जेण्डर की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए एवं इसकी आवश्यकता का वर्णन कीजिए।
जेण्डर की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए एवं इसकी आवश्यकता का वर्णन कीजिए।
उत्तर— दोषी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है—यहाँ हम आपको दिन-प्रतिदिन की कुछ घटनाओं के विषय में जानकारी देते हैं। क्या इन घटनाओं से हमें कहीं कुछ आश्चर्य होता है ? जैसे लोग कहते हैं—
(i) अरे देखो यह व्यक्ति किस तरह स्वेटर बुन रहा है, जैसे कि वह कोई औरत है।
(ii) वह बालिका है, और देखो किस तरह गाड़ी चला रही है।
(iii) महेन्द्र को देखो! एक गृहिणी की तरह दिनभर खाना पकाना और कपड़े धोने का काम करता है।
ऊपर जो दृष्टान्त हमने दिये हैं वे विस्मयकारी हैं। ऐसी कौनसी बात है कि आदमी स्वेटर नहीं बुन सकता। एक लड़की साइकिल क्यों नहीं चला सकती और इससे आगे ऐसी कौनसी बात है कि पुरुष खाना नहीं बना सकता। ये सभी तथ्य बताते हैं कि हमारी संस्कृति में लिंग के आधार पर काम का बँटवारा किया जाता है। ऐसा समझा जाता है कि लिंग के कारण पुरुष के कार्य अलग होते हैं और स्त्री के अलग। अगर हम अंग्रेजी शब्दकोष को खोलें तो इसमें एक नया शब्द जेंडर देखने को मिलता है। इसका अर्थ होता है ‘आदमी होना या स्त्री होना ।’ बहुत स्पष्ट है कि जेण्डर शब्द आज के समाज और ज्ञानधाराओं में विशेष करके काम में आता है। देखा जाय तो जेण्डर का अर्थ पुरुष या स्त्री से नहीं है। आज की अवधारणाओं में इसका एक खास अर्थ दिया जाता है। जेण्डर शब्द का अर्थ है औरत तथा मर्द तथा इन दोनों को सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से कैसे देखा जाता है।
औरतों की अधीनता की स्थिति का जिम्मेदार उनके शरीर को मानने की आम सोच से निपटने के लिये जेण्डर की अवधारणा को रखा जाता है। वर्षों से हम यह मानते आ रहे हैं कि औरतों की जो भूमिकाएँ हैं, चारित्रिक विशेषताएँ हैं, उसका कारण उनकी जैविकियता तथा उनके शरीर द्वारा निर्धारित होता है। अगर मान लें कि अपने शरीर की वजह से स्त्री-पुरुष में अन्तर और ऊँच-नीच है तो स्त्री-पुरुष की असमानता सामान्य और प्राकृतिक बन जाती है। उसे दूर करने के लिये कुछ करने की जरुरत भी नहीं समझी जाती। इसलिये लिंग या शारीरिक लिंग एक बात है और जेण्डर बिल्कुल अलग ।
कहा जाता है कि लड़की को लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिये । उसके खिलौने अलग होते हैं और लड़कों के अलग। शुरू से ही लड़की को यह समझाया जाता है कि उसके सिर के बाल गहने हैं। जन्म के समय से ही लड़के और लड़कियों को उनके अलग-अलग रूप में ढालने की जो सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया होती है, उसे जेण्डरीकरण कहा जाता है।
समाजशास्त्र में जेण्डर की अवधारणा को प्रस्तुत और विकसित करने में ऐन ओकली का योगदान बहुत बड़ा है। वे लिखती हैं-
जेण्डर का सम्बन्ध संस्कृति से है। उसका तात्पर्य उन सामाजिक श्रेणियों से है जिनमें मर्द औरतें पुरुषोचित और स्त्रियोचित रूप ले लेते हैं। पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मानदण्ड संस्कृति होता है।
