शिक्षण की यूरिस्टिक विधि से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइये ।

शिक्षण की यूरिस्टिक विधि से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइये । 

उत्तर— ह्यूरिस्टिक विधि का अर्थ व परिभाषा–”ह्यूरिस्टिक” शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द Heurisco से हुई है जिसका अर्थ है— ‘discover’ अर्थात् “मैं खोजता हूँ।” अत: ह्यूरिस्टिक विधि का अर्थ है — वह विधि जिसमें बालक स्वयं के प्रयास से नवीन तथ्यों या किसी समस्या का समाधान खोजता है।
इस विधि को गाइल्ड इस्टीट्यूट के रसायनशास्त्र के प्रोफेसर N.E. Armstrong ने सर्वप्रथम जन्म दिया इसे खोज विधि या अनुसंधान विधि भी कहा जाता है। प्रोफेसर एन. इ. आर्मस्ट्रांग ने इस विधि की परिभाषा इस प्रकार दी है—“ अनुसंधान विधियाँ शिक्षण की वे विधियाँ हैं, जिनमें हम छात्रों को यथासम्भव एक अनुसंधानकर्ता या खोजकर्त्ता की स्थिति में रखना चाहते हैं अर्थात् वे विधियाँ हैं जिनमें केवल वस्तुओं के विषय में उसकी खोज को आवश्यक माना गया है।”
हरबर्ट स्पेंसर ने इस विधि के महत्त्व को इंगित करते हुए कहा है—‘‘बालकों को कम से कम बतलाना चाहिए और अधिक से अधिक खोजने के लिए प्रेरित करना चाहिए।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि यूरिस्टिक विधि अपने आप में कोई अलग विधि नहीं है। यदि इस विधि को वास्तविक रूप में कोई निश्चित विधि को न मानकर एक दृष्टिकोण माना जाए तो अधिक उपयुक्त रहेगा। इस प्रकार यदि प्रयोगशाला विधि, प्रायोजना विधि, प्रदर्शन विधि आदि विधियों में भी छात्रों का दृष्टिकोण अनुसंधानात्मक रखा जाए तो वे भी अनुसंधान विधि का रूप ले सकती हैं ।
अनुसंधान विधि के उद्देश्य–अनुसंधान विधि के निम्नलिखित मुख्य उद्देश्य हैं—
(1) छात्रों को अनुसंधानकर्त्ता अथवा खोजकर्त्ता बनाना ।
(2) छात्रों के मन में खोजी प्रवृत्ति का विकास करना।
(3) छात्रों में सूक्ष्म निरीक्षण, चिन्तनशक्ति, स्वनिर्णय शक्ति का विकास करना ।
(4) छात्रों में श्रम के प्रति लगाव उत्पन्न करना ।
(5) छात्रों में स्वतंत्रता, मौलिकता आदि की भावना जागृत करना ।
अनुसंधान विधि के सोपान-विज्ञान शिक्षा में अनुसंधान विधि का प्रयोग करते समय निम्न चरणों का प्रयोग करना चाहिए–
(1) समस्या की सूचना (Indentification of the Problem)–सर्वप्रथम बालकों को किसी समस्या के जीवन से सम्बन्ध होने की तीव्र पहचान या अनुभूति कराई जानी चाहिए ताकि वे अनुसंधान कार्य में पूर्ण रुचि के साथ प्रवृत्त होकर समस्या का समाधान खोज सकें । उदाहरणार्थ—“सौर ऊर्जा” को इस विधि द्वारा पढ़ाया जा सकता है।
(2) समस्याभिसूचन (Statement of the Problem)–जब बालक सौर ऊर्जा द्वारा घर-घर खाना पकाने के लिए सौर ऊर्जा का उपभोग सौर-चूल्हे में करने हेतु जिज्ञासु एवं अभिप्रेरित हों, तो इस प्रकार समस्याभिसूचन किया जा सकता है।
(3) समस्या का विश्लेषण (Analysis of the Problem)–इस स्तर पर सौर ऊर्जा प्राप्त करने की विधियों जैसे— सूर्य की धूप से ताप ग्रहण करने, सूर्य की किरणों को अवतल दर्पण द्वारा परावर्तित कर एक बिन्दु पर केन्द्रित कर सर्वाधिक ताप का उपयोग खाना पकाने में करने आदि पर विचार-विमर्श कर छात्रों को सम्बन्धित प्रयोग करने हेतु अभिप्रेरित किया जायेगा।
