गणित विषय की अधिगम की अनौपचारिक प्रविधियों की व्याख्या कीजिए ।

गणित विषय की अधिगम की अनौपचारिक प्रविधियों की व्याख्या कीजिए । 

उत्तर— गणित विषय की अधिगम की अनौपचारिक प्रविधियाँ–प्रविधि किसी युक्ति के अन्तर्गत प्रयोग की जाती है। शिक्षक की वास्तविक क्रियाएँ ही प्रविधि कहलाती है। किसी भी युक्ति को एक विशेष रूप देती है। उदाहरण के रूप में प्रश्न करना एक युक्ति है। परन्तु प्रश्न किस प्रकार का हो, प्रश्नों की गति क्या हो प्रश्न करने में शिक्षक के हाव-भाव कैसे हों, प्रश्नों का वितरण कैसा हो आदि सभी क्रियाएँ प्रविधि कहलाती है ।

गणित में लिखित कार्य–लिखित कार्य के सम्बन्ध में किसी शिक्षाशास्त्री ने ठीक ही कहा है कि “पढ़ने से व्यक्ति पूर्ण बनता है, संगोष्ठी से त्वरित और लेखन से शुद्ध कार्य करने वाला व्यक्ति गणित में लिखित कार्य के द्वारा निम्न बातों की पूर्ति की जा सकती है—
(1) सीखे गये प्रकरणों, नियमों, सूत्रों, सिद्धान्तों आदि की लिखित रूप से जाँच करना ।
(2) मौखिक रूप से सीखी गई विषय-वस्तु का लेखा तैयार करना ।
(3) ऐसी समस्याओं का समाधान तथा गणना कार्य जो कि मौखिक रूप से न किया जा सके ।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि लिखित कार्य में मानसिक कार्य करना तथा लिखने की विधि दोनों ही सम्मिलित होती है। जिससे लिखित कार्य गणित अध्यापक को बालकों का सही मूल्यांकन करने में भी सहायता प्रदान करता है।
गणित में लिखित कार्य का महत्त्व तथा उद्देश्य – गणित में लिखित कार्य के महत्त्व अथवा उद्देश्य (Purpose) निम्नलिखित हैं—
(1) क्रमबद्ध तथा विधिवत् कार्य करने की आदत का विकास–लिखित कार्य द्वारा बालकों में क्रमबद्ध, विधिवत् तथा स्वच्छता से गणित की समस्याओं को हल करने की आदत विकसित होती है । इसके द्वारा बालकों को संक्रियाएँ (Operations) एवं पदों (Steps) को लिखने का ढंग तथा क्रम का बोध होता है। बालक अपनी तर्क शक्ति द्वारा समस्याओं का विश्लेषण एवं संश्लेषण करके विभिन्न पदों का लिखना सीखता है ।
(2) मानसिक शक्तियों का विकास–लिखित कार्य द्वारा बालकों को अपनी मानसिक शक्ति विकसित करने का पूरा अवसर मिलता है। इसके द्वारा बालकों के विचार स्पष्ट तथा तर्कपूर्ण होते हैं जिससे छात्रों में आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता तथा स्वतन्त्रता से कार्य करने की आदतों का विकास होता है।
(3) अधिगम दिशा का निर्धारण–लिखित कार्य द्वारा बच्चों के अधिगम को दिशा-निर्देश भी मिलते हैं जिससे वह समस्या का विश्लेषण करते हुए उसके विभिन्न पदों (Steps) का उल्लेख करता है और उसका समाधान प्राप्त कर लेता है। लिखित कार्य का उद्देश्य बालक द्वारा सीखे गये मौखिक ज्ञान का अभ्यास, उसका लेखा-जोखा तथा ज्ञान को नवीन परिस्थितियों में प्रयोग में लाना भी है। इस प्रकार लिखित कार्य द्वारा अधिगम दिशा का निर्धारण करने में भी सहायता मिलती है।
(4) कार्य करने की गति में वृद्धि–गणित में बालकों को अपना कार्य एक निर्धारित समय में पूरा करना होता है। लिखित कार्य द्वारा बालकों को अपना कार्य गति के साथ करने का प्रशिक्षण मिलता है, जिससे बालक धीरे-धीरे अपना काम कम समय में करना सीख जाते हैं। इस प्रकार लिखित कार्य द्वारा बालकों को अपना कार्य करने की गति में वृद्धि करने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं ।
