नारीवाद की क्या विशेषताएँ हैं ?

नारीवाद की क्या विशेषताएँ हैं ?

अथवा

नारीवाद पर एक निबन्ध लिखिये ।
उत्तर – नारीवाद की विशेषताएँ–नारीवाद की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
( 1 ) समान अधिकार तथा समान अवसर – जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों एवं पुरुषों को समान अधिकार प्रदान किए जाए तथा सभी को सम्मान अवसर उपलब्ध हों। नारीवाद के समर्थकों का विचार है कि स्त्रियों को पुरुषों के समान सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी अधिकार प्राप्त होने चाहिए। स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अपना जीवन स्वतन्त्रतापूर्वक व्यतीत करने, अपनी रुचि के अनुसार किसी भी व्यवसाय को अपनाने, सम्पत्ति रखने तथा विवाह एवं तलाक के अधिकार प्राप्त होने चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में भी मताधिकार का प्रयोग करने, चुनाव लड़ने तथा उच्च सरकारी पद ग्रहण करने के अधिकार प्राप्त होने चाहिए। नौकरी के मामले में लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए ।
( 2 ) स्त्रियाँ लैंगिक प्राणी नहीं हैं मानव हैं— नारीवाद का विचार है कि स्त्रियाँ केवल लैंगिक प्राणी ही नहीं हैं तथा स्त्रियों को केवल माता, पत्नी तथा बहन के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि इन्हें एक सामान्य इन्सान के रूप में देखा जाना चाहिए। नारीवादियों का विचार है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान योग्यता एवं बुद्धि रखती हैं तथा वे सभी कार्यों को करने में सक्षम हैं जो पुरुषों द्वारा किए जाते हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों की अधीनता स्त्रियों को इसलिए स्वीकार करनी पड़ती है कि उन्हें पुरुषों के समान विकास के अवसर नहीं उपलब्ध कराए जाते हैं।
( 3 ) स्त्रियों की परम्परावादी भूमिका में परिवर्तन–नारीवादियों की मान्यता है कि परम्परावादी विचारधारा के अनुसार स्त्रियों को घर का काम-काज करना, पति की सेवा करना, बच्चा पैदा करना तथा उनका पालन-पोषण करना आदि किए जाने के विरुद्ध है। स्त्रियों की यह भूमिका दैवीय न होकर पुरुषों द्वारा बनाई गई है। इस प्रकार स्त्रियाँ जब तक स्वतन्त्र नहीं होंगी तब तक उनकी भूमिका में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है।
( 4 ) एक पति एक पत्नी विवाह का विरोध-स्त्रीवादी विचारक एक पति- एक पत्नी विवाह की प्रथा के विरुद्ध हैं। उनका मानना है कि इस प्रथा के अन्तर्गत स्त्री अपने पति की दासी बनकर रह जाती है तथा अपनी सारी उम्र अपने पति की सेवा, बच्चों का पालन-पोषण तथा घर के अन्य कामों को करने में ही व्यतीत कर देती है। इसलिए स्त्रियों को इस दासता की प्रथा से मुक्ति दिलाने के लिए इस प्रथा का अन्त करना होगा।
(5) परिवार की संस्था का विरोध-परिवार की संस्था को महिलाओं की अधीनता एवं उत्पीड़न का महत्त्वपूर्ण कारक माना जाता है। परिवार में स्त्री की भूमिका को घर की चहारदीवारी के भीतर ही सीमित कर दिया गया है इसलिए स्त्रियों को अपनी क्षमताओं को विकसित करने का पूर्ण अवसर नहीं प्राप्त हो पाता है। इतना ही नहीं, परिवार में बच्चों का समाजीकरण भी इस प्रकार से होता है कि पुरुष का स्त्री पर प्रभुत्व बना रहे। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को परिवार द्वारा भी प्रत्येक क्षेत्र में अधिक प्राथमिकता दी जाती है ।
( 6 ) स्त्रियों की आर्थिक स्व-निर्भरता – स्त्री पर पुरुष के प्रभुत्व का मुख्य कारण है कि पुरुष पर स्त्रियों की आर्थिक निर्भरता है। यदि स्त्रियों को शिक्षित करके आर्थिक रूप से आत्म निर्भर बना दिया जाए तो उन्हें पुरुषों पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा तथा वे स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन यापन कर सकेंगी। पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी शिक्षित करके उन्हें उद्योग-धन्धों तथा नौकरी या अन्य व्यवसाय जैसे— डॉक्टरी, वकालत, इन्जीनियरिंग आदि करने के लिए सक्षम बनाया जाना चाहिए।
( 7 ) पितृ-प्रधानता का विरोध – पितृ – प्रधानता को ही स्त्रियों के शोषण, दमन तथा उनके साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार का कारण माना जाता है। पितृ-प्रधान समाज में पुरुष स्त्री पर अपनी प्रधानता स्थापित करता है तथा उसे निर्देश देता है। नारीवाद के समर्थक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का विरोध करते हैं।
( 8 ) बालकों की सार्वजनिक देखभाल— कुछ नारीवाद के समर्थकों का मानना है कि बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी समाज की होनी चाहिए। महिला प्रसूति गृह एवं बाल पोषण गृहों तथा शिशुओं के उपचार के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए। इसमें बच्चों की देखरेख की जिम्मेदारी प्रशिक्षित नर्सों के द्वारा सामूहिक रूप से होनी चाहिए।
( 9 ) लैंगिक स्वतन्त्रता – कुछ उग्र नारीवादियों की मान्यता है कि कामवासना की पूर्ति एक निजी पहलू है जिसमें समाज को तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक कि दूसरे को कोई नुकसान न पहुँचे। अतः स्त्री को अपनी स्वेच्छानुसार यौन सम्बन्ध जोड़ने एवं तोड़ने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
( 10 ) स्त्रियाँ एक उत्पीड़ित वर्ग हैं— नारीवादियों का मानना है कि स्त्रियाँ समाज की उत्पीड़ित वर्ग हैं तथा लगभग सभी समाज में वे शोषण की शिकार हैं। परम्परागत रूप से पैतृक सम्पत्ति में उनका कोई कानूनी अधिकार नहीं था। वे पुरुषों से पीछे थी वे सम्पत्ति की मालिक भी नहीं बन सकती थी न ही नौकरी आदि करके स्व-निर्भर ही बन सकती थीं। आज भी अधिकांश स्त्रियाँ अपने परम्परागत कार्यों जैसे— घर का काम-काज करना, बच्चा पैदा करना एवं उसका पालन-पोषण करना तथा घर में सभी की सेवा करना आदि कार्यों में व्यस्त रहती हैं। अधिकांश स्त्रियाँ आज भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर होती हैं।
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