उदारवाद से आप क्या समझते हैं ? उदार नारीवाद की व्याख्या कीजिए ।

उदारवाद से आप क्या समझते हैं ? उदार नारीवाद की व्याख्या कीजिए ।

उत्तर – उदारवाद (Liberalism)–उदारवाद सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विचार प्रचलित हैं। उदारवादी का घर इंग्लैण्ड रहा है और इंग्लैण्ड में उदारवाद का उदय अनुदारवाद का विलोम तथा प्रगति और  परिवर्तन का पर्यायवाची मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं है कि जब अनुदारवादी ब्रिटेन में लम्बे समय से चली आ रही राजनीतिक, धार्मिक संस्थाओं, परम्पराओं और रूढ़ियों को बनाये रखना चाहते थे उस समय उदारवाद के द्वारा सुधार परिवर्तन और प्रगति का समर्थन किया।
भारत में उदार नारीवाद-नए शिक्षित वर्ग ने भारतीय समाज में सुधार एवं उदारवाद का सक्रिय नेतृत्व किया है। एक ओर से इस बौद्धिक वर्ग को उन अंग्रेजों का सामना करना पड़ा जो सामाजिक बुराइयों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समाज में कायम रखना चाहते थे तथा दूसरी ओर उन्हें समाज में व्याप्त रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी प्रणाली एवं सामाजिक संस्थाएँ जिन मूल्यों पर आधारित थी, उन मूल्यों का अध्ययन करके भारत में नए सुधारों की योजना बनाई तथा उन्हें हासिल करने के लिए संघर्ष का सूत्रपात किया ।
महिला कार्यकर्त्ताओं का उदारवादी समूह– जाग्रत वर्ग के प्रयत्न से कर्त्तव्यनिष्ठ उदारवादी महिला कार्यकर्त्ताओं के समूह का भारतीय मंच पर प्रवेश भारतीय इतिहास में अद्वितीय घटना है। जाग्रत वर्ग ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारतीय महिलाओं के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। कितनी ही प्रतिभाशाली महिलाओं ने महिला संगठन एवं संस्थाएँ शुरू कीं, महिलाओं की उन्नति के लिए विविध प्रयास किए और नवीन भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक निर्माण की नूतन सेनानी बनीं ।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम तथा किसानों के संगठन के क्रियाकलापों के प्रभाव महिला जीवन पर पड़े बिना न रहा। इन संघर्षों से प्रेरित होकर महिलाएँ घर की चारदीवारी से बाहर निकली और उनका मानस विकसित हुआ। भारतीय इतिहास के निरीक्षण मात्र से यह स्पष्ट मालूम होता है कि वेदकाल से लेकर 18वीं सदी तक का कोई काल ऐसा नहीं था जब इतनी अधिक संख्या में महिलाएँ घर से बाहर निकली हो । जो महिलाएँ व्यक्तिगत या निजी कार्यों के लिए, किसी बीमार रिश्तेदार को देखने के लिए सगेसम्बन्धी, नातेदारों के यहाँ प्रभु प्रसंग के अवसर पर ही घर से बाहर निकला करती थी, वहीं अब घर से बाहर निकलकर अपनी शक्ति आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक संघर्षों में लगाने लगी ।
व्यावहारिक दृष्टि से महिला के जीवन में बहुत चमत्कारी परिणाम शायद दिखाई न पड़े, किन्तु इतना तो निस्संकोचता से कहा जा सकता है कि महिलाओं के स्थान एवं स्थिति के सम्बन्ध में समाज की विचारधारा में निश्चय ही परिवर्तन हुआ है। नए जमाने की महिला बीते युग की महिला की तरह न तो अब ‘नर्क की खान’ रही है, न संतानोत्पति का यंत्र और न ही पुरुष को नैतिक मार्ग से च्युत करने वाला प्रलोभन । आज की भारतीय महिला समाज के लिए उपयोग, मानवता की भावना से भरपूर पुरुष के समकक्ष है, ऐसी भावना विकसित हो रही है ।
