बिरसा मुंडा आंदोलन (Birsa Munda Movement)

बिरसा मुंडा आंदोलन (Birsa Munda Movement)

यह आंदोलन बिहार के जनजातीय क्षेत्रों में सबसे अधिक संगठित और व्यापक माना जाता रहा है। इस आंदोलन के नायक बिरसा मुंडा को भगवान के अवतार रूप में मान्यता मिली है। मुंडा जनजाति भी अन्य जनजातियों की तरह कृषि और वनों पर निर्भर होकर अपनी परंपराओं-मान्यताओं को सहेज रही थी। यह जनजाति छोटानागपुर क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में से एक थी और इसके लोग कभी विवादों की सुर्खियाँ नहीं बने थे। शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करनेवाले मुंडा लोग भी उत्पीड़न और अंग्रेजी लूटमार से बगावत पर उतरे।

विद्रोह का कारण

इनके विद्रोह का एक मुख्य कारण इनकी संस्कृति पर अन्य संस्कृतियों की परछाई का भी पड़ना था। कुछ आपसी मतभेद, जो हर जाति-जनजाति में पाए जाते हैं, मुंडा लोगों में भी रहते थे। इनका मेल-जोल हिंदुओं से भी था और इसी कारण कुछ मुंडा हिंदू परंपराओं का अनुसरण भी करने लगे थे। मतभेदों के कारण कुछ मुंडा ईसाई मिशनरियों की ओर भी चले गए, जैसा कि छोटानागपुर में जमींदार और राजाओं का शोषण-चक्र चल रहा था, तो ये लोग भी उसकी चपेट में आ गए थे। इनकी जमीन को हड़पा जा रहा था और इन पर करों का बोझ भी बढ़ता जा रहा था। फलतः ऋण का जाल भी इनको अपने शिकंजे में जकड़ रहा था। न्याय-व्यवस्था तो बस नाममात्र के लिए रह गई थी और सबसे बड़ा झटका तो मुंडाओं को तब लगा, जब न तो हिंदू मित्रों ने और न ही ईसाई मिशनरियों ने उनकी कोई सहायता की, जिनके कहने पर ये लोग अपने पारंपरिक नियमों से भी दूर हो गए थे।

मुंडा लोग इन सब बातों से पूरी तरह हतोत्साहित हो चुके थे और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए चिंतातुर थे। ऐसे समय में बिरसा मुंडा नामक नौजवान मुंडा जनजाति के उत्थान का बीड़ा उठाकर आगे आया। उसका यह कहना था कि वह ईश्वर की आज्ञा और शक्ति लेकर मुंडाओं को उनके अधिकार और बाहरी शक्तियों से उन्हें आजाद कराने के लिए अवतार के रूप में आया है। इस युवक की वाणी में ओज था और इसमें तत्कालीन व्यवस्था पर चोट करने की क्षमता भी थी। जल्दी ही कुछ मुंडा युवक प्रभावित होकर उससे जुड़ गए। वह धार्मिक आख्यानों के माध्यम से लोगों में नवचेतना जाग्रत करता। इसी कारण वह छोटानागपुर क्षेत्र में देवदूत की तरह माना जाने लगा। उसके विचारों में लगभग सभी विषयों पर मनन करने की क्षमता थी। वह सभाएँ आयोजित कर लोगों को कुरीतियों से दूर रहने के लिए कहता, जीवन में निर्भरता को स्थान देने की बात कहता और साथ ही अपनी संगठन शक्ति का ज्ञान करने की बात कहता। उसके मित्रमंडल ने भी शीघ्र ही उसे लोगों के बीच ईश्वरीय शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।

बिरसा मुंडा ने सन् 1895 तक लगभग छह हजार मुंडाओं को एकत्रित कर दिया। यह अब तक का सबसे बड़ा दल था। भले ही यह मिथक था, लेकिन बिरसा को भगवान का अवतार ही माना जाने लगा। उसने लोगों को अपने उद्देश्यों से अवगत कराया, जिन्होंने मुंडा जनजाति को नए ओज से भर दिया।

उसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार थे

  • अंग्रेज सरकार का पूरी तरह दमन कर देना।
  • छोटानागपुर सहित सभी अन्य क्षेत्रों से ‘दीकुओं’ को भगा देना।
  • स्वतंत्र मुंडा राज्य की स्थापना करना।

बिरसा मुंडा आन्दोलन का आर्थिक उद्देश्य

बिरसा आन्दोलन का आर्थिक उद्देश्य था दिकू जमींदारों (गैर-आदिवासी जमींदार) द्वारा हथियाए गए आदिवासियों की कर मुक्त भूमि की वापसी जिसके लिए आदिवासी लम्बे समय से संघर्ष कर रहे थे. मुंडा समुदाय सरकार से न्याय पाने में असमर्थ रहे. इस असमर्थता से तंग आ कर उन्होंने अंग्रेजी राज को समाप्त करने और मुंडा राज की स्थापना करने का निर्णय लिया. वे सभी ब्रिटिश अधिकारीयों और ईसाई मिशनों को अपने क्षेत्र से बाहर निकाल देना चाहते थे. बिरसा मुंडा ने एक नए धर्म का सहारा लेकर मुंडाओं को संगठित किया. उनके नेतृत्व में मुंडाओं ने 1899-1900 ई. में विद्रोह किया.

