मौर्यकालीन मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों एवं विशेषताओं का वर्णन करें ?
मौर्यकालीन मूर्तिकला के विशिष्ट लक्षणों एवं विशेषताओं का वर्णन करें ?
(40वीं BPSC/1995 )
अथवा
प्राप्त मौर्यकालीन मूर्तिकला के उदाहरणों के साथ इनके विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर– मौर्य-काल को ‘भारतीय कला के इतिहास’ का प्रारंभ माना जाता है। इस काल में मूर्तिकला का काफी विकास हुआ। मनुष्याकार मूर्तियों की रचना होने लगी थी। आगरा-मथुरा के मध्य परखम ग्राम में एक 7 फीट ऊंची मूर्ति मिली है जो भूरे बलुए पत्थर की है। यह मूर्ति वस्त्र धारण किए हुए है जो मौर्यकालीन वेश-भूषा को प्रदर्शित करती है।
पटना के दीदारगंज से प्राप्त यक्षिणी की मूर्ति जिसकी भव्यता और सौन्दर्य अपूर्व है। इसे ‘स्त्रीरत्न’ का नाम दिया जाता है । यह भूरे रंग के बालू के पत्थर से बनी है तथा इस पर मौर्यकालीन पॉलिश का भी उत्तम प्रयोग हुआ है। दीदारगंज से ही एक स्त्रीमूर्ति ‘चंवर’ मिली है जो 5.5 फीट ऊंची है एवं बलुए पत्थर से निर्मित है तथा ‘दीदारगंज यक्षी’ की तरह ही इसमें स्त्री के शरीर की एक आदर्श काल्पनिक प्रस्तुति है, ये प्रस्तुति उस काल खंड के समाज के खुले विचार को भी प्रदर्शित करती है।
मौर्यकालीन मूर्तियों पर धार्मिक प्रभाव स्पष्ट दिखता है। पटना के लोहानीपुर से दो नग्न – शरीर पुरुषों की मूर्ति प्राप्त हुई है जो संभवतः जैन तीर्थंकरों का है। इनका निर्माण भी जैन शैली की ‘कायोत्सर्ग मुद्रा’ में हुआ है। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म संबंधी मूर्तियों का निर्माण नहीं हुआ।
अशोक स्तंभ के शीर्ष पर बने पशुओं की आकृति मौर्यकालीन मूर्तिकला का एक रूप है। इसमें ‘सिंह’ का प्रयोग हुआ है लेकिन रामपूर्वा से प्राप्त स्तंभ पर ‘सांड़’ की आकृति बनी है। सिंह की बनावट पर विदेशी प्रभाव देखे जा सकते हैं मगर सांड़ के बनाने के ढंग में स्थानीय कला का प्रयोग हुआ है।
अतः मौर्यकालीन मूर्तिकला उस काल के अन्य कलाओं एवं स्थापत्यों की भांति ही समृद्धता के उत्कृष्ट स्तर पर थी। ये मूर्तियां भारतीय इतिहास में तीव्र जिज्ञासा एवं आकर्षण पैदा करने वाली हैं।
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