परिवार के दायित्वों को बताइये ।
परिवार के दायित्वों को बताइये ।
उत्तर— परिवार के दायित्व–एक परिवार बालक के स्व को आकार देने के लिए इस प्रकार दायित्व निभा सकता है—
(1) माता-पिता का व्यवहार – परिवार में बच्चे की सबसे पहली अन्तःक्रिया माता-पिता से होती है। अत: बच्चों के स्व में माता पिता का व्यवहार महत्त्वपूर्ण होता है। समाज मनोवैज्ञानिकों ने बच्चों में साथ होने वाले माता-पिता के व्यवहारों के भिन्न-भिन्न पहलुओं का अध्ययन किया. है तथा इन लोगों का सामान्य निष्कर्ष यही रहा है कि इनके दो पहलू बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उनसे बच्चों का समाजीकरण सीधा प्रभावित होता है। वे दो पहलू हैं हार्दिकता- विद्वेष तथा प्रतिबंधता-अनुज्ञात्मकता । अतः माता-पिता को बालक के साथ सद्व्यवहार एवं सकारात्मक व्यवहार रखना चाहिए।
(2) माता-पिता का बालकों के प्रति प्यार एवं स्नेह – कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों को बहुत दुलार-प्यार आदि दे हैं । अतः ऐसे माता-पिता में हार्दिकता अधिक होती है। दूसरी तरफ कुछ माता-पिता इसके विपरीत होते हैं तथा बात-बात में बच्चों को डांटते हैं, पीटते हैं एवं उन्हें गाली देते हैं। अतः ऐसे माता-पिता में विद्वेष अधिक होता है। जिन माता-पिता द्वारा बच्चों के प्रति हार्दिकता दिखलायी जाती है उनके बच्चों में सामाजिक गुणों तथा सामाजिक व्यवहारों का विकास तेजी से होता है। माता-पिता से विद्वेष पाने वाले बच्चों में ऐसे गुणों का विकास नहीं होता। माता-पिता से उचित दुलार प्यार तथा स्नेह मिलने से बच्चों में सुरक्षा की भावना, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास आदि गुण उपजते हैं जिससे उनमें बाद में बहुत तरह के सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहार तेजी से विकसित होते हैं। अतः प्रत्येक माता-पिता को चाहिए कि बालक का सकारात्मक स्व का आकार बने उसके लिए बालकों के प्रति प्रेम, स्नेह बनाए रखें।
(3) परिवार के अन्य सदस्यों के स्वयं के आकार का प्रभाव – बालक का स्वयं पर माता-पिता की अपेक्षाकृत परिवार के अन्य सदस्यों के स्वयं का भी प्रभाव पड़ता है। जब बड़ा सदस्य छोटे के प्रति अपना उत्तरदायित्व समझने लगता है तो वह नेता के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है फलतः वह स्वयं में नेता के गुणों का विकास करने लगता है।
उसके छोटे भाई-बहन उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। इस तरह वह बड़ों का आदर करना सीखते हैं। अतः उन्हें बालकों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने चाहिए।
(4) माता-पिता का अभाव – जिन बालकों के बचपन में मातापिता का अभाव होता है एवं उन्हें अपने सगे-सम्बन्धियों की प्रताड़ना सुननी पड़ती है वह स्वयं का निर्माण ठीक प्रकार से नहीं कर पाते हैं। उसका स्व कुण्ठित हो जाता है तथा विकृत हो जाता है। अतः उन्हें प्रताड़ित नहीं करना चाहिए।
(5) माता-पिता अपनी जिम्मेदारी समझें – माता-पिता का दायित्व इतना नहीं होता है कि जन्म दें। उसे चलना सिखाना उनका उद्देश्य है उनके प्रति जिम्मेदारी समझे। कब उसे क्या करना है उसका ध्यान देना भी माता-पिता का कर्त्तव्य है। उसके साथ खेलें, मित्रवत व्यवहार रखें जो नैतिक ज्ञान की उसे आवश्यकता है उसे प्रदान करें। उसे सुरक्षा प्रदान कर आत्मरक्षा की युक्तियों के गुण सिखाए उसे हमेशा जीत हासिल करने के लिए प्रेरित करें। उसकी जिम्मेदारी यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। वे उनका सामाजिक, भावनात्मक, संवेगात्मक, मानसिक विकास में भी सहयोग प्रदान करें। माता-पिता बालक के भविष्य के निर्माता होते हैं । अतः आवश्यक है कि वह उनकी सकारात्मक स्वधारणा तथा मूल्यों के निर्माण में योगदान करें। उनकी योग्यता के अनुरूप आकांक्षाओं के निर्माण में योगदान करें। आवश्यकता पड़ने पर फटकार भी दें । विद्यालय में जाकर उसकी पढ़ाई की जानकारी लें उसकी हर गतिविधि में भाग लें । उनके हर कार्यों में सहयोग प्रदान करें।
