कोलबर्ग के नैतिक विकास सिद्धान्त की अवस्थाओं की व्याख्या कीजिए।
कोलबर्ग के नैतिक विकास सिद्धान्त की अवस्थाओं की व्याख्या कीजिए।
अथवा
कोलबर्ग के नैतिक विकास सिद्धान्त को समझाइये ।
उत्तर— कोलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त (Kohlberg’s Moral Development)— लॉरेंस कोलबर्ग की अवधारणा है कि बालक के नैतिक विकास के स्वरूप को समझने के लिए उसके तर्क और चिन्तन के स्वरूप का विश्लेषण करना आवश्यक है। बालक द्वारा प्रदर्शित प्रतिक्रियाओं के आधार पर उसकी नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकांश परिस्थितियों में बालक दण्ड के भय या पुरस्कार के प्रलोभन से वांछनीय व्यवहार प्रदर्शित करता है, नैतिक चिंतन या नैतिक निर्णय के कारण नहीं । अतः अधिगमपरक सिद्धांतवादियों के विपरीत, कोलबर्ग ने बालक को किसी धर्मसंकट या कशमकश की स्थिति में रखकर यह देखा है कि बालक उस परिस्थिति में क्या सोचता है और किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है । कोलबर्ग के इस उपागम को प्राणीगत उपागम कहा गया है क्योंकि किसी पर्यावरण के तत्त्व के कारण नहीं, बल्कि स्वयं बालक की अपनी तर्कशक्ति के कारण होता है ।
कोलबर्ग की नैतिक विकास सिद्धान्त पियाजे के सिद्धान्त की ही भाँति अवस्था सिद्धान्त माना है। उन्होंने सम्पूर्ण नैतिक विकास को छः अवस्थाओं में विभाजित किया है। उनका विश्वास है कि सभी बच्चे इन अवस्थाओं से गुजरते हैं। नैतिक विकास की ये अवस्थाएँ एक निश्चित क्रम में आती है और वह क्रम बदला नहीं जा सकता। ऐसा संभव नहीं है कि किसी बालक में पहले तीसरी अवस्था की नैतिकता विकसित हो और बाद में पहली अवस्था की नैतिकता । अन्य अवस्था सिद्धान्तवादियों की ही भाँति कोलंबर्ग भी यह मानते हैं कि नैतिक विकास की प्रत्येक अवस्था में पायी जाने वाली नैतिकता का स्वरूप गुण में अन्य अवस्थाओं की नैतिकता से भिन्न होता है ।
एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने पर बालक के भीतर नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन कब और कैसे उत्पन्न होते हैंएक विचारणीय प्रश्न है । अवस्था सिद्धान्त के अन्य समर्थकों की भाँति कोलबर्ग की भी यही धारणा है कि बालक के नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही आते हैं, यकायक नहीं उत्पन्न हो जाते। वस्तुतः किसी अवस्था – विशेष में पहुँचने पर बालक केवल उसी अवस्थाओं की विशेषताओं का ही प्रदर्शन नहीं करता बल्कि उसमें कई अवस्थाओं के व्यवहार मिश्रित रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उसके अधिकांश व्यवहार जिस अवस्था के अनुरूप होते हैं, बालक को उसी अवस्था का मान लिया जाता है।
नैतिक विकास की अवस्थाएँ– कोलबर्ग ने नैतिक विकास की कुल छ: अवस्थाओं का वर्णन किया है। किन्तु उन्होंने दो-दो अवस्थाओं को साथ रखकर उन्हें तीन स्तरों में बाँट दिया है। ये तीन स्तर क्रम से प्रीकन्वेंशनल कन्वेंशनल और पोस्टकन्वेंशनल स्तर कहे जा सकते हैं। जब बालक किसी बाहरी तत्त्व या किसी भौतिक घटना के संदर्भ में किसी आचरण को नैतिक अथवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्क शक्ति प्रीकन्वेंशनल स्तर की कही जाती है। जब बालक के नैतिक चिंतन का आधार सामाजिक होता है तो वह कन्वेंशनल स्तर का माना जाता है। नैतिक विकास का तीसरा स्तर अर्थात् पोस्टकन्वेंशनल स्तर वह स्तर होता है जब कोई बालक अपने विवेक के आधार पर किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित, नैतिक या अनैतिक समझता है । नैतिक विकास के विभिन्न स्तर नीचे क्रम में प्रस्तुत हैं—
(1) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था– कोलबर्ग के अनुसार, नैतिक विकास की यह अवस्था ऐसी होती है कि जब बच्चे का चिंतन दण्ड के भय से प्रभावित होता है। परिवार एवं परिवेश के सशक्त व्यक्ति जैसे माता, पिता और बच्चे को कुछ चुने हुए कार्य करने का आदेश देते रहते हैं। जब बच्चा उनके आदेशों का उल्लंघन करता है तो वह प्राय: दण्डित किया जाता है। आज्ञाओं का पालन न करने तथा उसके फलस्वरूप दण्ड पाने पर बच्चा यह सोचने लगता है कि दण्ड से बचने के लिए आज्ञापालन जरूरी है। कोलबर्ग का इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि बच्चा किसी आचरण को सम्पन्न करने का निर्णय क्यों लेता है। अल्पायु और अपरिपक्व होने के कारण बच्चा किसी कार्य को करने अथवा न करने का निर्णय इसलिए लेता है क्योंकि उसे दण्ड पाने का भय है । आज्ञाओं का पालन वह इसलिए करता है जिससे लोग उसे दण्डित न करें । इस प्रकार नैतिक विकास की प्रारम्भिक अवस्था में दण्ड को ही बच्चों के नैतिकता का मुख्य आधार माना जाता है।
