निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए

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(अ) शिक्षा की राष्ट्रीय नीति-1992
(ब) लैंगिक असमानता
उत्तर – (अ) शिक्षा की राष्ट्रीय नीति- 1992 – नारी शिक्षा के बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) के भाग चार में निम्नलिखित बातों उल्लेख हैं—
का शिक्षा नीति के पैरा 4.2 शिक्षा को महिलाओं के स्तर में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। अतीत से चली आ रही विकृतियों और विषमताओं को खत्म करने के लिए महिलाओं को सुविचारित समर्थन दिया जाएगा। शिक्षा पद्धति द्वारा महिलाओं को शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए एक ठोस भूमिका निभाई जाएगी और यह हस्तक्षेप के रूप में होगी। नए पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों तथा शिक्षकों, निर्णयकर्त्ताओं और प्रशासकों के प्रशिक्षण और अनुस्थापन एवं शिक्षा संस्थाओं के सक्रिय सहयोग द्वारा नए मूल्यों के विकास को बढ़ावा दिया जाएगा। वस्तुतः यह काम विश्वास और सामाजिक निर्माण के माध्यम से संभव हो सकेगा। महिलाओं से सम्बन्धित अध्ययनों को विभिन्न पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत प्रोत्साहन दिया जाएगा और शिक्षा संस्थाओं को महिला विकास से सम्बन्धित कार्यक्रम शुरू करने के लिए प्रेरित किया जाएगा।
संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1992 में बालिकाओं की शिक्षा—
बालिकाओं के लिए शिक्षा का प्रसार–बालिकाओं के लिए शिक्षा का प्रसार निम्नलिखित प्रकार है—
(1) प्राथमिक स्कूलों के पास ई.सी.सी.ई. के केन्द्रों को स्थापित करना ।
(2) विद्यालय के अध्यापकों तथा आँगनवाड़ी के कार्यकर्त्ताओं के बीच समन्वय स्थापित हो ।
(3) जिन गाँवों की जनसंख्या 500 से कम है उनमें पैरा स्कूल को मिडिल स्कूल से जोड़कर चलाया जाए जो कि गाँवों के बीच में हो ।
(4) काम करने वाले बच्चों व बालिकाओं के लिए विद्यालय के समय को कम करना तथा उसे लचीला बनाना ।
(5) प्रतिभावान बालिकाओं को छात्रवृत्ति दी जाए।
(6) ऐसे स्थान जहाँ कोई मिडिल स्कूल नहीं है तथा जिनकी आबादी 500 या उससे अधिक है, वहाँ एक-एक मिडिल स्कूल खोला जाएगा।
(7) लिंग भेद को समाप्त कर महिलाओं के लिए उच्च शिक्षा में . सुविधाओं को बढ़ावा दिया जाये तथा उन्हें उचित प्रतिनिधित्व दिया जाये।
(8) वे बालक जो बीच में विद्यालय छोड़ देते हैं, प्रवास बच्चे तथा काम करने वाले बच्चों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनौपचारिक पद्धतियों और सृजनात्मक तरीकों का लाभ उठाया जाए।
(9) बालिकाओं में महिला अध्यापकों के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध हो तथा महिला छात्रावास में एक महिला वार्डन को रखा जाए। आवास की सुविधा बढ़ाने के लिए कम खर्चे पर आवास की सुविधा उपलब्ध करायी जाये ।
(10) ऐसे स्थानों पर विद्यालय खोले जाएँ, जहाँ पर महिला साक्षरता की दर कम हो ।
(11) काम करने वाले बच्चों को स्कूल भिजवाने के लिए उनके मालिकों के विरुद्ध कानूनी सहारा लिया जाए।
(12) महिला अध्यापकों की संख्या बढ़ायी जाये, लड़कियों से सम्बन्धित सभी शिकायतों को गम्भीरता से लिया जाए।
(13) बालिकाओं के लिए स्कूल की ड्रेस, पुस्तकें आदि उपलब्ध करायी जाएँ।
(14) ऐसे क्षेत्र उनकी आबादी 300 तक हैं, इन क्षेत्रों में
सन् 2000 तक कम-से-कम एक प्राइमरी स्कूल खोला जाए।
(ब) लैंगिक असमानता –  हम 21वीं शताब्दी के भारतीय होने. पर गर्व करते हैं, जो एक बेटा पैदा होने पर खुशी का जश्न मनाते हैं और यदि एक बेटी का जन्म हो जाये तो शान्त हो जाते हैं। लड़के के लिए इतना ज्यादा प्यार, कि लड़कों के जन्म की चाह में हम प्राचीनकाल से ही उन्हें, जन्म से पहले ही मारते आ रहे हैं, यदि सौभाग्य से वे नहीं मरती तो हम जीवन भर उनके साथ भेदभाव के अनेक तरीके ढूँढ लेते हैं। हालाँकि हमारे धार्मिक विचार औरत को देवी स्वरूप मानते हैं, लेकिन हम उसे एक इंसान के रूप में पहचानने से मना कर देते हैं। हम देवी की पूजा करते हैं पर लड़कियों का शोषण करते हैं।
