निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए—

निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए—

(अ) आत्म-क्षमता का आधार
(ब) आत्म-क्षमता के विभिन्न दृष्टिकोण
(स) स्व-पहचान और अन्य प्रत्यय
उत्तर—  ( अ ) आत्म-क्षमता का आधार—ये एक प्राकृतिक गुण हैं जो कि प्रत्येक मनुष्य में प्रकृति में तथा जीवों में स्वत: निहित हैं इसके लिए उन घटनाओं संकटों परिस्थितियों से लड़ना है जो किसी के पक्ष में नहीं हैं।
उदाहरण- एक वृक्ष जब बीज से पौधा बनता है तब उसे बाहरी वातावरण जैसे—वर्षा, तूफान, झंझावातों (प्राकृतिक कारण) जैसेप्रदूषण, पानी की कमी खाद की कमी इत्यादि से जूझना पड़ता है फिर भी उसके स्वनिहित गुण के कारण विपरीत परिस्थितियों को हराकर एक वृक्ष बनता है और फल एवं छाया देता है ठीक इसी प्रकार व्यक्ति अपनी स्वनिहित क्षमताओं और संभावनाओं को विकसित करने के लिए परिस्थितियों के बन्धन को तोड़कर आगे निकलता है जब विश्व निर्माण के लिए आत्मक्षमता की भावना जाग्रत होती है। मनोविज्ञान भी व्यक्ति की इन क्षमताओं को विकसित करने के लिए बाहरी अभिप्रेरणा के स्थान पर आन्तरिक अभिप्रेरणा को महत्त्वपूर्ण मानता है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि ‘तुम्हें दूसरे लोगों ने कहा कि ‘ तुम कौन हो कुछ कर नहीं सकते ऐसा सोचकर स्वयं को अस्तित्व-हीन मानने लगे हो अर्थात् जागो और स्वयं की क्षमताओं को पहचानकर कार्यों के हर क्षेत्र में व्यावहारिक बनों ।
(ब) आत्म क्षमता के विभिन्न दृष्टिकोण — विभिन्न दृष्टिकोणों में आत्मा-क्षमता को निम्न प्रकार से व्यक्त किया गया है—
(1) दार्शनिक दृष्टिकोण—अनेक दार्शनिकों ने आत्म-क्षमता को आत्माभिव्यक्ति, आत्मावलोकन, आत्मसाक्षात्कार, आत्म निरीक्षण जैसे शब्दों को अपने-अपने दर्शन में अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष में प्रयुक्त किया है, प्रकृतिवद में रूसो जॉन ड्यूवी ने अपनी क्षमताओं को पहचानने के लिए आत्माभिव्यक्ति का प्रयोग किया और शिक्षा का उद्देश्य (अन्तिम) बताया।
प्लेटो एवं अरस्तू जैसे महान् दार्शनिकों ने आत्म-क्षमता को मनुष्य में सदैव स्थित रहने वाला गुण बताया, इसलिए आदर्शवाद ने आत्मानुभूति को शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बताया इससे स्पष्ट होता है कि स्वयं को समझकर उस स्थिति तक पहुँचना जहाँ स्वयं का सम्पूर्ण निहित है आत्म-क्षमता की सर्वोपरि परिणति है ।
महात्मा गाँधी ने भी गांधी दर्शन में कहा कि शिक्षा वही है जो ‘अन्तर्निहित शक्तियों को बाहर निकालती है तथा अपने श्रेष्ठ रूप में व्यक्ति को प्रस्तुत करती है । “
महर्षि अरविन्द के ज्ञेयवादी दर्शव में ‘प्रगतिशील बोध’ को विकास के क्रम में महत्त्वपूर्ण माना गया है जिससे उस ज्ञान को श्रेष्ठ माना गया है जो उच्च स्तर का है अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों से परे है।
