गाँधीजी की नई सामाजिक व्यवस्था के सिद्धान्त को समझाइये ।
गाँधीजी की नई सामाजिक व्यवस्था के सिद्धान्त को समझाइये ।
उत्तर— नई सामाजिक व्यवस्था के सिद्धान्त–ऐसी में पूर्णत: असन्तुष्ट और दुःखी होकर गाँधीजी ने एक नई सामाजिक व्यवस्था बनाने का संकल्प लिया। उन्होंने इस व्यवस्था के निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों को सुझाया—
(1) बन्धुत्व—मानव जाति की बंधुत्व भावना सम्पूर्ण मानवजाति की एकता के लिए आवश्यक थी। इस एकता की प्राप्ति हेतु उन्होंने जाति, रंग, पंथ, जन्म, धर्म, धन और शक्ति के समस्त कृत्रिम अवरोधों की तीव्र आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध आवाज उठाई और एक सामान्य धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने एक वर्गहीन समाज सर्वोदय समाज का स्वप्न देखा जिसमें प्रत्येक व्यति को उसके सर्वांगीण विकास के समान अवसर दिए जाएँ ।
(2) नागरिकता—गाँधीजी एक ऐसे समाज का पुननिर्माण करना चाहते थे जिसमें सरकार स्वतंत्रता, न्याय और भाईचारे की सभी के लिए गारंटी कर सके। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों को पूरा करने और सामाजिक उत्तरदायित्व को अपने कंधे पर उठाने वाले उपयोगी नागरिक बनाने का प्रशिक्षण देना आवश्यक है।
(3) आर्थिक समानता—गाँधीजी जानते थे कि औद्योगीकरण की प्रवृत्ति अपने आप बड़े पैमाने के उत्पादन, अधिक लाभ, शोषण धन के अति-संचय, पूँजीवाद के विकार, कामगारों की निर्धनता, कामगार के निजी सुख की हानि और कारीगरों के कौशल की क्षति को लाई है । उन्होंने गाँवों को उजड़ते हुए, ग्रामीण कामगारों को जीवन और कामधंधा असुरक्षित होते हुए ग्रामीणों का औद्योगिक क्षेत्र की ओर पलायन एवं घरेलू शिल्प, कुटीर उद्योग-धन्धों एवं ग्रामीण काम-धंधों को चौपट होते हुए देखा। उन्हें इस बात का भी पता लगा कि उदीयमान औद्योगिक समाज ग्रामीण समुदाय की आर्थिक समृद्धि का जड़ से उल्मूलन कर रहा है तथा मानवीय आदर्श और मानवतावाद का पतन होता जा रहा है। लाखों लोगों को भूखों मरते हुए देखकर उनके मन को गहरा आघात लगा । यही कारण था कि धनी को और अधिक धनवान परन्तु निर्धन को और अधिक दयनीय स्थिति में पहुँचाने वाले औद्योगीकरण की उन्होंने तीव्र भर्त्सना की। उन्होंने पूँजी के विकेन्द्रीकरण तथा जन समुदाय के बीच धन तथा आय के समान वितरण, प्रतिस्पर्धा का उन्मूलन, सहयोग और शिल्पियों के मूल कौशल को बढ़ावा देने का पक्ष लिया ।
(4) सर्वोदय समाज—गाँधीजी का समाजवाद मार्क्सवादी समाजवाद के विपरीत था । वे समाज के ढाँचे का निर्माण नैतिक सिद्धान्तों, मानवतावाद और समतावाद के सिद्धान्तों पर करना चाहते थे। उन्होंने अपनी कल्पना को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया—
“मैं एक ऐसे भारत के लिए कार्य करूँगा जिसमें निर्धनतम व्यक्ति महसूस करे कि यह उनका देश है जिसके निर्माण में उनकी प्रभावशाली वाणी और कार्य का योगदान रहा। एक भारत जिसमें लोगों के उच्च और निम्न वर्ग नहीं रहेगा और ऐसा भारत जिसमें सभी समुदाय पूर्ण सौहार्द से जीवन व्यतीत करेंगे।”
ऐसे समाज को उन्होंने “सर्वोदय समाज” नाम दिया। इसकी प्रमुख विशेषताएँ प्रेम, अहिंसा, सत्य और काम थी। ऐसे समाज के मार्गदर्शक घटक अध्यात्मिक बल, नैतिक नियम और नैतिक मर्यादाएँ रहेंगी। यह मर्यादाएँ समाज को ईश्वरीय चेतना प्रदान करने में सहायक बनेंगी । प्रत्येक नागरिक के आदर्श सभी की सेवा के होने चाहिए। इसमें किसी तरह का शोषण और दमन नहीं होगा। सत्य और अहिंसा पर आधारित समाज की व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक या राजनैतिक सभी तरह के शोषण का उन्मूलन करेगी। ऐसे समाज में महिलाओं को भी पुरुष के बराबर अधिकार रहेंगे।
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