निम्नलिखित पर लेख लिखिए—

निम्नलिखित पर लेख लिखिए—

(i) भाषा व धर्म
(ii) भाषा व साहित्य
उत्तर— (i) भाषा व धर्म–भारत विभिन्नताओं का देश है। यहाँ अनेक प्रजातियों के लोग एक साथ रहते हैं। भारतीय समाज में सैकड़ों जातियाँ और उपजातियाँ भी पायी जाती हैं, जिनमें ऊँच-नीच का एक संस्तरण या उतार-चढ़ाव की एक प्रणाली पाई जाती है। यहाँ करोड़ों की संख्या में अस्पृश्य या दलित कहे जाने वाले लोग भी हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ जनजातीय आदिवासी लोगों की संख्या भी कम नहीं है। इस देश में विभिन्न भाषा-भाषी लोग भी मौजूद है। भारत अनेक धर्मों का जन्मस्थल भी है। यहाँ कोई हिन्दू है, तो कोई मुसलमान, कोई ईसाई है तो कोई बौद्ध, कोई जैन है, तो कोई सिक्ख । इनके अतिरिक्त यहाँ फारसी, यहूदी एवं जनजातीय धर्मों को मानने वाले लोग भी हैं ।
भाषा लोगों के बीच अन्तः प्रक्रिया का एक माध्यम है। यह बच्चे का समाजीकरण करती है, उसे समाज में रहने लायक प्राणी बनाती है । मानव चिन्तन की अभिव्यक्ति भी भाषा के द्वरा ही होती है, यह उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में बाँधती है, जो एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं। भारत में भाषा के साथ-साथ सांस्कृतिक विशेषताओं में भी अन्तर देखने को मिलता है। यहाँ सामाजिक संरचना शासन वर्ग एवं विशेष परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ भाषा में भी परिवर्तन हुए हैं। अति प्राचीन समय में पालि व प्राकृत भाषाओं का प्रयोग होता था। जैन व बौद्ध धर्म ने भी इन्हीं भाषाओं को अपनाया था। प्राचीन व मध्यकाल में जब शासक बदले तो उनकी संस्कृति व राजनीतिक सत्ता के साथसाथ भाषा में भी परिवर्तन आया । मुसलमानों ने उर्दू, अरबी और पर्सियन भाषाओं का प्रयोग किया। अंग्रेज शासकों ने अंग्रेजी को राजकाज की भाषा बनाया। आजादी के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं को भी संविधान में स्थान दिया गया । विभिन्न संस्कृतियों के टकराव के कारण जहाँ एक और मिली-जुली संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ वही दूसरी ओर भाषाओं के शब्द-भण्डार में भी वृद्धि हुई । यद्यपि एक भाषा बोलने वाले लोग अपने परिवार, विवाह व जातीय सम्बन्धों को अपने भाषाई बोध तक हो सीमित रखते हैं, फिर भी वर्तमान में संचार एवं यातायात के साधनों में वृद्धि के कारण लोगों में उत्पन्न गतिशीलता में व्यापार नौकरी और शिक्षा के लिए एक भाषाई क्षेत्र को छोड़कर दूसरे भाषाई क्षेत्र में जाने के अवसर प्रदान किए हैं। इससे लोगों को अपनी मूल भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं को सीखने का अवसर भी मिला तथा उस भाषा से सम्बन्धित लोगों की संस्कृति को समझने तथा उनसे अन्तःक्रिया करने के अवसर उत्पन्न हुए तथा उनमें मेल-जोल बढ़ा।
भाषा का परिष्कृत रूप संस्कृति पर आधारित होता है। संस्कृति एवं भाषा के समान प्रेम होता है, जिससे व्यक्ति की पहचान होती है। सांस्कृतिक विकास और अवनति उसकी भाषा और साहित्य के विकास एवं अवनति के साथ होती है। भाषा वास्तव में सांस्कृतिक तत्त्व है। सामाजिक कार्यों एवं गतिविधियों से ही संस्कृति का निर्माण होता है। भाषा सम्पूर्ण संस्कृति के आचरण का आधार है। भाषा ही समुदाय के निर्माण मूल आधार है।
