जेण्डर के संघर्ष के स्थान को उदाहरण सहित वर्णन कीजिए |
जेण्डर के संघर्ष के स्थान को उदाहरण सहित वर्णन कीजिए |
उत्तर- दो या दो से अधिक (परस्पर विरोधी प्रकृति की) या आवश्यकताएँ व्यक्ति में उत्पन्न हो तथा एक की पूर्ति दूसरे में बाधा उत्पन्न करे तो ऐसी अवस्था को संघर्ष कहते हैं। मानव जीवन मैं आरम्भ से ही संघर्ष की परिस्थितियाँ जन्म लेती रहती हैं। एक शिशु भी संघर्ष से अछूता नहीं रहता जब वह यह अनुभव करता है कि माँ उसे खेलने देगी या नहीं, दुध पिलाएगी या नहीं, खिलौना खेलने को देगी या नहीं अथवा उससे प्रेम करेगी या नहीं। जब पिता बालक को बाहर खेलने से मना करते हैं तो बालक यह अनुभव करता है कि वह बालक खेलने जाए या नहीं, क्या करे और क्या न करे, की स्थिति संघर्ष कहलाती है। -अलग परिभाषाएँ
अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों ने इसकी अलग दी हैं
ब्राउन के अनुसार, “मनोविश्लेषकों ने संघर्ष की विशेषता इस प्रकार दी है संघर्ष वह अवस्था है, जब दो इच्छाएँ इतनी विरोधी होती हैं कि एक-दूसरे की तृप्ति में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं। “
लेजारस के अनुसार, “संघर्ष उस समय उत्पन्न होता है जब एक व्यक्ति को दो असंगत या पारस्परिक रूप से विरोधी आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रायः एक ही समय पर पूरा करना होता है अर्थात् जब विवश होकर एक आवश्यकता की पूर्ति करने पर, दूसरी आवश्यकता की पूर्ति कर पाना असम्भव हो जाता है। ” जब एक ही समय में व्यक्ति को एक से अधिक भूमिकाओं को निभाना पड़े तथा एक भूमिका की प्रत्याशा दूसरी भूमिका की प्रत्याशा के विपरीत हो तो उससे उत्पन्न हुई व्यक्ति की मानसिक स्थिति को संघर्ष कहेंगे।
सैकर्ड तथा बैकमैन (1974) के अनुसार, “भूमिका संघर्ष वह स्थिति है जो तब उत्पन्न होती है जब अभिनेता (Actor) की एक प्रत्याशा का अपेक्षित व्यवहार उसकी दूसरी प्रत्याशा के अपेक्षित व्यवहार से कुछ अंशों में परस्पर विरोधी होता है। “
संघर्ष का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है, जब घर में सास तथा बहू के बीच अनबन होने पर युवक के सामने समस्या उत्पन्न होती है कि वह किसका साथ दे माँ का कहना माने या पत्नी के कहने पर माता को कष्ट पहुँचाये। पति के रूप में उससे आशा की जाती है कि वह पत्नी की रक्षा करे यह उसका कर्त्तव्य है। और पुत्र के रूप में उससे आशा की जाती है कि वह अपनी माता की आज्ञा का पालन करे। ये दोनों आशाएँ ही विरोधी हैं तथा यह इससे निर्णय नहीं ले पाता है कि क्या करे वह क्या न करें। यह मानसिक स्थिति ही संघर्ष है। सामान्यतः संघर्ष के दो आयाम हैं-
(1) सामाजिक संघर्ष एवं
(2) भावात्मक संघर्ष।
(1) सामाजिक संघर्ष- गिलिन एण्ड गिलिन के अनुसार, “सामाजिक संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें कई व्यक्ति या समूह अपने प्रतिद्वंद्वी पर हिंसा करके या हिंसा की धमकी देकर अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।”
“Social conflicts is the social process in which individuals or groups seek their ends directly challenging the antagonists by violence or the threat of violence.”
