नाट्य शिक्षण की प्रमुख प्रणालियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए ।
नाट्य शिक्षण की प्रमुख प्रणालियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए ।
उत्तर— नाट्य शिक्षण की प्रमुख प्रणालियाँ–नाट्य शिक्षण की प्रमुख प्रणालियाँ निम्नलिखित हैं—
(1) अर्थबोध प्रणाली–इस प्रणाली का प्रयोग प्राय: स्कूलों में किया जाता है। इस प्रणाली में शिक्षक अपेक्षित नाटक का वाचन करता है तथा पठित अंश का अर्थ भी कहता चलता है। कतिपय शिक्षक तो नाटक का वाचन भी छात्रों से ही कराते हैं। अपनी ओर से ये मात्र तात्पर्य भर स्पष्ट कर देते हैं। इस प्रणाली में पाठ्य पुस्तक प्रधान होती है। उसका वाचन तथा अर्थ-कथन मात्र शिक्षक का कार्य होता है। यह प्रणाली त्रुटिपूर्ण है। इसमें न तो मनोरंजन होता है, न अभिनय और न कथोपकथन में ही स्वाभाविकता आती है।
(2) व्याख्या अथवा समीक्षा प्रणाली–यह प्रणाली नाटक को उच्च श्रेणी में शिक्षण करते समय काम में लाई जाती है। इसमें चरित्र, कथोपकथन, भाषा, शैली, कथा, पात्र आदि की वर्णन उद्धृत की जाती है। व्याख्या का माध्यम कथन तथा प्रश्नोत्तर होते हैं। इस प्रणाली में पठित नाटक के गुण-दोषों का उल्लेख प्रस्तुत किया जाता है। यह कार्य शिक्षक ही मुख्य रूप से करता है। तुलना, दृष्टांत एवं आचार्य-मान्यताओं द्वारा शिक्षक अपनी समीक्षा को पुष्ट बनाता है। इस विधि से छात्रों में गुण-दोष विवेचना की शक्ति का विकास होता है, परंतु अन्य सभी उद्देश्य गौण पड़ जाते हैं। उच्च कक्षा में यह प्रणाली उपयोगी तथा प्रभावकारी है।
(3) आदर्श नाट्य पाठ प्रणाली–इस प्रणाली में अध्यापक को ज्यादा सक्रिय रहने की आवश्यकता लेती हैं। शिक्षण करने वाला अध्यापक ही वर्ग के बाह्य और आंतरिक परिवेश की देख-रेख करता है। वह प्रत्येक पात्र के संवाद को उसके अनुरूप हाव-भाव के साथ बोलता है। इससे छात्रों को पात्र के चरित्र का स्पष्ट आभास हो जाता है। इसमें अर्थ- कथन का स्थान नहीं है। शिक्षक ही कुछ इस प्रकार के संवाद बोलता एवं हाव-भाव प्रदर्शित करता है कि छात्रों को भाव ग्रहण करने में कोई कठिनाई नहीं होती । इस प्रणाली में छात्र मात्र श्रोता एवं दर्शक बनकर रह जाते हैं। इसके अतिरिक्त पठित नाटक के तत्त्वों की व्याख्या भी इस प्रणाली द्वारा होना असंभव हो जाता है। इन दोषों के होते हुए भी यह प्रणाली उचित है ।
(4) प्रयोग प्रणाली–यह सर्वविदित हैं कि नाटकं दृश्य-काव्य है। अतः रंगमंच पर उतारकर ही इसे प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है। चरित्र में सजीवता, भाषा में प्रभावकारिता तथा कथोपकथन में स्वाभाविकता तो नाटक को रंगमंच पर अभिनीत करके ही लाई जा सकती है। नाटक की सार्थकता एवं मौलिक अस्तित्व तो अभिनय में ही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि नाटक-शिक्षक की सबसे बढ़िया प्रणाली है। इसे रंगमंच-अभिनयप्रणाली भी कहते हैं। इस प्रणाली में छात्रों को असली ज्ञान प्राप्त होता है। वे सक्रिय होकर कथोपकथन याद करते हैं, उच्चारण शुद्ध करते हैं, भावपूर्ण तरीके से बोलना सीखते तथा उसका अभ्यास करते हैं और इस प्रकार नाटक के संदेश को आत्मसात् भी करते हैं। परन्तु इस प्रणाली में सभी छात्रों को नाटक में भाग लेने का अवसर नहीं मिल पाता।
(5) कक्षाभिनय प्रणाली–नाम से ही पता चलता है किंतु शिक्षा और नाटक में यह है कि छात्र शिक्षक फर्क इशारे पर करते हैं और उनके पास रंगमंच के जैसा पोशाक नहीं होता लेकिन नाटक में सारी वस्तु होती है इसलिए अच्छा लगता है। इसमें नाटक के विभिन्न पात्रों के रूप में कार्य करने वाले छात्र वर्ग के सम्मुख अपने-अपने संवाद का भावपूर्ण ढंग से पाठ करते हैं। कक्षा- अभिनय-प्रणाली में वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग नहीं किया जाता है। इस प्रणाली में शिक्षण में रंगमंच प्रणाली के सभी गुण तो नहीं है, किंतु बहुत अंशों में यह उसके निकट है। इतना ही नहीं, इसमें समय, धन तथा श्रम तीनों की बचत होती है। उद्देश्यों की प्राप्ति में यह प्रणाली अधिक उचित है। इसमें छात्र का क्रियाशीलन, मनोरंजन तथा विषयस्पष्टीकरण प्रत्यक्ष रूप से हो जाता है। यह प्रणाली प्रस्तुत स्थिति में सर्वाधिक उपयोगी तथा सफल है।
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