बिहारी के काव्य में गागर में सागर भरा हुआ है

बिहारी के काव्य में गागर में सागर भरा हुआ है

मेरा प्रिय कवि अथवा “बिहारी के काव्य में गागर में सागर भरा हुआ है”
आविर्भाव का समय – अपने-अपने मन की बात है। किसी को मीठा अच्छा लगता और किसी को खट्टा और नमकीन । किसी को फीका दूध अच्छा लगता है तो किसी को मिर्चों वाली चाट | हिन्दी साहित्य के अथाह समुद्र में अनेक मेरा प्रिय
महार्ध्य रत्न हैं। किसी को कोई रत्न पसन्द है, किसी को कोई । महाकवि बिहारी का नाम आते ही मस्तक श्रद्धा से नत हो जाता है। उनकी अपार विद्वत्ता, गहन  पाण्डित्य और चमत्कारपूर्ण काव्य-सौष्ठव के सामने मस्तक स्वतः ही झुक जाता है। बिहारी की कविता  हृदयंगम करने के लिए यह आवश्यक है कि जिस  समय बिहारी ने काव्य रचना की थी, उसका पूर्णरूप से ज्ञान हो, तभी हम उस महाकवि की पंक्तियों को समझ सकेंगे । महाकवि बिहारी सत्रहवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। इनके जन्म के समय तुलसी और केशव भी इसी धराधाम पर विद्यमान थे। परन्तु जब ९ बिहारी की अवस्था छोटी ही थी, तब तक तुलसी का स्वर्गवास हो गया था। बिहारी के समकालीन कवियों में भूषण तथा देव के नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। यह समय भारतवर्ष के लिए सुख और समृद्धि का समय था, देश में सर्वत्र शान्ति छाई हुई थी। जहाँगीर और शाहजहाँ विलास की सरिता में गोते लगा रहे थे । “यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति उस समय पूर्णरूपेण चरितार्थ हो रही थी । प्रजा में भी विलासिता ने घर कर लिया था । अतः देश में ऐसे विलासमय वातावरण में रसिक जनों का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था । कविगण अपने आश्रय दाताओं को सन्तुष्ट करने के लिए विलासिता प्रधान कविताओं की रचना करते थे ।
जीवन वृत्त – महाकवि बिहारी का जन्म सम्वत् १६५२ में ग्वालियर में हुआ था। ये जाति चौबे थे । इनके पिता का नाम केशवराय था । इनकी ससुराल मथुरा में थी, जैसा की इस के माथुर दोहे से स्पष्ट है –
जनम ग्वालियर जानिए, खण्ड बुन्देले बाल ।
तरुनाई आई सुखद, मथुरा बसि ससुराल ।।
अपने पिता की श्रीकृष्ण के साथ समानता करते हुए बिहारी लिखते हैं–
प्रगट भये द्विजराजकुल, सुबस बसे बज आइ ।
मेरे हरौ कलेस सब केसव केसव राइ ||
बिहारी को अपनी संसुराल बड़ी प्रिय थी । वे वहीं जाकर रहने लगे परन्तु धीरे-धीरे इनका आदर-सत्कार कम होने लगा। वहाँ रहने पर इन्होंने जो अनुभव किया उसकी अभिव्यक्ति देखिये–
आवत जात न जानिए, तेजहिं तजि सियरान । 
धरहिं जवाई लौं घट्यौ, खरौ पूस दिन मान ।।
ससुराल से निरादृत होकर ये सम्भवतः जयपुर चले गये। महाराजा जयसिंह ने अपनी नवेली रानी के प्रेम में पड़कर सब राजकाज भुला दिया था। बिहारी ने अपने कवित्व के बल पर अन्योक्ति का आश्रय लेकर उन्हें इस मोह-निद्रा से जगा दिया। कवि की दवा यह थी —
नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहि विकासु इहि काल ।
अली, कली ही सौ बिध्यौ, आगे कौन हवाल ||