महिलाओं के नये रूप का उदय / विकास– पारिवारिक गतिविधियों में महिलाओं की रुचि अधिक मुखरित हो उठी है। राष्ट्रीय संघर्ष में सदियों से पर्दे की चारदीवारी से घिरी हुई महिलाओं ने अपना योगदान दिया। आधुनिक महिला लाठियों का प्रहार सहन करती है गोलियाँ की बौछारें सीने पर झेलती है तथा जेलयात्रा भी करती है। इन घटनाओं को देखते हुए युद्ध के नाजुक पलों में महिलाओं से सहयोग की अपेक्षा रखी जाती है। राष्ट्रीय संकट के समय महिला केवल अपने संकुचित जीवन में ही ओत-प्रोत रहे ऐसी अपेक्षा अब नहीं रखी जाती, परिवार के अतिरिक्त मनुष्यों के प्रति भी उनका कर्त्तव्य है ऐसी भावना अब अधिक दृढ़ होती जा रही है। इंग्लैण्ड के आंदोलन में स्ट्रेची के विचार भारतीय परिस्थिति पर उतने ही सही उतरते हैं। उनका कहना है कि “महिला संस्थाओं की व्यापकता और सफलता इतनी प्रभावकारी सिद्ध हुई कि सन् 1890 तक जो धनिक महिलाओं में परोपकारी संस्था से सम्बन्ध स्थापित करना अनिवार्य फैशन-सा हो गया था। जो महिलाएँ अधिक विचारशील थी, वे गम्भीरतापूर्वक और संगठित ढंग से कार्य में समय व्यतीत करने लगी ।
″ सामाजिक जागृति का विस्तार – यह समय की बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है कि महिलाओं को परिवार एवं जाति से परे एक विशाल दूरदृष्टि प्राप्त हुई, जो महिलाएँ निष्काम, कर्मठ, वृद्धा आश्रम, रामकृष्ण मिशन, भूदान की गतिविधियों में या अन्य ऐसी किसी गतिविधि में सक्रिय रूप से अपने जीवन का अधिकांश समय निष्ठापूर्वक अर्पित करती है, उनसे यह प्रतीत होता है कि भारत में महिला एक नए स्वरूप में ही अवतरित हुई हैं, बहुत सी महिलाएँ हैं जो सांसारिक, सामाजिक, राजनीतिक, या किसान मजदूरों के आन्दोलन में ही तल्लीन रहती हैं। इसके पहले महिलाएँ धार्मिक क्षेत्र में भिक्षुणी या सन्यासिनी के रूप में जीवन का अधिकांश समय व्यतीत करती थी, किन्तु सामाजिक क्षेत्र में जीवन व्यतीत करने की घटना तो वर्तमान समाज का विशिष्ट लक्षण है। एक विद्वान इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि ‘महिलाएँ अब धीरेधीरे यह समझने लगी हैं कि मानव के रूप में उनका व्यक्तित्व है, मात्र अच्छी, कुशल पत्नी या बुद्धिमान माता बनने से ही जीवन का कार्य परिपूर्ण नहीं हो जाता, वे नागरिक समुदाय तथा राज्य की भी सदस्य है ऐसी प्रतीति उन्हें हो गई है । ‘
सामाजिक जीवन में सक्रिय योगदान–हजारों महिलाओं का बाह्य कार्यों में गंभीरतापूर्वक सक्रिय योगदान इस नए सामाजिक परिवर्तन का प्रतिबिम्ब है । अंग्रेजी शासन काल में छिछोरी तथा भड़कीली वेशभूषा एवं आभूषणों से लदी-फदी तथा पश्चिम के बाह्य रंग-ढंग का अंधा अनुकरण करने वाली महिलाएँ दिखाई पड़ती हैं। ये नई शैली की महिलाएँ संस्कार की दृष्टि से पिछड़े वर्ग की महिलाओं तथा दलित, दीन-दुखी महिलाओं को घृणा या नफरत की नजर से देखती है। अंग्रेजी शासन की सीधी, स्पष्ट प्रतिक्रिया के कारण बंगाल में “यंग बंगाल’ के प्रवाह से वहाँ का युवा वर्ग प्रभावित हुआ । जो मात्र मांस, मदिरा और सामिष भोजन को ही ब्रिटिश शासन के अनुकरणीय तत्त्व समझते थे। उन्हें ब्रिटिश शासन की वास्तविक प्रतिक्रिया का प्रतिबिम्ब नहीं कहा जा सकता है। उसी प्रकार ये छिछोरी महिलाएँ भी नए नारीत्व का प्रतिबिम्ब
नहीं कही जा सकती है। इसीलिए महिलाओं को एक संस्था ने अपने प्रस्ताव में घोषित किया— “हम न तो कोई अमृत अप्सराएँ हैं, न गुडिया और न ही आवेग और भावना से बंधी हुई गठरी ही हैं। हम भी पुरुषों के समान ही मानव है और हममें भी स्वतंत्रता की वैसी ही लगन हैं।” अभी तक सेवा का अर्थ मात्र पति, श्वसुर पक्ष या आतथि की सेवा से ही जोड़ा जाता था। नए मूल्यों तथा नई दृष्टि के कारण सेवा का अर्थ ही बदल गया। पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी इस सत्य की प्रतीति होने लगी कि महिलाओं के जीवन का चरम हेतु प्रेम करने में, पति के पति कर्तव्य पालन में, संतानोत्पति या घरेलू कार्य तक ही सीमित नहीं है। अपितु उनके जीवन का ध्येय उससे गंभीर तथा उच्च है।