(6) सीखने में लगन को प्रोत्साहन – बालक जब छोटा होता है तभी सीखने में लगन होती है। माता-पिता उनके सीखने की लगन को न केवल प्रोत्साहित करें अपितु उसके मार्गदर्शक बनें। यदि यह आदत माता-पिता द्वारा पोषित की जाती है तो बालक आगे जाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। हर चुनौतियों का सामना करने में सक्षम रहता है।
(7) माता-पिता का नियंत्रण – बालकों के मजबूत सकारात्मक स्वयं का आकार देने के लिए माता-पिता का प्रेम, स्नेह ही आवश्यक नहीं है अपितु यह भी आवश्यक है कि बच्चों के द्वारा किए गए व्यवहारों पर माता-पिता का नियंत्रण कितना है ? बच्चों के व्यवहार पर नियंत्रण रखने से सम्बन्धित माता-पिता का व्यवहार दो तरह का होता है। कुछ माता-पिता काफी प्रतिबन्धक स्वभाव के होते हैं जो शायद कभी भी अपने बच्चों को स्वतंत्र होकर कहीं आने-जाने या उन्हें कोई कार्य करने की आजादी नहीं देते हैं। दूसरी तरफ कुछ माता-पिता काफी अनुज्ञात्मक प्रकृति के होते हैं। जो बच्चों के व्यवहारों पर शायद ही कभी प्रतिबंधक लगाते हैं या उन पर नियंत्रण की बात सोचते हैं। इन दोनों प्रकार के नियंत्रण से बालक स्वयं का आकार निर्मित नहीं कर पाता है। अध्ययनों द्वारा यह पाया गया कि जिन बच्चों के माता-पिता बच्चों के कार्यों में हस्तक्षेप करते थे एक सीमा के भीतर उन्हें अपने कार्यों को करने की पर्याप्त आजादी दे रखी थी उन बच्चों ने अच्छे सामाजिक व्यवहार को सीखने में अधिक प्रेरणा पायी गयी। ऐसे बच्चों में समर्थता, अनुकूलन शीलता, आत्म-नियंत्रण आदि जैसे सामाजिक गुण अधिक तेजी से विकसित हुए। अतः माता-पिता को उनके स्वयं को आकार देने के लिए न उन्हें पूरी तरह उनको स्वतंत्र छोड़ना चाहिए तथा न अधिक नियंत्रण रखना चाहिए।
(8) प्रगति में बाधक न बनें माता-पिता का दायित्व है कि वह बालक को स्वतंत्र छोड़ छोटी-छोटी बातों के लिए वह न टोके कई बार माता-पिता बालक को हर समय टोका-टोकी करते हैं यह मत करो, वो मत करो। तुम्हें यहाँ नहीं बैठना चाहिए, तुमने यह क्या कर दिया जिससे बालक की समझ में नहीं आता है कि आखिर वह करे तो क्या करे। फलस्वरूप माता-पिता बालक की प्रगति में बाधक बन जाते हैं तथा वह अपने स्वयं को सही आकार देने में असमर्थ होता है अर्थात् बालक जो करना चाहे वह उसे करने देना चाहिए तभी उसका स्वाभाविक विकास होगा। अपने लक्ष्य बालक पर आरोपित न करें।
(9) पारिवारिक वातावरण में कटुता न आने दे — बालक एक कोमल तना है जैसा मोड़े वैसा मुड़ जाता है, जैसा परोसे वैसा ग्रहण करता है। अतः आवश्यक है कि घर का माहौल स्वच्छ हो। इसके लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी के सम्बन्ध मधुर हों। उनके घर के सभी सदस्यों के साथ मधुर सम्बन्ध हों। आस-पड़ोस के साथ भी सम्बन्ध मधुर हों। वे बालकों को मित्रवत् बन कर आवश्यकता पड़ने पर सलाह दें।