बिहारी का व्यक्तित्व पूर्ण रसमय था, नारी सुन्दर हो या कुरूप, सभी पर अपनी जान देते थे। उन्होंने लिखा है, “नारि सलौनी सांवरी नागिन लौं डसि जाय ।” स्वाभिमानी और स्पष्टवादिता में वे रसिकता से भी एक पग आगे थे । एक ओर जयसिंह की मोहनिद्रा भंग की, दूसरी ओर मुगलों का पक्ष लेकर हिन्दू राजाओं के आक्रमण करने से जयसिंह को रोका भी –
स्वारथु, सुकृत न, स्त्रमु बृथा देखि विहंग बिचारि ।
 बाज, पराए पनि परि तू पंछिनु न मारि ॥
आचार्यत्व – अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति बिहारी ने कोई लक्षण-ग्रन्थ नहीं लिखा । कारण यह था कि जिस पद की लालसा से तत्कालीन कवि लक्षण – ग्रन्थ लिखते थे, वह राजकवि का पद उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुका था । शृंगार के जितने भी अनुभव, विभाव, संचारी भाव हो सकते हैं, इन सबके पुष्ट उदाहरण उनकी ‘सतसई’ में मिलते हैं। उनका प्रत्येक दोहा स्वयम् में लक्षण ग्रन्थ है। स्थान-स्थान पर अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि शक्तियों के उनके काव्य में दर्शन होते हैं। इसलिये इनके दोहों को “नाविक के तीर” की संज्ञा दी गई है, जो देखने में छोटे लगते हैं, परन्तु घाव बड़ा गहरा करते हैं–
सतसैया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर ।
देखत में छोटे लगें, घाव्र करें गम्भीर ||
भाव सबलता में ये महाकवि सिद्धहस्त थे । एक ही दोहे में बिहारी ने अनेक भाव, विभाव और अनुभाव, सौन्दर्य तथा सूक्ष्म मनोवृत्तियों का चित्रण बड़ी योग्यतापूर्वक किया है—
कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत लजियात ।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सौं बात ||
बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ ।
सौंह करे भौंहनु हँसे, देन कहै नटि जाइ ||
बहुज्ञता – बिहारी में सर्वतोन्मुखी प्रतिभा थी, प्रकाण्ड पांडित्य था। उन्हें गणित, ज्योतिष, दर्शन विज्ञान, वैद्यक आदि विभिन्न विषयों का पर्याप्त ज्ञान था । सर्वप्रथम बिहारी की दार्शनिक पंक्तियों को लीजिये । दर्शन सम्बन्धी गूढ़ रहस्यों को उन्होंने कितने सुन्दर ढंग से व्यक्त किया
मैं समुझयौ निरधार, यह जगु कांचौ काँच सौ ।
एकै रूप अपर प्रतिबिम्बित लखियतु जगत् ॥
जगत जनायौ जिहिं सकल सो हरि जान्यौ नाहिं ।
ज्यौं अँखियन सबु देखियै आँखि न देखी जांहि ॥
यद्यपि इन बातों को साधारण आदमी भी जानता है कि यह संसार असार है इसमें सब कुछ ब्रह्म का ही स्वरूप है, परन्तु इन उक्तियों को काव्य रस से सींचकर पाठकों के सामने कोई-कोई विद्वान् ही रख सकते हैं। इसी प्रकार बिहारी ने  गणित के दो सामान्य नियमों को नायिका का सहारा लेकर बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है–
कहत सबै बैंदी दिए आँकु दसगुनों होतु ।
तिय ललार बैंदी दिए, अगणित बढ़त उदोतु ।।
कुटिल अलकु छुटि परतु मुख बढ़िगौ इतौ उदौतु ।
बंक बकारी देत ज्यों, दाम रुपैया होतु ।।
विषम ज्वर में वैद्य प्राय: सुदर्शन चूर्ण दिया करते हैं–
यह बिनसतु नगु राखिकै, जगत् बड़ौ जसु लेहु ।
जरी विषम जुर ज्याइयै, आइ सुदरसन देहु ॥
उनके ज्योतिष सम्बन्धी दोहों से स्पष्ट है कि उनको ज्योतिष शास्त्र का अन्य विषयों की अपेक्षा अच्छा अध्ययन था। उन्होंने इन दोहों में उसी जानकारी का परिचय दिया है–
मंगल बिन्दु सुरंग, मुख ससि केसरि आड़ गुरु ।