(4) प्रयोग एवं तथ्य संकलन ( Experiment and Collection)–इस स्तर पर सौर ऊर्जा को ताप में परिणित करने हेतु शिक्षक छात्रों को प्रयोग का अवलोकन करायेगा। शिक्षक स्वयं उपकरण तैयार कर अवतल दर्पण से सूर्य की किरणों को केन्द्रित कर उससे उत्पन्न ताप से एक बर्तन में खाना पकाकर दिखायेगा। प्रयोग से सम्बन्धित तथ्यों व निष्कर्षों का अभिलेखन रखा जायेगा।
(5) सम्भावित समाधान–इस स्तर पर सौर ऊर्जा द्वारा वैकल्पिक ईंधन की समस्या का समाधान प्रस्तुत किया जायेगा।
(6) समाधान का सत्यापन–इस स्तर पर सौर ऊर्जा की सहायता पुनः प्रयोग कर सत्यापन किया जायेगा।
शिक्षण में खोज या अनुसंधान विधि का उदाहरण—
कक्षा में विद्यार्थियों को एक समस्या प्रदान कर दी जाती है तथा प्रत्येक विद्यार्थी को उस समस्या में से कुछ ढूँढ़ने के लिए जिम्मेदार बना दिया जाता है। प्रत्येक विद्यार्थी विभिन्न साधनों के माध्यम से इस समस्या के बारे में आवश्यक जानकारी एकत्रित करने का प्रयत्न करता है। वह विद्यार्थी कक्षा में इधर-उधर घूमने तथा अन्य विद्यार्थियों के साथ समस्या पर विचार-विमर्श करने के लिए स्वतन्त्र होता है। प्रत्येक विद्यार्थी को उन समस्या से सम्बन्धित अनुदेशन पत्र भी दिया जाता है। विद्यार्थी चाहे तो अध्यापक से कुछ निर्देशन या मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है। लेकिन कुछ लोगों का मत है कि विद्यार्थी को कुछ भी मार्गदर्शन नहीं देना चाहिए तथा विद्यार्थी को स्वयं ही वही अनुदेशन (Instruction) मानना चाहिये जो उसे पूर्व में प्रदान किया गया है। विद्यार्थी जब चाहे उसे अध्यापक द्वारा सहायता प्रदान की जानी चाहिए। शिक्षक आगमन विधि द्वारा विद्यार्थियों से ही सारा कुछ करवाये । विद्यार्थी के अपने प्रेक्षण के परिणामस्वरूप जितने प्रश्न भी पूछना चाहे, पूछने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। इसके साथ ही उस समस्या के बारे में अधिक ज्ञान के लिए भी वैसे ही प्रश्न करें जो विद्यार्थी को प्रेरित कर सकें। इस प्रकार विद्यार्थी अपनी प्रेक्षण शक्ति के परिणामस्वरूप कारण ढूँढना, प्रायोगीकरण आदि सीखते हैं। इससे वे यह भी सीखते हैं कि किसी समस्या का कैसे समाधान किया जाता है, आँकड़े या तथ्य कैसे एकत्रित किये जाते हैं, उनकी व्याख्या कैसे होती है तथा अनुमानित हलों द्वारा परिणामों तक कैसे पहुँचा जा सकता है। इस प्रकार इस विधि से विद्यार्थियों में निम्नलिखित योग्यताओं का विकास सम्भव है—
(1) अच्छे गुणों का विकास–इससे विद्यार्थियों में आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, सत्यवादिता, चिन्तनशीलता, परिश्रम करने की योग्यता तथा स्वाध्याय आदि गुणों का विकास सम्भव हो पाता है।
