ज्ञान के स्रोतों की क्या आवश्यकता है ? अनुभव जन्य प्रायोगिक ज्ञान की उपयुक्त उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
ज्ञान के स्रोतों की क्या आवश्यकता है ? अनुभव जन्य प्रायोगिक ज्ञान की उपयुक्त उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
अथवा
ज्ञान के स्रोतों से आपका क्या अभिप्राय है ? अनुभवजन्य ज्ञान (प्रायोगिक ज्ञान) की उदाहरण सहित विवेचना कीजिए|
अथवा
ज्ञान प्राप्त करने की विधियों को विस्तारपूर्वक समझाइये ।
अथवा
ज्ञान के स्रोतों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- ज्ञान के स्रोत
(1) प्राथमिक स्रोत-इस प्रकार के स्रोतों के अन्तर्गत वे स्रोत आते हैं जो सर्वप्रथम हमारे सामने सूचनाओं को उपस्थित करते हैं। प्राथमिक स्रोत के माध्यम से प्राप्त सूचनाएँ पूर्णतया हमारे द्वारा सूचनाओं को पहचानने एवं समझने की योग्यता पर आधारित होती हैं इसी कारण इस प्रकार के स्रोत बहुत ज्यादा विश्वसनीय नहीं होते।
यदि इन स्रोतों से प्राप्त ज्ञान का परीक्षण करके इसे शुद्ध न किया जाए तो ज्ञान की प्रकृति दूषित होने की सम्भावना रहती है। प्राथमिक स्रोत के रूप में इन्द्रियों को सम्मिलित किया जा सकता है। जैन दर्शन दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शनमैदान में इन्द्रियों को प्राथमिक साधन के रूप में माना गया है। अद्वैत वेदान्त ने इन्द्रियों को बाह्य साधन माना है।
(2) द्वितीयक स्रोत-प्राथमिक स्रोत के विपरीत द्वितीयक प्रोत ‘अन्तर्गत निम्नलिखित स्रोतों को सम्मिलित किया जा सकता है जो कि निम्नलिखित
(I), सत्तात्मक स्रोत इसके अन्तर्गत प्रामाणिक पुस्तकों, वेदाँ, साहित्यों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रन्थों एवं पुस्तकों को सम्मिलित कि जाता है। इनसे प्राप्त ज्ञान को प्रामाणिक ज्ञान माना जाता है। इस प्रकार के ज्ञान वैध एवं विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इनको काफी तर्क एवं सोच समझकर इसमें सम्मिलित किया जाता है।
इस प्रकार के स्रोतों में प्रामाणिकता का मुख्य आधार इसमें व्याप्त मूल्य एवं उद्देश्यों की स्पष्टता होती है। इस प्रकार के साधनों के अन्तर्गत ही विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों को भी सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि ये पुस्तकें एवं इसमें निहित ज्ञान भी समुचित चिन्तन-मनन के बाद ही विषय-वस्तु के रूप में सम्मिलित किया जाता है।
(II) अप्रामाणिक स्रोत-इस प्रकार के द्वितीयक स्रोत के अन्तर्गत उन स्रोतों को सम्मिलित कर लिया जाता है जो कि ज्ञान तो प्रदान करते हैं पर इनके प्रामाणिक होने की संभावना अधिक नहीं होती। इस प्रकार के स्रोतों से एकत्रित सूचनाओं की जाँच पड़ताल करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के स्रोत के रूप में निम्नलिखित स्रोतों को शामिल किया जा सकता है—
(a) अनुभवजन्य ज्ञान अनुभव से प्राप्त ज्ञान हमारे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होते हैं। इसलिए इस प्रकार का ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ होता है। इसमें वस्तुनिष्ठता का अभाव हो सकता है। सहज प्रवृत्ति के अन्तर्गत व्यक्ति को स्वतः ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। जैसे—यदि किसी व्यक्ति के दाहिने हाथ पर कोई चींटी मंदगति से चल रही हो तो उसका बायाँ हाथ अपने आप उठकर चींटी को हटाने के लिए दाहिनी ओर चला जाता है। वहाँ पर मस्तिष्क कोई कारण नहीं होता तथा यह स्वाभाविक क्रिया का एक पक्ष होता है।
