लिंग रूढ़िवादिता के अर्थ व कारणों को समझाइए तथा उसकी समाप्ति के उपायों का वर्णन कीजिए।

लिंग रूढ़िवादिता के अर्थ व कारणों को समझाइए तथा उसकी समाप्ति के उपायों का वर्णन कीजिए।

अथवा
लैंगिक रूढ़िबद्धता का क्या अर्थ है ? लैंगिक रूढ़िबद्धता का समाज पर क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर- लैंगिक रूढ़िबद्धता का अर्थ एवं परिभाषाएँ– लैंगिक रूढ़िवद्धता से अभिप्राय है “स्त्री या पुरुष, लड़का या लड़की के व्यवहार एवं भूमिका से सम्बन्धित समाज का वह सामान्यीकरण जो प्राय: गलत चित्रण के कारण होता है। “
स्त्री-पुरुष से सम्बन्धित विशेष व्यवहारों व कार्यों को समाज द्वारा परिभाषित करना और इन्हीं विशेष कार्यों और भूमिकाओं की अपेक्षा करना, सुसंगत न होने की स्थिति में उनको टोकना, विचारों में सुधार करने को कहना, लैंगिक रूढ़िवादिता है। इसी लैंगिक रूढ़िबद्धता को महिलाओं और पुरुषों के बीच लैंगिक असमानता को मुख्य जिम्मेदार कारक माना जा सकता है। लैंगिक रूढ़िवद्धता निरन्तर अपना अस्तित्व बनाए रखती है और इस प्रक्रिया में सामाजीकरण अपनी प्रमुख भूमिका निभाता है।
लिंग रूढ़िबद्धता के कारण–सामाजिक संरचना की दृष्टि से पुरुष तथा स्त्रियों में काफी भेदभाव किया जाता है। स्त्रियों के पिछड़ेपन के अनेक कारण हैं। सामाजिक संरचना में स्त्रियों को कमजोर समझा जाता है। उनकी स्थिति पुरुषों से निम्न स्तर की बनी हुई है। इन रूढ़ियुक्तियों के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं
( 1 ) पुरुष प्रधान समाज–अधिकांश समाजों में आज भी पुरुषप्रधान समाज पाया जाता है, जिसमें स्त्रियों को शक्ति का प्रयोग करने एवं निर्णय लेने से वंचित रखा जाता है। स्त्रियों को उनके अधिकार नहीं दिए जाते हैं तथा उनका शोषण किया जाता है। विकासशील देशों की तो बात छोड़िये, विकसित देशों में भी उन्हें पुरुषों के समान दर्जा नहीं दिया जाता है। हिन्दू धर्म के अनुसार आदर्श पत्नी उसे माना जाता है जो अपने पति की सेवा करे। आज भी लाखों स्त्रियाँ अपने पति की सुख-शान्ति तथा लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती हैं। इस्लाम धर्म में कोई भी स्त्री ‘मुल्ला’ (Priest) नहीं बन सकती और वह प्रार्थना के लिए मस्जिद में प्रवेश नहीं कर सकती है। उन्हें बुरका पहन कर रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त इस्लाम धर्म के अनुसार एक पुरुष को एक से अधिक पलियाँ रखने का अधिकार है और वह अपनी इच्छानुसार कभी भी अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है। अतः धर्म भी स्त्रियों की हीन अवस्था के लिए काफी हद तक उत्तरदायी है।
( 2 ) बुरे सामाजिक रीति-रिवाज–अनेक सामाजिक बुराइयाँ भी स्त्रियों के पिछड़ेपन का कारण है। अधिकतर समाजों में आज भी लड़की के मुकाबले में लड़के के जन्म को अच्छा समझा जाता है। लड़के के जन्म पर घर में खुशियाँ मनाई जाती हैं जबकि लड़की के जन्म पर घर में मातम सा छा जाता है और सारा परिवार शोक सागर में डूब जाता है। कई स्थानों पर आज भी पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी को उसके साथ सती हो जाने के लिए मजबूर किया जाता है। विवाह के समय उसकी सहमति नहीं ली जाती है और उसे घर वालों द्वारा उसके पति के रूप में चुने गए व्यक्ति के साथ सारा जीवन व्यतीत करना होता है। कम दहेज (Dowry) मिलने के कारण कई लड़कियों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है, उन्हें जिन्दा जला दिया जाता है।