मानवीय ज्ञान समुदायों व संस्कृतियों की भाषाओं के अध्यापन से ही होता है ।
संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। दक्षिण की भाषाओं, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम और तमिल पर भी इसका अधिक प्रभाव है। हमारे सभी धार्मिक ग्रन्थ वेद, उपनिषद तथा महाकाव्य मूल रूप से संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं।
(ii) भाषा व साहित्य– व्युत्पत्ति के आधार पर ‘साहित्य’ शब्द का अर्थ है— सहित होने का भाव । इसमें विद्वानों ने सहित शब्द के दो अर्थ माने हैं—(i) ‘हितेन सह सहितं’ (ii) ‘सह’ अर्थात् साथ होना । ‘ हितेन सह सहितं’ का अर्थ है हित के साथ होना अथवा जिससे हित सम्पादन है। ‘सह’ शब्द का अर्थ साथ होने से है । साहित्य से यह भाव प्रतिपादित होता है कि जहाँ शब्द और अर्थ, विचार और भाव का परम्परानुकूल सहभाव हो, वह साहित्य है । साहित्य का दूसरा अर्थ है— जो हित सहित हो । भाषा के माध्यम से ही साहित्य हितकारी रूप में प्राप्त होता है।
भाषा एवं साहित्य के विद्वानों तथा शिक्षाविदों द्वारा साहित्य की निम्नलिखित परिभाषायें दी गयी हैं—
(1) राजशेखर के अनुसार, “शब्दार्थयोर्यथाहसभावेन विद्या साहित्य विद्या” अर्थात् शब्द और अर्थ के यथायोग्य सहयोग वाली विद्या साहित्य विद्या है ।
(2) कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में, “सहित शब्द से साहित्य में मिलने का एक भाव देखा जाता है । यह केवल भाव-भाव का, भाषाभाषा का, ग्रन्थ-ग्रन्थ का ही मिलन नहीं है, अपितु मनुष्य-मनुष्य का अतीत- वर्तमान का, दूर के साथ निकट का अत्यन्त अंगरंग मिलन भी है, जो साहित्य के अतिरिक्त अन्य द्वारा संभव नहीं है । “
(3) गंगा प्रसार पांडेय के शब्दों में, “साहित्य विचारशील आत्माओं की अमर अभिव्यक्ति है। उसमें जीवन सम्बन्धी उन विशेष विचारों का संकलन होता है, जो हमारे यथार्थ जीवन की प्रगति देते हैं । वास्तव में ‘साहित्य’ शब्द हमारा जीवन है, क्योंकि सभी साहित्यकार जीवन की जटिलता तथा विरसता एवं सरसता का उपयोग करने के बाद ही उसको अपनी शब्द-सीमा में बाँधने का प्रयत्न करते हैं । “
(4) पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।”
(5) बाबू गुलाब राय के अनुसार, “साहित्य, संसार के प्रति मानसिक प्रक्रिया अर्थात् विचारों, भावों और संकल्पों की शाब्दिक अभिव्यक्ति है, और यह हमारे किसी-न-किसी कार्य के हित का साधन करने के कारण संरणीय हो जाती है । “
भाषा में साहित्य की भूमिका– साहित्य भाषा अभिव्यक्ति का वह विशिष्ट रूप है जो समाज या व्यक्ति के विशिष्ट अनुभव को निष्पन्न करने के लिए प्रयुक्त होता है। मस्तिष्क की दृष्टि से भाषा साहित्य पर अवलम्बित नहीं होती, किन्तु साहित्य को भाषा पर अवलम्बित रहना पड़ता है। एक विशिष्ट साहित्यिक कृति एक विशिष्ट भाषिक सांस्कृतिक समाज की सामूहिक सम्पदा है और साथ ही उसकी अभिव्यक्ति भी है।