(b) इन्टरनेट से प्राप्त सामग्री-इंटरनेट से प्राप्त सभी प्रकार के ज्ञान को हम प्रामाणिक नहीं मान सकते
क्योंकि कई बार सूचनाएँ सही नहीं होती हैं। इसलिए इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत को सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद ही प्रामाणिक बनाया जा सकता है।
( 3 ) सामाजिक अन्तःक्रिया-ड्यूवी महोदय का मानना था कि “समाज में रहते हुए दूसरे व्यक्तियों के साथ अन्तः क्रिया करते समय भी ज्ञान का सृजन होता है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है—
(i) समाज (Society)
(ii) संस्कृति (Culture)
समाज के सदस्य एक-दूसरे के साथ अन्तःक्रिया करते समय कई प्रकार के नए ज्ञान का सृजन एवं पुराने ज्ञान का आदान-प्रदान करते रहते हैं। संस्कृति भी ज्ञान का एक विशाल भण्डार है जो किसी समाज की धरोहर के रूप में व्याप्त होती है।
(4) परम्पराओं एवं कथाओं से प्राप्त ज्ञान—इस प्रकार के ज्ञान को हम परम्पराओं के नाम पर प्रयोग तो कर रहे होते हैं पर इनका कोई स्पष्ट आधार न होने के कारण ये प्रामाणिक नहीं माने जा सकते। अन्धविश्वास, जादू, टोने-टोटके आदि को हम इसी वर्ग में सम्मिलित कर सकते हैं।
(5) अन्तः प्रज्ञा अथवा अन्तर्दृष्टि-इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत से प्राप्त ज्ञान संयोग एवं अत्यधिक बुद्धि का परिणाम होते हैं। ज्यादातर विद्वानों ने इस प्रकार के स्रोत को आध्यात्मिक स्रोत माना है इस प्रकार के स्रोत से प्राप्त ज्ञान का कोई स्पष्ट आधार नहीं होता है परन्तु इसकी सार्थकता इसके प्रयोग किए जाने की सम्भावना पर निर्भर होती है।
(6) अन्तर्राष्ट्रीय अन्तः क्रिया— सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अब अन्तःक्रिया होने लगी हैं। आधुनिकता के कारण इस प्रकार की अन्तःक्रिया अधिक बढ़ गई है। इसके कारण ज्ञान को संसार के एक कोने से दूसरे कोने में फैलाया जा रहा है।
( 7 ) तर्क-चिन्तन एवं बुद्धि–बुद्धि का प्रयोग करके तर्क चिन्तन के माध्यम से शुद्ध ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। तर्क के माध्यम से प्राप्त ज्ञान की यह विशेषता होती है कि या तो यह निगमन विधि पर आधारित होता है या आगमन-विधि पर आधारित होता है। आगमन विधि के अन्तर्गत अनुभवों का सामान्यीकरण किया जाता है अर्थात् किसी एक व्यक्ति या घटना के आधार पर ज्ञान को सही ज्ञान नहीं माना जाता बल्कि बहुत सारे व्यक्तियों के अनुभवों या एक जैसी बहुत सारी घटनाओं का अवलोकन करके उनमें व्याप्त सामान्य या एक जैसे ज्ञान को सही ज्ञान के रूप में स्थापित किया जाता है। विज्ञान के द्वारा प्रदान किए गए सभी ज्ञान इसी श्रेणी में आते हैं। आगमन विधि का प्रयोग करके भी ज्ञान स्थापित किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत तात्कालिक ज्ञान को तर्क के आधार पर सिद्ध किया जाता है। यदि ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध कर दी जाती है तब वह शुद्ध ज्ञान मान लिया जाता है यदि प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती है तो इसको निष्कासित कर दिया जाता है।