संविधान प्रदत्ता समानता— नई परिस्थितियों तथा बलों के कारण महिलाओं के बारे में लोगों के विचार बदलते जा रहे हैं। उनके कार्य क्षेत्र की कल्पना परिवर्तित होती जा रही है और उनके कर्त्तव्यों का नया मूल्यांकन किया जा रहा है। भारतीय महिला की प्रगति की चरम सीमा संविधान के अंतर्गत मान्य समानता है। भारत के नए संविधान में महिला और पुरुषों की सब क्षेत्रों में समानता स्वीकार की गई है, धर्म, जाति, वंश, कौम, स्थान या ऐसे किसी कारण से राज्य में नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं रखा जाएगा। राज्य की किसी नौकरी के लिए या पद के लिए सब नागरिकों को समान अवसर दिया जाएगा, ऐसी घोषणा की गई है। भारतीय महिला कानून की दृष्टि से आज पुरुष के समान है और यह कोई साधारण सफलता नहीं है। कानून की धाराओं में मानव जाति के दोनों भागों के प्रति सामान्य मानवीय दृष्टिकोण अपनाया गया है, इसमें चिन्तक मिल का कहना है कि जैसे एक लड़के की गिनती होती है उसी प्रकार से लड़की की गिनती होगी ऐसी मान्यता को समाज स्वीकार करता है। यह वर्तमान युग के दूरदर्शी परिवर्तन का सूचक है क्योंकि इस परिवर्तित कल्पना पर ही अन्य परिवर्तन आधारित हैं ।
भारत में उग्र नारीवाद—अन्य देशों में महिलाओं की स्थिति और कार्य में जो रुख दिखाई पड़ता है उससे मिलता-जुलता रु भारत में दृष्टिगोचर होता है। सरकारी अधिकारी, सचिव, मंत्रीगण, कार्यकर्त्ता तथा शिक्षाविद् यही प्रचार करते हैं कि महिला का मुख्य कार्य संतानोत्पत्ति तथा पति सेवा है। श्रीमती नाथी बाई दामोदर ठाकरानी यूनिवर्सिटी को अन्य विश्वविद्यालयों के समकक्ष घोषित करते समय विधानसभा में बी.जी. खेर ने कहा था— “मेरी दृष्टि से घर की व्यवस्था, बच्चों का पालन पोषण तथा वर्तमान उपलब्धियों को सरलता से घर आँगन तक पहुँचाने मात्र बौद्धिक श्रम की ही आवश्यकता नहीं होती वरन् निरन्तर सेवा की आवश्यकता होती है जो अप्रतिम प्रतिभा का ही दूसरा नाम है। ऐसे क्षेत्र में महिला अभूतपूर्व शक्ति का परिचय देती है। मेरा ऐसा मत है कि रसोई तथा गृह-व्यवस्था जैसे कार्यों में पुरुषों को भी हाथ बँटाना चाहिए जिससे यह विश्वास पैदा हो सके कि पुरुष वर्ग इस कार्य को निम्न या दूषित नहीं गिनते।”
महिला शिक्षा के बारे में नियुक्त राष्ट्रीय समिति के विवरण में राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं कि, “गृह सर्जन महिला का सर्वोच्च व्यवसाय है और वह व्यवसाय चलता ही रहेगा ऐसी पूरी संभावना है, किन्तु उसके विश्वास को मात्र इस सम्बन्ध तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए।”
दिल्ली विश्वविद्यालय ने कुछ वर्ष एक आदेश जारी किया था कि कॉलेजों में विवाहित महिलाओं की नियुक्ति नहीं की जाएगी। इस आदेश के संदर्भ में इंडियन रिव्यू” ने टिप्पणी की थी—” यूनिवर्सिटी अधिकारियों ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि विवाहित महिलाओं के धंधे में एकनिष्ठ ध्यान केन्द्रित करना असंभव है तथा यूनिवर्सिटी को अधिक संख्या में महिला प्राध्यापकों के एक साथ प्रसूति अवकाश लेने से अपने को बचाना पड़ेगा।” यह स्पष्टीकरण तो आदेश से भी अधिक हानिकारक है क्योंकि यह एक ऐसे तर्क की पुष्टि करता है जिसके आधार पर किसी व्यवसाय तथा काम धंधे में महिलाओं पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है ।
अतः देखा जाए तो ये सब प्रवाह महिलाओं को पराधीनता की ओर ढकेलते हैं। इसकी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि प्रतिक्रिया के नए स्वांग की ओर आकर्षित होकर महिलाएँ स्वयं इसका शिकार बन जाती हैं। महिलाएँ स्वयं मान लेती है कि उन्हें घर में ही रहना चाहिए, पति की सुविधाओं का ख्याल रखना चाहिए तथा बालकों की देखभाल करनी चाहिए, इसके अतिरिक्त उनका कोई कर्त्तव्य नहीं है ।
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