भारतीय नृत्यकला के बारे में विस्तार से लिखिये ।

भारतीय नृत्यकला के बारे में विस्तार से लिखिये । 

उत्तर— नृत्यकला का परिचय–प्रकृति की विभिन्न क्रियाओं में लय, संगीत व नृत्य तीनों ही दिखाई देते हैं । नदी की कलकल, कोयल की कूक, मीन (मछली) की थिरकन, मयूर (मोर) की चाल, मेघों की घड़घड़ाहट, वर्षा की बूँदें, झरनों का गिरना, हवा के साथ पेड़ों का झूमना, पक्षियों का चहकना, पंखों को फड़फड़ा कर उड़ना सभी में लय, संगीत व नृत्य का आभास मिलता है। मनुष्य ने जीवन के किस क्षण में नृत्य करना आरम्भ किया होगा कहना अति कठिन है। जीवन के किसी हर्ष, खुशी उल्लास की घड़ी में मानव ने ताली बजाकर, उछल-कूद कर या अन्य किसी प्रकार से अपने इस भाव की अभिव्यक्ति की होगी ।
विभिन्न ललित कलाओं, जैसे—चित्रकला, स्थापत्य कला, मूर्तिकला तथा काव्य कला आदि में नृत्य कला ही सबसे प्राचीन मानी जाती है, क्योंकि वादन के लिये वाद्यों का निर्माण, गायन के लिये भाषा तथा चित्रकला आदि के लिये भी किसी न किसी साधन या सामग्री की आवश्यकता होती है, जैसे-रंग, कूची, छेनी आदि ।
परिभाषा–मानवीय संवेगों की अभिव्यक्ति जब विभिन्न मुद्राओं, अंग-भंगिमाओं व पद संचालन द्वारा की जाये तो वह नृत्य कला कहलाती है।
नृत्यकला का महत्त्व–आज के जीवन में नृत्यकला का निम्नलिखित महत्त्व है—
(i) आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार नृत्य द्वारा हमारी माँसपेशियाँ एवं हड्डियाँ मजबूत होती हैं एवं शारीरिक दर्द से राहत भी मिलती है।
(ii) नृत्य से बायें व दायें का सामंजस्य, हाथ और पैर का, शब्द और अंग का, लय और अंग आदि सभी प्रकार का सामंजस्य बेहतर होता है। इससे मस्तिष्क की ग्रंथियाँ ठीक होती हैं एवं सुचारु रूप से चलती हैं।
(iii) यह एक शारीरिक क्रिया है। किसी भी व्यायाम की तरह ही इसमें सम्पूर्ण शरीर क्रियाशील हो जाता है। नृत्य में हाथ, पैर, कमर, सिर आदि के साथ-साथ कलाई, आँखें, भौंहें आदि का भी प्रयोग होता है।
(iv) नृत्य के द्वारा सम्प्रेषण कौशलों का विकास होता है। नृत्य के माध्यम से हम अपनी भावनाएँ दूसरों तक सरलता से पहुँचा सकते हैं।
(v) यह आनन्द प्राप्ति का साधन है। नृत्य करने से दुःख का निवारण होता है व अवसाद की स्थिति से निकलने में सहायता मिलती है ।
(vi) इस कला से सौन्दर्य के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। प्रत्येक कला सुन्दर वस्तु का निर्माण मानी जाती है। नृत्य में सुन्दर अंगभंगिमाओं एवं अभिनय द्वारा सौन्दर्य की उत्पत्ति होती है।
(vii) कला का सीधा सम्बन्ध मन से है । कला चाहे कोई भी हो मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति है। आज के तनावपूर्ण जीवन से छुटकारा पाने के लिए नृत्य एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
(viii) यह मानव की कल्पना शक्ति व सृजनात्मक शक्ति को विकसित करता है।
नृत्य की उत्पत्ति–जहाँ जीवन की उमंग है, वहीं नृत्य है। मानव समाज में सभ्यता के विकास के साथ ही नृत्य का भी विकास हुआ होगा। नृत्य एक ऐसी स्वाभाविक क्रिया है जो कि मनुष्य के भावों (संवेगों) को व्यक्त करती है। भारतवर्ष में नृत्य का आरम्भ ही देवी-देवताओं से हुआ ऐसा माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश- पार्वती, कृष्ण-राधा सभी देवी-देवता अच्छे नर्तक माने जाते हैं। इन्हीं देवी-देवताओं ने नृत्यकला अप्सराओं, गन्धव व किन्नरों को दी। उसके बाद यह कला मनुष्यों तक पहुँची है।
अभिनय दर्पण में लिखा है कि स्वयं ब्रह्मा ने भरत को नृत्य और नाट्य की शिक्षा दी और नाट्य शास्त्र लिखने का आदेश दिया। भरत ने अपने गण, गन्धर्व और अप्सराओं सहित कैलाश पर शिव के सम्मुख नृत्य प्रदर्शन किया तो स्वयं भगवान शिव ने प्रसन्न होकर अपने गण तान्डु को आगे नृत्य शिक्षा देने की आज्ञा दी, तब तान्डु ने ताण्डव नृत्य किया तथा लास्य की शिक्षा पार्वती द्वारा उषा को दिलवाई।
नृत्य के प्रकार–नृत्य के तीन प्रकार माने गये हैं—
(1) लोक नृत्य–वे नृत्य जो जनसाधारण द्वारा किये जाते हैं तथा जिनका अंग-संचालन व संगीत बहुत ही सरल होता है, लोक नृत्य कहलाते हैं। लोक नृत्य जन-जीवन की परम्पराओं, उनके संस्कार, भाषा, धार्मिक विश्वास आदि की अभिव्यक्ति होती है।
लोक नृत्यों की विशेषताएँ—
(i) लोक नृत्य शास्त्रीय नियमों के बन्धन व सीमाओं से दूर है।
(ii) लोक नृत्य सरल, सर्वगम्य व सर्वसुलभ होते हैं। इसमें विशेष प्रशिक्षण व निपुणता प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं होती है। इन्हें सीखने-समझने व प्रदर्शित करने में सरलता होती है।
(iii) लोक नृत्य जन-जीवन विशेष की परम्पराओं, संस्कार व आध्यात्मिक विश्वासों की अभिव्यक्ति है। जैसे देवी पूजन में नृत्य – राजस्थान का गणगौर नृत्य, गुजरात का गरबा आदि ।
(iv) लोक नृत्य अधिकतर सामूहिक होते हैं, 10-15 स्त्रियाँ अथवा पुरुष मिलकर नृत्य करते हैं। कहीं-कहीं पूरा कस्बा अथवा गाँव नृत्यमय हो जाता है।
(v) लोक नृत्य आम जनता का नृत्य होता है—किसी ने कहा है कि “Folk dance is the child of open air.”
(vi) लोक नृत्य मन की भावनाओं तथा संवेगों का एक कलात्मक अंग प्रदर्शन है; जैसे— नवयुवती के मन की अथवा सास-बहू की भावनाओं आदि की अभिव्यक्ति होती है।
(vii) लोक नृत्यों के ताल-लय और अंग-भंगिमाएँ एकरस होकर अवतरित होती हैं। गायन अथवा वादन के साथ नर्तक के पैर व अंग अपने आप चलने लगते हैं। सम पर आने के लिये उसे सिखाना एवं सीखना नहीं पड़ता।
(viii) लोक नृत्य किसी स्थान की प्राकृतिक अवस्था पर आधारित होते हैं, उदाहरण— स्थान पहाड़ी है अथवा रेतीला, गर्मी है अथवा सर्दी, नृत्य में शरीर एवं पद संचालन को प्रभावित करता है।
(ix) ये नृत्य अधिकतर किसी त्यौहार, उत्सव अथवा समारोह पर किये जाते हैं—इसी से सम्बन्धित गाना होता है व उस गायन पर नृत्य किया जाता है। जैसे जन्मोत्सव, विवाह, फसल की कटाई, होली आदि।
(2) शास्त्रीय नृत्य–जब अंग-भंगिमाओं, मुद्राओं, पद-संचालन को नियमों और शास्त्रों के बन्धन व सीमा से युक्त कर देते हैं तो वे नृत्य शास्त्रीय नृत्य कहलाते हैं । लोक नृत्य ही धीरे-धीरे विकसित होकर शास्त्रीय नृत्य बन जाते हैं। आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व भारत के केवल 4 ही शास्त्रीय नृत्य माने जाते थे–कथक, भरतनाट्यम, कथकलि एवं मणिपुरी किन्तु आज 9 नृत्य शैलियाँ शास्त्रीय नृत्यों के अन्तर्गत आती हैं—ओड़ीसी, कुचिपूड़ी, मोहिनीअट्टम, यक्षगान व छऊ ।
जब लोक जटिलता, क्लिष्टता और कला की सूक्ष्मता की ओर अग्रसर होने लगते हैं तो ये सीमित वर्गों के बन जाते हैं और यही शास्त्रीय नृत्य कहलाने लगते हैं। कोई भी नृत्य वर्षों की साधना एवं विकास के बाद जब नियमबद्ध हो जाता है एवं उसका एक निश्चित स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है, तभी वह शास्त्रीय नृत्य माना जाता है।
शास्त्रीय नृत्य की विशेषताएँ—
(i) शास्त्रीय नृत्य जटिल, क्लिष्ट व कला की सूक्ष्मता का प्रदर्शन होता है।
(ii) प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य की एक विशिष्ट वेशभूषा है।
(iii) घुँघरू शास्त्रीय नृत्य का एक आवश्यक अंग है।
(iv) इन नृत्यों में विशेष मुद्राओं अंग-भंगिमाओं व पद- संचालन का प्रयोग होता है। ये स्वाभाविकता से दूर होने लगते हैं।
(v) इन नृत्यों में विभिन्न तालों का प्रयोग, अनेक प्रकार की लयकारियों का प्रदर्शन एवं भावों की अभिव्यक्ति पर बल दिया जाता है।
(3) आधुनिक नृत्य–आधुनिक नृत्य को परिभाषित करना कठिन है। वर्तमान युग की आवश्यकता के अनुसार कलाकारों ने अपने नृत्य में अनेक परिवर्तन किये हैं। प्राचीनकाल से चले आ रहे नृत्य का मूल आधार देवी-देवताओं की कथाएँ, उनके दिव्य रूप का वर्णन, पौराणिक कथाएँ हैं, किन्तु आज के युग की अपनी विशेषता है— वैज्ञानिक साधनों का विकास, रंगमंच, ध्वनि व सज्जा के अनेक उपकरण, नई सामाजिक स्थितियाँ, शिक्षित दर्शक और साथ ही अर्थोपार्जन समयाभाव आदि । इन सभी भावों का समावेश कर जिस प्रकार के नृत्य का विकास हो रहा है वही आधुनिक नृत्य माना जा सकता है।
आधुनिक नृत्य की विशेषताएँ—
(i) सरल पद संचालन ।
(ii) लय, मुद्रा आदि क्षेत्र में नवीन प्रयोग ।
(iii) रस की अनुभूति हेतु प्रकाश, ध्वनि, मंच-सज्जा का प्रयोग ।
(iv) भाव के स्थान पर आंगिक गतियों पर बल दिया जाता है।
(v) नवीन कथानक-पौराणिक गाथाओं से हटकर अमूर्त विषय वस्तु काल्पनिक कथानक आदि ।
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