(5) शुद्धता के साथ कार्य करने की आदत–बालक द्वारा किये गये लिखित कार्य की गणित अध्यापक द्वारा नियमित रूप से जाँच की जाती है। उसमें जो गलतियाँ होती हैं उनको दूर किया जाता है जिससे बालकों को अपना कार्य शुद्धता के साथ करने का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार लिखित कार्य द्वारा बालकों को गति एवं शुद्धता से कार्य करने का प्रशिक्षण (Training) मिलता है ।
(6) किये गये कार्य को लिखित रूप में व्यक्त करना–गणित एक ऐसा विषय है जिसको रटकर या याद करके सीखना बहुत कठिन है। गणित को अभ्यास के द्वारा अधिक प्रभावशाली ढंग से सीखा जा सकता है। अतः सीखे गये कार्य का लेख रखना लिखित कार्य के द्वारा ही सम्भव है जिसको देखकर निरीक्षक बालक द्वारा किये गये कार्य तथा उनकी प्रगति का अनुमान लगा सकता है। अध्यापक को भी लिखित कार्य द्वारा कराये गये कार्य की पूर्ण जानकारी बनी रहती है ।
(7) कार्य करने की प्रेरणा–गणित में लिखित कार्य करने से बालकों में गति एवं शुद्धता के साथ कार्य करने की आदत का विकास होता है। लिखित कार्य की जाँच करके उनको गलतियों अथवा कमियों से भी अवगत कराया जाता है जिसका लेखा उनके पास रहता है। अतः छात्र अपनी ग़लतियों को ध्यान में रखकर उनको दूर करने का प्रयास करते हैं तथा आगे कार्य करने के लिए प्रेरणा भी प्राप्त करते हैं।
(i) गणित में लिखित रूप से सीखे गये बहुत से महत्त्वपूर्ण नियमों, सूत्रों, सिद्धान्तों, प्रमेयों, गणनाओं आदि को भविष्य में उपयोग हेतु सुरक्षित रखा जा सकता है।
(ii) छोटी कक्षाओं या निम्न स्तर पर गणित का ज्ञान लिखित रूप में सरलता से दिया जा सकता है।
(iii) लिखित कार्य करने से बालकों में भाषा सम्बन्धी बोध तथा कुशलताओं का विकास सम्भव है।
लिखित कार्य में ध्यान देने योग्य बातें या सावधानियाँ—
(i) लिखित कार्य देने से पूर्व बालकों को गणित के विभिन्न नियमों, सूत्रों तथा सिद्धान्तों की जानकारी भली-भाँति करा देनी चाहिए ।
(ii) गणित शिक्षक को लिखित कार्य की जाँच नियमित करनी चाहिए तथा सुधार हेतु उचित निर्देश देने चाहिए।
(iii) लिखित कार्य को गति, शुद्धता, व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध ढंग से करने पर अधिक बल देना चाहिए।
(iv) गणित में गृहकार्य देते समय लिखित कार्य को आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण मानना चाहिए।
(v) लिखित कार्य कराते समय बालकों को गणित के नियमों, सूत्रों तथा संक्रियाओं को प्रयोग में लाने हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करने चाहिए ।
(vi) लिखित कार्य करते समय मौखिक कार्य को भी प्रोत्साहिन देना चाहिए ।
(vii) लिखित कार्य में बालकों की सामान्य त्रुटियों को कक्षा में सामूहिक रूप से श्यामपट्ट पर स्पष्ट कर देना चाहिए ।
(viii) लिखित कार्य में त्रुटियों की जाँच अवश्य करनी चाहिए कि बालकों ने अपने द्वारा की गलतियों में संशोधन किया है अथवा नहीं ।
(ix) लिखित कार्य की जाँच करते समय अध्यापक द्वारा उचित सुझाव देने चाहिए जिससे छात्र सही कार्य करने की प्रेरणा ले सकें ।
गणित में मौखिक कार्य—मौखिक कार्य व्यावहारिक जीवन में अधिक उपयोगी होता है। प्रत्येक नागरिक को अपने दैनिक जीवन में इसकी आवश्यकता पड़ती है। इससे बालकों की स्मरण शक्ति तथा चिन्तन शक्ति का विकास होता है । चिन्तन के साथ-साथ छात्रों में एकाग्रता की आदत भी विकसित होती है । मौखिक कार्य या गणित के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए डॉ. सलामत उल्ला ने स्पष्ट किया है कि (“Mental Arithmetic should be regarded as an essential part for citizenship and effective living.”)
