मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिये ।

मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों की विवेचना कीजिये ।

उत्तर— मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त (Principles of Human Growth and Development) — विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। गैरिसन के अनुसार, “विकास अपने क्रम में कुछ नियमों का पालन करता है जिनको विकास के सिद्धान्तों के रूप में जाना जाता है। ” बालक के विकास की पहचान तथा विभिन्न अवस्थाओं में उसकी विशेषताओं एवं आवश्यकताओं को जानने के लिए विकास के सिद्धान्तों का अध्ययन आवश्यक है। विकास के कुछ सिद्धान्त निम्न प्रकार से है
(1) समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)– गैसेल और हरलॉक द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार एक जाति के जीवों में विकास का क्रम एक समान पाया जाता है। उदाहरण के लिए, सभी बालकों का जन्म के बाद विकास सिर से पैरों की ओर होना। बालक का गत्यात्मक एवं भाषा सम्बन्धी विकास भी एक निश्चित क्रम के अनुसार ही होता है। गैसेल ने बताया कि कोई भी दो बालक एक जैसे नहीं होते लेकिन उनके विकास का क्रम समान होता है ।
(2) सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses )– बालक के विकास के सभी क्षत्रों में सबसे पहले सामान्य अनुक्रिया होती है और विशिष्ट अनुक्रियाएँ बाद में प्रारम्भ होती हैं । हरलॉक इस सिद्धान्त के समर्थक थे । जन्म के उपरांत प्रारम्भ में किसी वस्तु को पकड़ने के लिए बालक शरीर के सभी अंगों का प्रयोग करता है लेकिन बड़े होने पर उसी अनुक्रिया के लिए वह अंग विशेष का प्रयोग करना शुरू कर देता है। शारीरिक विकास की ही तरह संवेगात्मक अभिव्यक्ति के लिए भी छोटा बच्चा केवल सामान्य संवेगात्मक उत्तेजना प्रदर्शित करता है । भय, प्रेम, क्रोध जैसे संवेगों की स्पष्ट अभिव्यक्ति मानसिक विकास के होने के पश्चात् ही होती है ।
(3) परस्पर सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Interrelation)– इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विभिन्न गुण परस्पर सम्बन्धित होते हैं । शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विका में एक प्रकार का सहसम्बन्ध पाया जाता है। बालक में जब किसी एक गुण का विकास होता है, तो अन्य गुणों का विकास भी उसी अनुपात में होता है। उदाहरणत: तीव्र बौद्धिक विकास वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास भी उसी गति से होता है।
(4) विकासात्मक सिद्धान्त (Principle of Development )– इस सिद्धान्त को केन्द्र से परिधि की ओर सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसके अनुसार बालक के विकास का क्रम सिर से पैरों की ओर होता है। व्यक्ति के सिर का विकास सर्वप्रथम होता है फिर यह पैरों की ओर बढ़ता है अर्थात् जो अंग सिर से जितना अधिक दूर होगा उसका विकास उतना ही बाद में होगा।
(5) सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Growth)– इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का क्रम गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक निरन्तर चलता रहता है। बालक के जन्म के शुरुआती तीन-चार साल में विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है, जो बाद में मंद हो होती जाती है। इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थक स्किनर के अनुसार, “किसी भी व्यक्ति में आकस्मिक कोई परिवर्तन नहीं होता। विकास यकायक न होकर सतत् होता है।” उदाहरणत: दाँतों का विकास भ्रूणावस्था में प्रारम्भ होता है, जो जन्म के 6 महीने बाद ही मसूढ़ों से बाहर निकलते हैं।
(6) व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences )– इस सिद्धान्त के अनुसार, बालकों के विकास का क्रम तो समान रहता है परन्तु विकास की गति में भिन्नताएँ पायी जाती हैं अर्थात् उनकी वृद्धि एवं विकास वैयक्तिक भिन्नता लिए होता है। सभी बालकों में शारीरिक व मानसिक विकास की अपनी एक स्वाभाविक गति होती है। यह आवश्यक नहीं है कि एक निश्चित अवधि में सभी बालकों में विकास भी समान गति से ही हो । बालक और बालिकाओं में भी विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है । डगलस और हॉलैण्ड के अनुसार, “विकास की यह भिन्नता व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवनकाल में बनी रहती है । “
 (7) वंशानुक्रम और वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment)– मानव विकास, वंशानुक्रम और वातावरण का योग होता है। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम में व्यक्ति की जन्मजात विशेषताएँ प्रखर होती हैं । वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्त्व होने के कारण व्यक्ति के मौलिक स्वभाव तथा उसके जीवन चक्र की गति को नियंत्रित करती हैं । वातावरण में वे समस्त बाह्य परिस्थितियाँ सम्मिलित होती हैं, जो मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं। स्किनर के अनुसार, “वंशानुक्रम विकास की सीमाओं का निर्धारण करता है और वातावरण व्यक्ति की मौलिक शक्तियों को प्रभावित करता है । “
(8) पूर्वानुमानता का सिद्धान्त (Principle of Predictability)— व्यक्ति में विकास का क्रम समान रहता है लेकिन उसकी गति भिन्न होती है। फिर भी मनोवैज्ञानिक बालकों पर परीक्षण करके उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इससे व्यक्ति की रुचि एवं व्यवहार का अनुभव कर भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जाता है। ओवेन ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया कि तर्क एवं बौद्धिक प्रकार्यों में विकास के प्रतिमानों की भविष्यवाणी संभव है।
(9) विकास-क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence)– व्यक्ति का विकास एक निरन्तर एवं क्रमिक रूप से चलने वाली प्रक्रिया है। विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है जिनकी अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं। विकास की सभी अवस्थाओं में सम्बन्ध पाया जाता है फिर भी उनके लक्षणों के आधार पर उनको अलग-अलग किया जा सकता है। बालक का विकास प्रतिमान सामान्य होता है और विकास की प्रत्येक अवस्था आगे आने वाली अवस्था के लिए आधार प्रस्तुत रती है विकास की इस प्रक्रिया में प्रत्येक अवस्था के अनुभवों का विशेष महत्त्व होता है जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती।
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