प्रायोगिक ज्ञान किस प्रकार संकाय निर्माण में सहायक है ? उपयुक्त उदाहरण दीजिए एवं व्याख्या कीजिए।
प्रायोगिक ज्ञान किस प्रकार संकाय निर्माण में सहायक है ? उपयुक्त उदाहरण दीजिए एवं व्याख्या कीजिए।
उत्तर— प्रयोगात्मक ज्ञान–विज्ञान विषय के पाठ्यक्रम में प्रयोग तथा प्रयोगात्मक, ज्ञान का विशेष महत्त्व है। प्रयोगात्मक ज्ञान सदैव ही विषय की प्रकृति पर निर्भर करता है। यदि इसे नियमों व सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाये तो प्रयोग का विशेष महत्त्व देखा जा सकता है। नेशनल एसोसिएशन फॉर रिसर्च इन साइन्स टीचिंग (National Association for Research in Science Teaching) ने पाठ्यक्रम में प्रयोगात्मक ज्ञान को सम्मिलित करने के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित बताए हैं–
(1) रुचि का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम का निर्माण छात्रों की रुचियों के अनुसार होना चाहिए, छात्र कोई भी कार्य करने में तभी रुचि लेते हैं, जब यह उनकी रुचि के अनुरूप हो। परन्तु इसे पाठ्यक्रम में नीरस और कठिन रूप में प्रस्तुत किया जाता है तो यह उनके लिए अरुचिपूर्ण एवं उबाऊ हो जाता है। इसके लिए पाठ्यक्रम में रुचिकर, सरल और छोटेछोटे कार्यों (Activities) को स्थान देना चाहिए। अच्छा हो सभी शिक्षण बिन्दुओं के साथ एक छोटी सी एक्टिविटी अवश्य हो।
(2) आवश्यकताओं की पूर्ति का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम निर्माण करते समय विषय विशेषज्ञों को यह ध्यान रखना चाहिए कि क्या वे छात्रों की आयु या कक्षा के स्तर के पाठ्यक्रम बना रहे हैं, उनकी आवश्यकताएँ क्या हैं ? अतः उन्हें छात्रों के भावी जीवन एवं उच्च कक्षाओं के लिए उपयोगी इकाइयों को समुचित स्थान देना चाहिए । इसके अतिरिक्त भौतिक विज्ञान में व्यावसायिक गुणों एवं रुचियों को विकसित करने वाले प्रकरण भी सम्मिलित करने चाहिए तभी पाठ्यक्रम को पूर्ण कहा जा सकेगा।
(3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने का सिद्धान्त–उच्च माध्यमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य वैज्ञानिकों का निर्माण करना नहीं है, अपितु छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की योग्यता विकसित करना है ।
पाठ्यक्रम में इस बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि विद्यार्थियों में वास्तविक रूप में किसी धर्म को पालन करने का वैज्ञानिक ढंग आ सके तथा वैज्ञानिक ढंग से किसी चीज के बारे में सोच सकें और उसके औचित्य को समझ सकें। प्रमुख बात यह नहीं है कि वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों से परिचित हुआ जाए बल्कि मुख्य बात यह है कि इस ज्ञान के ग्रहण करने अथवा उपयोग करने का तरीका आ जाए। अतः वैज्ञानिक ढंग का प्रशिक्षण देने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने को पाठ्यक्रम निर्माण एवं निर्धारण में प्रमुख स्थान दिया जाए।
(4) बौद्धिक चिन्तन का सिद्धान्त–अध्ययन तभी श्रेष्ठ माना जाता है, जब वह चिन्तन स्तर तक छात्रों में योग्यता विकसित कर सके । पाठ्यक्रम निर्माण करते समय विशेषज्ञों को हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह किस स्तर के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण कर रहे हैं ? एवं क्या पाठ्यक्रम केवल विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण का माध्यम बनकर रह गया है ? या वह छात्रों को विषय-वस्तु पर आगे सोचने पर मजबूर कर रहा है।
(5) उद्देश्यों की पूर्ति का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम निर्माण में उस स्तर एवं विषय के उद्देश्यों की पूर्ति को भी देखना चाहिए, भौतिक विज्ञान के प्रमुख उद्देश्यों को देखना एवं उन्हें किस प्रकार किन अध्ययनों के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
(6) सामाजिक मान्यताओं एवं आवश्यकताओं का सिद्धान्त–विश्व में प्रत्येक समाज की अपनी कुछ मान्यताएँ एवं आवश्यकताएँ होती हैं, वे अपनी इन मान्यताओं को भावी पीढ़ी में ही स्थाई रखना चाहते हैं। पाठ्यक्रम निर्माताओं को सामाजिक मान्यताओं एवं आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना चाहिए।
(7) सह सम्बन्ध का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम निर्माण के समय भौतिक विज्ञान का अन्य विषयों के साथ जो सह-सम्बन्ध है, उसे भी ध्यान में रखना चाहिए जिससे शिक्षा समग्र रूप से दी जा सके। इसके लिए अध्यायों एवं विषय-वस्तु का चयन इस प्रकार से करना चाहिए कि यह एक तरफ तो दूसरे विषयों को पढ़ाने में और समझने में सहायक हो और छात्रों को भौतिक विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्त्व का भी ज्ञान हो सके।
(8) लचीलेपन का सिद्धान्त–लचीलेपन से तात्पर्य है कि समाज की आवश्यकताओं, समय की माँग एवं बदलती परिस्थितियों के अनुसार इसमें संशोधन आसानी से किया जा सके, क्योंकि विज्ञान में विशेषकर भौतिक विज्ञान में प्रतिदिन अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। यदि हम पुराने ज्ञान को ही पढ़ाते रहेंगे तो भौतिक विज्ञान के हमारे लक्ष्य केवल पुस्तकों तक ही सीमित रह जाएँगे और हमारे भावी नागरिक विश्व के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पाएँगे । अतः पाठ्यक्रम को लचीला बनाना चाहिए जिससे बिना किसी कठिनाई के इसमें कोई प्रकरण जोड़ा या हटाया जा सके।
(9) अवकाश के सदुपयोग का सिद्धान्त–पाठ्यक्रम में अवकाश के समय में छात्रों को करने के लिए रोचक कार्यों के लिए भी स्थान होना चाहिए। इससे छात्र अपना कीमती समय व्यर्थ के कार्यों में नहीं लगाएँगे और विज्ञान सम्बन्धित उनका ज्ञान भी पुष्ट होगा।
(10) अग्रदर्शिता का सिद्धान्त–अग्रदर्शिता से तात्पर्य है कि विषय पाठ्यक्रम में ऐसे प्रकरणों को स्थान दिया जाए जो अद्यतन हैं, अर्थात् जिनकी अभी खोज या आविष्कार हुआ ही है, चाहे उनका सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं, फिर भी छात्रों के भविष्य पर ध्यान देते हुए उन बिन्दुओं का परिचय अवश्य रखना चाहिए।
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