किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए

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(अ) राजस्थान का लोकनाट्य
(ब) रंगोली
(स) वाद्य यंत्रों के प्रकार
(द) भारतीय शास्त्रीय नृत्य
उत्तर— (अ) राजस्थान का लोकनाट्य-नाट्य की परम्परा बड़ी प्राचीन है जिसको हम ख्याल, स्वांग और लीला के रूप में प्रचलित पाते हैं। विशेष प्रकार के आयोजन तथा धुनों से सम्बद्ध ख्यात, लीलाएँ और स्वांग सार्वजनिक रूप में आयोजित किये जाते हैं जिनसे पात्र और दर्शक भली प्रकार परिचित रहते हैं। सभी प्रदर्शन साधारण जीवन के अंग होते हैं और अपने आप में लोक-कला के उत्कृष्ट नमूने माने जाते हैं। प्रदर्शकों में नाई, कुम्हार, बैरागी, शील, जाट, सरंगरे, ब्राह्मण आदि सम्मिलित होते हैं। लोक नाट्यों का नियमित इतिहास रूप तो ईसा की सोलहवीं सदी से मिलता है, परन्तु इन गाथाओं के प्रकरणों में देशकाल व परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक भिन्नता दिखाई देती है ।
बीकानेर की ‘रम्मत’ की अपनी अलग ही पहचान है, जो उसे कुचामनी और चिड़ावा के ‘ख्याल’ से अलग करती है। मध्यकाल में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से विकसित हो गई और राजदरबारों की शोभा बढ़ाने वाली कला गाँवों तक में भी फैल गयी। रूढ़िवादिता के कारण लोकनाट्य दलित जाति या निम्न जाति वर्ग के मनोरंजन का साधन रह गयी और यही कारण था कि उच्च वर्ग में इसी मध्यवर्ती सामन्ती प्रथा के कारण लोकनाट्यों के प्रति एक हीन भावना पैदा हो गयी । इस प्रकार लोक नाट्य, आमजन की सम्पत्ति बना रहा, और यही उनकी सामाजिक सामुदायिक भावनाओं को अभिव्यक्ति का माध्यम भी बना रहा। राजस्थान का पूर्वांचल, विशेष तौर पर शेखावाटी का क्षेत्र ख्याल की परम्परा लोकनाट्य शैली के लिए विख्यात है। “
(1) रम्मत – बीकानेर और जैसलमेर में लोक नाट्यों में ‘रम्मत’ सामुदायिक स्वरूप को निभा रही है। रम्मत में संभागी सभी जाति के लोग होते हैं और सभी समुदाय के लोग इसमें रस लेते हैं। प्रारम्भ से ही समस्त पात्र रंगमंच पर बैठे मिलते हैं और अपना अपना करतब दिखाकर स्थान ग्रहण करते हैं। ये कुचामन, चिड़ावा और शेखावाटी के ख्यालों से भिन्न होती हैं। 100 वर्ष पूर्व बीकानेर क्षेत्र में होली एवं सावन आदि के अवसर पर होने वाली लोक-काव्य प्रतियोगिताओं से ही उसका उद्भव हुआ है। कुछ लोक कवियों ने राजस्थान के सुविख्यात लोकनायकों एवं महापुरुषों पर काव्य रचनाएँ की थी; ये रचनाएँ ऐतिहासिक ‘एवं धार्मिक लोक-चरित्रों पर रची गयीं। इन्हीं रचनाओं को रंगमंच के ऊपर मंचित कर दिया गया ।
(2) ख्याल – राजस्थान प्रदेश में ख्याल अपनी क्षेत्रीय प्रतिष्ठा के लिए बड़े लोकप्रिय हैं। जब इन ख्यालों को व्यावसायिक होने का अवसर मिला तो विषय एवं रंगत की विशेषता ने इन्हें राजस्थान प्रदेश से बाहर भी लोकप्रिय बनने का अवसर दिया। अमरसिंह रो ख्याल, रूठी राणी रो ख्याल, पद्मिनी रो ख्याल, पार्वती रो ख्याल आदि भिन्न-भिन्न रंगत प्रस्तुत करने पर भी सांस्कृतिक आधार में समान हैं। धर्म और वीर रस प्रधान ख्यालों में एकरूपता तो नहीं दिखाई देती, परन्तु ध्येय की दृष्टि अपने-अपने क्षेत्र में विविधता आ जाती हैं। ख्याल कभी-कभी धार्मिक कथानकों को गायन, वादन और संवाद से सम्मिश्रित कर इनकी उपयोगिता को बढ़ा देते हैं। इनमें अनेक वीरों की कहानियाँ इस तरह समाविष्ट हैं कि वे वीर रस प्रधान होते हुए भी अन्य रसों को व्यक्त करने में पीछे नहीं रहते हैं।