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि “सामाजिक संघर्ष का तात्पर्य उस सामाजिक परिस्थिति से है जहाँ परस्पर विरोधी घटनाएँ, प्रेरणाएँ, अभिप्राय व्यवहार आवेग आदि होते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम सकते हैं कि-
(i) सामाजिक संघर्ष वह है जहाँ दो या अधिक व्यक्तियों की उपस्थिति होती है इसलिए इसे सामाजिक संघर्ष कहा जाता है।
(ii) सामाजिक संघर्ष का प्रत्यक्ष सम्बन्ध सामाजिक पारस्परिक क्रिया से होता है।
(iii)सामाजिक संघर्ष वह है जिसमें पारस्परिक क्रिया होती है, वह सहमति के बदले प्रतिरोध पर, मित्रता के बदले शत्रुता पर, सद्भाव के बदले दुःख पर आधारित होती हो तथा ये सभी व्यावहारिक व मानसिक दोनों स्तर पर हो सकता है।
(iv) सामाजिक संघर्ष का सम्बन्ध किसी न किसी अभिप्राय से (International) होता है। समूह के लोग जानबूझ कर किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे का विरोध करते हो तथा नुकसान पहुँचाने का प्रयास करते हैं।
(v) सामाजिक संघर्ष के दो प्रकार हैं— वास्तविक संघर्ष तथा मूल संघर्ष। वर्तमान समूह परिस्थिति में घटित संघर्ष को वास्तविक संघर्ष कहते हैं तथा बचपन से निष्क्रिय स्थिति में विद्यमान संघर्ष को मूल संघर्ष कहते हैं।
(2) भावात्मक संघर्ष- भावात्मक संघर्ष दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाले विपरीत संवेगों की उत्पत्ति के फलस्वरूप होता है। आन्तरिक संवेगों की उत्पत्ति के कारण उसे सरदर्द होता है जो कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है। शैशवावस्था में प्रत्येक 2 से 5 या 7 वर्ष का बालक अन्तर्द्वन्द्व से घिरा रहता है उसके अन्दर प्यार, घृणा, ईर्ष्या आदि संघर्ष चलते रहते हैं।
बहुत सारी अनसुलझी समस्याएँ इस संघर्ष के जन्म का कारण होती हैं सरदर्द बहुत सारी अचेतन मन में पनपी दमित संघर्षों की देन है। इस तरह से हमारे शरीर में अनेक प्रकार की शारीरिक अस्वस्थता या दर्द बिना किसी कारण के नहीं होता बल्कि इनके पीछे अनेक दमित चिन्ताएँ होती हैं। ये आसान नहीं कि इनसे तुरन्त छुटकारा मिल जाए लेकिन धीरे-धीरे इनसे मुक्ति सम्भव है। इन भावात्मक संघर्ष का सीधा सम्बन्ध सांवेगिक वृद्धि से होता है। जिन व्यक्तियों में भावात्मक संघर्ष होता है। उनमें सांवेगिक बुद्धि अधिक होती है तथा ऐसे व्यक्ति व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं अर्थात् उनमें वातावरण से समायोजन की क्षमता अधिक होती है।
भावात्मक संघर्ष से बचने के लिए गेट्स व अन्य ने लिखा है, “अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग केवल दुःखपूर्ण तनाव को कम करने के लिए किया जाता है।’
( 1 ) शोधन (Sublimation) – जब व्यक्ति में तनाव अधिक होता है तो वह कला, धर्म, साहित्य, पशुपालन, समाजसेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता है।
( 2 ) पृथक्करण (Withdrawal)—इस विधि में व्यक्ति अपने को तनाव उत्पन्न करने वाली स्थिति से पृथक् कर लेता है।
( 3 ) प्रक्षेपण (Projection)—इस विधि में व्यक्ति अपने दोष का आरोपण दूसरे पर करता है। उदाहरण–यदि बढ़ई द्वारा बनाई गयी किवाड़ टेढ़ी हो जाती है तो वह कहता है कि लकड़ी गीली थी।
(4) निर्भरता (Dependence) — इस विधि में व्यक्ति किसी दूसरे पर निर्भर होकर अपने जीवन का उत्तरदायित्व उसे सौंप देता है। उदाहरण के लिए–सांसारिक कष्ट से परेशान होकर व्यक्ति किसी महात्मा का शिष्य या साधु बन जाता है।