सन् 1970 के दशक में समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह स्वीकार किया गया कि समाज में जेण्डर का अस्तित्व है और यह माना गया कि इन दोनों में अन्तर केवल लिंग का ही नहीं है, सामाजिक और सांस्कृतिक है। इस तरह के अध्ययन हमारे सामने आये जो बताते हैं कि लड़के और लड़की का समाजीकरण विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा किया जाता है। संरचनात्मक दृष्टि से यह तथ्य भी सामने आया कि घर के काम-काज में भी पुरुषों से पुरुषोचित काम लिया जाता है और स्त्रियों से स्त्रियोचित । वास्तव में समाजशास्त्रियों ने जेण्डर की व्याख्या जैविकीय आधार पर नहीं की है। वह पुरुष और स्त्री को उनकी भूमिकाओं के आधार पर देखता है। दूसरे शब्दों में, जेण्डर की अवधारणा सामाजिक और सांस्कृतिक तर्ज पर बनायी गयी है। यौन और जेण्डर में बुनियादी अन्तर यह है कि यौन का निर्धारण जैविकीय लक्षणों से होता है और जेण्डर का निर्धारण सामाजिक और सांस्कृतिक लक्षणों पर है। उदाहरण के लिए खेल के मैदान में लड़का गिर पड़ता है, उसके घुटनों में चोट आती है। उसे प्राथमिक उपचार देने के बजाय उसके साथी खिलाड़ी कहते हैं—“अरे, कैसा लड़का है जो लड़कियों की तरह रो रहा है। जाओ और इसके लिये चूड़ियाँ ले आयो।” खिलाड़ी लड़का चिल्लायेगा क्यों नहीं, उसे चोट लगी है लेकिन उसका व्यवहार समाज सोचता है पुरुषोचित नहीं है। जब कोई लड़की गन्दी गालियाँ देती है तब लोग कहते हैं—कैसी लड़की है जो लड़कों की तरह गन्दी गालियाँ देती है। इस तरह के व्यवहार समाज द्वारा अस्वीकार किये जाते हैं। इसी कारण समाज यह मानकर चलता है कि लड़कों में साहस होता है और उनमें ताकत होती है और वे स्वतन्त्र होकर काम कर सकते हैं। दूसरी ओर लड़कियाँ भीरू होती हैं, कमजोर होती है और दूसरों पर निर्भर रहती है।
यूरोप में 19वीं सदी के अन्त तथा 20वीं सदी प्रारम्भ में नारी मुक्ति के आन्दोलन आजादी की लड़ाई में बहुत साधारण था। अधिक-से-अधिक यह हुआ है कि राष्ट्रीय नेताओं की अगुवाई में स्त्रियों ने इस लड़ाई में अपनी भागीदारी की। कुछ उच्च और मध्यम वर्ग की स्त्रियों ने शिक्षा भी प्राप्त की। संविधान लागू होने के बाद जब यह घोषित हुआ कि राज्य व्यक्तियों में जाति, लिंग और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा, तब नारी मुक्ति के लिये आन्दोलन चले। दरअसल में भारतीय स्त्रियों की बहुत बड़ी समस्या यह है कि पुरुषों की तुलना में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। अब यह बराबर कहा जाने लगा है कि समाज में पुरुष और स्त्री समान हैं— पुत्र और पुत्री समान हैं और इनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाना चाहिये ।
जेण्डर की आवश्यकता – उपर्युक्त वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि आज जेण्डर की समझ प्रत्येक व्यक्ति को होनी चाहिए, इसलिए इसकी समझ, आवश्यकता एवं महत्त्व विद्यालयों में अधिक है।
ऐन ओकली जेण्डर की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि जेण्डर और कुछ न होकर एक सांस्कृतिक अवधारणा है। उनका निष्कर्ष है —
(i)जेण्डर भूमिकाएँ जैविकीय न होकर सांस्कृतिक होती है।
(ii)विभिन्न समाजों की तो तथ्य सामग्री हमें प्राप्त है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि बच्चों के प्रजनन का कार्य ही ऐसा है जिसे केवल स्त्रियाँ करती है और दूसरे सब काम स्त्रियाँ भी कर सकती है।
(iii) स्त्रियों में जो जैविकीय लक्षण है वे उन्हें कभी भी किसी भी व्यवसाय को करने से रोकते नहीं है।
(iv) हमें जो सामग्री प्राप्त है, उसके आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि माँ जिस भूमिका को करती है उसे पिता भी कर सकता है।
कुल मिलाकर ऐन ओकली (1974) इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि लिंग और जेण्डर-दोनों अलग-अलग है। यह जेण्डर ही है जो पुरुष और स्त्री को विभिन्न भूमिकाएँ प्रदान करता है।
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