(2) शिक्षक और छात्र के सम्बन्ध–यह वह विधि है जो शिक्षक ओर छात्र में पारस्परिक सम्बन्धों को और गहरा करती है। शिक्षक को पथ-प्रदर्शक और सच्चे मित्र की भूमिका निभानी पड़ती है। वह छात्रों को व्यक्तिगत रूप से देखता है तथा उन्हें आवश्यक सहायता एवं मार्गदर्शन देता है। छात्र भी अपनी खोज के दौरान शिक्षक से आवश्यक परामर्श करते हैं। इस प्रकार की क्रियाओं से छात्र और शिक्षक दोनों ही निकट होते चले जाते हैं।
(3) अनुशासन में सहायक–इस विधि की प्रकृति ही ऐसी है कि सभी विद्यार्थी अपने-अपने शोध में व्यस्त रहते हैं और उन्हें अपनीअपनी योग्यताओं और कौशलों का पूरा-पूरा प्रदर्शन करने का अवसर मिलता है। इससे इन विद्यार्थियों में उत्तरदायित्व की भावना आती हैं और उनमें लोकतन्त्र की भावना घर करती चली जाती है। इस प्रकार के विकास से कक्षा में तथा स्कूलों में अनुशासन स्वयं ही सुधरने लगता है।
(4) व्यक्तिगत शिक्षण–अनुसंधान विधि द्वारा शिक्षक विद्यार्थियों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे सकता है। व्यक्तिगत कक्षा शिक्षण में संभव नहीं हो पाता हैं। इससे शिक्षक विद्यार्थियों की त्रुटियों तथा कमजोरियों को पहचान कर उन्हें दूर कर सकता है ।
(5) गृह कार्य से मुक्ति–स्कूल में सारा दिन शोध या अनुसंधान कार्य में व्यस्त रहने के पश्चात् गृह कार्य देने की गुंजाइश ही नहीं रहती। शिक्षक और छात्र दोनों इस परेशानी से मुक्त रहते हैं। हाँ, अपने अनुसंधान या शोध कार्य से सम्बन्धित यदि कोई कार्य अधूरा रह गया है या उसके बारे में रिपोर्ट तैयार करनी है तो इस प्रकार का कार्य घर पर भी किया जा सकता है।
अनुसंधान विधि के गुण—विज्ञान व अन्य विज्ञानों के शिक्षण में खोज या अनुसंधान विधि के निम्नलिखित गुण अथवा लाभ हैं—
(1) मनोवैज्ञानिक लाभ–यह विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। इस विधि में विद्यार्थी की तथा उसके आस-पास की परिस्थितियों का पूर्ण ध्यान रखा जाता है । अध्यापक इस बात के लिए प्रयत्नशील रहते हैं कि इस विधि के अन्तर्गत हाथ में लिये जाने वाले सभी कार्य विद्यार्थी की रुचियों, योग्यताओं तथा उसके मानसिक परिपक्वता के स्तर के अनुसार ही हों। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को कार्य करने, सोचने तथा तर्क करने की स्वतन्त्रता मिले और वे स्वयं अनुशासन की भावना से कार्य करे। ये सभी गुण इस विधि के मनोवैज्ञानिकता के संकेतक हैं ।
(2) वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास–इस विधि का प्रभाव विद्यार्थियों के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक दृष्टिकोण में बदलने में सहायक होता है। उनमें निरीक्षण और जिज्ञासा की भावना उत्पन्न होती है तथा वैज्ञानिक ढंग से सोचने और समस्याओं का विधिपूर्वक हल खोजने की क्षमता का विकास होता है। विद्यार्थी सच्चे और ईमानदार बनते हैं क्योंकि वे वास्तविक प्रयोगों के द्वारा निर्णयों पर पहुँच सकने में सफल हो जाते हैं।
(3) आत्मविश्वास का विकास–इस विधि से विद्यार्थियों में आत्मविश्वास जाग्रत होता है। विद्यार्थी यह बात सोचने लगते हैं कि उनका सम्बन्ध समस्त समस्या से है, न कि समस्या के किसी विशेष पक्ष से । अतः वे निष्क्रिय दर्शक नहीं बने रहते।
