भय का सिद्धान्त क्या है ? भय और व्यक्तित्व के कारणों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
भय का सिद्धान्त क्या है ? भय और व्यक्तित्व के कारणों का विस्तार से वर्णन कीजिए।
उत्तर— भय का सिद्धान्त—इसके अन्तर्गत किसी बाह्य दबाव द्वारा भय उत्पन्न कर दूसरे के मनोभावों व व्यवहार को अपने अनुकूल बनाया जाता है इस सिद्धान्त को आर्थिक पक्ष से एवं व्यवसाय के क्षेत्रों से जोड़ा जा सकता है ।
मनुष्य एक साथ अनेक सम्बन्धों भूमिकाओं और परिवेश के मध्य जीता है उसे सबसे सामंजस्य करना होता है। वह ऐसी भूमिका का चयन करता है जिसमें समाज, परिवार, स्वयं का स्वरूप विखण्डित न हो। इस विखण्डन से बचने के लिए उसे अन्तर्निहित भय को समझना होता है। ये भी आवश्यक है कि परिणति भय से ग्रसित नहीं होनी चाहिए अपितु उससे भिन्न स्वयं के विश्वास के जीत के रूप में होनी चाहिए ।
भय (Fears) और व्यक्तित्व के भय और व्यक्तित्व के कारककारक निम्नलिखित हैं—
(1) महत्वाकांक्षा – व्यक्तित्व का एक प्रमुख कारक महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षा को विचारकों ने घमण्ड के समान एक दुर्गुण बताया है। बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने महत्वाकांक्षा का मानव व्यवहार का अवगुण माना है लेकिन प्रतिभा से सम्बन्धित कथाओं में महत्वाकांक्षा का साहसिक भावना से ओत-प्रोत माना गया है। महत्वाकांक्षा मनुष्य को स्वयं आनन्दपूर्ण जीवन की ओर उन्मुख करती है। निःसन्देह यदि मनुष्य में व्यक्तित्व के निर्माण की महत्वाकांक्षा न होती तो यह जंगली जानवरों से डरते हुए पेड़ों अथवा गुफाओं में रहकर प्रकृति की कृपा पर निर्भर होकर असभ्य जीवन व्यतीत करता रहता और उसमें भय की शंका बनी रहती।
(2) दृढ़ विनम्र – दृढ़ एवं विनम्र व्यक्तित्व के ये बारक भय का विचार मन में लाने में अहम रूप से उत्तरदायी है। व्यक्ति की दृढ़ता भय को नियंत्रित करती है लेकिन कभी-कभी किसी प्राणी व वस्तु के प्रति दृढ़ सन्देह उत्पन्न होने पर भय की भी उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार विनम्रता भी भय की स्थिरता एवं अस्थिरता में अहम् भूमिका निभाते हैं। व्यक्ति का व्यक्तित्व अत्यधिक विनम्र है तो उसकी अन्तरात्मा में किसी प्रकार का भय नहीं रहता है लेकिन कभी-कभी अधिक विनम्रता भय को भी उत्पन्न करती है।
(3) स्व स्वीकृति – आत्म स्वीकृति कारक को पारिभाषित करते हुए शेपर्ड ने कहा है कि—”आत्म स्वीकृति किसी के साथ एक व्यक्ति की स्व सन्तुष्टि या खुशी है जो अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक माना जाता है। आत्म स्वीकृति में स्वय को समझने या स्वयं की शक्तियों या कमजोरियों का यथार्थ रूप सम्मिलित है। आत्म स्वीकृति को व्यक्तित्व परिवर्तन के लिए एक सुझाव के रूप में माना जाता है। व्यक्ति को आत्म दोष को सुलझाने तथा उन्हें फिर स्वीकार करने में आत्म-स्वीकृति को सम्मिलित किया जाता है। “
(4) आत्म- मूल्यांकन – स्व- मूल्यांकन एक ऐसा कारक है जिसके द्वारा स्वयं का अवधारणात्मक रूप से मूल्यांकन किया जाता है। आत्म मूल्यांकन में व्यक्ति अपनी प्रतिभाओं का स्वयं चयन करता है अपनी सच्चाई का मूल्यांकन करता है तथा स्वयं के बारे में अनुमान लगाता है जो उसकी भविष्य की योजनाओं को प्रभावित करती है। आत्म मूल्यांकन के द्वारा व्यक्ति की स्वयं की वृद्धि, स्वयं का सत्यापन एवं स्वयं का सुधार होता है।
