस्कृति को विकसित करना। इस समय देश में आवश्यकता है तकनीकी व व्यावसायिक शिक्षा पर व्यय करने की। सामान्य शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ कौशलों (Skills) को विकसित करना होगा जिससे साधनों के कुशल उपयोग के, लिये मानवीय शक्ति तैयार की जा सके।
बर्ट्रेण्ड रसेल ने शिक्षा से सम्बन्धित तीन सिद्धान्तों का उल्लेख किया है—
प्रथम—व्यक्ति को सुविधाएँ प्रदान करना तथा उसके जीवन की बाधाएँ दूर करना ।
द्वितीय—शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाती है तथा उसकी योग्यताओं का अधिकतम विकास करती है ।
तृतीय—शिक्षा का लक्ष्य सुनागरिक तैयार करना है।
इन तीनों अर्थों में ही शिक्षा विकास की प्रक्रिया है। शिक्षा के कार्यों का विवेचन करते समय अध्ययन कर चुके हैं कि शिक्षा व्यक्ति व समाज दोनों के लिये आवश्यक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा राष्ट्रीय विकास के लिये है। हमारी शिक्षा की सभी नीतियों, समितियों तथा आयोगों ने शिक्षा को राष्ट्रीय विकास के लिए स्वीकार किया है। विधिवत् नीति के रूप में स्वीकार की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में प्रस्तुत की गई ।
विकास हेतु शिक्षा आधारभूत कारक है। मानव पूँजी में निवेश किये बिना कोई भी राष्ट्र धारणक्षम विकास प्राप्त नहीं कर सकता। शिक्षा व्यक्ति की स्वयं के प्रति एवं विश्व के प्रति समझ-बूझ विकसित करती है। यह व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करती है जिससे व्यक्ति एवं समाज दोनों लाभान्वित होते हैं। शिक्षा व्यक्तियों में उत्पादन क्षमता बढ़ाती है, सृजनात्मकता में वृद्धि करती है, तकनीकी उन्नति की ओर ले जाती है। साथ-साथ शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका सामाजिक उन्नति एवं आर्थिक विकास से आय में वृद्धि करने में भी है। शिक्षा का अर्थशास्त्र एक नवीन विषय के रूप में उभर कर आया है जिसमें ‘मानव पूँजी’ के सिद्धान्त का विकास हुआ है। इस धारणा में यह स्वीकार किया गया है है कि शिक्षा एक निवेश है जिसका आय-लाभ के पैमाने पर मापन किया जा सकता है। मानव-पूँजी का वर्गीकरण व्यवसाय और शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर भी किया जाने लगा।
किसी भी राष्ट्र का अर्थपूर्ण विकास एवं वृद्धि सुदृढ़ शैक्षिक नियोजन के बिना संभव नहीं है । शिक्षा एक ऐसी शक्ति है जिसका प्रभाव सकारात्मक मानवीय विकास के रूप में दिखाई देता है।
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