मौखिक कार्य का प्रयोजन—
(i) बालकों की स्मरण शक्ति को विकसित करना ।
(ii) बालकों में विचार शक्ति तथा कल्पना शक्ति का विकास करना ।
(iii) बालकों में एकाग्रता और रचनात्मकता का विकास करना ।
(iv) चिन्तन तथा मनन की आदत विकसित करना ।
(v) गति एवं शुद्धता से कार्य करने की आदत डालना ।
(vi) पढ़ाये गये पाठ का अभ्यास अथवा पाठ की पुनरावृत्ति कराना ।
(vii) पाठ का शीघ्रता से मूल्यांकन करना।
(viii) नवीन प्रकरण या विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण को सरल तथा बोधगम्य बनाना ।
(ix) गणित के ज्ञान को व्यावहारिक जीवन में अधिक उपयोगी बनाना ।
गणित में मौखिक कार्य का महत्त्व–निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) दैनिक जीवन में आवश्यक है–मौखिक कार्य का हमारे व्यावहारिक जीवन में अत्यधिक महत्त्व एवं आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन की आवश्यकताओं विशेष रूप से लेन-देन, क्रय-विक्रय, ब्याज, प्रतिशत, लाभ-हानि, क्षेत्रफल आदि गणितीय ज्ञान का उपयोग मौखिक रूप से ही किया जाता है। उदाहरण के लिए जब हम बाजार से कोई सामान खरीदते हैं तो दुकानदार तथा स्वयं हम उसका हिसाब-किताब अधिकांशतः मौखिक रूप से शीघ्रता से लगा देते हैं। वैसे आज के तकनीकी युग में बड़े-बड़े दुकानदार कैल्कुलेटर अथवा कम्प्यूटर का भी प्रयोग करने लगे हैं। इनमें कम्प्यूटर का प्रयोग तो बहुत ही सीमित है। सामान्यतः हम दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान मौखिक रूप से ही करते हैं ।
(2) परिश्रम तथा समय की बचत–जैसा कि हम जानते हैं कि गणित गणनाओं का गणित है तथा इसमें बहुत सी समस्याओं या प्रश्नों को हल करना होता है। यदि प्रत्येक प्रश्न तथा गणना को लिखित रूप से हल किया जाय तो उसमें समय भी अधिक लगेगा तथा परिश्रम भी अधिक करना होगा। परन्तु मौखिक रूप से सोच-समझकर नियमों और सूत्रों को याद करके कम समय तथा परिश्रम दोनों की बचत होती है। अतः समय तथा परिश्रम की दृष्टि से गणित में मौखिक कार्य महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
(3) शीघ्रता और गति से करने की क्षमता का विकास– मौखिक कार्य की सहायता से गणित में विभिन्न संक्रियाओं जोड़, घटाना आदि में तथा सिखाये गये नवीन सूत्र, नियम सूत्र, नियम और विषयवस्तु का अभ्यास सरल उदाहरणों द्वारा सरलता एवं शीघ्रता से किया जा सकता है। गणित में गणना कार्य को शीघ्रता और गति से करने की क्षमता मौखिक कार्य द्वारा ही विकसित हो सकती है।
(4) यथार्थता एवं शुद्धता की आदत का विकास–मौखिक कार्य में बालक को मानसिक कार्य अधिक करना पड़ता है जिसमें चिन्तन एवं मनन प्रमुख हैं। जब बालक चिन्तन द्वारा किसी ज्ञान को प्राप्त करता है तो उसके विचारों में शुद्धता एवं यथार्थता आ जाती है । इस प्रकार मौखिक कार्य द्वारा बालकों में कम समय में समस्याओं को यथार्थ तथा शुद्ध रूप से समझने की आदत विकसित हो जाती है।
