सामाजिक अध्ययन शिक्षण की मुख्य विधियाँ कौनसी हैं ? ‘स्रोत विधि’ एवं पर्यवेक्षित विधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

सामाजिक अध्ययन शिक्षण की मुख्य विधियाँ कौनसी हैं ? ‘स्रोत विधि’ एवं पर्यवेक्षित विधि का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर— सामाजिक अध्ययन शिक्षण की प्रमुख विधियाँ–
सामाजिक अध्ययन शिक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं—
(1) व्याख्यान विधि
(2) प्रयोजन विधि
(3) पर्यवेक्षित अध्ययन विधि
(4) कहानी कथन विधि
(5) आत्मकथा विधि
(6) स्रोत विधि
(7) मस्तिष्क उद्वेलन विधि
(8) नाट्य विधि
(9) सहयोगी अधिगम
(10) प्रयोगात्मक अधिगम
स्रोत विधि–इस विधि का प्रयोग मुख्यतया अतीत के इतिहास पर प्रकाश डालने के लिए किया जाता है। यह सम्भव नहीं है कि कोई भी इतिहासकार अतीतकालीन घटनाओं का अपने वर्तमान काल में अवलोकन कर सके। ऐसी दशा में उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि वह अतीतकालीन इतिहास के स्रोतों को अपने अध्ययन का आधार बनाये। श्री एस. वी. ऐचा ने सूत्र को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “सूत्र भूतकालीन घटनाओं के द्वारा छोड़े गये शेष चिह्न हैं।” यद्यपि इतिहास की घटनाएँ वास्तविक रूप से घटित होती हैं, किन्तु कालान्तर में उनकी कथाओं में काल्पनिकता आ जाती है अतः इतिहासकार सतर्कतापूर्वक वास्तविक चिह्नों को एकत्रित करता है तथा इन शेष चिह्नों की सहायता से अतीत की घटनाओं का तार्किक एवं क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत करने में समर्थ होता है। किन्तु सूत्र – पद्धति का उपयोग उच्च वर्गों में किया जाना चाहिए।
ये स्रोत दो भागों में विभाजित किये जा सकते हैं— (1) मौलिक स्रोत, (2) सहायक स्रोत ।
(1) मौलिक स्रोत–मौलिक स्रोतों में आते हैं— स्मारक, सिक्के, यन्त्र, वस्तु, मानव कंकाल, आज्ञा पत्र, आदेश, फरमान, संविधान, सन्धियाँ, न्यायालयों के निर्णय आदि ।
(2) सहायक स्रोत–इसके अन्तर्गत पुस्तकें, जीवन चरित्र, आत्मकथाएँ आदि आते हैं।
इतिहास–शिक्षण में इन स्रोतों का उपयोग निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है—
(i) पाठ के आरम्भ में छात्रों की जिज्ञासा जाग्रत करने के लिए।
(ii) पाठ का विकास करने के लिए भी इनका प्रयोग किया जा सकता है।
(iii) किसी ऐतिहासिक स्रोत को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करके उस पर अध्यापक अनेक प्रश्न कर सकता है।
(iv) ऐतिहासिक घटनाओं की समीक्षा के लिए भी स्रोतों का उपयोग करना आवश्यक हो जाता है।
स्रोतों का प्रयोग–स्रोतों का उपयोग करने का ज्ञान बालकों को नहीं होता है। इस कारण अध्यापक को ऐसी सामग्री से परिचित करवाना चाहिये जिससे बालकों को स्रोत विधि के लक्ष्यों एवं उसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सके। इस कार्य को निम्न पद्धतियों से किया जा सकता है—
(1) प्रदर्शन–मूल स्रोतों का पठन करके उसकी उपयोगिता की जानकारी अध्यापक द्वारा बालकों को देनी चाहिये। अध्यापक बालकों को यह भी स्पष्ट कर दें कि मूल स्रोतों का उपयोग उचित समय पर ही किया जाये जिससे इनका महत्त्व बना रहे।
(2) प्रदत्त अध्ययन–अध्यापक बालकों को किसी विशेष मूल स्रोत के किसी अनुच्छेद को पढ़ने की प्रेरणा दे सकता है। प्रारम्भ में इस बात का ध्यान रखा जाये कि विषय रोचक हो जिससे बालकों में रुचि बनी रहे तथा नीरसता न बनें ।
(3) समस्या समाधान–समस्याओं के समाधान के लिए मूल स्रोतों का उपयोग अधिक किया जाना चाहिये। इसकी सहायता से बालक अपनी पाठ्य-पुस्तक में पायी जाने वाली अशुद्धि को ठीक करने के योग्य हो जाता है।
स्रोत विधि के गुण–स्रोत विधि के गुण निम्नलिखित हैं—
(i) मौलिक स्रोत अधिगम के लिए वातावरण प्रस्तुत करते हैं
जिससे छात्रों में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन लाया जा सकता है और सीखने के लिए अभिप्रेरणा मिलती है।
(ii) इसमें विद्यार्थी विषयवस्तु को रटता नहीं है अपितु स्रोतों के प्रत्यक्षीकरण से विषयवस्तु को समझने का प्रयास करता है ।
(iii) इस विधि के द्वारा छात्रों में सूझ तथा सृजनात्मक क्षमताओं का विकास होता है तथा तर्क, निर्णय, निरीक्षण आदि मानसिक क्रियाओं का प्रशिक्षण मिलता है।
(iv) स्रोत विधि के माध्यम से विद्यार्थी स्रोतों का अध्ययन कर अतीत का पता लगाता है।
(v) विभिन्न शिक्षण पद्धतियों एवं विषयवस्तु की पूर्णता के लिए स्रोतों का उपयोग किया जाता है।
स्रोत संदर्भ विधि के दोष–निम्नलिखित हैं—
(i) प्राचीन अवशेषों को एकत्रित करना बहुत मुश्किल है। इससे समय, शक्ति व धन का अपव्यय होता है ।
(ii) स्रोत संदर्भ विधि का उपयोग उच्च कक्षाओं में ही अधिक उपादेय होता है, छोटी कक्षाओं में नहीं ।
(iii) यह विधि कुशाग्र बुद्धि के बालकों के लिये ही उपयुक्त है। सामान्य मन्द बुद्धि के बालकों के लिये इसका प्रयोग व्यावहारिक नहीं है ।
(iv) यह विधि व्यय साध्य होने के कारण उच्च प्राथमिक विद्यालयों में लागू की जानी सम्भव नहीं है ।
(v) इस विधि के लिये एक समृद्ध पुस्तकालय की आवश्यकता होती है जिसका अभाव है।
(vi) इस विधि के लिये विशेषज्ञ अध्यापकों की आवश्यकता होती है, विद्यालय स्तर पर इनका अभाव रहता है इस कारण इसका प्रयोग संदिग्ध है।
(vii) यह विधि समय अधिक लेती है इस कारण पाठ्यक्रम पूर्ण नहीं हो पाता है।
परिवेक्षण विधि—अध्ययन की प्राचीन त्रुटियों के फलस्वरूप इस अवधि को अमेरिका तथा अन्य पाश्चात्य देशों में उन्नीसवीं शताब्दी से प्रयोग में लाया जाने लगा है। इसे हम निर्देशन प्रविधि के नाम से भी पुकराते हैं क्योंकि अध्यापक न केवल कक्षा के छात्रों का अध्ययन करते समय व्यक्तिगत निरीक्षण ही करता है बल्कि उनकी आवश्यकतानुसार एक निर्देश के रूप में सहायता भी करता है और बहुत सी गलत रीतियों को सही मार्ग दिखाता है। यह कार्य शिक्षक आवश्यकतानुसार एक स्थान पर बैठकर अथवा कक्षा में घूमकर प्रत्येक छात्र पर दृष्टि डालकर सम्पन्न करता है। इसके द्वारा उसका ध्येय छात्रों की विभिन्न व्यक्तिगत कठिनाइयों तथा शंकाओं का समाधान करके उन्हें अध्ययन की सही रीति पर डालना है। छात्र निरन्तर स्वाध्याय में लगे रहते हैं और पाठ आगे बढ़ता रहता है।
योजना विधि के दोष एवं सीमाएँ–निम्नलिखित हैं—
(1) इस विधि के द्वारा शिक्षण ज्ञान खण्डों में विभाजित करके प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इसके द्वारा क्रम तथा तारतम्य के साथ ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता।
(2) यह विधि बहुत व्ययपूर्ण है। इसके प्रयोग के लिए विभिन्न उपकरणों, उपादानों, साधनों, पुस्तकों, पत्रिकाओं आदि की आवश्यकता है। इस कारण भारत जैसे निर्धन देश में इसका प्रयोग पर्याप्त मात्रा में नहीं किया जा सकता।
(3) इस विधि के विरुद्ध एक आक्षेप यह भी लगाया जाता है कि इसके प्रयोग से शिक्षालय का सम्पूर्ण कार्य निष्क्रिय हो जाता है।
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि के प्रयोग–प्रो. बाइनिंग तथा बाइनिंग ने इसके प्रयोग के लिए निम्नलिखित योजनाएँ प्रस्तुत की हैं—
(1) सम्मेलन योजना–इस योजना द्वारा पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा का उपयुक्त ढंग से प्रबन्ध हो जाता है। इनके द्वारा उन बालकों को शिक्षा दी जाती है जो कक्षा के अन्य विद्यार्थियों के साथ नहीं चल पाते । इनको विशिष्ट सम्मेलन आयोजित करके शिक्षा प्रदान की जाती है । इस योजना के द्वारा उनकी व्यक्तिगत कठिनाइयों का समाधान सुविधापूर्वक किया जाता है। यह योजना विशेष कक्षा के समकक्ष प्रतीत होती है ।
(2) विशिष्ट शिक्षक योजना–यह योजना सम्मेलन योजना से सम्बन्धित है। इसमें छात्र को विशिष्ट अध्यापक या अतिरिक्त शिक्षक नियुक्त करके सहायता प्रदान की जाती है । इसके द्वारा छात्रों को अतिरिक्त अध्ययन एवं निर्देशन प्राप्त हो जाता है ।
(3) काल-विभाजन योजना–इस योजना के अन्तर्गत छात्रों को अध्ययन के हेतु कार्य दे दिया जाता है और निर्देशन एक शिक्षक द्वारा किया जाता है तथा निरीक्षण दूसरे शिक्षक द्वारा। यह योजना मितव्ययी है, क्योंकि निरीक्षण करने वाला शिक्षक कम समय में बहुत से छात्रों की कठिनाइयों एवं सीमाओं को जानने में समर्थ हो जाता है ।
(4) द्विकाल योजना–इसमें पाठ्यवस्तु द्वि-समय चक्रों के लिए प्रदान कर दी जाती है। प्रथम समय-चक्र में छात्रों को निर्धारित कार्य से सम्बन्धित बातों का ज्ञान कराया जाता है तथा दूसरे में वे निरीक्षित या निर्देशित अध्ययन करते हैं ।
(5) सामयिक योजना–पर्यवेक्षित अध्ययन की यह योजना क्रमिक रूप से प्रयुक्त न करके सामयिक रूप से प्रयोग में लायी जाती है। शिक्षक इसका प्रयोग महीने में एक या दो बार कर सकता है।
पर्यवेक्षित अध्ययन के लिए सिद्धान्त–निम्नलिखित हैं—
(1) मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त–मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त छात्रों में विभिन्नता के अनुसार प्रयोग में लाया जाता है।
(2) प्रत्यक्षीकरण सिद्धान्त–पर्यवेक्षण अध्ययन में प्रत्यक्षीकरण का अवसर मिलता है ।
(3) आवश्यकताओं व स्तर सिद्धान्त–अध्ययन में छात्रों की आवश्यकताएँ और स्तर को ध्यान में रखकर शिक्षण की व्याख्या की जाती है।
(4) पाठ्य वस्तु व सहायक सामग्री (सहगामी क्रिया )– शिक्षण में विविध प्रकार की सहायक सामग्री और पाठ्यवस्तु के अध्ययन के आधार पर शिक्षक कार्य करता है।
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि के गुण–निम्नलिखित हैं—
(1) इसके प्रयोग से छात्रों को अध्ययन की रीति की जानकारी प्राप्त होती है जिससे वे विषय के अध्ययन में कुशलता प्राप्त करते हैं ।
(2) शिक्षक तथा छात्रों का घनिष्ठ सम्बन्ध इस प्रविधि द्वारा स्थापित होता है और वह एक-दूसरे से प्रेम, सहानुभूति तथा आदर करना सीखते हैं ।
(3) छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का समाधान इसके द्वारा सम्भव है। पिछड़े हुए छात्रों के लिए यह विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होती है ।
(4) इसके प्रयोग से छात्रों में ‘स्वास्थ्य स्वाध्याय’ की भावना जाग्रत होती है और वे स्वयं अध्ययन द्वारा ज्ञान प्राप्ति में रुचि लेते हैं।
पर्यवेक्षित अध्ययन विधि के दोष तथा सीमाएँ–निम्नलिखित है—
(1) कभी-कभी छात्रों की आत्म-निर्भरता एवं आत्म-विश्वास की प्रवृत्ति को आघात पहुँचता है।
(2) यह व्ययी एवं कष्ट- साध्य दोनों ही है।
(3) परिवीक्षित अध्ययन हेतु पर्याप्त स्रोत सन्दर्भ ग्रन्थों एवं सामग्रियों की आवश्यकता होती है। सामान्य विद्यालयों के आर्थिक साधन सीमित होने के कारण पुस्तकालय वाचनालय तथा कक्षा-पुस्तकालय हेतु पुस्तकें, पत्र-पत्रिकायें व अन्य सामग्री उपलब्ध कराना कठिन होता है ।
(4) अन्य विकासशील विधियों की भाँति इस विधि के प्रभावी संचालन हेतु भी शिक्षक का परिश्रमी, रुचिशील एवं सूझबूझ सम्पन्न होना आवश्यक है। सामान्य शिक्षकों तथा कार्यभार से दबे हुए शिक्षकों से यह अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है ।
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