इक नारी लहि संग, रसमय किय लोचन जगतु ॥
इसी प्रकार बड़ी सुन्दरता से उन्होंने राजनीतिक बातों पर भी प्रकाश डाला है इस विषय में यह दोहा अधिक प्रसिद्ध है
दुसह दुराज प्रजानु कौ, क्यों न बढ़े दुख द्वन्द्व । 
अधिक अंधेरौ जग करत, मिलि मावस रवि चन्द्र ।।
महाकवि बिहारी ने रसराज शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के वर्णन में अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की है। प्रेम के संयोग वर्णन में कविगण प्रायः आलम्बन के रूप में तथा उसके हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, उसी का वर्णन किया करते हैं। नायक नायिकाओं में परस्पर हास्य विनोद की उक्तियाँ भी होती हैं । ऋतुओं का वर्णन भी उद्दीपन के रूप में किया करते हैं। बिहारी ने भी इन सभी परम्परागत बातों का वर्णन किया है। प्रेमी अपने प्रिय के प्रेम में ऐसा लीन हो जाता है कि उसे प्रिय की साधारण से साधारण वस्तु भी अधिक प्रिय प्रतीत होती है। प्रेम ने नायिका को पागल बना दिया है। नायक पतंग उड़ा रहा है। उसकी पतंग की परछाईं नायिका के आँगन में पड़ रही है। नायिका पागल सी उसे पकड़ती फिर रही है। पतंग की छाया के स्पर्श में उसे नायक के संस्पर्शज सुख का आनन्द प्राप्त हो रहा है —
उड़ति गुड़ी लख ललन की अँगना अँगना माहि ।
बौरी लौं दौरी फिरति, छुवत छबीली छाँहि ॥ 
जब प्रेमी अपनी सीमा से अधिक प्रेम में तल्लीन हो जाता है, तब उसे आत्म-विस्मरण हो जाता है, वह अपने आपको ही प्रिय समझने लगता है–
पिय कै ध्यान गही गही, वही रही है नारि ।
आपु आपु ही आरसी, लखि रीझति रिझवारि ॥
 प्रेमी को अपनी प्रियतमा का संयोग प्राप्त करने में कैसा भी कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसे अपना सौभाग्य समझता है। नायिका के पैर में काँटा लगा, परन्तु साथ ही उसका जीवन भी सार्थक हो गया और हो भी क्यों न, जबकि स्वयं प्रियतम ने अपने हाथ से आकर निकाला —
इहि काँटे मो पाँइ गढ़ि लीनी मरति जिवाड़।
प्रीति जनावत भीति सौ, मीत जु काठ्यौ आइ ।।
नायक-नायिका “आँख-मिचौनी” का खेल खेल रहे हैं, परन्तु “दौऊ चोर मिहींचनी खेलु न खेलि अघांत ।” भला वे क्यों अघाने लगे, जबकि —
प्रीतम-दृग मिहचत प्रिया, पानि परस सुख पाइ ।
जानि पिछानि अजात लौ, नैकुन होति जना ।।
नायिका को नायक से मजाक करने की सूझी है, वह सोने का बहाना करके पलंग पर जा लेटी । परन्तु–
मुख उघारि पिउ लखि रहत, रहयौ न गौं मिस सैन ।
फरके ओठ उठे पलक, गए उधरि जुरि नैन ।।
नायक नायिका की गोद में से बच्चे को ले रहा है । शिशु के प्रति वात्सल्य भावना का तो नायिका को पता नहीं चलता, परन्तु
लरिका लैबै के मिसहिं, लंगर मो ढिंग आइ ।
गयों अचानक आँगुरी, छाती छैल छुवाइ ||
वियोग वर्णन – बिहारी ने विरह की सभी दशाओं का विस्तार के साथ वर्णन किया है। वियोग का सबसे निखरा हुआ रूप प्रवास में दृष्टिगोचर होता है। बिहारी ने भी इसीलिए प्रवास का सबसे अधिक वर्णन किया है। प्रिय के सामने प्रेम का स्वाँग दिखाना तो सरल है, परन्तु सबसे सच्चा प्रेम वही है, जो अपने प्रियतम के विरह में पागल हो उठता है। यही कारण है कि बिहारी ने विरह का विशद् वर्णन किया है । परन्तु कहीं-कहीं अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन उपहासास्पद अवश्य बन गया है। नायिका को विरह की अग्नि में इतना तपा देना स्वाभाविक नहीं कहा जा सकता कि औधाई हुई गुलाब जल की शीशी बीच में ही सूख जाये