(5) आत्मविश्वास में वृद्धि–जब कोई बालक किसी समस्या का हल मौखिक रूप से कम समय में शीघ्रता और गति से कार्य करते हुए यथार्थ रूप में प्राप्त कर लेता है तो उसमें अपेक्षाकृत अधिक आत्मविश्वास पाया जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मौखिक कार्य करने से बालकों में आत्मविश्वास की वृद्धि होती है तथा वे पढ़ने को तत्पर रहते हैं ।
(6) बालकों के अधिगम को रोचक बनाता है–मौखिक कार्य के द्वारा बालकों का ध्यान गणित के अधिगम के प्रति आकर्षित करने में सहायता मिलती है। कक्षा में पढ़ाते समय बीच-बीच में बालकों से प्रश्न पूछकर उनका ध्यान अध्यापक की ओर केन्द्रित किया जा सकता है। इस प्रकार मौखिक कार्य करने से छात्र गणित की ओर आकर्षित रहते हैं जिससे उनका अधिगम अधिक रोचक हो जाता है तथा छात्र अधिक सक्रिय बना रहता है ।
(7) स्मरण तथा कल्पना शक्ति का विकास–मौखिक कार्य करते समय छात्रों को एकाग्रचित्त होकर सूत्रों या नियमों को याद रखना होता है तथा गणना कार्य करना पड़ता है। गणित में विभिन्न संक्रियाओं को मौखिक रूप से करने पर छात्रों में स्मरण तथा कल्पना शक्ति का विकास होता है।
(i) मौखिक कार्य पाठ की पुनरावृत्ति में भी सहायक होता है। इसकी सहायता से पाठ अथवा पढ़ाई गई विषय-वस्तु का मूल्यांकन आसानी से किया जा सकता है ।
(ii) इसके द्वारा बालकों की योग्यता तथा क्षमताओं का शीघ्रता से अनुमान लगाया जा सकता है।
मौखिक कार्य करते समय अध्यापक को निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए—
(i) मौखिक कार्य हेतु पूछे गये प्रश्नों का स्तर बालकों के स्तरानुसार होना चाहिए।
(ii) प्रश्नों की भाषा सरल, स्पष्ट तथा संक्षिप्त होनी चाहिए।
(iii) मौखिक कार्य में गणनात्मक संख्याएँ दशमलव में तथा ज्यादा बड़ी नहीं होनी चाहिए।
(vi) प्रश्नों का वितरण पूरी कक्षा में समानरूप से करना चाहिए ।
(v) मौखिक कार्य की जाँच हेतु मौखिक परीक्षा अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
(vi) बड़े-बड़े प्रश्नों को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करके ही पूछना चाहिए ।
गणित में अभ्यास कार्य–गणित एक ऐसा विषय है जिसमें एक नियम अथवा सूत्र का ज्ञान अन्य समस्याओं के समाधान में भी प्रयुक्त होता है। गणित में बालकों को चाहे कितने ही नियम या सूत्र बता दिया जाएँ, परन्तु जब तक उन नियमों के आधार पर अभ्यास नहीं करवाया जाता तब तक वे उन नियमों को व्यावहारिक जीवन में शीघ्रता एवं शुद्धता से उपयोग में नहीं ला सकते हैं। सक्सेना एवं ओबेराय ने अभ्यास कार्य के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “सीखे गए कार्य, कौशलों अथवा ज्ञान का नवीन परिस्थितियों में उपयोग करना ही अभ्यास कार्य है।” अभ्यास कार्य से अध्यापक को यह पता लगता है कि शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है अथवा नहीं। अभ्यास कार्य द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थाई अथवा संचित होता है। अभ्यास के अभाव में गणित का कोई प्रयोगात्मक मूल्य नहीं है।
