पर्यावरण शिक्षा के स्वरूप की विवेचना कीजिए। इसके उद्देश्य एवं क्षेत्र का वर्णन कीजिए।

पर्यावरण शिक्षा के स्वरूप की विवेचना कीजिए। इसके उद्देश्य एवं क्षेत्र का वर्णन कीजिए।

उत्तर- पर्यावरण शिक्षा का स्वरूप पर्यावरण शिक्षा की प्रकृति क्या हो इस बारे में शिक्षाविदों के भिन्न-भिन्न मत हैं। इस विषय का ज्ञान पृथक् पाठ्यक्रम के रूप में दिया जाए अथवा इसके अंशों की वर्तमान में चल रहे विषयों में जोड़ा जावे। इस प्रकार पर्यावरण शिक्षा पाठ्यक्रम की प्रकृति दो प्रकार की मानी गई है —
(1) एकल विषय प्रकृति,
(2) बहुविषय प्रकृति ।
(1) एकल विषय प्रकृति – एकल विषय प्रकृति के अनुसार पर्यावरण शिक्षा को एक पृथक् विषय माना जावे तथा कक्षाओं में अन्य विषयों की तरह इसका अध्ययन करवाया जावे। पृथक् विषय के रूप में इनका पाठ्यक्रम विस्तृत होगा तथा विद्यार्थियों पर एक अतिरिक्त विषय का भार बढ़ जावेगा तथा उन्हें अन्य विषयों में पर्यावरण से जुड़े अंशों का अध्ययन भी पुनः करना पड़ेगा।
वर्तमान समय में पर्यावरण की भयावह स्थिति को देखते हुए इसे प्रत्येक स्तर पर पृथक् विषय में पढ़ाया जाना स्वीकार किया है तथा सभी स्तरों पर लागू भी कर दिया है। इससे पर्यावरण के प्रति समझ एवं संचेतना का विकास प्रभावी तरीके से होगा।
(2) बहु विषय प्रकृति- इसके अन्तर्गत पर्यावरण शिक्षा का अध्ययन एकाकी न रखकर विभिन्न विषयों के साथ समाहित कर अध्ययन कराया जावे। ऐसा करने का कारण विद्यार्थियों पर किताबों का अतिरिक्त भार नहीं डालना लेकिन इस प्रकार पर्यावरण के अंशों को बिखेर कर उनकी जानकारी कराने से वांछित प्रभावशीलता का विकास असम्भव होगा। ज्ञान की पूर्णता नहीं होने से उद्देश्यों की पूर्ति भी सम्भव नहीं हो सकेगी। इस तरह का अध्ययन मात्र औपचारिकता बनकर रह जावेगा। पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्यों की दृष्टि में शिक्षण कार्य में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षण की विधियों को समान रूप से प्रयोग में लाना चाहिये। शिक्षण की सैद्धान्तिक विधियाँ प्रमुख रूप से पर्यावरण की समझ एवं संचतेना विकास में सहायक होती हैं जबकि व्यावहारिक विधियों द्वारा कौशल एवं अन्य उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। अनुसंधान कार्य पर्यावरण की समस्याओं के समाधान एवं सुधार में मदद करता
पर्यावरण शिक्षा के उद्देश्य
(i) शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पारिस्थितिकी की परस्पर अवलम्बिता के बारे में स्पष्ट जानकारी का विकास करना और इसमें रुचि बनाये रखना।
(ii) प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण संरक्षा और सुधार के लिए वांछनीय ज्ञान, मूल्य, मनोवृत्ति, वचनबद्धता और कौशल प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना।
(iii) पर्यावरण के प्रति व्यक्तिशः समूह और समाज सभी में नये व्यावहारिक दृष्टिकोण का निर्माण करना ।
विभिन्न पर्यावरण वैज्ञानिकों तथा संस्थाओं ने पर्यावरण शिक्षा के विभिन्न रूपों में उद्देश्य निर्धारित किये हैं, जो निम्नवत् हैं–
(1) स्टेप और उनके साथी–स्टेप और उनके साथियों ने सन् 1970 में पर्यावरण शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये–
(i) लोगों को यह अवबोध कराना कि मानव उस व्यवस्था का अभिन्न अंग है, जिसमें मानव, भौतिक एवं जैविक पर्यावरण आते हैं।
(ii) जन सामान्य में पर्यावरण के प्रति समझ उत्पन्न करना ।
(iii) मूलभूत पर्यावरणीय समस्याओं का अवबोध कराना ।
(iv) पर्यावरण के प्रति नागरिकों के उत्तरदायित्व निर्धारित करना ।