(3) लीलाएँ– रामलीला व रासलीला के खेल विशेष रूप से मेवाड़, भरतपुर और जयपुर क्षेत्रों में बड़े लोकप्रिय हैं। रामायण और भागवत पर आधारित कथाओं के साथ लोक जीवन को इस तरह प्रदर्शित किया जाता है कि राम व सीता अथवा कृष्ण और राधा एक साधारण व्यक्ति के रूप में आते हैं और उनकी पोशाकें भी लोक परिपाटी के अनुकूल होती हैं।
(4) पारसी थियेटर बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में हमारे देश में एक नये ही किस्म की रंगमंचीय कला का विकास हुआ, जिसका नाम ‘पारसी थियेटर’ था। पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंगकर्मियों पर भी पूरा प्रभाव डाला और जयपुर और अलवर में महबूब हसन नामक व्यक्ति ने पारसी शैली के अनेक नाटक मंचित किये। उसने इस शैली में लिखे आगा हस्द कश्मीरी के अनेक नाटकों को खेला ।
(5) गवरी — इसमें कई तरह की नृत्य नाटिकाएँ होती हैं। जो पौराणिक कथाओं, लोक गाथाओं और लोक जीवन की विभिन्न झाँकियों पर आधारित होती हैं। ऐसी मान्यता है कि भस्मासुर ने अपनी तपस्या से शिवजी को प्रसन्न कर भस्म करने की शक्ति प्राप्त कर ली। उसने पार्वती को लेने के लिए शिव पर ही उसका प्रयोग करना चाहा। अन्त में विष्णु भगवान ने अपनी शक्ति से शिव को बचाया और भस्मासुर का उसी के हाथ को सिर पर रखवा कर अंत किया। गवरी का आयोजन रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से शुरू होता है। पात्र मन्दिरों में ‘धोक’ देते हैं और नव-लाख देवी देवता, चौसठ योगिनी और बावन भैरू को स्मरण करते हैं। गवरी का मुख्य पात्र बूढ़िया भस्मासुर का जप होता है और अन्य मुख्य पात्र ‘राया’ होती है जो स्त्री वेष में पार्वती और विष्णु की प्रतीक होती है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इस अवधि में राई, बढ़िया और भोपा, नंगे पाँव रहते हैं। जमीन पर सोते हैं और स्नान नहीं करते।
कुछ क्षेत्रों में राई, बढ़िया दूध पीकर ही रहते हैं शराब, मांस और हरी सब्जी का इस अरसे में निषेध रहता है और बहुधा मुक्त रहना अच्छा माना जाता है। गवरी का व्यय, प्रमुख गाँव जहाँ से गवरी आरम्भ होती हैं, वहन करता है और जिन गाँवों में गवरी खेली जाती है, खाने-पीने का व्यय उस गाँव वाले वहन करते हैं। गवरी समाप्ति पर दो दिन पहले जवार बोये जाते हैं और एक दिन पहले कुम्हार के यहाँ से मिट्टी का हाथी लाया जाता है। यह पर्व आदिवासी जाति पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। इसकी लोकप्रियता सभी जातियों के लोगों, की इसमें रुचि लेने से सुस्पष्ट हैं।
(6) रासलीला– रासधारी का अर्थ होता है वह पात्र जो रास-लीला करता हो। लगभग 80-90 वर्षों पूर्व मोतीलाल जाट ने पहली नाटक रासलीला के लिए लिखा । रासधारियों का कथा-प्रसंग प्रायः पौराणिक एवं धार्मिक होता है। इसमें माधुर्य होता है। इससे कृष्ण की क्रीड़ाओं का भान होता है। भरतपुर जिले में रास लीलाओं का आयोजन होता रहता है। इस क्षेत्र में हर गोविन्द स्वामी और राम सुख स्वामी के रासलीला मंडल अधिक प्रसिद्ध हैं। रासलीला में काम करने वाले अपनी कला में बड़े प्रवीण होते हैं। इनकी मंडलियाँ एक गाँव से दूसरे गाँव में घूमती रहती हैं। रासलीला लोक-नाट्य का मंचन पौराणिक लोक कथाओं के आधार पर किया जाता है।
