खेलकूद गतिविधियों अथवा योग क्रियाओं में भाग लेने की क्या उपयोगिता है ? व्याख्या कीजिए ।
खेलकूद गतिविधियों अथवा योग क्रियाओं में भाग लेने की क्या उपयोगिता है ? व्याख्या कीजिए ।
उत्तर— योग का महत्त्व एवं उपयोगिता – विश्व में ऐसे सम्प्रदायों, – मत- पन्थों तथा धार्मिक गुरुओं की भरमार है जो सभी दावा करते हैं कि उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर चलकर ही विश्व में सुख-शान्ति सम्भव है । वास्तविकता इससे भिन्न है। इन्हीं मत-प्रन्थों तथा तथाकथित धर्मों की एकच्छत्र स्थापना हेतु खूनी संघर्ष हुए हैं। एक मत के अनुयायियों ने अन्य धर्म के लोगों का रक्त बहाया है। इनके आपसी संघर्ष में निर्दोष लोगों का रक्त भी बहा है। ऐसी स्थिति में क्या कुछ ऐसे नियम, मान्यताएँ तथा मर्यादाएँ हैं जिन पर विश्व के सभी व्यक्ति चल सकें ? जिससे किसी भी व्यक्ति तथा राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता खण्डित न हो तथा जिसे प्रत्येक किसी व्यक्ति विशेष का व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध न हो । व्यक्ति अपनाकर सुख-शान्ति तथा आनन्द का जीवन व्यतीत कर सके ।
इन सभी प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ में है। एक ऐसा पथ है जिस पर निर्भय होकर पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ चला जा सकता है तथा जीवन में सुख, शान्ति तथा आनन्द प्राप्त किया जा सकता है और वह पथ है योग का । योग जीने की कला है। योग जीवन को अच्छी तरह समझने तथा उसे अच्छी तरह जीने की कला में पारंगत करता है। योग जीवन के सभी पक्षों यथा— शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा सामाजिक को प्रभावित करता है।
निम्नलिखित तथ्यों से योग का महत्त्व तथा उपयोगिता सिद्ध हो जाती है—
(1) शारीरिक महत्त्व – प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा होती है. कि उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो । उसके अंगों-प्रत्यांगों की कार्यक्षमता में वृद्धि हो । वह एक लम्बा जीवन व्यतीत करे । वह नीरोग तथा ओजस्वी और कांतिमय बना रहे। यह सब केवल योग साधन से सम्भव हो सकता
(i) प्राणायाम से फेफड़ों के फैलने तथा सिकुड़ने की शक्ति में वृद्धि होती है, जिससे अधिक से अधिक ऑक्सीजन अन्दर जाती है। परिणामस्वरूप रक्त संचार तथा रक्त-शुद्धि का कार्य अच्छी तरह होता है ।
(ii) यौगिक क्रिया से श्वास क्रिया क़ो नियन्त्रित करके श्वास को स्थिर तथा शान्त रखने में सहायता मिलती है।
(iii) इससे हृदय की गति को स्वाभाविक बनाने में मदद मिलती है।
(iv) पाचन क्रिया ठीक रहती है। पाचन क्रिया के ठीक रहने से बहुत-सी बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है ।
(v) वर्तमान में रीढ़ की हड्डी की बीमारी बढ़ती जा रही है। प्राणायाम से रीढ़ की हड्डी तथा मांसपेशियों के उचित गठन तथा नियन्त्रण में बहुत मदद मिलती है। इसमें हड्डियों तथा मांसपेशियों में कड़ापन नहीं आता तथा उनमें स्वाभाविक लचीलापन बना रहता है। व्यक्ति चुस्त तथा फुर्तीला बना रहता है। व्यक्ति को लम्बी आयु तक युवा बनाए रखने में मांसपेशियों तथा रीढ़ की हड्डी का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।