(4) ‘करके दिखाना’ के सिद्धान्त पर आधारित–यह विधि ‘करके दिखाना’ के सिद्धान्त पर आधारित है। विद्यार्थी स्वयं अपने हाथ से कुछ कार्य करके सीखता है, जिससे विद्यार्थी में विषय तथा समस्या के बारे में अधिक स्पष्टता होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि ज्ञान हाथों से मस्तिष्क की ओर बढ़ता है।
(5) व्यक्तिगत ध्यान की सम्भावना–इस विधि से इस बात की सम्भावना बनी रहती है कि शिक्षक प्रत्येक विद्यार्थी की ओर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे सकता है। इससे विद्यार्थी और अध्यापक के बीच अधिक से अधिक औपचारिक सम्बन्ध विकसित होता है। इससे विद्यार्थी के मन में यह विचार भी विकसित होता है कि शिक्षक उसका मित्र है न कि एक तानाशाह ।
(6) परिश्रम करने की आदत का विकास–यह एक ऐसी विधि है जिसमें विद्यार्थी कठिन से कठिन परिश्रम करने का आदी हो जाता है। परिश्रम करना दिनचर्या का एक अंग बनकर उसकी आदतों में शामिल हो जाता है। उसमें सदा कार्य समाप्त करने की इच्छा रहती है।
(7) गृह कार्य से छुटकारा–इस विधि के अन्तर्गत विद्यार्थी कक्षा में ही कार्य में व्यस्त रहता है अतः शिक्षक विद्यार्थी को गृहकार्य देना आवश्यक नहीं समझता। अतः इससे विद्यार्थी गृह कार्य के बोझ से बच जाता है।
(8) अनुसंधान कार्य के प्रति दृष्टिकोण–अनुसंधान विधि की सबसे बड़ी देन यह है कि विद्यार्थी अनुसंधान कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकता है।
(9) क्रियाशीलता–इस विधि में विद्यार्थी निष्क्रिय नहीं बैठे रह सकते और न ही ज्ञान उन पर जबरदस्ती थौंपा जाता है। वे स्वयं प्रयत्न करके तथा प्रयोग करके ही सीखते हैं। नये-नये विचारों, तथ्यों तथा सिद्धान्तों आदि की खोज के लिये उन्हें सक्रिय रहना पड़ता है।
(10) स्थायी ज्ञान–खोज या अनुसंधान विधि से विद्यार्थी जो कुछ भी सीखता है वह ज्ञान स्थायी होता है । वह उसे कभी भूलता नहीं । इस प्रकार से प्राप्त ज्ञान स्थायी होने के कारण साथ-साथ स्पष्ट भी होता है।
अनुसंधान विधि के दोष या सीमायें–इस विधि के लाभ एवं गुण तो बहुत हैं लेकिन इसकी अपनी कुछ सीमाएँ भी हैं जिनमें बंध कर यह विधि कई बार परिस्थितियों में अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती। खोज विधि की सीमायें या दोष निम्नलिखित हैं—
(1) महंगी विधि–इस विधि को बहुत महंगा माना गया है । क्योंकि इस विधि को कार्य रूप देने के लिये सुसज्जित प्रयोगशालायें, पुस्तकालय तथा सुशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता है। ये आवश्यकतायें सभी राज्य एवं स्कूल पूरी नहीं कर सकते । अतः उनके लिये यह विधि असहनीय हो जाती है।
(2) प्राइमरी कक्षाओं के लिए उपयुक्त नहीं–यह विधि प्राइमरी कक्षाओं के लिए उपयुक्त एवं लाभकारी नहीं हैं। क्योंकि प्राइमरी स्तर पर बच्चों का मानसिक स्तर इतना अधिक नहीं होता कि बच्चे स्वतन्त्र रूप से बिना कुछ बताये ज्ञान की खोज कर सकें।