(7) नौटकी– नौटकी के खेल विशेषकर मेलों, उत्सवों, त्यौहारों एवं शादियों के अवसरों पर होते हैं। नौटंकी नामक खेल का प्रदर्शन भरतपुर, धौलपुर, करौली, अलवर, गंगापुर, सवाई माधोपुर क्षेत्र में बहुधा लोकप्रिय है। इन क्षेत्रों में हाथरस शैली की नौटंकी अत्यधिक प्रसिद्ध है। नौटंकी वाले सत्यवादी हरिश्चन्द्र, रूप-बसन्त, राजा भर्तृहरि, नलदमयंती आदि नाटकों को दिखाते हैं।
(8) स्वांग– स्वांग लोकनाट्य का एक महत्त्वपूर्ण स्वरूप है, जिसमें किसी प्रमुख पौराणिक, ऐतिहासिक या किसी प्रसिद्ध लोक चरित्र या देवी-देवताओं की नकल कर उनके अनुरूप स्वांग किया जाता है। इनके स्वांगों में चाचा-बोहरा, सेठ-सेठाणी, मियाँ – बीबी, अर्धनारीश्वर, जोगीजोगन, कालबेलिया, मैना- गुजरी और बीकाजी के स्वांग प्रमुख हैं। इस कला को खुले स्थान पर प्रायः लकड़ी के दो तख्तों पर प्रदर्शित किया जाता है। स्वांग रखने वाले व्यक्ति को बहरूपिया कहते हैं। भाण्ड एवं भानमती हिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के होते हैं। धनरूप नामक भाण्ड इतना प्रसिद्ध था कि महाराजा मानसिंह ने उसे जागीर तक प्रदान की।
(ब) रंगोली— आदिकाल से जब भी मानव प्रसन्न होता है वह अपने भावों को किसी-न-किसी भावों द्वारा व्यक्त करता है। कभी गाकर, कभी नाचकर, कभी चित्रों के माध्यम से तो कभी रंगों के माध्यम से । मन के भावों को रंग के माध्यम से व्यक्त करने का सरलतम साधन है रंगोली बनाना। यह हमारी कल्पनाओं को रंगीन रूप प्रदान करती है, हमारे देश में विभिन्न शुभ अवसरों पर घर-आँगन में रंगोली बनाने की परम्परा है। रंगोली बनाने से घर-आँगन की सुन्दरता बढ़ जाती है।
प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक/शिक्षिका रंगोली सिखाने के लिए अपने विवेक से नवीन प्रयोग कर सकते हैं। रंगोली कई विधियों से बनाई जाती है। जिनमें मुख्य है—
(1) मुक्त हस्त विधि, (2) स्टेंसिल व छलनी विधि
रंगोली की सामग्री सिर्फ रंग और रंग-मिश्रित चूर्ण द्वारा ही नहीं अपितु अनेक पदार्थों से रंगोली तैयार की जा सकती है। अनाज, फूलों की पंखुड़ियों, पत्तियों की कतरन, रंगीन मोतियों, लकड़ी के रंगीन बुरादे तथा विविध प्रकार के उपलब्ध रंगीन पदार्थों से भी रंगोली बनाई जा सकती है।
(स) वाद्ययंत्रों के प्रकार-वादन क्रिया एवं वाद्यों की संरचना के आधार पर वाद्यों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है। वाद्यों के प्रमुख चार प्रकार निम्नलिखित हैं—
(i) तंतु वाद्य– तन्तु वाद्य श्रेणी में वे वाद्य यंत्र आते हैं, जिनमें तार द्वारा स्वर उत्पन्न किए जाते हैं; जैसे—वीणा, सितार, इकतारा, वायलिन आदि।
(2) अवनद्ध वाद्य– कपड़े से मढ़े हुए वे वाद्य यंत्र, जिन पर आघात कर बजाया जाता है, उसे अवनद्ध वाद्य कहते हैं; जैसे—ढोलक, चंग, डमरू, नगाड़ा, डफली आदि ।
(3) सुषिर वाद्य– हवा या फूँक से बजने वाले वाद्य यंत्रों को सुषिर वाद्य कहते हैं; जैसे—शंख, बाँसुरी, हारमोनियम, बीन, शहनाई आदि ।
(4) घन वाद्य– मिट्टी, धातु, लकड़ी आदि से बने वे वाद्य यंत्र जिन्हें चोट या आघात द्वारा बजाया जाता है, उसे घन वाद्य कहते हैं; जैसे—घुँघरू, घंटा, मंजीरा, खड़ताल आदि ।
प्रमुख वाद्य यंत्र निम्न प्रकार से हैं—
(1) सारंगी– राजस्थान के देवी के मन्दिरों में या प्राचीन कथा सुनाने वालों द्वारा इसका उपयोग किया जाता है। घूँघरू लगे गज से इसे बजाया जाता है। यह तत लोक वाद्य है।