(vi) योग साधना शरीर के तापक्रम को सामान्य तथा सहज बनाए रखती है। इससे पसीने की दुर्गन्ध को रोकने में भी सहायता मिलती है ।
(vii) योग साधना से शरीर में विभिन्न रस-द्रव्यों का निर्माण करने वाली ग्रन्थियों को ठीक प्रकार नियन्त्रित करने में सहायता मिलती है। इससे ग्रन्थियाँ पर्याप्त रूप से सजग तथा क्रियाशील रहती हैं ।
(viii) प्राणायाम शरीर के आन्तरिक अवयवों तथा प्रणालियों की पूरी तरह सफाई रखने के कार्य में भी मददगार होता है। रक्त की कोशिकाओं की सफाई से लेकर श्वसन तथा पाचन तन्त्रों की आन्तरिक सफाई तथा अनावश्यक द्रव्यों को बाहर निकालने के कार्य में भी मदद मिलती है।
(ix) इससे शरीर की रोग-नांशक तथा कीटाणुओं से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। रोग पैदा करने वाले हानिकारक पदार्थों को शरीर में इकट्ठा होने से रोककर व्यक्ति रोग मुक्त रहता है। 200
(x) योग-साधना के रूप में अपनाई गई उपचार पद्धति से बहुत से रोगों से छुटकारा मिलने की सम्भावना बनी रहती है।
(xi) शारीरिक थकान को दूर करने, शक्ति प्राप्त करने तथा नीरोग और स्वस्थ रहकर दीर्घायु प्राप्त करने के कार्य में यौगिक क्रियाओं का बहुमूल्य योगदान रहता है।
(2) नैतिक महत्त्व — कहा जाता है कि यदि धन गुम हो जाए तो व्यक्ति कुछ नहीं खोता, स्वास्थ्य न होने पर वह कुछ खोता है, यदि चरित्र न रहे तो वह सब-कुछ खो देता है। (If wealth is lost nothing is lost if health is lost something is lost and if character is lost everything is lost.)
वर्तमान-भौतिकवादी युग में पैसे का लालच इतना बढ़ गया है जिससे नैतिकता समाप्त हो गई है। धन के लालच में व्यक्ति तन तथा मन बेचने को तैयार रहता है। इस अनैतिक वातावरण में यदि थोड़ी बहुत आशा की किरण है तो वह है योग ।
यौगिक क्रियाओं के द्वारा व्यक्ति को नैतिक रूप से ऊँचा उठाने में निम्नलिखित आधार पर सहायता मिलती है—
(i) योग साधना से इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति विषय-वासनाओं का दास न होकर उनका स्वामी बन जाता है । वंह रूप, रस, गंधं, स्पर्श तथा शब्दों के मोहजाल से दूर रहने में सफल हो जाता है तथा पथभ्रष्ट होने से बच जाता है।
(ii) व्यक्ति को नैतिक बनाने में आहार का भी बहुत योगदान होता है। योग से व्यक्ति का भोजन तथा भोजन सम्बन्धी आदतें काफी सात्त्विक तथा नियन्त्रित होती हैं। उसके आचारविचार में बहुत अधिक सादगी, सात्त्विकता तथा अच्छाइयाँ आ जाती हैं। वह नशीली वस्तुओं तथा उनके सेवन से दूर हो जाता है। सात्त्विक भोजन से मन में निर्मलता आती है तथा तामसी भोजन से क्रोध तथा विषय वासनाओं में रुचि बढ़ती है।
(iii) मनुष्य अनेक बुराइयों का शिकार है। अनेक बुराइयों में सबसे महत्त्वपूर्ण बुराई क्रोध है। यदि यूँ कहा जाए कि क्रोध सभी बुराइयों की जड़ है तो अनुचित नहीं होगा। क्रोध से व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है तथा सोचने-समझने की शक्ति तथा क्षमता समाप्त हो जाती है। क्रोध वह शैतान है जिससे ज्ञान, विवेक, बुद्धि तथा अन्य मानवीय गुण समाप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में योगसाधना नैतिकता के इस महान् दुश्मन ( क्रोध) के साथसाथ ईर्ष्या, घृणा, वैमनस्य आदि पर विजय प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है ।