भाषा समाज स्वीकृत शब्दों और उनके अर्थों की वादय संबद्ध/ श्रृंखला/ व्यवस्था है। शब्द (शरीर) तथा अर्थ (प्राण) के सहभाव / एकत्र होते ही भाषा में अभिव्यक्ति क्षमता (चेतना/जागृति) आ जाती है। शब्द और अर्थ के सहभाव को ही साहित्य की संज्ञा दी जाती है। साहित्यकार जीवन के सतही और निगूढ़ तत्वों की अभिव्यंजना स्व-संवेदना तथा मनोभावों के सहारे करता है। प्रत्येक भाषिक समाज का साहित्य उसकी जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है, अतः भाषा अध्येयता को उस भाषा के समाज के लोगों के सोचने-विचारने, रहन-सहन, समृद्धि – हीनावस्था, उत्थान-पतन आदि को जानने के लिए उसकी भाषिक संस्कृति तथा साहित्य का अध्ययन करना उपादेयता की दृष्टि से आवश्यक है ।
भाषा के सन्दर्भ में भाषिक संस्कृति की सामान्य जानकारी भाषा के छात्र को अपने वातावरण से सहज ही प्राप्त होती रहती है किन्तु भाषा के सन्दर्भ में अध्येय भाषा के शिक्षक तथा शिक्षार्थी को उसके बोध के लिए विशेष प्रयास करना पड़ता है। साहित्य बोध के लिए भाषा तथा भाषा के शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों को ही लगभग समान रूप से प्रयत्नशील होना पड़ता है। किसी भी भाषा समुदाय की संस्कृति के कुछ अंशों को प्रत्यक्षतः सिखाया जा सकता है; यथा – हिन्दी भाषिक संस्कृति में स्वयं को विनीत रूप में प्रस्तुत किया जाता है । अध्यापक/गुरु को शिष्य आदरणीय/श्रद्धेय/पूज्य गुरुजी लिखता है न कि My Dear Teacher (मेरे प्रिय अध्यापक ) । बहुत-सी बातों के लिए सन्दर्भ तथा व्याख्या, दृश्य-श्रव्य उपकरण आदि का सहारा लेकर अध्येय भाषा की संस्कृति के बारे में बताया एवं समझाया जा सकता है, यथा – विभिन्न अवसरों पर शोक/प्रसन्नता प्रकट करने का ढंग, विभिन्न संस्कार, रीति-रिवाज, त्यौहार आदि ।
भाषा शिक्षक को अपने छात्रों में यह बोध / दृष्टिकोण विकसित करना होगा कि एक ही वस्तु/क्रिया/व्यवहार को देखने, समझने तथा उसका मूल्यांकन करने के विभिन्न समाजों में अलग-अलग तरीके होते हैं जो उस भाषायी समाज की दृष्टि में सही माने जाते हैं । अतः यह आवश्यक नहीं है कि मूल्यांकन / बोध की ये विभिन्नताएँ नैतिक दृष्टि से किसी पक्ष को उच्च या निम्न अथवा सही या गलत सिद्ध करें । उदाहरणार्थ—
मलयालम भाषी समाज में ‘नमस्कार’ या अभिप्राय गुरु-शिष्य सम्बन्ध है। बहू द्वारा सास- ननद के पैर दबाना निम्न कोटि का समझा जाता है। ‘पर्दा’ केवल मुसलमानों तक ही सीमित है और वह भी केवल सिर ढकने तक ही। ‘कन्याओं के पैर छूना’ पाप समझा जाता है। सामान्यतः लड़के किसी पुरुष/महिला के चरण स्पर्श नहीं करते, लड़कियाँ अवश्य चरण-स्पर्श करती हैं। तमिल भाषी समाज में मामा की पुत्री के साथ भाजने का ही नहीं स्वयं मामा के साथ भानजी का विवाह समाज स्वीकृत है जबकि हिन्दी क्षेत्र में इस सम्बन्ध की कल्पना तक नहीं की जा सकती। तमिल/मलयालम्/कन्नड़/तेलुगु भाषी समाज में ‘सास, बुआ’ के लिए एक ही शब्द प्रचलित हैं।
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