पश्चिमी शिक्षा शास्त्री जॉन ड्यूई के शिक्षा दर्शन विषयक विचारों की विस्तृत व्याख्या कीजिए ।
पश्चिमी शिक्षा शास्त्री जॉन ड्यूई के शिक्षा दर्शन विषयक विचारों की विस्तृत व्याख्या कीजिए ।
अथवा
पश्चिमी शिक्षा शास्त्री जॉन ड्यूई के शिक्षा दर्शन विषयक विचारों की विस्तृत व्याख्या कीजिए | यह कहाँ तक सत्य है कि उसने शिक्षा क्षेत्र में एक नूतन देन दी है ?
उत्तर— जॉन ड्यूवी का शैक्षिक चिन्तन–ड्यूवी प्रयोजनवादी दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री थे । ये सत्यों और मूल्यों की स्थिरता से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि संसार परिवर्तनशील है तथा कोई भी सत्य एवं मूल्य इस संसार में अपरिवर्तनशील नहीं है। ये मनुष्य को परिवर्तनशील समाज के अनुरूप समायोजित करना सिखाना चाहते थे। ड्यूवी के शैक्षिक चिन्तन के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं—
शिक्षा का अर्थ—nमनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसी विचार को ध्यान में रखकर जॉन ड्यूवी ने कहा कि शिक्षा जीवन जीने की तैयारी न होकर स्वयं जीवन है जबकि अभी तक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को भावी जीवन की तैयारी का साधन माना है। अतः बालकों की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उनकी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हो सकें । ड्यूवी का मानना था कि मनुष्यों में कुछ जन्मजात शक्तियाँ होती हैं जो सामाजिक भागीदारिता से विकसित होती है । ड्यूवी ने इन्हें मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पक्ष कहा है। मनोवैज्ञानिक पक्ष के अंतर्गत बालकों की मूल प्रवृत्तियाँ, रुचियाँ, शक्तियाँ एवं वैयक्तिक विशेषताएँ आती हैं जबकि सामाजिक पक्ष में परिवार, पड़ोस, समुदाय, सभ्यता, संस्कृति एवं सामाजिक दशाएँ आती हैं। मनुष्य समाज में नित नये अनुभव ग्रहण करता है।
शिक्षा के उद्देश्य– ड्यूवी के अनुसार, “शिक्षा के उद्देश्य व्यक्तियों के उद्देश्यों के अनुसार निर्धारित किए जाने चाहिए, शिक्षा के उद्देश्य ऐसे होने चाहिए जो व्यक्तियों में उन गुणों और क्षमताओं का विकास कर सकें जिनके द्वारा व्यक्ति जीवन में आने वाली समस्याओं एवं बाधाओं को सहजता से हल करके वर्तमान जीवन को जीते हुए भविष्य का भी मार्ग सुगम कर सके। व्यावहारिक कुशलता एवं सामाजिक जीवन में दक्षता ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।” ड्यूवी ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं—
(1) सामाजिक कुशलता का विकास– ड्यूवी के अनुसार, मनुष्य अपनी समस्त गतिविधियाँ समाज में रहकर ही करता है। समाज को भली-भाँति समझना और खुद की समाज के साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया को ही ड्यूवी ने सामाजिक कुशलता माना है। इनके अनुसार मनुष्यों में सामाजिक कुशलता का विकास करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होता है।
(2) अनुभवों का पुनर्निर्माण और वातावरण के साथ समायोजन– ड्यूवी का मानना था कि संसार परिवर्तनशील है तो सत्य और मूल्य कैसे अपरिवर्तित रह सकते हैं जबकि मानव जीवन भी गतिशील है । अतः इसके आधार पर शिक्षा भी गतिशील एवं परिवर्तनशील होनी चाहिए। समय के साथ शिक्षा में बदलाव होंगे तो उसके उद्देश्य कैसे अछूते रहेंगे। शिक्षा का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जिससे मनुष्य बदलते समाज के अनुरूप स्वयं को समायोजित करता रहे ।