( 3 ) शिक्षा की कमी– यद्यपि आज लगभग सभी देशों में लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है, परन्तु अब भी अधिकतर महिलाएँ अशिक्षित रह जाती हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि लड़कियों को पढ़ाई के साथ-साथ घर के कार्यों की जिम्मेदारी भी संभालनी पड़ती है, जिसके कारण वे प्राय: अशिक्षित रह जाती हैं। अशिक्षित रह जाने के कारण उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं हो पाती अशिक्षित होने के कारण वे स्वतन्त्र दृष्टिकोण से काम लेने में असमर्थ होती हैं और घर के पुरुषों के कहने के अनुसार ही चलती हैं। इस कारण से वे जीवन के अनेक क्षेत्रों में पिछड़ी हुई हैं।
(4) स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता—अशिक्षित रह जाने के कारण स्त्रियाँ नौकरी पाने तथा रोजगार के लिए अन्य साधन जुटा पाने में प्राय: विफल रहती हैं और अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पिता, पति अथवा भाई पर निर्भर रहती हैं। ऐसे स्थिति में उन्हें पुरुषों की अधीनता स्वीकार करनी ही पड़ती है। ऐसा देखने को मिलता है कि जो स्त्रियाँ नौकरियाँ करती हैं तथा धन कमाती हैं, वे अपने आप भी कुछ अधिक स्वतन्त्र महसूस करती हैं। परन्तु अभी ऐसी स्त्रियों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर स्त्रियाँ अब भी अपनी आर्थिक निर्भरता के कारण हीन स्थिति में बनी हुई हैं।
( 5 ) राजनीतिक निर्णयों में महिलाओं की सीमित भागीदारीयद्यपि कई देशों में महिलाओं ने उच्च राजनीतिक पद प्राप्त किए हैंभारत में श्रीमती इंदिरा गाँधी, इंग्लैण्ड में श्रीमती थैचर, पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो बांग्लादेश में शेख हसीना तथा बेगम जिया, श्रीलंका में चन्द्रिका कुमारतुंग तथा भंडारनायक आदि ने अपने-अपने देशों में प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति के पद संभाले हैं, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि महिलाओं को राजनीतिक निर्णयों में वांछित भागीदारी हासिल हो गई है । सर्वप्रथम सन् 1928 में स्त्रियों को पुरुषों के समान मतदान करने का अधिकार प्राप्त हुआ। अमेरिका में सन् 1969 में उनके वोट देने की आयु पुरुषों की आयु के बराबर की गई। फ्रांस में 1944 में महिलाओं को मतदान अधिकार प्राप्त हुआ। भारत में यद्यपि इस क्षेत्र में संविधान द्वारा समानता लागू कर दी गई है, परन्तु अब भी विधानसभाओं तथा संसद में महिलाओं की संख्या बहुत कम है— लोकसभा की महिला सदस्यों की संख्या में कुछ वृद्धि हुई है, परन्तु चरित्र हनन के भय से तथा राजनीति में अपराधीकरण के कारण महिलाओं को पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है। संसद तथा राज्य विधानसभाओं में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित रखने सम्बन्धी बिल काफी लम्बे समय से संसद के सामने पड़ा है, परन्तु कई राजनीतिक दलों के विरोध के कारण वह अभी कानून नहीं बन पाया है।