(3) पाठ्यक्रम को पूरा करने में कठिनाई–खोज या अनुसंधान विधि की कार्य प्रणाली ऐसी होती है कि इसमें कार्य समाप्त करने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता होती है। लेकिन स्कूलों में एक कालांश 35 या 40 मिनट का ही होता है। इस अल्प अवधि में लम्बे चौड़े पाठ्यक्रम को समाप्त कर पाना शिक्षक के लिये बहुत ही कठिन कार्य है ।
(4) शिक्षकों से अधिक अपेक्षायें–इस विधि के अन्तर्गत शिक्षकों से अधिक से अधिक आशायें एवं अपेक्षायें होने लगती हैं तथा सभी गतिविधियों का बोझ शिक्षक पर ही पड़ता चला जाता है । विद्यार्थी को हर प्रकार की सहायता, निर्देशन तथा परामर्श का उत्तरदायित्व शिक्षक का ही होता है। शिक्षक से विद्यार्थी अधिक से अधिक प्राप्त करना चाहता है। लेकिन यदि हम व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो हम पायेंगे कि जितना हम शिक्षक से आशाएँ करते हैं उतना वह हमें दे नहीं पाता।
(5) विद्यार्थियों से अधिक आशायें–खोज या अनुसंधान विधि में विद्यार्थी को एक अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्य करना होता है। यह कार्य बहुत ही कठिन कार्य होता है । अनुसंधान कार्य आसान नहीं होता। लेकिन विद्यार्थियों का मानसिक स्तर इतना अधिक नहीं होता कि वे समाज या देश के लिये कोई नई खोज कर सकें। अतः विद्यार्थियों को खोज कार्य में डालकर हमें उनसे अधिक आशाएँ नहीं रखनी चाहिये ।
(6) दोषपूर्ण परिणामों की सम्भावना–विद्यार्थियों के खोज पूर्ण कार्यों से यदि हम उच्च स्तर के परिणामों की आशा करेंगे तो यह हमारी बहुत भारी भूल होगी। अच्छे परिणामों की आशा में यदि हम विद्यार्थियों पर ही पूर्ण रूप से निर्भर रहेंगे तो इससे हानि की सम्भावना रहती हैं।
(7) कक्षा में बड़े आकार के लिये हानिकारक–यह विधि तभी लाभदायक हो सकती है जब कक्षा का आकार छोटा हो अर्थात् कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या कम हो क्योंकि हम विद्यार्थी होने की परिस्थिति में ही अनुसंधान कार्य सम्भव है और शिक्षक व्यक्तिगत ध्यान दे सकता है। आर्थिक दृष्टि से भी छोटे आकार वाली कक्षाओं के लिये ही यह विधि लाभकारी हो सकती है। भीड़ वाली कक्षाओं में इस विधि से अनुसंधान कार्य संभव नहीं है और न ही ऐसी परिस्थितियों में अनुशासन रह सकता है।
(8) पाठ्य सामग्री का अभाव–इस विधि का एक व्यावहारिक दोष यह भी है कि इस विधि पर आधारित पाठ्यसामग्री तथा पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध नहीं होती हैं। अतः पाठ्य सामग्री तथा पाठ्यपुस्तकों के अभाव में इस विधि का उपयोग ठीक ढंग से नहीं हो पाता ।
(9) प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी–इस विधि का प्रयोग विशेष प्रकार के प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकते हैं। सभी शिक्षकों द्वारा इस विधि का प्रयोग असम्भव सा है। लेकिन इस विधि के लिये प्रशिक्षित व्यक्ति बहुत ही कम मिलते हैं। अतः इस विधि के प्रयोग में प्रशिक्षित व्यक्तियों या शिक्षकों का अभाव भी बाधा उत्पन्न करता है ।
अनुसंधान विधि में शिक्षक की भूमिका–अनुसंधान विधि के दौरान एक शिक्षक से बहुत अधिक आशाएँ लगायी जाती हैं। अतः इस विधि में शिक्षक की भूमिका को बहुत महत्त्व दिया गया है तथा उसे मुख्य स्थान दिया गया है। शिक्षक की भूमिका इस विधि में निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट हो जाती है—