(2) रावण हत्था– यह राजस्थान का सबसे पुराना वाद्य है। नारियल के ऊपर बाँस लगाकर बनाया जाता है। कसे हुए चमड़े पर सुपाड़ी की लकड़ी की घोड़ी लगाकर 9 तार लगाए जाते हैं। गज से बजाया जाता है। राजस्थान में लोककथा गायन में प्रयोग किया जाता है। गज के तार और रावण हत्था का प्रमुख बाज तार घोड़े की पूँछ के बालों का होता है। गज में ताल देने के लिए घूँघरू बँधे रहते हैं। यह भी तत लोक वाद्य है।
(3) कामाइचा– कामाइचा भी तत लोकवाद्य है, इसमें 27 तार होते हैं, जिसकी तबली गोल होती है। नाग-पंथी साधु कामाइचा पर भर्तृहरि एवं गोपीचन्द की कथा के गायन में प्रयोग करते हैं। यह राजस्थान का प्रमुख वाद्य है।
(4) इकतारा– तत श्रेणी का यह वाद्य तूंबे पर बाँस जोड़कर बनाया जाता है। घुमक्कड़ साधु प्रायः इकतारा का ही प्रयोग करते हैं।
(5) रबाब – वर्तमान सरोद रबाब का ही परिष्कृत रूप है। इसमें 3 से 7 तक तार होते हैं। यह अफगानिस्तान से पंजाब तक प्रचलित तत श्रेणी का लोकवाद्य हैं।
(6) नड़– माता या भैरव की भक्ति में राजस्थान के भोपे लोग मशक की तरह जिस सुषिर वाद्य को फूंक द्वारा बजाते हैं, उसे नड़ कहते हैं। उत्तर भारत में इसे ‘बीन’ कहा जाता है। मुँह की फूंक द्वारा मशक में पहले पूरी हवा भर ली जाती है फिर उसमें लगी हुई नली के छिद्रों पर उँगली के संचालन से स्वर पैदा किए जाते हैं।
(7) तुरही– यह सुषिर वाद्य मांगलिक पर्वों पर बजाया जाता है। महाराष्ट्र में इसका व्यापक चलन है। इसमें कोई छिद्र नहीं होता, केवल हवा फूंककर, उसके विभिन्न दबावों से ऊँचे-नीचे स्वरों की उत्पत्ति की जाती है।
(8) अलगोजा– यह सुषिर श्रेणी का वाद्य है। बॉस से बनी बाँसुरी को अलगोजा या मुरली कहते हैं। अलगोजा प्राय: दो होते हैं, जिन्हें एक साथ मुँह में दबाकर फूंक कर बजाया जाता है। पशुओं को चराते समय, मेले या उत्सव के समय बजाया जाता है।
(9) सिंगी– यह सुषिर चाद्य भैंसे और हिरन की सींग का बनता है। सिंगी धातु से भी बनाया जाता है। लोक जीवन में सिंगी वादन द्वारा विभिन्न अवसरों पर अनुकूल प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। युद्ध के समय बजने पर इसे ‘रण-सिंगा’ भी कहा जाता है।
(10) नफीरी– नफीरी सुषिर वर्ग का वाद्य है, इसे शहनाई या सुन्दरी भी कहते हैं। यह लाल चन्दन की लकड़ी से बनाई जाती है, जिसमें 8 छेद होते हैं। इसका मुख चार अंगुल लम्बा होता है, जिसमें हाथीदाँत के पत्ते लगे रहते है।
(11) बीन– यह सुषिर वाद्य मुख्यतः सपेरों का वाद्य है, जिसे पुंगी भी कहा जाता है। छोटी तुम्बी में बाँस की नलिकाएँ लगी रहती हैं और बजाने वाले हिस्से में काठ की एक पोली नली रहती है। इसमें तीन या चार सूराख रहते हैं।
(12) चंग (डफ्)– लकड़ी के घेरे पर चमड़े से मढ़ा हुआ अवनद्ध श्रेणी का वाद्य है। इसके छोटे स्वरूप को ‘ढपली’ कहते हैं। चंग के माध्यम से लोक गाथाओं और शेरो-शायरी की प्रस्तुति भी की जाती है । होली पर ग्रामीण लोग इसे बजाकर लोकगीत गाते हैं। चंग को डफ भी कहा जाता है।
(13) डमरू– यह अवनद्ध वाद्य है। शिव की प्रतिमा में एक हाथ में डमरू रहता है। नट, जादूगर, जोगी लोगों का प्रतीक वाद्य है। डमरू के दोनों सिरों पर चमड़ा चढ़ा रहता है, दोनों सिरों को रस्सी से कसा जाता है। मध्य का हिस्सा एकदम पतला होता है, जिसमें एक रस्सी अलग से लटकी होती है, रस्सी के मुख पर घुण्डी बनी रहती है। पतले वाले हिस्से को पकड़कर रस्सी को इधर-उधर घुमाने पर रस्सी की घुण्डियाँ चमड़े पर चोट करके ध्वनि पैदा करती है।