लैंगिक रूढ़िबद्धता का प्रभाव – लैंगिक रूढ़िबद्धता, परम्परागत रूप से प्रभुत्ववादी संस्कृति में सर्वाधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण होती है। लैंगिक रूढ़िबद्धता समाज में सामान्य रूप से बहुत अधिक व्याप्त है। समाज ने से इस रूढ़िबद्धता के आधार पर ही पौरुष तथा स्त्रियोचित व्यवहार आधारित विशेषताओं को संरचित कर दिया है। बालिकाएँ स्त्रियोचित कार्य जैसेखाना बनाना, गुड़िया के साथ खेलना आदि के प्रति प्रोत्साहित की जाती है जबकि दूसरी तरफ बालकों को खेलकूद में भाग लेना एवं पुरुषोचित व्यवहार प्रदर्शित करना सिखाया जाता है। यद्यपि पुरुषों एवं महिलाओं को रूढ़िबद्धता भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रभावित करती है
( 1 ) मनोवैज्ञानिक तथा संवेगात्मक तनाव –लैंगिक रूढ़िबद्धता पुरुषों एवं महिलाओं को कई प्रकार से प्रभावित करती हैं। दोनों को सदैव परम्परागत रूढ़िबद्धता के अनुरूप कार्य करने के आधार पर परखा जाता है। पुरुषों से सदैव पुरुषत्व के मानकों को पूरा करने एवं उनका पालन करने की अपेक्षा की जाती है किन्तु जब वे उन मानकों को पूर्ण नहीं कर पाते तो प्रायः वे निम्न आत्म मूल्यों से पीड़ित हो जाते हैं। यहाँ तक कि पुरुषत्व का मानक सफलतापूर्वक पूरा न कर पाने के कारण कभी-कभी ये मानसिक एवं भावात्मक रूप से भी पीड़ित हो जाते हैं। दूसरी तरफ सभी महिलाओं से विवाह के उपरान्त सदैव बच्चों के जन्म की आशा की जाती है। इसके लिए सदैव उन पर दबाव डाला जाता है। ऐसे में यदि महिलाएँ अपने कैरियर को अधिक महत्त्व देती हैं तो दूसरों के द्वारा उनकी आलोचना की जाती है जिससे महिलाएँ मनोवैज्ञानिक तथा संवेगात्मक तनाव का शिकार हो जाती हैं ।
( 2 ) उपलब्धि पर प्रभाव – महिलाओं एवं पुरुषों की उपलब्धियाँ भी लैंगिक रूढ़िबद्धता के कारण प्रभावित होती है। लैंगिक रूढ़िबद्धता एक अन्तर्निहित भय उत्पन्न कर देती है। विभिन्न शोध अध्ययनों में यह पाया गया है कि ‘रूढ़िवादी धमकी’ नकारात्मक रूप से भय उत्पन्न कर उपलब्धि को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए–स्पेन्सर, स्टील एवं क्विन ने यह साबित किया कि महिलाएँ गणित के परीक्षण में निम्न स्तर का प्रदर्शन करती हैं क्योंकि उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे गणित में अच्छा कार्य नहीं कर सकती हैं। इसी प्रकार पुरुषों का भाषा सम्बन्धी परिणाम बहुत बुरा आता है। ये नकारात्मक रूढ़िबद्धताएँ उपलब्धि को तब तक प्रभावित करती हैं जब तक व्यक्ति स्वयं के विचारों से इन्हें निकाल कर इसके प्रति सकारात्मक विचारों का समाविष्ट नहीं कर लेता ।
( 3 ) निम्न वैवाहिक सन्तुष्टि – लैंगिक रूढ़िबद्धता के कारण पुरुषों एवं महिलाओं के मध्य उत्तरदायित्वों का वितरण असमान रूप से किया जाता हैं। महिलाओं को अक्सर प्रत्यक्ष देखभाल तथा बच्चों के साथ अधिक समय व्यतीत करना जिसमें शिशु देखभाल शिशु के स्वास्थ्य तथा कल्याण के विषय में सोचना आदि कार्य प्रदान किए जाते हैं । गृहस्थ कार्यों एवं बाल संरक्षण आधारित यह असमान वितरण निम्न वैवाहिक सन्तुष्टि का कारण बनता है।
 ( 4 ) युगल एवं परिवार की अन्तःक्रिया प्रभावित – लैंगिक रूढ़िबद्धता युगल एवं पारिवारिक अन्तःक्रिया को भी प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए – गृहस्थ कार्य का विभाजन लिंग आधारित होता है। जिसमें पुरुष सदैव घर से बाहर जाकर परिवार के लिए रोजी-रोटी कमाने के लिए कार्य करता है। यह पुरुषों में वर्चस्व की भावना उत्पन्न करता है वह महिलाओं को अधीनस्थ के रूप में समझता है। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता है ये सभी बातें उनकी अन्तः क्रिया को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। इसी कारण वर्तमान समय में महिलाएँ पुरुषों के समान स्तर की माँग करने लगी है।