(10) बालक की प्रतिभा को पहचाने – एक बालक को उसके माता-पिता से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें यह समझना आवश्यक है कि बालक की कैसी प्रतिभा है। माता-पिता दूसरे परिवार के बच्चों के अनुसार यह कल्पना न करें कि यह डॉक्टर बनेगा या लेक्चरर बनेगा या I.A.S व R.A.S. बनेगा अथवा बैंक मैनेजर बनेगा या बिजनेस मैन बनेगा। बालक में जो प्रतिभा है उसे ही उभारने में मदद करना चाहिए। यदि बालक नृत्यकार बनना चाहता है तो उसमें मदद करना चाहिए।
(11) उचित निर्णायक बनें – बच्चा जब छोटा होता है तभी से बड़ों के साथ व्यवहार करने की आदत डलवा देनी चाहिए क्योंकि बड़े होने पर उनमें यह सुधार करना मुश्किल हो जाता है। अपने आस-पास के घरों में देखा होगा कि बालक न केवल अपने माता-पिता से अपितु अन्य बड़े लोगों से भी तु-तड़ाके से बात करते हैं। इसका कारण जैसा उनके साथ किया जाता है वैसा ही वो दूसरों के साथ करते हैं। क्योंकि बालक अनुकरण से सीखते हैं। बालक जब ऐसा करें। कोई भी अनुचित व्यवहार करें, तब माता-पिता को उचित निर्णायक बन कर फटकारना चाहिए ताकि उनके गलत व्यवहार को बढ़ावा न मिले। उन्हें दूसरों की बुराई करने की आदत से बचाना चाहिए क्योंकि यह आदत आगे जाकर हानिकारक होती है। उसे किसी भी व्यक्ति में गुण नज़र आते नहीं हैं।
माता-पिता का दायित्व है कि उसे स्वतंत्र छोड़े पर इसका ध्यान रखे कि उसके मित्र कैसे हैं ? वह कहाँ जाता है ? अन्य बालकों के साथ मार-पिटाई तो नहीं करता है यदि कहीं भी वह गलत पाया जाता है तो उसे प्यार से समझाने का प्रयास करें कि यह गलत है तुम्हें आगे ऐसा नहीं करना चाहिए। उस समय बालक छोटा होता है। माता-पिता से प्यार रखता है। अतः आसानी से गलत आदतों को छोड़ सकता है।
(12) बालकों की झूठी तारीफ न करें – माता-पिता को चाहिए कि बालक की झूठी तारीफ न करें इससे बालक में ‘इगो’ (Ego) की भावना जागृत होती है अर्थात् उचित समय पर पुनर्बलन दिया जाए।
(13) परिवार का आकार – परिवार का आकार भी बालक के स्व को प्रभावित करता है। यदि परिवार का आकार बड़ा होगा तो मातापिता विशेष ध्यान नहीं दे पाएंगे परिणामस्वरूप वह स्वयं के आकार को उचित रूप नहीं दे पाएगा अतः परिवार का आकार सीमित होना चाहिए।
(14) परिवार का भौतिक वातावरण – बालक द्वारा निर्मित स्वयं के आकार में परिवार के भौतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है । जिस परिवार में आधुनिक साधन जैसे- रेडियो, टेलीविजन, मैग्जीन, अखबार आदि मौजूद रहते हैं उस परिवार के बच्चों का स्वयं को आकार देने की प्रक्रिया तीव्र होती है। अतः आवश्यकतानुसार परिवार का भौतिक वातावरण उन्नत होना चाहिए।
(15) माता-पिता का पारस्परिक सम्बन्ध – माता-पिता को चाहिए कि वह पारस्परिक सम्बन्ध घनिष्ठ व प्रेमपूर्ण बनाए। तब बालक अपने स्वयं को आकार दे पाता है। अन्यथा उसे कठिनाई उत्पन्न होती है। वह ठीक प्रकार से स्वयं को आकार नहीं दे पाता है।
(16) बालकों द्वारा किए गए काम को सराहें – यदि बालक घर के लिए कोई काम करता है तो उसे सराहें अन्यथा वह बड़े होने पर कहने पर भी काम में हाथ नहीं बटाएगा।
(17) बालकों की जिज्ञासा को शान्त करें – बालक जब छोटा होता है तो उसमें तीव्र जिज्ञासा होती है फलतः उनको शान्त करने का उत्तरदायित्व माता-पिता का होता है। कई बार उनके बेतुके प्रश्नों का उत्तर न देकर माता-पिता झिड़क देते हैं परन्तु ऐसा करने से उनका सृजनात्मक विकास रुक जाता है।
इस तरह माता-पिता इन दायित्वों का निर्वाह कर बालक में
सकारात्मक स्वयं के आकार निर्माण में योगदान दे सकते हैं।
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