(14) शंख– सुषिर श्रेणी का यह आदि वाद्य है, जिसे प्रकृति से प्राप्त किया गया है। शंख समुद्री जीव का ढाँचा है जो समुद्र की तलहटी में पाया जाता है। महाभारत में युद्ध का आरम्भ शंख नाद से होता था। बंगाल में इसका बहुत चलन है। सभी शंख वादन योग्य नहीं होते।मन्दिरों में पूजा के समय व कथा वाचन में इसका प्रयोग किया जाता है।
(15) ताशा– मुगलों के समय अवनद्ध जाति के इस वाद्य ने जन्म लिया था। मिट्टी की कटोरी जैसे वाद्य को चमड़े में मढ़कर ‘ताशा ‘ बनाया जाता है। इसे गले में लटकाकर दोनों हाथों में डंडियाँ लेकर बजाया जाता है।
(16) खंजरी– डफली के घेरे में तीन या चार जोड़ी झाँझ लगे हों तो यह अवनद्ध श्रेणी का खंजरी कहलाता है। इसका वादन चंग की तरह हाथ के थाप से किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे बहुत प्रयोग किया जाता है।
(17) नगाड़ा– प्यालीनुमा मिट्टी या लकड़ी की आकृति पर चमड़े को मढ़कर नगाड़ा बनाया जाता है। अवनद्ध श्रेणी के इस वाद्य को दो नुकीली लकड़ियों से लोकगीत के साथ बजाया जाता है। नौटंकी और तमाशे में नगाड़ा प्रमुख रूप से बजाया जाता है।
(18) घंटा– इस घन वाद्य को घड़ियाल भी कहा जाता है। यह पीतल या अन्य धातु से बनाया जाता है, जिसे एक डोरी की सहायता से लटकाकर बजाया जाता है। पूरे भारत में मन्दिरों में घण्टा बजाया जाता है।
(19) ढोल– ढोल अवनद्ध वाद्य है। बेलन के आकार का, अन्दर से पोला और दोनों ओर से चमड़े से मढ़ा होता है। विवाह आदि शुभ अवसरों पर इसे बजाया जाता है। यह पूरे भारत में बजाया जाता है। एक हाथ में लकड़ी लेकर आघात किया जाता है और दूसरे हाथ में उंगलियों, हथेली से ताड़न किया जाता है।
(20) ढोलक– यह अवनद्ध श्रेणी का ही ढोल की भाँति छोटे आकार का होता है। दोनों हाथों से बजाया जाता है। शुभ अवसरों पर, उल्लास के समय ढोलक बजाकर गीत गाया जाता है।
(21) मुखचंग– इस घनवाद्य का आकार त्रिशूल की तरह होता है। मुखचंग को दाँतों से दबाकर बीच की पत्ती को उँगली द्वारा स्प्रिंग की तरह झटकारकर बजाया जाता है। इसे सुषिर वाद्य भी माना जाता है।
(22) मटका– पानी रखने वाला मिट्टी का मटका भी घन वाद्य है। दक्षिण भारत में इसका खूब प्रयोग किया जाता है।
(23) घुँघरू– धातु के गोल पोले टुकड़ों में लोहे या कंकड़ की छोटी-छोटी गुटिकाएँ डाल दी जाती हैं। बहुत से घुँघरुओं को एक डोरी से बाँधकर लड़ी बनाकर पैरों में बाँधकर नृत्य किया जाता है। कुछ लोग तबला बजाते समय घुँघरू की लड़ी को हाथ में बाँधते हैं।
(24) चिमटा– यह घनवाद्य लोहे का बना होता है। लोहे की दो लम्बी पट्टियों के बीच में झंकार के लिए लोहे की गोल-गोल पत्तियाँ लगा दी जाती हैं। बाएँ हाथ में एक ओर से चिमटा पकड़कर दाहिने हाथ से अंगूठा और उंगलियों के झटके से बजाया जाता है। भजनकीर्तन के समय चिमटा बजाया जाता है।
(25) कठताल– यह घन वाद्य खड़ताल के नाम से भी जाना जाता है। लकड़ी के बने हुए लम्बे दो गोल डण्डे को एक हाथ में ही ढीला पकड़कर बजाया जाता है।