लिंग रूढ़िबद्धता की समाप्ति के उपाय निम्नलिखित हैं–
 ( 1 )  वैज्ञानिक दृष्टिकोण का वाहक — शिक्षक को अपने कार्य क्षेत्र एवं सामाजिक क्षेत्र में अंधविश्वासी, रूढ़िवादी, जड़तायुक्त न होकर उन्मुक्त एवं व्यावहारिक विचारवान होना चाहिए। ताकि तथ्यों और स्थितियों की परख व समझ के अनुरूप शिक्षक स्वयं के आचरण में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए ताकि इसके अनुसरण में विद्यार्थियों में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार-प्रसार हो।
(2) अध्यापन से संबंधित क्षेत्रों एवं विषयों का ज्ञान- अध्यापक का अपने विषय और उससे सम्बन्धित सभी ज्ञान क्षेत्रों पर पूरा पूरा अधिकार होना चाहिए जो मानवीय सम्बन्धों को समझने तथा प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में मानव को ठीक ढंग से समायोजित करने में अपना योगदान दे सके। इस दृष्टि से शिक्षक को उन सभी अध्ययन क्षेत्रों एवं विषयों का वह सभी प्रकार का आवश्यक ज्ञान होना चाहिए जिसकी सहायता से वह विषय को ठीक ढंग से पढ़ा सके और उससे सम्बन्धित सभी प्रकार के अधिगम अनुभव अपने विद्यार्थियों को अर्जित करा सके।
( 3 ) तत्कालीन घटनाओं की जानकारी — समाज प्रगतिशील और परिवर्तनशील होता है और साथ ही मानवीय सम्बन्धों के समीकरण भी समाज, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में बदलते रहते हैं। इस सन्दर्भ में नया क्या कुछ हो रहा है उसकी जानकारी विद्यार्थी को होनी चाहिए तथा इस जानकारी को उस तक ठीक प्रकार पहुँचाने हेतु शिक्षक को बहुत ही जागरूक और अध्ययनशील होना चाहिए। इस कार्य हेतु उसे सभी उस अध्ययन सामग्री और स्रोतों की मदद लेनी चाहिए जिससे उसे समाज, राष्ट्र और विश्व में घटने वाली नयी-नयी घटनाओं तथा समस्याओं के बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध हो सके। शिक्षक को इस प्रकार की जानकारी की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए बाइनिंग तथा बाइनिंग (Binning & Binning) लिखते हैं—“शिक्षण एक प्रगतिशील व्यवसाय है और इसलिए यह जरूरी है कि अध्यापक सदैव विद्यार्थी ही बना रहे। यह वही है जो इस परिवर्तनशील एवं जटिल दुनिया से विद्यार्थी को अवगत कराता है। यह सब करने के लिए एक अध्यापक को वर्तमान को उसकी विभिन्न पेचीदगी युक्त समस्याओं के साथ भली-भाँति जानना जरूरी है। “
(4) सामाजिक जागरूकता एवं सक्रियता–शिक्षक को सामाजिक दृष्टि से पूर्ण जागरूक एवं सक्रिय होना चाहिए। जिस परिवेश में वह बालकों को शिक्षा दे रहा है उससे उसे पूरी तरह परिचित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त बालकों को अपने सांस्कृतिक, सामाजिक और भौतिक पर्यावरण को समझकर उसके साथ भली-भाँति समायोजित होने में भी उसके द्वारा पूरी-पूरी सहायता प्रदान की जानी चाहिए। वे अपने समाज और उसमें निहित मानवीय सम्बन्धों को अच्छी तरह जानकर अपने आपको समाज के अनुकूल ढाल सकें और उसकी प्रगति में अपना योगदान दे सके। इस कार्य में अध्यापक तभी