(iv) यौगिक क्रियाओं से संवेगों पर उचित नियन्त्रण स्थापित होता है तथा भावात्मक सन्तुलन बनाए रखने की क्षमता विकसित होती है ।
(v) यौगिक क्रियाओं यथा – यम, नियम, साधना, संयम, समाधि के कारण सद्विचार तथा स्वभाव और आदतें पोषित तथा पल्लवित होती हैं । मन में कोमलता आने से सत्य, मृदुल भाषण, ईमानदारी, शान्तिप्रियता, प्रेम, सहयोग, सहनशीलता, सहानुभूति, सहिष्णु आदि सभी नैतिक गुण आ जाते हैं। नैतिक मूल्यों में वृद्धि होती है तथा अनैतिक जीवन का अन्त ।
(3) मानसिक महत्त्व – वर्तमान भौतिक युग में एक ओर सुखसुविधाओं में वृद्धि हुई है तो दूसरी ओर मानसिक तनाव में भी वृद्धि हुई है। मानसिक तनाव के कारण लोग अनिद्रा के शिकार होते जा रहे हैं । लोग अंग्रेजी दवाइयों पर निर्भर होते जा रहे हैं। इस भागम-भाग, तनावपूर्ण तथा अशान्त जीवन से मुक्त होने का बहुत सरल तथा सीधा उपाय है ‘योग’।
योग के माध्यम से जैसा पहले बताया जा चुका है शरीर ही चुस्तदुरुस्त और स्वस्थ नहीं रहता वरन् योग मानसिक तनाव को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
योग साधना से मानसिक शक्तियों के समुचित पोषण तथा विकास के लिए उपयुक्त चेतना तथा शक्ति भी प्राप्त होती है।
मानसिक दृष्टि से प्राप्त लाभों का निम्नलिखित आधार पर अध्ययन किया जा सकता है—
(i) कहा जाता है कि तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ | योग से शरीर सुन्दर तथा बलिष्ठ बनता है। शारीरिक शक्ति के कारण सबल तथा सशक्त मस्तिष्क का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है।
(ii) ज्ञानेन्द्रियों के स्वस्थ, शक्तिशाली तथा क्षमता युक्त होने से उनकी ग्रहण करने की शक्ति तथा संवेदनशीलता में वृद्धि होती है तथा ज्ञान प्राप्ति में पूर्ण सक्षम बन जाती हैं।
(iii) योग से ‘तन सुन्दर बनता है तथा मन सुन्दर बनता है।’ मन में कोमल भावनाएँ जाग्रत होती हैं। मन में सन्तोष उत्पन्न होता है तथा तनाव से मुक्ति मिलती है।
(iv) यौगिक क्रियाओं से मन की चंचलता पर अंकुश लगता है। एकाग्रचित्तता तथा ध्यान की स्थिरता मानसिक शक्तियों के विकास के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार करती है। अभ्यास, संयम, साधना, समाधि, आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि से इन्हें उचित पोषण मिलता है ।
(v) यौगिक क्रियाओं से मन का मैल साफ होता है। इससे पूर्वाग्रह, मतिभ्रम तथा मानसिक विघ्नों से छुटकारा मिलता है। सत्य बोलने की प्रवृत्ति बढ़ती है। पवित्र ग्रन्थों के अध्ययन में रुचि बढ़ती है। इससे व्यक्ति को तर्क शक्ति, विचार शक्ति, कल्पना शक्ति तथा निर्णय करने की क्षमता में वृद्धि करने का पूरा अवसर प्राप्त होता है ।
(vi) योग साधना — ग्रहण क्षमता, धारणा तथा स्मरण शक्ति की वृद्धि में सहायक होती है। योग साधना योगी की स्मृति प्रक्रिया को अच्छा बनाने में सहायता प्रदान करती है ।
(4) आध्यात्मिक महत्त्व — यौगिक क्रियाओं का सामाजिक, शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक क्षेत्र में ही महत्त्व नहीं है वरन् आध्यात्मिक क्षेत्र में भी इनका बहुत महत्त्व है। योग-साधना तन तथा मन को पुष्ट तथा कोमल बनाकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रेसर करती है ।
आध्यात्मिक क्षेत्र में योग का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है—
(i)भारतीय दर्शन के अनुसार व्यक्ति के दो शरीर हैं— स्थूल तथा सूक्ष्म । यौगिक साधना शारीरिक तथा मानसिक शक्ति से परे अति सूक्ष्म तथा सुप्त दैविक तथा अलौकिक शक्तियों के जागरण में मददगार होती है ।
(ii) भारतीय दर्शन में शरीर की अपेक्षा आत्मा को अधिक महत्त्व दिया जाता है । यौगिक क्रियाएँ व्यक्ति को अपनी आत्मा को जानने तथा पहचानने का अवसर प्रदान करती हैं।
(iii) यौगिक साधना से आत्मा को ईश्वर में लीन करने की प्रेरणा मिलती है। ईश्वर सभी मनुष्यों के घट-घट में निवास करता है। प्रत्येक व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। आत्मा तथा परमात्मा का मिलन ही मोक्ष है ।
(iv) भारतीय दर्शन इस सिद्धान्त में विश्वास करता है कि सभी प्राणी सर्वशक्तिमान पूर्ण ब्रह्म (ईश्वर) के अंश हैं। यदि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो हमें सभी के प्रति (ईश्वर के अंश होने के कारण) प्रेम तथा आदरभाव रखना चाहिए। योग साधना से ऐसे सात्त्विक तथा आध्यात्मिक विचार पनपते हैं।
(v) मनुष्य जब पैदा होता है तो खाली हाथ होता है, मरने पर भी वह कुछ साथ लेकर नहीं जाता। यदि वह लेकर जाता है तो भौतिक सुखों तथा साधनों को नहीं वरन् सत्कर्मों को लेकर जाता है। समाज ऐसे व्यक्तियों को याद रखता है जो अपने लिए नहीं वरन् दूसरों के लिए जीते हैं। यौगिक क्रियाओं से इस शाश्वत सत्य का ज्ञान होता है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है ।
(vi) योग के विभिन्न साधनों तथा विधाओं से आत्मा-परमात्मा के मिलन सम्बन्धी विभिन्न उपायों से परिचय होता है तथा उन पर चलने का अवसर भी प्राप्त होता है ।
(vii) योग की विभिन्न विधाएँ मनुष्य को उसके सामान्य सांसारिक कर्मों के लिए शारीरिक तथा मानसिक शक्तियाँ प्रदान करने के अतिरिक्त उसे ईश्वर से मिलने की प्रेरणा भी देती हैं । नियम, साधना, संयम, तप आदि के कठिन पथों से गुजर कर योगी अन्ततः अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है,आत्मा तथा परमात्मा का मिलन हो जाता है।
यौगिक क्रियाओं के ऊपर वर्णित महत्त्व का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि योग मानव समाज को शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रखने में पूरी तरह सक्षम है। वर्तमान भौतिकवादी दुनिया, जहाँ दैहिक तथा मानसिक शोषण है, जहाँ अधिकांश लोग तनाव का जीवन व्यतीत करने को विवश हैं, जहाँ धन की हवस बढ़ती जा रही है, ऐसे दूषित वातावरण में योग साधना की संजीवनी बूटी की काफी आवश्यकता है। यौगिक साधना से व्यक्ति शरीर तथा मन से शान्त हो जाता है। स्वभाव में नम्रता तथा कोमलता आ जाती है। आप दुर्व्यवहार का बदला दुर्व्यवहार से नहीं वरन् सद्-व्यवहार से देंगे। आप झूठ नहीं बोलेंगे। किसी को धोखा नहीं देंगे ।
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