पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त बताइये ।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त बताइये ।
अथवा
पाठ्यक्रम निर्माण के मुख्य सिद्धान्तों का सविस्तार वर्णन कीजिये |
उत्तर- पाठ्यक्रम निर्माण करते समय निम्नलिखित सिद्धान्तों का ध्यान रखना चाहिये—
(1) लचीलेपन का सिद्धान्त–लचीलेपन से तात्पर्य ऐसे पाठ्यक्रम से है, जहाँ बालक अपनी इच्छा, आयु, बुद्धि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। इसलिए पाठ्यक्रम में कठोरता नहीं होनी चाहिए। विश्व में दिन-प्रतिदिन नवीन अनुसंधान एवं खोज होती रहती है। अतः नवीन विचारधाराओं, नवीनतम प्रवृत्तियों तथा जानकारियों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए तथा पुरानी अनावश्यक विषय-वस्तु को हटा देना चाहिए। विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तथा विषय की रोचकता बनाये रखने के लिए पाठ्यक्रम में लचीलेपन का गुण होना चाहिए।
इस संदर्भ में माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “व्यक्तिगत भिन्नताओं की दृष्टि से तथा व्यक्तिगत विशेषताओं एवं रुचियों के अनुकूलन के लिए पाठ्यक्रम में पर्याप्त लचीलापन होना चाहिए।’
( 2 ) उद्देश्यों की प्राप्ति का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम का निर्माण पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर करना चाहिए। समाज की आवश्यकताओं तथा बालक की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार उन्हीं क्रियाओं एवं अन्तर्वस्तु का समावेश करना चाहिए, जिसके ज्ञान एवं अभ्यास से विद्यार्थी वैसे ही बने जैसे हम उन्हें बनाना चाहते हैं। देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार, जीवन एवं समाज के उद्देश्य परिवर्तित होते रहते हैं, अत: पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में परिवर्तन करना आवश्यक होता है। पाठ्यक्रम ही शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने का अमूल्य साधन है।
( 3 ) विभिन्न विषयों से सम्बन्ध एवं एकीकरण का सिद्धान्त—पाठ्यक्रम चाहे किसी भी विषय का हो, उसके तैयार करते समय अन्य विषयों की विषय-वस्तु को भी दृष्टिगत रखना चाहिए। एक विषय को दूसरे विषय के साथ सम्बन्धित करके पढ़ाने से विद्यार्थियों में विचार, तर्क, कल्पना एवं निर्णय शक्ति का विकास होता है तथा विषय-वस्तु की बोधगम्यता के साथ-साथ ज्ञान में एकता एवं अखण्डता आती है। इस सिद्धान्त का प्रयोग करने से ज्ञान को व्यावहारिक बनाया जा सकता है।
4) दूरदर्शिता का सिद्धान्त —पाठ्यक्रम निर्माण करते समय अग्रदर्शिता के सिद्धान्त का भी ध्यान रखना चाहिए। पाठ्यक्रम का विकास करते समय भविष्य में होने वाले परिवर्तनों एवं आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना चाहिए। ज्ञान का विस्फोट बहुत ही तीव्र गति से हो रहा है। नित नए-नए सिद्धान्तों की खोज हो रही है, ऐसी स्थिति में कुछ पुराने सिद्धान्त गलत सिद्ध किए जा रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में, ज्ञान के विस्तार को दृष्टिगत रखते हुए पाठ्यक्रम निर्माताओं को ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए जो विद्यार्थी को वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के योग्य बना सके तथा आने वाली परिस्थितियों के साथ समायोजन कर आत्मविश्वासपूर्ण जीवन की तैयारी करने हेतु सक्षम बना सके । इस सन्दर्भ में टी.पी. नन ने लिखा है, “साधारण मनुष्य सामान्यतः यह चाहता है कि उसके बच्चे केवल ज्ञान के प्रदर्शन के लिए कुछ व्यर्थ की बातें सीखें, परन्तु समग्र रूप में वह यह चाहता है कि उनको वे ही बातें सिखायी जायें, जो भावी जीवन में उनके लिए उपयोगी हों।”
(5) अवकाश के लिए प्रशिक्षण का सिद्धान्त – पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय, उसमें कुछ ऐसी गतिविधियों एवं क्रियाओं को भी सम्मिलित करना चाहिए, जिससे विद्यार्थी उसके अवकाश के समय का भी सदुपयोग कर सके। इसके लिए कलात्मक गतिविधियों, जैसेकविता या कहानी लेखन, वस्तुओं का संग्रहण, चित्रकला, संगीत आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।
( 6 ) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त – पाठ्यक्रम का निर्माण, शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति करने के लिए किया जाता है। इन शिक्षा के उद्देश्यों का सम्बन्ध, पाठ्यक्रम के परिणामस्वरूप, विद्यार्थी में होने वाले अपेक्षित | व्यवहारगत परिवर्तनों से होता है। अतः पाठ्यक्रम का सीधा एवं प्रत्यक्ष सम्बन्ध विद्यार्थी के व्यवहार से होता है। इसलिए पाठ्यक्रम की रचना करते समय बालकों की रुचियों, मानसिक स्तर, आयु, क्षमताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमताओं को ध्यान रखना चाहिए। 1