(3) जनतंत्रीय जीवन का प्रशिक्षण– ड्यूवी प्रसिद्ध दार्शनिक एवं शिक्षाशास्त्री होने के साथ-साथ जनतंत्र के समर्थक भी थे । ड्यूवी ने सामाजिक कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने के लिए एक व्यक्ति में सात प्रकार की क्षमताओं को बताया है। ये क्षमताएँ हैं— स्वास्थ्य, योग्य गृहस्थ, क्रिया करने की क्षमता, व्यवसाय, नागरिकता, अवकाश का सही उपयोग, नैतिकता एवं चरित्र । ड्यूवी ने इनका कोई मानदण्ड निर्धारित नहीं किया। फिर भी इनमें पूर्व निश्चित उद्देश्य – शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं चारित्रिक तथा नागरिकता की शिक्षा निहित है। इनका स्वरूप समाज की बदलती स्थितियों के साथ बदलता रहता है।
शिक्षा का पाठ्यक्रम– ड्यूवी ने निश्चित पाठ्यक्रम योजना तो प्रस्तुत नहीं की किन्तु पाठ्यक्रम निर्माण के लिए आवश्यक कुछ सिद्धान्त बताये हैं जो निम्नलिखित हैं—
(1) बाल एवं समाजकेन्द्रित पाठ्यक्रम– ड्यूवी ने विषय आधारित पाठ्यक्रम को दोषपूर्ण बताया। उन्होंने पाठ्यक्रम का नियोजन बालकों की मनोवैज्ञानिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, क्रियाओं एवं विषय की आवश्यकताओं के आधार पर करने को कहा । पाठ्यक्रम का निर्धारण बालकों की रुचि, योग्यता एवं रुझान को ध्यान में रखकर होना चाहिए।
(2) जीवन की क्रियाओं पर आधारित पाठ्यक्रम–पाठ्यक्रम बालकों के वास्तविक जीवन और उनसे सम्बन्धित क्रियाओं पर आधारित होना चाहिए । पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो बालकों के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित हों । विषय ऐसे हों जो बालकों को वास्तविक क्रियाओं में पारंगत बना सकें ।
(3) रुचि पर आधारित पाठ्यक्रम– ड्यूवी के अनुसार, पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों की रुचियों, योग्यताओं, रूझानों, आदतों तथा अवस्थाओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए । इन्होंने बच्चों की रुचियाँ चार प्रकार की बताई हैं— बातचीत करने की रुचि, खोज की रुचि, रचना करने की रुचि तथा कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि । ड्यूवी के अनुसार, पाठ्यक्रम इन्हीं रुचियों पर आधारित होना चाहिए ।
(4) पाठ्यक्रम के विषयों में सह-सम्बन्ध– पाठ्यक्रम बालक के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए । ड्यूवी के अनुसार, “पाठ्यक्रम के विषय बालक के जीवन की क्रियाओं से सम्बन्धित होने चाहिए। ऐसा होने से वे स्वयं ही सह-सम्बन्धित हो जायेंगे।” इस प्रकार ड्यूवी विभिन्न विषयों का आपस में समन्वय के पक्षधर थे ।
(5) लचीला पाठ्यक्रम– ड्यूवी के अनुसार, “बालकों में वैयक्तिक विभिन्नताएँ होती हैं। प्रत्येक बालक की रुचि, योग्यता और आवश्यकता में भिन्नता होती है। उनके सामाजिक वातावरण भी भिन्न होते हैं । अतः पाठ्यक्रम में भी भिन्नता आवश्यक है।” उनका मानना था कि सामाजिक आवश्यकतायें एवं परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं इसलिए पाठ्यक्रम भी ऐसा हो जिसे सरलता से परिवर्तित किया जा सके। अतः पाठ्यक्रम का लचीला होना आवश्यक है।
शिक्षण विधियाँ— ड्यूवी की प्रमुख शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित है—
(1) क्रिया और अनुभव पर आधारित– ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा की सर्वोत्तम विधि ‘स्वयं करके सीखना’ के सिद्धान्त पर आधारित होनी चाहिए। शिक्षण विधि बालकों को स्वयं करके सीखना और अपने अनुभवों से सीखने के लिए प्रेरित करे। ड्यूवी ने ‘क्रियाओं’ के आधार पर शिक्षा देने पर बल दिया है।