अपने विद्यार्थियों की मदद कर सकता है जबकि वह पहले स्वयं इस मार्ग से सफलतापूर्वक गुजर रहा हो। समाज के प्रति वह उत्तरदायी हो, समाज के सभी कल्याणकारी कार्यों में वह रचनात्मक दृष्टि से सहयोग दे, एक अच्छे नागरिक के रूप में अपने कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वाह करे तथा जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष तथा अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारे जैसे सद्गुणों एवं उदार दृष्टिकोण का वह अपने आचार तथा विचार में समावेश करे तभी वह अपने विद्यार्थियों को सही ढंग से अनुप्रेरित कर पढ़ाई को सार्थक बना सकता है।
( 5 ) अन्य विषयों का ज्ञान—  विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले सभी विषयों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में एक-दूसरे से बहुत कुछ सम्बन्ध होता है क्योंकि शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में इन सभी का सम्मिलित योगदान रहता है। अतः शिक्षक को केवल अपने विषय का ज्ञान ही नहीं बल्कि उचित समवाय के लिए तथा विषय से सम्बन्धित सभी प्रकार के अधिगम अनुभवों को अर्जित करने में उचित सहायता के लिए आवश्यक अन्य सभी विषयों के ज्ञान एवं अनुभवों की जानकारी भी उसे होनी चाहिए। भाषा का सही ज्ञान जहाँ उन्हें विषय से सम्बन्धित बातों को ठीक प्रकार जानने तथा अभिव्यक्त करने में सहायता पहुँचाता है वहाँ गणित, विज्ञान, चित्रकला, सांख्यिकी आदि विषयों के ज्ञान से भी उसे बहुमूल्य सहयोग प्राप्त हो सकता है।
( 6 ) उचित शिक्षण की जानकारी – सफल अध्ययन के लिए विषय का ज्ञान जितना आवश्यक है उतनी ही अधिक आवश्यक बात यह है कि अध्यापक इस विषयवस्तु तथा सम्बन्धित अधिगम अनुभवों को अपने विद्यार्थियों तक पहुँचाने और उन्हें अर्जित कराने में सफल हो सके। स्वयं का जानकार होना एक बात है और विद्यार्थियों को यह जानकारी लेने में सहायता कर सकना दूसरी बात । शिक्षक के लिए इस दृष्टि से अपने विषय के प्रभावपूर्ण शिक्षण से सम्बन्धित सभी बातों के लिए आवश्यक रूप से सजग रहना चाहिए। शिक्षक को पूर्वाग्रहमुक्त बने रहने हेतु निम्नांकित पक्षों की ओर भी ध्यान देना चाहिए :
(i) विद्यालय के विभिन्न स्तरों पर अपने दायित्व व उद्देश्यों की जानकारी का ज्ञान ।
(ii) शिक्षण की विभिन्न विधियों, तकनीकों आदि का ज्ञान और उनके प्रयोग के लिए अपेक्षित पर्याप्त कुशलताओं का अर्जन ।
(iii) शिक्षण के प्रभावपूर्ण शिक्षण से सम्बन्धित विभिन्न सहायक साधनों, उपकरणों तथा सामग्री के उपयोग के बारे में उपयुक्त ज्ञान एवं कुशलताओं का अर्जन।
(iv) स्वयं के बारे में सदैव चेतनावान, अर्थात् स्वयं के कमजोर व अच्छे पक्षों के प्रति जागरूक होना । (iv)
(v) शिक्षण से जुड़ी हुई पाठान्तर क्रियाओं, योजनाओं तथा अन्य कार्यक्रमों के आयोजन से सम्बन्धित आवश्यक कौशलों का अर्जन ।
(vi) विषय से सम्बन्धित मूल्यांकन तकनीकों एवं प्रक्रियाओं की जानकारी एवं अपेक्षित कुशलताओं का अर्जन।
(vii) व्यक्तिगत गुणों की दृष्टि से धैर्यवान, दूरदर्शी, मुक्त चिंतक, स्वयं की कमजोरी संबंधी आलोचना को सहन करने वाला तथा तथ्यों व स्थितियों के अनुसार स्वयं के विवेक के अनुसार कार्य क्षेत्र में उचित निर्णय लेने वाला होना चाहिए।
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