(2) अहंकार की अवस्था– इस अवस्था में बालक के चिंतन का स्वरूप थोड़ा सा बदल जाता है। आयु में थोड़ा बड़ा हो जाने के कारण अब बालक अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को समझने लगता है। अब उनके द्वारा किये गये अधिकांश कार्य ऐसे होते हैं जिनके उसकी संबंधियों की आवश्यकताएँ पूरी होती है। यदि झूठ बोलने या चोरी करने से उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है तो अब वह ऐसा करना उचित मानने लगता है। भूखे रहने पर कोई वस्तु चुराकर खा लेने की क्रिया को अब बालक नैतिक आचरण ही समझेगा । अतः नैतिक विकास की इस दूसरी अवस्था में बालक का अहंकार अर्थात् उसकी अपनी इच्छाएँ और आवश्यकताएँ उसकी नैतिक तर्क-शक्ति का आधार बन जाती है।
(3) प्रशंसा की अवस्था– नैतिक विकास की तीसरी अवस्था वह होती है जब बालक किसी कार्य को इसलिए करना चाहता है क्योंकि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। इस अवस्था के बालक सामाजिक प्रशंसा एवं निन्दा के महत्त्व को समझने लगते हैं और निन्दनीय आचरण से बचने की कोशिश करते हैं। समाज में लोग बालक-बालिकाओं से विशिष्ट भूमिकाओं की अपेक्षा करते हैं। जब वे इन भूमिकाओं का निर्वाह भली प्रकार करते हैं तो लोगों से उन्हें स्वीकृति मिलती है। इस अवस्था में बालक उन्हीं व्यवहारों को अच्छा, उचित और नैतिक मानते हैं जिनके लिए वे परिवार, पाठशाला, पड़ोस एवं मित्रमण्डली में प्रशंसा और मान्यता प्राप्त करते हैं।
(4) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था– नैतिक विकास की यह चौथी अवस्था बड़ी महत्त्वपूर्ण अवस्था होती हैं। कोलबर्ग के अनुसार, समाज में अधिकांश लोग नैतिक विकास की इसी अवस्था तक पहुँच पाते हैं । इस अवस्था में प्रविष्ट होने से पहले बालक समाज को इसलिए महत्त्वपूर्ण मानता था क्योंकि समाज से उसे अपने व्यवहार के लिए स्वीकृति एवं प्रशंसा मिलती थी। अब वह समाज को स्वयं में एक लक्ष्य मानने लगता है। वह समाज और उसकी प्रथाओं, परम्पराओं ‘और नियमों में आस्था विकसित कर सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना चाहता है। अपने नैतिक आचरण के संदर्भ में बालक अब यह सोचता है कि उसे कोई अच्छा कार्य इसलिए करना चाहिए क्योंकि यह उसका कर्त्तव्य है ।
(5) सामाजिक समझौता की अवस्था– इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति के नैतिक चिंतन की दिशा काफी परिवर्तित हो जाती । अब व्यक्ति पारस्परिक लेन-देन में आस्था रखने लगता है। वह यह मानकर चलता है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक समझौते का संबंध है। व्यक्ति को सामाजिक नियमों को इसलिए मानना चाहिए और उसके प्रति सम्मान इसलिए प्रदर्शित करना चाहिए क्योंकि समाज व्यक्ति के हितों की रक्षा करता है। अतः अब व्यक्ति सोचता है कि चोरी आदि अनैतिक कार्य हैं क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति और समाज के बीच का समझौता भंग होता है। वस्तुतः अपने नियमों, प्रथाओं और कानूनों के द्वारा समाज व्यक्ति को स्वतंत्रता, अधिकार और सुरक्षा प्रदान करता है।
(6) विवेक की अवस्था– नैतिक विकास की छठी और अन्तिम अवस्था विवेक की अवस्था होती है क्योंकि इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति नैतिकता के संबंध में आत्मनिष्ठ दृष्टिकोण विकसित कर लेता है। उसके भीतर विवेक जागृत हो उठता है और वह अच्छे-बुरे, उचितअनुचित और वांछनीय अवांछनीय व्यवहारों के संबंध में अपना व्यक्तिगत विचार रखने लगता है। व्यक्ति का विवेक ही उसके नैतिक निर्णय का एकमात्र आधार बन जाता है। इस अवस्था में पहुँचकर व्यक्ति सामाजिक और सरकारी नियमों की व्याख्या अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से करने लगता है और नियमों की वैधता को चुनौती देता है क्योंकि वे उसके विवेक पर खरे नहीं उतरते। वस्तुतः अब व्यक्ति अपने विवेक के सहारे ही जीवित रहता है और केवल वे आचरण ही उसके लिए नैतिक होते हैं जिन्हें उसके विवेक का समर्थन प्राप्त होता है।
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