(2) रुचि पर आधारित– ड्यूवी के अनुसार, सिखाने की प्रक्रिया बच्चों की रुचियों को समझकर की जानी चाहिए । शिक्षक बच्चों की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उन्हीं के अनुसार कार्यों की व्यवस्था करे । ड्यूवी ने इन रुचियों को चार वर्गों में बाँटा है— बातचीत करने की रुचि, खोज की रुचि, रचना करने की रुचि एवं कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि । उनका मानना था कि शिक्षण विधियाँ भी इन्हीं रुचियों के आधार पर व्यवस्थित की जाएँ ।
(3) वास्तविक जीवन पर आधारित– शिक्षा का सम्बन्ध जब बच्चों के वास्तविक जीवन से हो जाता है तो बच्चों की शैक्षिक कार्यों में रुचि जागृत होती है तथा वे शिक्षण प्रक्रियाओं से सरलता से सामंजस्य स्थापित कर लेते हैं, अतः शिक्षण विधियाँ बच्चों के वास्तविक जीवन को ध्यान में रखकर निर्धारित की जानी चाहिए।
(4) सहसम्बन्ध विधि-ड्यूवी के अनुसार, शिक्षण विधियाँ ऐसी हों जो समस्त विषयों एवं क्रियाओं की शिक्षा को परस्पर सहसम्बन्धित कर दें ।
(5) योजना प्रणाली– प्रोजेक्ट प्रणाली का निर्माण उनके शिष्य किलपैट्रिक ने किया था। इस प्रणली में बच्चों के जीवन से सम्बन्धित एक समस्या (प्रोजेक्ट) का चुनाव करते हैं। इस प्रोजेक्ट के चुनाव में बच्चों का योगदान रहता है। बच्चे शिक्षक के मार्गदर्शन में स्वयं प्रोजेक्ट को पूरा करने की विधि और मूल्यांकन के तथ्यों को लिखते हैं तदुपरांत शिक्षक बच्चों के कार्य का मूल्यांकन भी करते हैं ।
अनुशासन– दण्ड के भय से अनुशासन की स्थापना न होकर केवल व्यवस्था ही स्थापित हो पाती है। अनुशासन बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाकर नहीं बनाया जा सकता है। ड्यूवी के अनुसार, “अनुशासन वह अन्तर्निहित शक्ति है, जो बालकों के सामूहिक कार्यों में भाग लेने एवं परस्पर सहयोग की भावना से उत्पन्न होती है।” बच्चे अपनी रुचि, योग्यता, रुझान और आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य को चुनते हैं तथा स्वतंत्र रूप से उनका निष्पादन करते हैं। जब उनकी भावनाओं के विपरीत किसी कार्य को करने का दबाव बनाया जाता है तो उनमें घृणा और विद्रोह की भावना उत्पन्न होने लगती है और वे अनुशासन तोड़ने लगते हैं। ड्यूवी के अनुसार, “सच्चा अनुशासन सामाजिक अनुशासन है जो बच्चों में विद्यालयों में होने वाले कार्यों में सहभाग करके उत्पन्न होता है । “
शिक्षक– ड्यूवी के अनुसार शिक्षक का कर्त्तव्य बालकों में अच्छी आदतों तथा सामाजिक मूल्यों का निर्माण करना होना चाहिए। ये शिक्षक को समाज सेवी के रूप में देखते थे । शिक्षक का कार्य विद्यालय में ऐसा सामाजिक वातावरण उत्पन्न करना है जिसमें बालकों के सामाजिक गुणों, मूल्यों एवं व्यक्तित्व का विकास हो सके तथा उनके द्वारा सामाजिक विकास भी सम्भव हो सके। शिक्षक को बालकों की स्वाभाविक रुचियों, योग्यताओं और आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें ऐसे कार्य देने चाहिए जिनसे उनका सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके ।
छात्र– ड्यूवी के अनुसार, एक योग्य शिक्षक को शिक्षण प्रक्रिया से पूर्व बालकों की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक स्थितियों को अवश्य ध्यान रखना चाहिए। ये बालक के स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। उनका मानना था कि बालकों का सर्वांगीण विकास तभी सम्भव हो पायेगा जब उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ उनकी रुचियों, योग्यताओं, रूझानों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य दिये जाएँ । शिक्षा ऐसी हो जिससे वे अपना तथा समाज का विकास निश्चित कर पायें । ड्यूवी बालकों के स्वाभाविक विकास के लिए स्वतन्त्रता के पक्षधर थे । वे छात्र और समाज दोनों को समान आदर से देखते थे ।