औंधाई सीसी सुलखि, विरह बरत बिललात ।
बिचही सूखि गुलाब गौ, छीटों छुयौ न गात ॥
विरहावस्था में किसी काम में चित्त नहीं लगता। प्रकृति के वे पदार्थ जो प्रियतम की उपस्थिति में अत्यन्त सुखद प्रतीत होते हैं, वे ही विरह दुःखदायी बन जाते हैं। ये भाव बिहारी ने कितनी सुन्दरता से व्यक्त किये हैं—
हौ हीं बौरी बिरह बस, कै बौरो सबु गाँउ ।
कहा जानि ए कहते हैं, ससिहि सीतकर नाँउ ॥
नायक को परदेश से लौटे अभी थोड़ा ही समय हुआ है और उन्हें फिर विदेश गमन की लगन उठ आई है। इस पर सखी कितनी सुन्दर उक्ति कहती है—
अजौं न आए सहज रंग, विरह दूबरैं गात ।
अब ही कहा चलाइयतु, ललन चलन की बात ॥
नायक और नायिका विरहावस्था में एक-दूसरे को पत्रों द्वारा सन्देश भेजा करते थे । नायिका के द्वारा बिहारी ने नायक को जो सन्देश भिजवाया है, वह बहुत ही मार्मिक है—
कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात ।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात ॥
भक्ति वर्णन – बिहारी भक्ति के विषय में किसी विशेष सिद्धान्त के मानने वाले नहीं थे, उन्होंने सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार का वर्णन किया है। अपने मत के विषय में उन्होंने लिखा
अपने-अपने मत लगे वादि मचावत सोरु ।
ज्यों-त्यों सबकौ सेइबौ एकै नन्द किसोरु ||
बिहारी भगवान से मुक्ति की याचना करते हुए कहते हैं–
मोहूँ दीजै मोषु, ज्यों अनेक पतितनु दियौ ।
जो बाँधे ही तोषु, तौ बाँधौ अपने गुननि ।।
भगवान् को ही अपना मानकर धनवानों के प्रति उनकी यह उक्ति कितनी सुन्दर है-
कोऊ कोटिक संग्रहौ, कोऊ लाख हजार।
मो सम्पत्ति जदुपति सदा, विपति विदारनहार ।।
अलंकार प्रयोग – बिहरी के काव्य में यमक, श्लेष, अनुप्रास, असगंति आदि अलंकार के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं
अनुप्रास – यमक, बीप्सा, युक्त- 
रनित – भृंग-घंटावली, झरत दान मधुनीर ।
मन्द-मन्द आवत चल्यौ, कुंजर-कुंज समीर ॥
यमक – तू मोहन के उरबसी, है उरबसी समान ।
श्लेष- चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर ।
को घटि ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ॥
उत्प्रेक्षा-सोहत ओढ़े पीत पटु स्याम सलौने गात । 
मनौं नीलमनि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात ।।
बिहारी के काव्य के विषय में गोस्वामी राधाकृष्ण जी ने लिखा है कि “यदि सूर-सूर तुलसी शशी, उडुगन केशवदास हैं, तो बिहारी पीयूषवर्षी मेघ हैं, जिनके उदय होते ही उसका प्रकाश आच्छन्न हो जाता है। फिर उसकी वृष्टि से कवि कोकिल कुहुकने, मन मयूर नृत्य करने और चातक चहकने लगते हैं।” बिहारी का हिन्दी साहित्य में क्या स्थान है, उपरोक्त पंक्तियों से पर्याप्त स्पष्ट है। अपनी समास शक्ति और समाहार योजना के अद्वितीय पाण्डित्य के कारण बिहारी ने निस्सन्देह गागर में सागर भर दिया है ।

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