अनुभवजन्य/अनुभवसिद्ध ज्ञान—यह ज्ञान प्राथमिक इन्द्रियों जैसे-आँख (देखना), कान (सुनना), जीभ (स्वाद), नाक (सूँघना) एवं अनुभव आदि के माध्यम से प्राप्त होता है। कभी-कभी कुछ उपकरणों का प्रयोग हमारी इन्द्रियों के सहायक के रूप में किया जाता है। जैसेकम्प्यूटर काला है। अर्थात् अनुभवजन्य साक्ष्य, डाटा अथवा ज्ञान को इन्द्रियानुभव के रूप में भी जाना जाता है। यह ज्ञान अथवा ज्ञान के स्रोत का सामूहिक पद है जिसे इन्द्रिय माध्यमों की सहायता से अवलोकित अथवा प्रयोग किया जाता है।
अनुभववाद संवेदी धारणा/अनुभव एवं अवलोकन के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने का एक सिद्धान्त है। अनुभवजन्य ज्ञान प्रायः बाह्य अवलोकन; जैसे-दृष्टि, गन्ध स्पर्श एवं श्रवण द्वारा वर्णित होता है। अनुभवजन्य विधि वैज्ञानिक विधि के समरूप है परन्तु समान नहीं।
अनुभवजन्य ज्ञान प्राथमिकताओं का ज्ञान है जो कि जन्मजात विचारों पर केन्द्रित वाद-विवाद एवं अन्य एक जैसे विचारों जैसे कि सत्य, विश्वास एवं न्याय आदि पर आधारित है। जॉन लॉक का विश्वास है हमारे अनुभव हमें सरल एवं जटिल विचारों के साथ परिभाषित करते हैं। लॉक ने एक उदाहरण द्वारा समझाया है कि यदि कोई अपना हाथ आग से जला लेता है परन्तु वह भी बर्फ के एक ठण्डे टुकड़े पर, तब निष्कर्ष का एक प्रकार यह होगा कि यह गर्मी नहीं है जो जलने का कारण है बल्कि तापमान में अन्तर है। इस प्रकार लॉक का विचार है कि सरल संवेदना एवं अनुभव आधारों के लिए अमूर्त विचारों की आवश्यकता होती है।
लॉक का मानना है कि ज्ञान विभिन्न प्रकार के विचारों की तुलना से भी प्राप्त किया जा सकता है। वे मानते हैं कि काले का विचार सफेद रंग के साथ विपरीत हो सकता है और अन्य विचार जिनका एक साधारण स्रोत होता है जैसे कि प्रकाश एवं आग जो एक साथ चलते हैं। ये सभी सूचनाएँ ज्ञान निर्माण के तरीके हो सकते हैं। लॉक का विचार है कि ज्ञान के तीन प्रकार हैं सहज, प्रदर्शनात्मक एवं संवेदनशील ज्ञान सहज ज्ञान, “काला सफेद नहीं हैं। यह ज्ञान का सबसे निश्चित प्रकार है। प्रदर्शनात्मक ज्ञान तब होता है जब हम अपने सरल विचारों एवं विशिष्ट विचारों को एक साथ रखते हैं। संवेदी ज्ञान के सन्दर्भ में लॉक का मानना है कि यह सबसे अधिक अनिश्चित है क्योंकि यह केवल इन्द्रियों के साक्ष्यों पर निर्भर करता है।
लॉक की प्रतिक्रिया प्राथमिक एवं माध्यमिक गुणों के अस्तित्व में निहित है। काले एवं सफेद के उसके सिद्धान्त से तात्पर्य प्राय: नए बच्चे के जन्म के समय उसके मन में विचारों को परिभाषित किया गया है
क्योंकि उसने न कोई अन्य चीजें देखी न कोई रंग और न ही कोई फल चखा। धीरे-धीरे वह अपनी इन्द्रियों के माध्यम से इन सभी तथ्यों का अनुभव करने लगता है। यह सभी प्रभाव उसके समझ एवं इन्द्रियों द्वारा निर्मित होते हैं तथा मन में स्थापित हो जाते हैं। इस प्रकार मानव बुद्धि की पहली क्षमता है कि मन उस प्रभाव को प्राप्त करता है। बाह्य तत्त्व इन्द्रियों के माध्यम से अथवा स्वयं के प्रयासों द्वारा उन पर प्रभाव को दर्शाते हैं।
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