अरविन्द के शैक्षिक योगदान का उल्लेख कीजिए।
अरविन्द के शैक्षिक योगदान का उल्लेख कीजिए।
उत्तर— शिक्षा के क्षेत्र में श्री अरविन्द का योगदान–श्री अरविन्द का शिक्षा दर्शन सर्वांग जीवन का विकास है जिसमें तन, मन और आत्मा का विकास सम्मिलित है। उन्होंने अपनी शिक्षण विधियों के माध्यम से वर्तमान की उद्देश्य-विहीन शिक्षा को जो मार्ग दिखाया है यही उनका सबसे बड़ा योगदान कहा जा सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने केवल विचारों का नहीं बल्कि व्यावहारिक योगदान भी दिया है। उनके विचारों का साकार रूप है- ‘ अरविन्द आश्रम’ जिसका वर्णन निम्नांकित है—
अरविन्द आश्रम– यह आश्रम श्री अरविन्द के दार्शनिक और शैक्षिक विचार का साकार रूप है। सन् 1910 में इन्होंने पाण्डिचेरी में एक ‘माध्यमिक केन्द्र’ की स्थापना की जिसका नाम इनके अनुयायियों ने इनके ही नाम पर अरविन्द आश्रम’ रख दिया। ‘अरविन्द आश्रम’ भारतीय शिक्षा में एक उत्तम परीक्षण में साथ-साथ जीवन के रहन-सहन विधि का एक प्रयोग भी है।
इस आश्रम का प्रमुख उद्देश्य अध्ययन, मनन एवं चिन्तन के द्वारा संसार में कल्याण के लिए कार्यक्रम निर्धारित करना था। सन् 1920 में एक फ्रांसीसी महिला (मीरा रिचर्ड दि मदर) आश्रम में आकर रहने लगी । इन्हीं के अथक प्रयासों से आश्रम में रहने वाले आश्रमवासियों की संख्या 8 से बढ़कर 800 हो गई। इसमें स्थायी निवासियों के अतिरिक्त प्रतिवर्ष देश के कोने-कोने से दर्शक लोग आकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। यहाँ बिना किसी भेदभाव के प्रवेश मिलता है। यह आश्रम सादा, सरल और आध्यात्मिक शक्ति के इच्छुक व्यक्तियों का परिवार है। इसके सभी आश्रमवासियों को ‘मदर’ के निर्देशन में भी अरविन्द के आदर्शों पर चलना पड़ता है।
इस आश्रम में सभी अपना कार्य स्वयं करते हैं। आश्रम में पुस्तकालय, वाचनालय, बैंक, प्रार्थना भवन, भोजनालय, इंजीनियरिंग वर्कशॉप, प्रेस, आश्रम स्कूल आदि की भी व्यवस्था है । इस आश्रम में दुनिया के कोनेकोने से एवं एक से एक उच्च पदों पर आसीन लोग रहते हैं। सभी यहाँ नियम व अनुशासन के साथ रहते हैं ।
श्री अरविन्द ने जीवन में आध्यात्मिक, योग, नैतिक भावना को समाहित करने पर जोर दिया है। उनका मानना था कि इन सब गुणों के द्वारा ही मानव का विकास सम्भव है। उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद एवं आदर्शवाद की झलक साफ देखने को मिलती है। उन्होंने बालकों को स्वानुभव तथा क्रिया विधि द्वारा शिक्षा प्रदान करने की बात कही है। लेकिन इन विधियों द्वारा बालक को समस्त शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती । औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था तो उसी दिशा में की जा सकती है जब उनके उद्देश्य, शिक्षण विधियाँ आदि सब निश्चित हों ।
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