(7) सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त— पाठ्यक्रम का उद्देश्य, केवल बौद्धिक विकास तक सीमित न रहकर, शारीरिक, नैतिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, संवेगात्मक विकास होना चाहिए। साथ ही परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों में, कौशलात्मक विकास पर भी बल दिया जाने लगा है, क्योंकि कौशल विकास के कारण, विद्यार्थी भविष्य की जीविकोपार्जन सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण किया जा सकता है। अतः विद्यार्थी के व्यक्तित्व के सभी पक्षों ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों का संतुलित विकास करने योग्य पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए।
(8) रचनात्मकता का सिद्धान्त —पाठ्यक्रम को बनाते समय, वर्तमान में सर्वाधिक आवश्यकता इसी सिद्धान्त की है। पुस्तकों में लिखी विषय-वस्तु को रट लेना, अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना ही मेधावी विद्यार्थी की पहचान मानी जाती थी, परन्तु अब धीरे-धीरे इस विचार में परिवर्तन आने लगा है। राष्ट्रीय परिचर्या रूपरेखा, 2005 में भी कहा गया है कि कुछ तथ्यों को रट लेना ‘ज्ञान’ नहीं हैं, अपितु ‘ज्ञान की रचना’ करना वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। ज्ञान की रचना में, अवबोध, चिन्तन, तर्क, नवीनता, मौलिकता तथा समस्याओं का निराकरण सम्मिलित होता है। अतः पाठ्यक्रम में विषय-वस्तु इस प्रकार से प्रस्तुत की जाए कि विद्यार्थी मात्र रटे नहीं, अपितु उन्हें सोचने, समझने, प्रतिबिम्बित करने (प्रकट करने), खोज करने के पर्याप्त अवसर प्राप्त हो।
( 9 ) उपयोगिता का सिद्धान्त— पाठ्यक्रम में सम्मिलित विषयवस्तु व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से उपयोगी होनी चाहिए। पाठ्यक्रम केवल व्यक्ति की वर्तमान की आवश्यकताओं की ही पूर्ति न करे, अपितु भविष्य के लिए भी उपयोगी होना चाहिए। पाठ्यक्रम को, व्यावसायिक जीवन के लिए उपयोगी, संस्कृति एवं सभ्यता की उन्नति में सहायक तथा जीवन की चुनौतियों के साथ सफलतापूर्वक सामने करने में सक्षम बनाने वाला होना चाहिए। विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिए सक्षम बनाने एवं तैयार करने की विषय वस्तु पाठ्यक्रम में समाहित करनी चाहिए।
( 10 ) क्रियाशीलता का सिद्धान्त—यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि विद्यार्थी स्वयं करके सीखते हैं, तो वे देखकर एवं सुनकर सीखने की अपेक्षा अधिक सीखते हैं। ‘करके सीखने’ से प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है। इसलिए पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक न होकर क्रिया केन्द्रित होना चाहिए। विषय-वस्तु का स्वरूप प्रयोगात्मक होना चाहिए। इससे विद्यार्थी शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील हो जाते हैं तथा जटिल प्रत्ययों को सरलतापूर्वक समझ लेते हैं। इसलिए पाठ्यक्रम में बालक को क्रियाशील रहने के अवसर प्रदान करने हेतु वास्तविक अनुभव प्राप्त करने चाहिए।
( 11 ) अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त—इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम में परम्परागत रूप से पढ़ाये जाने वाले सैद्धान्तिक विषयों के साथ-साथ उन सभी अनुभवों को भी स्थान देना चाहिए, जो बालक विभिन्न क्रियाओं द्वारा प्राप्त करता है। प्रत्येक बालक विद्यालय से बाहर भी दैनिक सामाजिक जीवन से कई अनुभव प्राप्त करता है। ये अनुभव ही, विद्यालय में उसके नवीन ज्ञान प्राप्ति का आधार बनते हैं। अतः पाठ्यक्रम में स्थानीय परिस्थितियों के ज्ञान के साथ प्राप्त होने वाले अनुभवों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। इसके साथ-साथ बालक विद्यालय में कक्षा-कक्ष, पुस्तकालय, कार्यशाला, खेल के मैदानों तथा साथी समूह के साथ अन्तःक्रिया से भी कई अनुभव प्राप्त करता है। अतः पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक विषयों के साथ अनुभवों एवं क्रियाओं को भी समाहित करना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से नहीं लिया जाता है, अपितु इसमें सम्पूर्ण अनुभव निहित होते हैं।”
( 12 ) सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति का सिद्धान्त— पाठ्यक्रम निर्माण करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि वह सामाजिक आदर्शों, मान्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप हो। समाज की वर्तमान परिस्थितियों एवं स्थानीय वातावरण को भी महत्त्व देना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक समाज एवं राष्ट्र की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है।
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