(2) विदार्त (Vidart) के अनुसार– विदार्त ने पर्यावरण के उद्देश्यों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया-
(अ) ज्ञानात्मक उद्देश्य–
(1) पर्यावरण का ज्ञान कराना ।
(2) सोचने व समस्या समाधान की क्षमता का विकास करना।
 (ब) मानक उद्देश्य
(1) पारिस्थितिक जागरूकता का विकास करना ।
(2)पर्यावरणीय मूल्यों का निर्माण करना ।
(स) तकनीकी तथा प्रायोगिक उद्देश्य–
(1) पर्यावरण के संवर्धन व संरक्षण के लिये सामूहिक व्यावहारिक क्रियाओं की योजनाएँ बनाना तथा उन्हें कार्यान्वित करना।
(3) यूनेस्को के अनुसार–
(1) पर्यावरण शिक्षा को औपचारिक शिक्षा के साथ सम्बद्ध किया जाना ।
(ii) पर्यावरण शिक्षा को अन्तःअनुशासनात्मक प्रकृति प्रदान करना।
(iii) समग्रता के दृष्टिकोण का विकास, जिसमें इकोलोजिकल, सामाजिक व सांस्कृतिक पक्ष सम्मिलित हों।
(iv) पर्यावरण शिक्षा को मानव जीवन से सम्बन्धित करना।
 ( 4 ) यूनेप–के अनुसार–
(i) जागरूकता ––पर्यावरण शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य जनसामान्य में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करना है। यह कार्य औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा का नियोजन कर सम्पन्न किया जाना चाहिए।
(ii) ज्ञान–पर्यावरण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य समाज के सभी आयु वर्ग के लोगों में पर्यावरण से सम्बन्धित ज्ञान का प्रचार व प्रसार करना है ताकि लोग पर्यावरण और मानव के सम्बन्ध को समझ सकें और पर्यावरण के संरक्षण की चिन्ता करें ।
(iii) मूल्यांकन—व्यक्तियों एवं सामाजिक समूहों में पर्यावरण के मूल्यांकन की दक्षता का विकास करना ।
(iv) अभिवृत्तियों में परिवर्तन– पर्यावरण शिक्षा द्वारा लोगों में पर्यावरण के प्रति अनुकूल अभिवृत्तियों एवं मूल्यों का विकास किया जावे। मानव की पर्यावरण के मूलभूत अवयवों- जल, वायु, वनस्पति व पशु-पक्षी जगत के प्रति दोहन व शोषण की प्रवृत्तियों के कारण ही पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़ा है। अतः पर्यावरण शिक्षा का प्रमुख कार्य पर्यावरण के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन करना तथा निम्नांकित पर्यावरणीय मूल्यों का विकास करना है— (अ) प्रेम, (ब) उदारता, (स) सहअस्तित्व, (द) अहिंसा, (प) करुणा, (फ) परस्पर पूरकता, (म) समानता, (य) न्याय, (र) बन्धुत्व ।
(v) कौशलों का विकास—इसके अन्तर्गत पर्यावरण शिक्षा द्वारा लोगों में उन कौशलों का विकास किया जाना आवश्यक है, जिनके द्वारा वे पर्यावरणीय समस्याओं की पहचान कर उनको हल करने में समर्थ बन सकें ।
(vi) सहभागिता—इसके अन्तर्गत पर्यावरण शिक्षा द्वारा प्रदूषण निवारण के लिये वृक्षारोपण, सफाई कार्यक्रमों के संचालन, जनसंख्या, शिक्षा के कार्यक्रमों के नियोजन व कार्यान्वयन में समाज के सभी वर्गों के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना है।
पर्यावरणीय शिक्षा के क्षेत्र– पर्यावरणीय अपने आप में विस्तृत एवं व्यापक विषय है जिसके अन्तर्गत जैविक एवं अजैविक घटकों के साथ-साथ अन्य सभी ऐसे घटकों का अध्ययन किया जाता है जिनसे मानवीय जीवन प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। यह स्वाभाविक सी बात है कि जब पर्यावरण का क्षेत्र व्यापक है तो पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र भी सीमित न होकर व्यापक और विस्तृत ही होगा। इसलिए पर्यावरण शिक्षा पर्यावरण से सम्बन्धित सभी घटकों को अपने आप में समाहित कर लेती है। पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्न चर्चित शीर्षकों का अध्ययन किया गया है–