(5) उत्साहित हतोत्साहित – प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए उत्साहित होता है तथा वह सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयास भी करता है परन्तु इसके विपरीत किसी कार्य में बार-बार असफल होने पर व्यक्ति हतोत्साहित हो जाता है। उदाहरण के लिए – यदि कक्षा में छात्र बराबर सफलता प्राप्त करता रहता है तो वह अपना प्रत्येक शैक्षिक कार्य पूर्ण उत्साह के साथ करता है लेकिन एक ही कक्षा में बार-बार असफल होने पर वह अपनी शिक्षा के प्रति हतोत्साहित हो जाता है।
(6) उदासीन – अनुदासीन – उदासीनता एवं अनुदासीनता भी व्यक्तित्व का प्रमुख कारक है। जब व्यक्ति किसी कार्य के प्रति अधिक उदासीन हो जाता है तो धीरे-धीरे उस कार्य के प्रति उसकी अन्तरात्मा में भय की उत्पत्ति हो जाती है जो व्यक्ति हमेशा प्रसन्नचित्त एवं सकारात्मक तरीके से कार्य करता है उसे हमेशा सफलता भी मिलती है तथा ऐसे व्यक्ति अधिकांशतः भयमुक्त होते हैं।
(7) आत्म-विश्वास –आत्म-विश्वास से ही व्यक्ति को अपने कार्यों के सम्पादन में सफलता एवं सरलता मिलती है जो व्यक्ति आत्मविश्वास से ओत-प्रोत होता है उसे अपने भविष्य के प्रति किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती है। दूसरी तरफ जिन व्यक्तियों में आत्म-विश्वास की कमी होती है वे किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से भयभीत रहते हैं। आत्म-विश्वास व्यक्ति की आन्तरिक भावना है, इसके बिना जीवन सफल होना असम्भव है। प्रत्येक व्यक्ति जितना ही अपनी योग्यता एवं कार्यक्षमता पर विश्वास करेगा उतना ही उसका जीवन सफल होगा तथा जितना ही वह अपनी योग्यता पर अविश्वास करेंगे उतना ही विजय एवं सफलता से दूर जाएँगे। इस प्रकार आत्म-विश्वास व्यक्तित्व विकास का महत्त्वपूर्ण कारक है।
(8) आत्म-विश्लेषण – आत्म विश्लेषण करके व्यक्ति अपनी कमियों का पता लगा सकता है वहीं उन्हें दूर करने का अच्छा मौका भी मिल जाता है। एक कहावत है कि इन्सान दुनिया से मुँह चुरा सकता है. पर स्वयं से नहीं।
इस प्रकार व्यक्ति जब भी कुछ अच्छा-बुरा करता है उसका गवाह एवं न्यायाधीश वह स्वयं होता है। यदि व्यक्ति कुछ अच्छा करता है तो स्वयं को शाबासी देता है तथा बुरा करता है तो स्वयं आन्तरिक रूप से भयभीत होता है तथा दुनिया का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाता है। आत्म-विश्लेषण के द्वारा ही अच्छे एवं बुरे में फर्क समझ पाता है तथा अपने व्यक्तित्व का विकास सही दिशा में करता है।
(9) आत्म-परिचय – प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की पहचान बनाने के लिए आत्म-परिचय का ज्ञान होना आवश्यक है। आत्म-पहचान एक बहुत ही जटिल विचार है। कुछ व्यक्ति अपना परिचय अपनी नौकरी, शौक, परिवार के सम्बन्ध, धार्मिक विश्वास, राष्ट्र प्रेम आदि के द्वारा देते हैं। आत्म परिचय में व्यक्ति का भूतकाल एवं भविष्यकाल भी शामिल होता है। मनुष्य आत्म-परिचय बनाने के लिए बड़ी से बड़ी बाधा को बिना किसी भय के पार कर जाता है। वह भय को अज्ञानता मानता है। इस प्रकार आत्म-परिचय व्यक्तित्व का एक प्रमुख कारक सिद्ध होता है।
(10) सक्रियता- निष्क्रियता – यदि व्यक्ति अधिक सक्रिय रहता है तो उसके व्यक्तित्व का विकास भी भली भाँति होता है इसके विपरीत यदि व्यक्ति अधिक निष्क्रिय रहता है तो उसके व्यक्तित्व का विकास भी भली-भाँति नहीं होता है। एक शोध के द्वारा पता लगाया गया है कि यदि व्यक्ति अधिक निष्क्रिय रहता है तो उसमें दीर्घकालिक बीमारियों से लड़ने की क्षमता समाप्त हो जाती है। सक्रिय रहने पर व्यक्ति के लिए कठिन काम भी सरल हो जाता है। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति भयभीत होता है तो निष्क्रिय होकर बैठ जाता है या तो सक्रिय होकर परिस्थितियों का सामना करता है ।
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