विद्यालय– ड्यूवी के अनुसार, विद्यालय एक प्रयोगशाला के रूप में होना चाहिए जहाँ बालक पूर्व अनुभवों को परखकर नए-नए अनुभवों को प्राप्त करें एवं उन्हीं अनुभवों के आधार पर नये-नये सत्यों की खोज करें । इनके अनुसार विद्यालय समाज का लघु रूप होता है । शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। अतः बालकों के समुचित विकास के लिए उनकी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति विद्यालय के अन्तर्गत होनी चाहिए। बालक स्वाभाविक रूप से सीखे इसके लिए विद्यालय में घर जैसा पर्यावरण होना चाहिए । विद्यालय में सामाजिक प्रतिरूप तैयार करना चाहिए जिससे बालक उन गुणों का विकास कर सके, जिसके द्वारा उसे समाज में समायोजित होने में सरलता हो । ड्यूवी ने प्रगतिशील विद्यालय के महत्त्व को बताया जिनमें बालक कार्य करने एवं विचार करने के लिए स्वतन्त्र रहें । जिनका पाठ्यक्रम संकीर्ण न होकर विस्तृत एवं परिवर्तनशील हो, जिनमें नित्य नए अनुभवों का समावेश हो, जहाँ बालक स्वयं करके एवं स्वयं के अनुभवों के आधार पर सीखते हैं।
शिक्षा के अन्य पक्ष—
(1) जन शिक्षा– ड्यूवी जनतंत्र के पक्षधर थे। वे व्यक्ति और समाज दोनों में समानता का भाव रखते थे। सभी को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त हो ऐसा जनतंत्र का पक्ष है क्योंकि शिक्षा मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। केन्द्र और राज्य के कर्त्तव्यों में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनका उत्तदायित्व है कि बालकों को उनके विकास के समान अवसर उपलब्ध कराये ।
(2) स्त्री शिक्षा– ड्यूवी सबको शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के पक्षधर थे। वे स्त्री-पुरुष दोनों में कोई भेद नहीं करते थे । उनका मत था कि सभी को उनकी रुचियों, योग्यताओं, रूझानों और आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा के द्वारा विकास के समान अवसर मिलने चाहिए। जिसके परिणामस्वरूप उस समय स्त्री शिक्षा के बल मिला और स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह योग्यता साबित कर पायीं। जिससे पाश्चात्य देशों का विकास तेजी से सम्भव हो पाया।
(3) व्यावसायिक शिक्षा– ड्यूवी के अनुसार, शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बालकों की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। जो बालकों को व्यावसायिक रूप से सक्षम बना सके । इसलिए इन्होंने व्यावसायिक शिक्षा को भी अनिवार्य बताया है। जिसके अनुसार शिक्षा के द्वारा बालक आगे चलकर अपनी आजीविका का मार्ग प्रशस्त कर पाये ।
(4) धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा– ड्यूवी सबसे पहले आदर्शवाद से प्रभावित थे कुछ समय बाद ये प्रकृतिवाद से प्रभावित हुए और अन्त में ये प्रयोजनवाद से प्रभावित हुए। आदर्शवाद के प्रभाव के कारण ये पहले धर्म और नैतिकता पर बल देते थे बाद में ये प्रयोजनवाद से प्रभावित हुए। ड्यूवी ने उसी ज्ञान एवं क्रिया को महत्त्वपूर्ण बताया जो मानव जीवन में उपयोगी हों। उनका मानना था कि यदि धर्म या नैतिकता में ऐसे कोई तत्त्व हैं जो बालकों के वास्तविक जीवन में उपयोगी हो तो उसमें बालकों को अवश्य शिक्षित किया जाए।
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