(2) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण — आत्म-क्षमता या स्वविभाव व्यक्तिगत गुण व आवश्यकता है। प्रत्येक एक व्यक्ति को स्वयं को समझने की पहचानने की जानने की जिज्ञासा होती है। इसके लिए वह अपने वातावरण को अपनी स्थिति के आधार पर नियंत्रित करता है । आत्म- क्षमता स्व-प्रेरणा से प्रेरित होती है। स्व-प्रेरणा (Self-motivation) जितनी प्रबल होगी उतनी ही सम्भावनाएँ क्षमताएँ उत्प्रेरित होकर व्यक्तित्व का निर्माण करेगी और यह निर्माण सकारात्मक होगा। मनोविज्ञान में अनेक ऐसे सिद्धान्त है जो आत्मा क्षमता के परीक्षण हेतु बनाए गए हैं। “16P. F” व्यक्तित्व के परीक्षण हेतु बनाया गया ऐसा परीक्षण है जो कि व्यक्तित्व के सोलह कारकों में आत्म-क्षमता को भी परखता है उसके पश्चात् स्वयं का निर्धारण कहाँ पर है क्यों है और क्या होना चाहिए करना होता है और आगे की मनोवृत्ति का शोधन होता है ।
आत्म-क्षमता को आत्म स्वीकृति से सीधा जोड़ा जा सकता है । आत्म स्वीकृति स्वयं के व्यक्तित्व या प्रतिबिम्ब को स्वीकार करना है। अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जो स्वयं के बारे में उचित दृष्टिकोण नहीं बना पाते कोई निर्णय नहीं ले पाते। ऐसे व्यक्तियों को दूसरे व्यक्ति जिस भी रूप में स्वीकार करते हैं वह उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप मानते हैं । लेकिन व्यक्ति को जहाँ अन्य व्यक्तियों द्वारा स्वीकार करना होता है उसे स्वयं के वास्तविक मूल्यांकन के रूप में अपने यथार्थ स्वरूप की आत्मक्षमता के आधार पर स्वीकृति प्रदान करनी चाहिए। इस कार्य में बाह्य अभिप्रेरण उसे सहायता प्रदान करता है।
(स) स्व-पहचान और अन्य प्रत्यय – स्व-पहचान के लिए कुछ अन्य प्रत्ययों की भी आवश्यकता होती है जो इस प्रकार है—
(1) स्व-पहचान व स्वयं का दर्शन — व्यक्ति को “Know Yourself” के सिद्धान्तानुसार स्वयं का मार्ग दर्शन करना चाहिए क्योंकि यह व्यक्ति केन्द्रित होना आवश्यक है जिससे अपना मार्ग स्वयं खोजा जा सके जिसे आत्मावलोकन कहा जा सकता है। यह व्यक्ति को स्व से परिचय कराता है। यह प्रक्रिया विभिन्न सोपानों से गुजरते हुए व्यक्ति को वहाँ तक पहुँचने में सहायता प्रदान करती है जहाँ उसका स्वयं का दर्शन प्रारम्भ होता है।
(2) स्व-पहचान व संवेग–व्यक्ति को समय-समय पर नियंत्रित होने में संवेग मदद करते हैं जिससे वह स्व के साथ सामंजस्य स्थापित करता है कभी ये संवेग विपरीत परिस्थितियों को नियन्त्रित करके नियामक का कार्य करते हैं, कभी-कभी भावनात्मक रूप से कमजोर भी बनाते हैं तथा कभी-कभी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होते हैं ।
(3) स्व-पहचान व व्यक्तिगत मान्यताएँ—व्यक्ति स्वयं में एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में होता है। कोई भी व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से समान नहीं होता। इसी कारण व्यक्ति के व्यवहार में भी भिन्नता पाई जाती है। स्व-पहचान का आधार उसकी व्यक्तिगत भिन्नताएँ भी होती है जिससे वह स्व को निर्मित कर समाज में प्रस्तुत करता है।
(4) स्व-पहचान व निर्णय शक्ति–निर्णय शक्ति में वृद्धि हेतु अनुभव सीधी भूमिका निभाते हैं। ये अनुभव व्यक्ति को अधिक से अधिक आत्मनिर्देशित बनने में सहायता देते हैं व्यक्ति अपनी निर्णय शक्ति से अच्छा या बुरा बनता है ।
(5) स्व-पहचान व आकांक्षाएँ – व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ व आकांक्षाएँ भी स्व पहचान को प्रेरित करती हैं। इन आकांक्षाओं के अभाव में व्यक्ति कुंठाओं असन्तोष व चिन्ता आदि का शिकार हो जाता है ये आकांक्षाएँ हैं स्वयं की आत्मानुभूति आदि की।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *