अधिगम का अर्थ बताते हुए, अधिगम के क्षेत्र में स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त के विषय में विस्तार से बताइए।
अधिगम का अर्थ बताते हुए, अधिगम के क्षेत्र में स्किनर के क्रियाप्रसूत अनुबंधन सिद्धान्त के विषय में विस्तार से बताइए।
अथवा
सक्रिय अनुबंधन से आप क्या समझते हैं ? सक्रिय अनुबंधन का शिक्षा में महत्त्व बताइए।
उत्तर— अधिगम का अर्थ (Meaning of Learning)— प्रत्येक व्यक्ति अपनी दैनिक दिनचर्या में कुछ न कुछ नये अनुभव ग्रहण करता है । इन नवग्रहित अनुभवों से उसके व्यवहार में निरन्तर बदलाव आता रहता है। इस प्रकार दैनिक अनुभवों के एकत्रीकरण और उनके उपयोग को सीखना कहते हैं। समायोजन की विभिन्न क्रियाओं के फलस्वरूप व्यक्ति के व्यवहार में लगातार संशोधन होता रहता है जिसे मनोविज्ञान की भाषा में सीखना या अधिगम कहा जाता है। अधिगम की प्रक्रिया सतत् और जीवन पर्यन्त चलती रहती है। जो व्यक्ति जितना अधिक सीखता है उसका विकास भी उतनी ही तेजी से होता है।
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए निम्नलिखित परिभाषाएँ दी हैं—
(i) क्रो एवं क्रो के अनुसार, “आदत और अभिवृत्तियों के अर्जन को ही अधिगम माना है।”
(ii) चार्ल्स ई. स्किनर के अनुसार, “व्यवहार में उत्तरोत्तर अनुकूलन की प्रक्रिया को अधिगम कहा जाता है।”
(iii) मॉर्गन एवं गिलीलैण्ड के अनुसार, “अनुभव के परिणामस्वरूप प्राणी के व्यवहार में बदलाव ही अधिगम है। यह बदलाव या परिवर्तन प्राणी द्वारा कुछ समय के लिए निश्चित तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। “
(iv) मर्फी के अनुसार, “अधिगम, व्यवहार एवं दृष्टिकोण दोनों का परिमार्जन है।”
(v) गेट्स एवं अन्य के अनुसार, “अनुभव और प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में परिवर्तन करना ही अधिगम है।”
(vi) थॉर्नडाइक ने उपयुक्त क्रिया के चयन और उसे उत्तेजना से जोड़ने की प्रक्रिया को अधिगम कहा है। उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन ही अधिगम है। यह परिवर्तन पूर्व अनुभवों पर आधारित होता है जो स्थायी या अस्थायी हो सकता है।
स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त (Skinner’s Theory of Operant Conditioning)– इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकी विचारक प्रोफेसर बी. एफ. स्किनर ने 1938 में किया। स्किनर क्रिया प्रसूत अनुकूलन का आधार पुनर्बलन को मानते हैं। इस सिद्धान्त के मूल में थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त है जिसको स्किनर ने पुनर्बलन सिद्धान्त में परिवर्तित कर दिया। अधिगम के इस सिद्धान्त का अभिप्राय सीखने की उस प्रक्रिया से है जिसमें प्राणी उस प्रतिक्रिया का चयन करना सीखता है जो पुनर्बलन को उत्पन्न करने में साधन का काम करती है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी अनुक्रिया के करने से नकारात्मक एवं संतोषजनक परिणाम मिलते हैं तो प्राणी वो क्रिया बार-बार दोहराता है ।
स्किनर ने इस सिद्धान्त की खोज के लिए कबूतर एवं सफेद चूहों पर प्रयोग किये । स्किनर ने व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिए एक समस्यावादी ध्वनिविहीन लीवर वाला बॉक्स (पिंजरा) बनाया जिसे स्किनर बॉक्स के नाम से जाना जाता है। इसके लीवर को दबाने से भोजन का एक टुकड़ा गिरता है ।
स्किनर ने एक भूखे चूहे को इस बॉक्स में बंद कर दिया । भूख की तड़प से चूहा इधर-उधर उछलता है। इस दौरान एक बार उछलने से चूहे के पंजे से लीवर दब जाता है और भोजन के कुछ टुकड़े गिरते हैं। ऐसे ही कई बार उछल-कूद करने एवं लीवर के दबने से चूहे को भोजन की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार बार-बार भोजन मिलने से चूहा लीवर को दबाकर भोजन प्राप्त करने की कला को सीख जाता है। इसमें अनुबंधन का सम्बन्ध सीखने वाले के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से होता है। भोजन चूहे के लिए प्रबलन एवं भूख उसके लिए प्रणोदित का कार्य करती है।
इस प्रयोग से स्किनर ने निम्न निष्कर्ष निकाले—
(i) पहली बार भोजन की प्राप्ति त्रुटि एवं प्रयास सिद्धान्त का फल था।
(ii) भोजन की प्राप्ति ने चूहे के लिए प्रेरणा का कार्य किया।
(iii) लीवर दबाने से भोजन की प्राप्ति से अनुक्रिया एवं पुनर्बलन में अनुकूलन स्थापित हो जाता है।
(iv) बार-बार लीवर दबाने से यह क्रिया चूहे के लिए सरल हो गई।
(v)प्रत्येक अगली बार लीवर को दबाने में चूहे ने पहले की तुलना में कम समय लगाया।
स्किनर ने अपने एक अन्य प्रयोग में भूखे कबूतर को बॉक्स में बन्द किया। बॉक्स में कबूतर शांत बैठा रहता है। कुछ समय बाद बॉक्स में प्रकाश किया गया। प्रकाश के होते ही कबूतर ने चोंच मारना प्रारम्भ कर दिया जिससे उसे भोजन की प्राप्ति हो गई। बार-बार इस क्रिया को दोहराने से कबूतर सिर घुमाकर चोंच मारना सीख जाता है। इस प्रक्रिया में भी क्रिया प्रसूत अनुबंध का विकास होता है ।
स्किनर ने बताया कि प्रत्येक प्राणी में अनुक्रिया एवं क्रिया प्रसूत के रूप में दो प्रकार का व्यवहार पाया जाता है। अनुक्रिया का सम्बन्ध उद्दीपकों से होता हैं और क्रिया प्रसूत का अभिप्राय उस व्यवहार से है जो प्राणी अधिगम प्राप्त करते समय करता है। अनुक्रिया भी दो प्रकार की होती है—
(1) प्रकाश में आने वाली अनुकिया (Elicited Response)– ये अनुक्रियाएँ ज्ञात उत्प्रेरकों से उत्पन्न होती हैं ।
(2) उत्सर्जन अनुक्रिया (Emitted Response)– इन अनुक्रियाओं का सम्बन्ध अज्ञात प्रेरकों से होता है । इन उत्सर्जन अनुक्रियाओं को क्रिया प्रसूत कहा जाता है।
स्किनर ने इस सिद्धान्त को क्रिया प्रसूत (operant) अथवा साधक (instrumental) अनुबन्धन कहा है। स्किनर के अनुसार क्रिया-प्रसूत अनुकूलन एक प्रकार की अधिगम प्रक्रिया है जिसके द्वारा सीखने को अधिक संभाव्य और निरन्तर बनाया जाता है। उन्होंने बताया कि अभिप्रेरणा से उत्पन्न क्रियाशीलता के फलस्वरूप ही व्यक्ति सीखता है।
क्रियाप्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता (Educational Implications of Operant Conditioning Theory)– स्किनर ने बताया कि इस सिद्धान्त से शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। एक अध्यापक को शैक्षिक प्रक्रिया में इस सिद्धान्त का प्रयोग व्यवस्थित रूप से करना चाहिए। क्रिया प्रसूत सिद्धान्त के शिक्षा में महत्त्व को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है—
(1) इस सिद्धान्त का प्रयोग अध्यापक सीखे जाने वाले व्यवहार को वांछित स्वरूप प्रदान करने में करता है। इस सिद्धान्त का प्रयोग जटिल कार्य सिखाने में किया जाता है।
(2) यह सिद्धान्त प्रगति एवं परिणाम की जानकारी प्रदान करता है। सीखने वाले को यदि अपने परिणाम की जानकारी हो तो वह शीघ्रता से सीखता है। इससे अधिगम का सतत् मूल्यांकन किया जा सकता है।
(3) इस सिद्धान्त की मदद से अभिक्रमिक अधिगम विधि का विकास हुआ जो शिक्षण में बहुत उपयोगी है।
(4) क्रिया प्रसूत सिद्धान्त के उपयोग से शब्द भंडार विकसित किया जाता है । इसके सहयोग से शब्दों को तार्किक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है ।
(5) इस सिद्धान्त के द्वारा छात्रों को समयानुसार प्रशंसा, पुरस्कार आदि के रूप में पुनर्बलन दिया जाये तो उनके व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होता है ।
(6) यह सिद्धान्त मानसिक रोगियों के लिए बहुत उपयोगी है। इस सिद्धान्त के माध्यम से चिंता, भय आदि का निदानात्मक शिक्षण सम्भव है। स्किनर के अनुसार वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षण प्रदान करना चाहिए ।
(7) इस सिद्धान्त की सहायता से बालकों को उचित व्यवहार के लिए प्रशिक्षण के साथ पुनर्बलन दिया जाता है। स्किनर ने बताया कि शिक्षण में लक्ष्य स्पष्ट होने चाहिए एवं छात्र को क्रियाशील रहना आवश्यक है।
(8) इंस सिद्धान्त के सहयोग से कौशल विकास में कौशल के प्रत्येक भाग को व्यवस्थित रूप से पुनर्बलन द्वारा सिखाया जा सकता है।
(9) स्किनर के इस सिद्धानत के अनुसार प्रारम्भ में बालक किसी कार्य करने को करने में अधिक समय लेता है और अशुद्धियाँ भी अधिक करता है लेकिन धीरे-धीरे वो अपनी गलतियों सुधार कर लेता है और प्रतिक्रिया को शीघ्र करना सीख जाता है ।
(10) क्रिया प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त में पुनर्बलन का बहुत महत्त्व है। इसके अनुसार स्थायी एवं शीघ्र अधिगम के लिए पुनर्बलन अति आवश्यक है। छात्रों के अवांछनीय आचरण को नकारात्मक पुनर्बलन के द्वारा दूर दिया जा सकता है।
(11) इस सिद्धान्त के सहयोग से पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर प्रस्तुत किया जाता है। इससे अधिगम प्रक्रिया को बल मिलता है।
(12) स्किनर ने अपने प्रयोगों के आधार पर बताया कि अधिगम से बालक को संतोष प्राप्त होता है तो वह क्रियाशील होकर सीखने का प्रयत्न करता ।
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