बिरसा मुंडा का नेतृत्व

बिरसा मुंडा आदिवासियों की दयनीय हालत को देखकर उन्हें जमींदारों और ठेकेदारों के अत्याचार से मुक्ति दिलाना चाहते थे. बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने अनुभव किया था कि शांतिपूर्ण तरीकों से आन्दोलन चलाने का परिणाम व्यर्थ होता है. इसलिए उन्होंने इस आन्दोलन को उग्र बनाने के लिए अधिक से अधिक नवयुवकों को संगठित किया. मुंडाओं ने उन्हें अपना भगवान् मान लिया. उनका प्रत्येक शब्द मुंडाओं के लिए मानो ब्रह्मवाक्य बन गया. बिरसा मुंडा ने घोषणा की कि कोई भी सरकार को कर नहीं दे. मुंडाओं ने उनकी बातें मानी और पालन किया.

बिरसा मुंडा गिरफ्तार

1895 ई. में बिरसा मुंडा को विद्रोह फैलाने और राजविरोधी षड्यंत्र करने के अपराध में गिरफ्तार कर  लिया गया. उन्हें दो वर्ष की कैद की सजा मिली. जेल से रिहा होने के बाद वह और भी सक्रिय होकर और अधिक गर्मजोशी से आदिवासी युवाओं को आन्दोलन के लिए प्रेरित करने लगे. जंगल में छिपकर गुप्त सभाएँ आयोजित की जाती थीं और सभी को आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाता था. वे स्वयं महारानी विक्टोरिया के पुतले पर तीरों से वार करके तीरंदाजी का अभ्यास करते थे. बिरसा मुंडा आन्दोलन में कई निर्दोष लोगों की भी हत्या हुई जिनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे सरकारी नौकर थे.

विद्रोह का दमन

1899 ई. में क्रिसमस के दिन मुंडाओं का व्यापक और हिंसक विद्रोह शुरू हुआ. सबसे पहले जो मुंडा ईसाई बने थे और जो लोग सरकार के लिए काम करते थे, उन्हें मारने का प्रयास किया गया लेकिन बाद में इस नीति में परिवर्तन किया गया क्योंकि अपना धर्म बदलने वाले मुंडा थे तो अपने ही समुदाय के! इसलिए उन्हें छोड़ सरकार और मिशनरियों के विरुद्ध आवाज़ उठने लगी. राँची और सिंहभूम में अनेक चर्चों में मुंडा आदिवासी समूह ने आक्रमण किया. पुलिस मुंडाओं के क्रोध का विशेष शिकार बनी. इस विद्रोह का प्रभाव पूरे छोटानागपुर में फ़ैल गया.

चिंतित होकर सरकार ने इस विद्रोह का दमन करने का निर्णय लिया. सरकार ने पुलिस और सेना की सहायता ली. मुंडाओं ने छापामार युद्ध का सहारा लेकर पुलिस और सेना का सामना किया लेकिन बन्दूक के सामने तीर-धनुष कब तक टिकती? फरवरी 1900 ई. में बिरसा एक बार फिर से गिरफ्तार कर लिए गए. उन्हें राँची के जेल में रखा गया. उनपर सरकार ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया. मुक़दमे के दौरान ही बिरसा मुंडा को हैजा हो गया और 9 जून, 1900 ई. को उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया.

परिणाम

बिरसा की मृत्यु के बाद बिरसा मुंडा आन्दोलन (Birsa Munda Movement) शिथिल पड़ गया. बिरसा के तीन प्रमुख सहयोगियों को फाँसी की सजा दी गई. अनेक मुंडाओं को जेल में ठूस दिया गया. परिणामस्वरूप बिरसा मुंडा आन्दोलन विफल हो गया. आदिवासियों को इस आन्दोलन से तत्काल कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ परन्तु सरकार को उनकी गंभीर स्थिति पर विचार करने के लिए बाध्य होना पड़ा. आदिवासियों की जमीन का सर्वे करवाया गया. 1908 ई. में  ही छोटानागपुर काश्तकारी कानून (Chotanagpur Tenancy Act, 1908) पारित हुआ. मुंडाओं को जमीन सम्बंधित कई अधिकार मिले और बेकारी से उन्हें मुक्ति मिली. मुंडा समुदाय आज भी बिरसा को अपना भगवान् मानता है.

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Ajit kumar

Sub Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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