(1) भोजन और पोषण – खाद्याओं का उत्पादन अपने मूल रूप से संसाधनों से ही होता है। इसलिए खाद्य वस्तुओं का उत्पादन, आपूर्ति और उपयोग भी पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र के अन्तर्गत आ जाता है। प्रत्येक जैविक घटक की खाद्यान्न आपूर्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण द्वारा ही सम्भव होती है। यही कारण है कि वैकल्पिक खाद्यान्न, खाद्यान्न संरक्षण, भोजन के पोषण मूल्य, सन्तुलित आहार, कुपोषण के कारण आदि जीवन को प्रभावित करने वाले समस्त अंगों को पर्यावरण शिक्षा में उचित स्थान दिया जाता है। मनुष्य जीवन की दीर्घता और निरन्तरता भोजन और उसकी पौष्टिकता पर ही निर्भर करती है।
( 2 ) प्राकृतिक संसाधन– संसाधन दो प्रकार के होते हैं। मानवीय ‘संसाधन और भौतिक संसाधन । भौतिक संसाधन किसी वस्तु की वह क्रियात्मक या व्यावहारिक क्षमता है जो मानव की सन्तुष्टि करके लाभान्वित • करती है। हम सरल शब्दों में कह सकते हैं कि प्रकृति के द्वारा दिए गए उपहारों को ही संसाधनों की संज्ञा दी जाती है, जिन्हें हम प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। पर्यावरण शिक्षा में पाठ्य-वस्तु के रूप में संसाधनों के उपयुक्त प्रयोग करने और इनके संरक्षण की चर्चा की जाती है ।
( 3 ) जनसंख्या शिक्षा – जनसंख्या और पर्यावरण का पारस्परिक रूप से घनिठ सम्बन्ध है और ये दोनों प्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। इनका सम्बन्ध हम अपने जीवन में प्रतिदिन देखते हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण पर निर्भर करता है लेकिन मनुष्य लोभ की प्रवृत्ति के कारण पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करने लगा है, जिसके कारण पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा है और वह प्रदूषित हो रहा है।
(4) शारीरिक स्वास्थ्य – पर्यावरण शिक्षा के पाठ्यक्रम में व्यक्ति, परिवार, समुदाय, समाज के शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य को खराब करने वाली हानिप्रद कारणों के साथ-साथ संक्रामक और असंक्रामक रोगों के घातक परिणामों और उनसे बचने के उपचार से सम्बन्धित उपायों एवं सुझावों को भी समाहित किया जाता है ।
 ( 5 ) प्रदूषण–प्राकृतिक पर्यावरण वायु, जल, मिट्टी, वनस्पति, -पशु-पक्षी एवं समस्त प्राणी जगत के मेल से बनता है। ये सभी घटक प्राकृतिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। जब मनुष्य अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों के शोषण में लग जाता है तो प्रकृति के विकास की गति और सन्तुलन में सामंजस्य नहीं रखा जा सकता है तो उस समय प्राकृतिक जीवन शक्ति में एक प्रकार से जहर घुलना शुरू हो जाता है, जिसे हम प्रदूषण के नाम से जानते हैं।
(6) जनसंख्या विस्फोट – आज भारत में तीव्र गति से केवल  जनसंख्या बढ़ ही नहीं रही बल्कि जनसंख्या विस्फोट हो रहा है। आज स्वास्थ्य की सुविधाएँ होने के कारण मृत्यु दर में कमी हुई है लेकिन नागरिकों की अनपढ़ता और अज्ञानता के कारण जन्म दर में कमी न होकर उच्च बनी हुई है। दूसरी तरफ जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है जो कि अनेक समस्याओं को जन्म दे रही है। इन समस्याओं के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है। इससे पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। इसलिए पर्यावरण शिक्षा की विषयवस्तु में जनसंख्या विस्फोट, उसके कारण, उपचार और सुझावों को सम्मिलित करना आज के युग में बड़ी आवश्यकता है।
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