(26) झाँझ/मजीरा– ये धातु से बने गोल वाद्य हैं। इस घन वाद्य के मध्य डोरी लगाई जाती है और उसी डोरी के सहारे दोनों गोल टुकड़ों को दोनों हाथों में पकड़कर, दोनों को एक-दूसरे के आघात से बजाया जाता है। झाँझ का ही छोटा रूप मजीरा होता है। पूजा-पाठ के संगीत में झाँझ-मजीरा बजाया जाता है।
(द) शास्त्रीय नृत्य – जब अंक – भंगिमाओं, मुद्राओं, पद-संचालन को नियमों और शास्त्रों के बन्धन व सीमा से युक्त कर देते हैं तो वे नृत्य शास्त्रीय नृत्य कहलाते हैं। लोक नृत्य ही धीरे-धीरे विकसित होकर शास्त्रीय नृत्य बन जाते हैं। आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व भारत के केवल 4 ही शास्त्रीय नृत्य माने जाते थे—कथक, भरतनाट्यम, कथकलि एवं मणिपुरी किन्तु आज 9 नृत्य शैलियाँ शास्त्रीय नृत्यों के अन्तर्गत आती -ओड़ीसी, कुचिपूड़ी, मोहिनीअट्टम, यक्षगान व छऊ।
जब लोक जटिलता, क्लिष्टता और कला की सूक्ष्मता की ओर अग्रसर होने लगते हैं तो ये सीमित वर्गों के बन जाते हैं और यही शास्त्रीय नृत्य कहलाने लगते हैं। कोई भी नृत्य वर्षों की साधना एवं विकास के बाद जब नियमबद्ध हो जाता है एवं उसका एक निश्चित स्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है, तभी वह शास्त्रीय नृत्य माना जाता है।
शास्त्रीय नृत्य की विशेषताएँ—
(i) शास्त्रीय नृत्य जटिल, क्लिष्ट व कला की सूक्ष्मता का प्रदर्शन होता है।
(ii) प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य की एक विशिष्ट वेशभूषा है।
(iii) घुँघरू शास्त्रीय नृत्य का एक आवश्यक अंग है।
(iv) इन नृत्यों में विशेष मुद्राओं अंग-भंगिमाओं व पद-संचालन का प्रयोग होता है। ये स्वाभाविकता से दूर होने लगते हैं।
(v) इन नृत्यों में विभिन्न तालों का प्रयोग, अनेक प्रकार की लयकारियों का प्रदर्शन एवं भावों की अभिव्यक्ति पर बल दिया जाता है।
प्रमुख शास्त्रीय नृत्य – निम्नलिखित हैं—
(1) भरतनाट्यम– इस नृत्य का उदय दक्षिण भारत के मन्दिरों तथा राजदरबारों में हुआ। 19वीं शताब्दी में इसे प्रदर्शनकारी कला का दर्जा प्राप्त हुआ। देवदासी प्रथा में यह नृत्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी । देवदासियाँ मन्दिरों में धार्मिक अनुष्ठान के समय यह नृत्य करता था। पुरुष गुरु देवदासियों को शिक्षा देते थे। ये नृत्य प्रकार केवल मन्दिरों में ही होते थे, मन्दिर के बाहर इसका प्रदर्शन नहीं किया जाता था।
राजशाही और सामाजिक परिवर्तनों के कारण मन्दिरों में नृत्य करने वाली नृत्यांगनाएँ आर्थिक समस्याओं में घिरने लगीं और वेश्यावृत्ति की राह अपना ली। ई. कृष्ण अय्यर तथा रूक्मणी देवी अरूनदले ने भरतनाट्यम को समाज की परिधि में पहुँचाया और मंच-प्रदर्शन आरम्भ कर दिया । धार्मिक चरित्रों पर ही नृत्य का प्रदर्शन किया, जैसे— राम, कृष्ण आदि ।
वर्तमान में भरतनाट्यम बहुत लोकप्रिय हो चुका है और व्यापक रूप से इसका प्रदर्शन हो रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरुष और महिलाएँ इस नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं। से