अभ्यास कार्य का महत्त्व तथा उद्देश्य–निम्नलिखित हैं—
(1) गणित शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु।
(2)  गणना सम्बन्धी कौशलों का विकास।
(3) विभिन्न गणितीय कुशलताओं; जैसे-तर्क-वितर्क करने की क्षमता, विश्लेषण, संश्लेषण, प्रतिपादन, नियमीकरण आदि कौशलों का विकास होता है।
(4) गति एवं शुद्धता से कार्य करने की आदत ।
(5) एकाग्रता, परिश्रम, आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास का विकास ।
गणित में गृहकार्य–गृहकार्य वह साधन है जो बालकों को स्वयं अभ्यास करके सीखने के अवसर प्रदान करता है । कक्षा में शिक्षक सीमित परिस्थितियों में ही शिक्षण करा पाता है। गृहकार्य के माध्यम से उसे अर्जित ज्ञान को विभिन्न परिस्थितियों में उपयोग करने के लिए कहा जाता है। गृहकार्य कक्षा-शिक्षण का पूरक होता है।
गृहकार्य देने के कुछ सिद्धान्त होते हैं; जैसे—शुद्धता का सिद्धान्त, रुचि का सिद्धान्त, स्पष्टता का सिद्धान्त, उपयुक्तता का सिद्धान्त, मितव्ययता का सिद्धान्त तथा क्रमबद्धता का सिद्धान्त ।
गृहकार्य देने से निम्नलिखित महत्त्व हैं—
(1) छात्रों को व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप अध्ययन करने का अवसर मिलता है ।
(2) छात्रों की गणित में रुचि उत्पन्न होती है।
(3) मौलिक चिन्तन तथा नियमित रूप से कार्य करने की आदत का विकास होता है ।
गृहकार्य देते समय शिक्षक को कुछ सावधानियाँ भी बरतनी चाहिए; जैसे— गृहकार्य पढ़ाये पाठ से सम्बन्धित होना चाहिए, गृहकार्य की भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए एवं छात्रों की क्षमता के अनुसार गृहकार्य की मात्रा एवं कठिनाई स्तर होना चाहिए।
गणित में पर्यवेक्षित अध्ययन–अध्यापक को पूर्ण देख-रेख या पर्यवेक्षण में विद्यार्थियों के द्वारा किया जाने वाला अध्ययन पर्यवेक्षित अध्ययन कहलाता है।
(1) इस प्रकार के अध्ययन क्रम में चाहे विद्यार्थी अलग-अलग अध्ययन करें अथवा समूह में रहकर कार्य करें, उन पर निगरानी अच्छी तरह से रखी जाती है ।
(2) छात्रों को उचित समय पर मार्ग-निर्देशन मिलता रहता है।
(3) अध्यापक विद्यार्थी की प्रगति से परिचित होते रहते हैं।
(4) अनुशासनहीनता की समस्या को समाप्त करने की दिशा में भी पर्यवेक्षित अध्ययन का विशेष महत्त्व है ।
गणित में समूह अध्ययन—
(1) समूह अध्ययन के अन्तर्गत विद्यार्थियों को उनकी योग्यताओं, रुचियों, अभिरुचियों, शक्तियों आदि के आधार पर उचित प्रकार के समूहों में बाँट दिया जाता है। एक समूह में रहने वाले बच्चों की योग्यता, रुचि, शक्ति और सामर्थ्य लगभग समान हो, इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है।