(1) शिक्षक को प्रश्न पूछने की कला में निपुण होना चाहिए और वह विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने की प्रविधि ही एक ऐसी प्रविधि है जो शिक्षक को यह बताती है कि विद्यार्थी ने क्या कुछ समझा एवं सीखा है।
(2) शिक्षक एवं मार्गदर्शक सक्रिय हिस्सेदार और छात्रों का मित्र होता है। अतः शिक्षक को चाहिये कि वह विद्यार्थियों को कभी डांट-डपट न करे और न ही उनको दबाने का प्रयास करे । कोई भी गलती हो जाने की परिस्थिति में शिक्षक को चाहिये कि वह विद्यार्थियों को उस गलती को ठीक करने के लिए सहायता दें ।
(3) शिक्षक विद्यार्थियों को कक्षा में स्वतन्त्रता का वातावरण प्रदान करे। इस प्रकार की सुविधा प्रदान करने से विद्यार्थियों में आत्म-निर्भरता तथा आत्म प्रदर्शन का विकास होता है, इससे विद्यार्थियों में स्वयं – अनुशासन भी पैदा होगा।
(4) शिक्षक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों की आयु, योग्यताओं तथा रुचियों आदि को ध्यान में रखकर ही समस्याओं की योजना बनाये। ऐसा करना ही मनोवैज्ञानिकता कहलाती है। ऐसा न करने से आशानुरूप परिणाम प्राप्त करने में असफल रहेंगे।
(5) शिक्षक का एक और कर्त्तव्य बनता है कि वह विद्यार्थियों में समस्या में अनुसंधान के प्रति जिज्ञासा रुचि और उत्साह बनाये रखें। अत: शिक्षक को स्वयं को भी एक अनुसंधानकर्त्ता होना चाहिये। तभी हम आशा कर सकते हैं कि उस शिक्षक के अन्तर्गत अनुसंधान करने वाले विद्यार्थी भी उसी प्रकार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कार्य कर पायेंगे ।
(6) शिक्षक विद्यार्थियों को ज्ञान उपलब्ध कराने के लिये विभिन्न स्थानों के भ्रमणों की व्यवस्था करे ताकि विद्यार्थी यह जान पायें कि ज्ञान मात्र पुस्तकों से नहीं मिलता और न ही कक्षा की चार दीवारी में ज्ञान खुले क्षेत्र में जाकर वास्तविक वस्तुओं को देखकर भी एकत्रित किया जा सकता है।
अनुसंधान विधि के लिये सावधानियाँ—इस विधि के प्रयोग के लिए निम्नलिखित सावधानियों की आवश्यकता है—
(1) इस विधि में विद्यार्थियों को कम से कम सूचित किया जाये लेकिन उन्हें अधिक से अधिक खोज करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(2) विद्यार्थियों को हर काम में स्वयं अनुभव प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। उसे “करके सीखने ” (Learning by Doing) के सिद्धान्त के अनुकरण करने के लिये प्रेरित करें।
(3) विद्यार्थियों को कक्षा में प्रयोग करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से सोचने तथा खोज करने दिया जाना चाहिए।
(4) इस विधि में आगमन-निगमन (Inductive Deductive) प्रविधि का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो कि तर्क पर आधारित है।
(5) प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। दूसरों की नकल नहीं करनी चाहिए।
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