(2) कथक– सामान्य बोलचाल की भाषा में कथक का अर्थ हैकथा कहने वाला। कथकों (कथावाचकों) की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। ये लोग देवी-देवताओं, वीरों – वीरांगनाओं की कथाओं को आख्यान द्वारा प्रस्तुत किया करते थे। आगे चलकर इन लोगों ने इसमें संगीत, नृत्य और अभिनय का समावेश किया। कालान्तर में ‘कथकों’ ने अपनी कथा को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए नृत्य और गीत की प्रधानता का समावेश अपने कथावाचन में किया। मुस्लिम शासकों ने इस नृत्य रूप को आश्रय तो दिया, परन्तु यह एक ‘नाच’ या ‘बाजार-नृत्य’ के रूप में परिवर्तित हो गया। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह नृत्य ‘कोठों’ पर पहुँच गया। अंग्रेजों ने कथक नृत्य शैली को किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया। सन् 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ, विभिन्न कलाओं का पुनः उद्धार हुआ।
कथक नृत्य में विविध पद-संचालनों द्वारा ताल के जटिलतम रूपों का, विभिन्न लयकारी, जाति, तत्कार इत्यादि का प्रदर्शन किया जाता है। इस नृत्य के मूल में भाव प्रदर्शन करने की सूक्ष्मता और व्यापकता । केवल कथक नृत्य शैली ही ऐसी होती है जिसमें विभिन्न गायन शैलियाँ प्रयुक्त की जाती हैं और उन पर नृत्याभिनय किया जाता है। कथक नृत्य के 5 घराने हैं— जयपुर घराना, लखनऊ घराना, बनारस
घराना, सुखदेव प्रसाद घराना और रायगढ़ घराना। लखनऊ, बनारस और जयपुर घराने को विशेष ख्याति प्राप्त है।
(3) मोहिनी अट्टम– यह नृत्य शैली केरल की है। मोहिनी अट्टम का अर्थ है—’अत्यन्त आकर्षक स्त्री का नृत्य’ । इस नृत्य में दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाता है। नर्तकियाँ श्वेत और सुनहरे रंग की वेशभूषा धारण करती हैं। बालों को भी अत्यन्त सुन्दर ढंग से बनाया जाता है। मध्यम गति का यह नृत्य सौन्दर्य से परिपूर्ण होता है।
इस नृत्य शैली में शरीर का ऊपरी हिस्सा झूले की तरह नियंत्रित किया जाता है। पैरों को प्लायर (तार काटने या मोड़ने वाला औजार) की स्थिति में रखा जाता है। इस नृत्य में आँखों की विशिष्ट भूमिका होती है।
इस नृत्य शैली का उल्लेख 18वीं शताब्दी में मिलता है। परन्तु 19वीं शताब्दी में महाराजा स्वाती तिरुनल ने इस शैली को विशेष संरक्षण दिया। 20वीं शताब्दी में महान कवि वल्लाथोल ने ‘केरल कलामंडलम्’ की स्थापना की और मोहिनीअट्टम तथा कथकली को खूब प्रोन्नत किया। यह नृत्य भारतीय पौराणिक कथाओं पर किया जाता है, साथ ही इसके विषय ‘प्रकृति’ पर भी आधारित होते हैं । यह महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है, परन्तु आजकल पुरुष नर्तक भी इस नृत्य का प्रदर्शन करने लगे हैं।
(4) कुचिपुड़ी– यह आंध्र प्रदेश का नृत्य है। ‘कुचेलापुरम्’ नाम के गाँव पर ही इस नृत्य का नाम कुचिपुड़ी रखा गया। इस नृत्य को ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था । कुचिपुड़ी का जन्म ‘भगवतमेला’ नामक नृत्य शैली से हुआ। सन् 1960 में यह एकल नृत्य के स्वरूप में मंचों पर प्रदर्शित किया जाने लगा। यह नृत्य बहुत तेज गति में किया जाता है। पैरों को गोलाई से बहुत तेज गति में घुमाया जाता है। कुचिपुड़ी एक विशिष्ट लोकधर्मी नृत्य है। कुचिपुड़ नृत्य के कई प्रकार हैं— पूजा, जतिसवारम, शब्दम्, तरंगम, कीर्तनम् और तिल्लाना । तरंगम् को नृत्य के नाम से भी जाना जाता है, पीतल की थाली के किनारे, धार पर पैर रखकर कलाकार नृत्य करते हैं। तरंगम् में जटिल तालों पर, थाली के ऊपर, भगवान कृष्ण की आराधना में नृत्य किया जाता है। ताल की विभिन्न गतियाँ और जातियाँ होती हैं।
कुचिपुड़ी में मृदंगम्, वॉयलिन, वीणा, बाँसुरी और तलम का वाद्य यंत्र प्रयुक्त होते हैं।