(2) समूह अध्ययन छात्रों को गणित के अध्ययन में रुचि बढ़ाता है अथवा छात्र अपनी समस्याओं को सम्मिलित प्रयास द्वारा बिना किसी विशेष प्रकार का बोझ अनुभव किए प्रसन्नतापूर्वक हल कर सकते हैं।
(3) समूह अध्ययन में शिक्षक आसानी से विद्यार्थियों का मार्ग निर्देशन कर सकता है ।
गणित में स्वाध्याय–स्वाध्याय का अर्थ है, ‘स्वयं अध्ययन करना ।’ यह अध्ययन का एक ऐसा ढंग है, जिससे बच्चों में स्वयं अपना कार्य अपने आप करने तथा अपने आप पढ़ते रहने की आदत बन जाती है।
गणित में स्वाध्याय का महत्त्व–निम्नलिखित प्रकार है—
(1) स्वाध्याय में गणित के अध्ययन में छात्रों की स्वाभाविक रुचि उत्पन्न हो सकती है ।
(2) बच्चें को आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनाने में भी स्वाध्याय का विशेष महत्त्व है ।
(3) स्वाध्याय बच्चों में अनुसंधानात्मक दृष्टिकोण विकसित करने में भी सहायक होती है ।
(4) स्वाध्याय को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए छात्रों को गणित सम्बन्धी रुचिकर साहित्य जैसे गणित के इतिहास आदि पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
(5) जहाँ तक हो सके शिक्षक को, स्वाध्याय को एक महत्त्वपूर्ण अंग मानकर चलना चाहिए । विद्यार्थी स्वयं पढ़कर या कार्य करके कुछ सीख सके इस बात का अध्यापक को उचित प्रयास करना चाहिए ।
गणित में पुनरीक्षण–गणित में कभी-कभी अभ्यास कार्य अथवा पुनरीक्षण को समान ही समझ लिया जाता है। ऐसा इसलिए हो जाता है, क्योंकि दोनों में ही प्रत्यय का अभ्यास बार-बार होता है जिसका उद्देश्य उचित प्रत्यय निर्माण करना और उसे समझकर प्रश्नों को हल करना होता है, परन्तु पुनरीक्षण में और भी बहुत कुछ होता है, जैसे इसमें समझे गए प्रत्ययों के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों का सही प्रकार से संगठन होता है, जिसे छात्र पूरे पाठ में पूरी इकाई के अलग-अलग विषयों में सम्बन्ध स्थापित कर सकें और उनकी बारीकियों को समझ सकें ।
पुनरीक्षण → पुनः इक्षण→दोबारा देखना ।
गणित में अभ्यासार्थ–अभ्यासार्थ प्रश्न वे कार्य हैं, जो छात्रों को  पाठ पढ़ाने से पूर्व या पाठ समाप्त हो जाने के पश्चात् दिए जाते हैं। इन्हें घर पर या कक्षा में ही हल करना होता है। इसमें दो प्रकार के प्रश्न होते हैं—
(i) दोहराने वाले प्रश्न–इस प्रकार के प्रश्न उन प्रत्ययों को
संगठित करते हैं, जो छात्रों ने अभी नए-नए सीखे हैं, जिनमें अभी अभ्यास की बहुत आवश्यकता है।
(ii) पुनरीक्षण प्रश्न–इस प्रकार के प्रश्न, पहले सौंपे गए सिद्धान्तों को दृढ़ करने के लिए दिए जाते हैं जिससे कि छात्र नए प्रत्ययों को सीखने के साथ-साथ, पुराने प्रत्ययों को भूल न जाएँ ।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *