शारीरिक शिक्षा के विकास का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए ।
शारीरिक शिक्षा के विकास का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए ।
उत्तर— शारीरिक शिक्षा का विकास—मनुष्य ने जब पृथ्वी पर जन्म लिया, उस समय उसको शारीरिक बल की नितान्त आवश्यकता थी। उस समय मनुष्य शारीरिक बल शारीरिक परिश्रम से प्राप्त करता था । प्राचीन काल में मनुष्य का भोजन प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन शिकार था। शिकार की तलाश में उसे जंगलों में घूमना पड़ता था। उस समय मनुष्यों को जंगली जानवरों से अपनी रक्षा एवं भोजन के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ता था, जिससे उसके शरीर के अंगों का समुचित विकास होता रहता था। मनुष्य का जीवन संघर्षशील होने के कारण उसका शरीर स्वस्थ रहता था ।
कालान्तर में शनैः-शनैः मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ और उसने खेती करना प्रारम्भ कर दिया। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसमें समय के साथ-साथ समूह भावना का विकास हुआ और वह सामूहिक रूप से शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा। शान्तिमय जीवन व्यतीत करने के कारण उसने धीरे-धीरे शारीरिक श्रम करना कम कर दिया, लेकिन समय के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य का महत्त्व बढ़ता गया । फलस्वरूप शारीरिक प्रशिक्षण के विभिन्न साधनों ओर | नियमों का विकास हुआ।
प्राचीन काल में ऋषि और मुनियों ने ईश्वर की आराधना में लीन होने के लिए तथा अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम और योगासनों की खोज की। व्यायाम और योगासनों का प्रशिक्षण गुरुओं के आश्रम में बालकों को दिया जाने लगा। फलस्वरूप प्रकृति के नियमानुसार क्रमशः शारीरिक शिक्षा का विकास होता रहा । शारीरिक प्रशिक्षण को सभी युगों में विशेष महत्त्व दिया गया है ।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में भौतिक सम्पन्नता होने के कारण शारीरिक श्रम को हीन भावना से देखा जाने लगा और मनुष्य द्वारा बौद्धिक श्रम को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा है। आज सर्वत्र धन को ही विशेष महत्ता दी जाती है। अर्थप्रद होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति बौद्धिक कार्य को ही महत्त्व देने लगा है, इस कारण शारीरिक श्रम का महत्त्व नंगण्य होता जा रहा है। हमारे लिए यह शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक सिद्ध हो रहा है, स्वस्थ मस्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर का होना अति आवश्यक है, क्योंकि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इसीलिए तो आयुर्वेद शास्त्र में कहा गया है कि—
नगरी नगरस्येव रथस्येव रथी यथा ।
स्व शरीरस्य मेधावी कृतस्येव वहितो भवेत् ॥
अर्थात् जिस प्रकार कोई राजा अपने नगर की देख-भाल में निरन्तर सावधान रहता है और कोई सारथी रथ की कार्यकुशलता के प्रति बराबर सजग रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य के प्रति निरन्तर सावधान रहना चाहिए, क्योंकि मानव जीवन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सर्वोत्तम आधार है, व्यक्ति का स्वास्थ्य–धर्मार्थ काम मोक्षाणामारोग्य मूलमूत्तमम् । अतः हमारा शारीरिक प्रशिक्षण ऐसा होना चाहिए, जो भावी नागरिकों को इस वैज्ञानिक युग उनके शारीरिक स्वास्थ्य का विकास कर, उनके मस्तिष्क को स्वस्थ बनाये रखें।
हम देखते हैं कि बच्चा जन्म लेते ही हाथ-पैर चलाना प्रारम्भ कर देता है। जिससे उसके शरीर के सभी अंगों का सर्वांगीण विकास होना प्रारम्भ हो जाता है। कुछ बड़े होने पर बच्चे में खेल के प्रति रुचि जाग्रत होती जाती है। यह प्रवृत्ति उसमें स्वाभाविक होती है, जो प्रकृति की ही देन है। खेल-कूद में भाग लेने से उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता है। कुछ बच्चे बचपन में खेलों में सक्रिय भाग नहीं लेते और सुस्त रहते हैं, जिससे उनके शारीरिक अंगों का सही रूप में विकास नहीं हो पाता । इस प्रकार के बच्चे बाल्यावस्था से ही विभिन्न रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। प्रकृति ने स्वस्थ रहने के लिए व्यायाम और खेल-कूद की प्रवृत्ति बाल्यावस्था से ही दी है। इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि अपने शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए शारीरिक प्रशिक्षण को महत्त्व. दें । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शारीरिक प्रशिक्षण का लक्ष्य शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में ज्ञान प्रदान कर, नियमित स्वास्थ्य के लिए सजग एवं क्रियाशील बनाना है और देश को स्वस्थ नागरिक प्रदान करना है। इसी प्रकार शारीरिक संस्कृति का लक्ष्य शरीर को सुन्दर बनाना है। इससे भार उठाने का अभ्यास करके तथा विशेष रूप से चुने गये व्यक्तिगत व्यायाम के द्वारा शारीरिक माँस-पेशियों को विकसित एवं नियन्त्रित किया जाता है।
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