(5) कथकली– कथकली संसार की प्राचीनतम् नाट्य शैली है। इस शैली का उदय भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में हुआ था, जो अब केरल प्रदेश है। कथकली एक समूह नृत्य है। यह नृत्य मूल रूप से महाभारत और रामायण की युद्धक कथाओं के प्रसंगों पर आधारित के है। प्रत्येक चरित्र का मेक-अप अलग होता है। गहरे रंगों के प्रयोग से हर चरित्र का उसकी विशेषता के अनुसार मेक-अप किया जाता है, जैसे ‘राम’ का मेक-अप हरे रंग का होता है। ‘रावण’ जैसे नकारात्मक चरित्र का मेक-अप भी हरे रंग का होता है, परन्तु गाल पर लाल रंग रहता है। अत्यधिक क्रोधी चरित्र को लाल मेक-अप दिया जाता है, दाढ़ी भी लाल होती है। जंगल के लोगों, जैसे–शिकारी को काला मेक-अप दिया जाता है। स्त्रियों और संन्यासियों का चेहरा पीला रखा जाता है।
इस शैली में अति विकसित हस्त मुद्राएँ समाविष्ट हैं, हाथ की मुद्राओं से कलाकार पूरी कहानी को कह देता है। शरीर की गति और पैरों का काम बहुत श्रमसाध्य होता है। पैरों को उठा-उठाकर नृत्य करना नृत्य की प्रमुख मुद्रा है। कथकली नर्तक बड़े-बड़े मुखौटे पहनते हैं। कलाकारों का परिधान और मेक-अप आश्चर्यचकित कर देने वाला होता है।
परम्परागत कथकली प्रदर्शन संध्याकाल से आरम्भ होकर पूरी रात तक चलता है, अन्त में देवता राक्षस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। चेन्दा, मददलम, सिम्बल्स और एला तालेम वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
(6) मणिपुरी– मणिपुरी अति सुन्दर नृत्य शैली है। मणिपुर पूर्वी भारत का अत्यन्त सुन्दर प्रदेश है। मणिपुर के निवासी पहाड़ों तथा ढलुवानों में निवास करते हैं। मणिपुर के लोग दैनिक जीवन के एक अभिन्न अंग के रूप में विभिन्न अवसरों पर नृत्य प्रदर्शन करते हैं, जैसे—विवाह, पारिवारिक उत्सव, भगवान की आराधना आदि। मणिपुर में प्रतिवर्ष ‘लईहारोबा उत्सव’ मनाया जाता है। इस उत्सव में लोग अपने परिवार, समाज और गाँव की सुख शान्ति के लिए वन-देवताओं की आराधना करते हैं। इसी नृत्य का विकसित और परिवर्तित रूप आज का मणिपुरी नृत्य है, जो समूह में तथा एकल, दोनों तरह से प्रस्तुत किया जाता है।
मणिपुरी नृत्य की वेशभूषा में विचित्रता होती है। नर्तकियाँ कमर से एड़ी तक लम्बी स्कर्ट पहनती हैं, जो खूबसूरत कढ़ाई से सम्पृक्त होता है। कृष्ण बने नर्तक दो सिर खूबसूरत लम्बा नीले रंग का मोर मुकुट होता है। पुंग और मजीरा वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है ।
(7) ओड़ीसी– ओड़ीसी नृत्य का उदय प्राचीन उत्तरी भारत में हुआ था। परन्तु ओड़ीसी अपने नाम से ‘उड़ीसा’ राज्य के नृत्य का प्रतिनिधित्व करता है।
ओड़ीसी नृत्य के भी दो प्रमुख पहलू हैं— नृत्य और अभिनय। राधा और कृष्ण का पवित्र प्यार इस नृत्य का विषय है। जयदेव के गीतगोविन्द के कम-से-कम एक या दो अष्टपदों पर यह नृत्य प्रदर्शित किया जाता है जो राधा और कृष्ण के मध्य जटिल सम्बन्धों को दिखाता है।
इस नृत्य शैली में त्रिभंगी का प्रयोग होता है, शरीर को तीन स्थानों से मोड़ा जाता है। इस नृत्य में वस्त्राभूषणों एवं अन्य साज-सज्जा की अनोखी परम्परा है। ओड़ीसी को एक कठिन नृत्य माना जाता है। पखावज, तबला, हारमोनियम, बाँसुरी और झाँझ वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।
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