लैंगिक असमानता की परिभाषा और संकल्पना – लिंग सामाजिक-सांस्कृतिक शब्द है, सामाजिक परिभाषा से संबंधित करते हुए समाज में पुरुषों और महिलाओं के कार्यों और व्यवहारों को परिभाषित करता है, जबकि सेक्स शब्द आदमी और औरत को परिभाषित करता है, जो एक जैविक और शारीरिक घटना है। अपने सामाजिक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं में लिंग पुरुष और महिलाओं के बीच शक्ति के कार्य के संबंध है जहाँ पुरुष को महिला से श्रेष्ठ माना जाता है । इस तरह लिंग को मानव निर्मित सिद्धान्त समझना चाहिये, जबकि सेक्स मानव की प्राकृतिक या जैविक विशेषता है।
लिंग असमानता को सामान्य शब्दों में इस तरह परिभाषित किया जा सकता है कि लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव समाज में परम्परागत रूप से महिलाओं को कमजोर जाति-वर्ग के रूप में माना जाता है। वह पुरुषों की एक अधीनस्थ स्थिति में होती है। वो घर और समाज दोनों में शोषित, अपमानित और अक्रमित और भेदभाव से पीड़ित होती है।
भारत में लैंगिक असमानता के कारण और प्रकार – भारतीय समाज में लिंग असमानता का मूल कारण इसकी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिल्विया बाल्वे के अनुसार “पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की ऐसी प्रक्रिया और व्यवस्था है, जिसमें आदमी औरत पर अपना प्रभुत्व जमाता है, उसका दमन करता है, और उसका शोषण करता है।” महिलाओं का शोषण भारतीय समाज की सदियों पुरानी सांस्कृतिक घटना है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने अपनी वैधता और स्वीकृति हमारे धार्मिक विश्वासों, चाहे वो हिन्दू या मुस्लिम या अन्य किसी धर्म से ही क्यों न हो से प्राप्त की है।
उदाहरण के लिए प्राचीन भारतीय हिन्दू कानून के निर्माता मनु अनुसार “ऐसा माना जाता है कि औरत को अपने बाल्यकाल में पिता के अधीन, शादी के बाद पति के अधीन, और अपनी वृद्धावस्था या विधवा होने पर अपने पुत्र के अधीन रहना चाहिये। किसी भी परिस्थिति में उसे खुद को स्वतंत्र रहने की अनुमति नहीं है । “
मुस्लिमों में भी समान स्थिति है और वहाँ भी भेदभाव या परतन्त्रता के लिए मंजूरी धार्मिक ग्रन्थों और इस्लामी परम्पराओं द्वारा प्रदान की जाती है। इसी तरह अन्य धार्मिक मान्यताओं में भी महिलाओं के साथ एक ही प्रकार के या अलग तरीके से भेदभाव हो रहे हैं।
महिलाओं के समाज में निचला स्तर होने के कुछ कारणों में से अत्यधिक गरीबी और शिक्षा की कमी भी है। गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण बहुत सी महिलायें कम वेतन पर घरेलू कार्य करने, संगठित वेश्यावृति का कार्य करने या प्रवासी मजदूरों के रूप में कार्य करने के लिए मजबूर होती हैं। महिलाओं को न केवल असमान वेतन या अधिक कार्य कराया जाता है बल्कि उनके लिए कम कौशल की नौकरियाँ पेश की जाती हैं जिनका वेतनमान कम होता है । यह लिंग निर्धारण के आधार पर असमानता का एक प्रमुख रूप बन जाता है ।
लड़की को बचपन से शिक्षित करना अभी एक बुरा निवेश माना जाता है क्योंकि एक दिन उसकी शादी होगी और उसके पिता के घर को छोड़कर दूसरे घर जाना पड़ेगा। इसलिए अच्छी शिक्षा के अभाव में वर्तमान में नौकरियाँ कौशल माँग की शर्तों को पूरा करने में अक्षम हो जाती हैं। वहीं प्रत्येक साल हाईस्कूल और इंटरमीडिएट में लड़कियों का परिणाम, लड़कों से अच्छा रहता है। ये प्रदर्शित करता है कि 12वीं कक्षा के बाद माता-पिता लड़कियों की शिक्षा पर ज्यादा खर्चा नहीं करते जिससे कि वे नौकरी प्राप्त करने के क्षेत्र में पिछड़ रही हैं ।
सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, परिवार, खाने की आदतों के मामले में भी वो केवल लड़का ही होता है, जिसे सभी प्रकार का पौष्टिक और स्वादिष्ट पसंदीदा भोजन प्राप्त होता है, जबकि लड़की को वो सभी चीजें खाने को मिलती हैं जो परिवार के पुरुषों के खाना खाने के बाद बचा रह जाता है। जो दोनों ही रूपों गुणवत्ता और पौष्टिकता में बहुत घटिया किस्म का होता है। यही बाद के वर्षों में उसकी खराब सेहत का प्रमुख कारण बनता है।
अतः उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि महिलाओं के साथ असमानता और भेदभाव का व्यवहार समाज में, घर में और घर के बाहर विभिन्न स्तरों पर किया जाता है।
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