बिहार में 1813 से 1947 तक पाश्चात्य शिक्षा की विवेचना कीजिए |

बिहार में 1813 से 1947 तक पाश्चात्य शिक्षा की विवेचना कीजिए |

(60-62वीं BPSC/2018)
अथवा
बिहार में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार हेतु प्रचलित विचारों या दृष्टिकोण का समग्र वर्णन करते हुए नवीन शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना का औचित्य – अनौचित्य के साथ उत्तरदायी परिस्थितियों का आलोचनात्मक निष्कर्ष व्यक्त करें।
> बिहार में प्राचीन शिक्षा का केन्द्र तथा माध्यम
> लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति
> चार्टर अधिनियम-1813
> बिहार में पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार में बंगालियों का योगदान
> बिहार में आरम्भिक पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार
> बिहार में साइंस, तकनीकी शिक्षा, मेडिकल शिक्षा तथा रिसर्च संस्थानों की स्थापना
उत्तर- प्राचीन काल से ही बिहार शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। बिहार स्थित नालंदा विश्वविद्यालय अपने देश ही नहीं विश्व के प्रमुख शिक्षण केन्द्रों में एक माना जाता था। परन्तु इन केन्द्रों पर शिक्षण-प्रशिक्षण ऐतिहासिक ढंग से संस्कृत भाषा में होता था। देश के साथ-साथ बिहार में आधुनिक शिक्षा का प्रसार चार्टर अधिनियम-1813 में 1 लाख रुपये प्रतिवर्ष शिक्षा पर खर्च करने का प्रावधान के साथ शुरू हुआ, परन्तु देश में वास्तविक रूप से पाश्चात्य शिक्षा का आरम्भ का दौर 1835 ई. से माना जाता है। उस समय देश के साथ ही बिहार में भी पाश्चात्य शिक्षा का दौर आरम्भ हुआ। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति के तहत पाश्चात्य शिक्षा के विकास पर जोर दिया गया। साथ ही यह घोषणा की गई कि अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक बुद्धिजीवियों ने इसका समर्थन किया। टिकरी के महाराजा मित्रजीत सिंह, दरभंगा के महाराजा रूद्रसिंह आदि ने अंग्रेजी शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिए उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता प्रदान की।
भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने बिहार में पाश्चात्य शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अनेक सरकारी प्रयास किए। 1835 में अंग्रेजी शिक्षा के लिए पूर्णिया में, 1838 में बिहारशरीफ तथा 1840 में भागलपुर में अंग्रेजी विद्यालयों की स्थापना की गई। भागलपुर में सैनिकों के बच्चों के लिए शिक्षा हेतु भागलपुर हिल स्कूल की स्थापना की गई।
प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा को लेकर बिहार के निवासियों में अनेक भ्रांतियां थीं, जिसके कारण इसका लाभ केवल बंगालियों ने उठाया। 1861 ई. में बंगाल के शिक्षा निदेशक डब्ल्यू. एस. एटकिंसन ने बिहार के शैक्षिक पिछड़ेपन की समीक्षा की और कहा कि बिहारियों ने अज्ञानता व रूढ़िवादी दृष्टिकोण के कारण अपने को आधुनिक शिक्षा से दूर रखा जिससे वे सरकारी सेवाओं में भर्ती से वंचित रह गए। प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा में बिहार के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण बिहार का बंगाल में होना भी था, क्योंकि उस समय सीमित शिक्षा नीति थी जिसके कारण केवल मुख्य केन्द्र ही शिक्षा के केन्द्र में आ सके। जैसे–यदि हम 1854 के चार्ल्स वुड डिस्पैच की बात करें तो उसके अंतर्गत तीन विश्वविद्यालय बम्बई, कलकत्ता तथा मद्रास में ही स्थापित किए गए। यही कारण है कि बिहार में शिक्षा के प्रसार में बंगालियों का विशेष योगदान भी रहा है। 1866 ई. में बिहार में बंगालियों ने एक आधुनिक विद्यालय की स्थापना की। न्यायाधीश गिरीशचन्द्र घोष ने पटना में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। लेकिन यह सब बिहार की रूढ़िवादिता और पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नाकाफी था।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई से संबंधित 1874 में पटना में एक ‘सर्वे विद्यालय’ की स्थापना की गई जिसे आगे चलकर बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के नाम से जाना गया। बाद 2004 में भारत सरकार द्वारा इसे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलोजी (NIT) का दर्जा दे दिया गया।
1896 ई. तक बिहार में मेडिकल एवं इंजीनियरिंग की पढ़ाई का कोई भी संस्थान नहीं था और कलकत्ता के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में बिहार के छात्रों को स्कॉलरशिप नहीं मिलता था। दूसरी तरफ बिहार में अच्छे शिक्षण संस्थानों के अभाव के बावजूद शिक्षा और सरकारी नौकरियों में बहाली के मामलों में बिहारी लोगों से बहुत ही भेदभाव किया जाता था। वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशों पर बंगालियों का ही कब्जा था। इस तरह के बरताव से तंग आ कर महेश नारायण, अनुग्रह नारायण सिंह, नंद किशोर लाल, राय बहादुर, कृष्ण सहाय, गुरु प्रसाद सेन, सच्चिदानंद सिन्हा, मुहम्मद फखरुद्दीन, अली ईमाम, मजहरूल हक और हसन ईमाम जैसे प्रगतिवादी नेता बिहार को बंगाल से अलग कराने के काम में जुट गए।
1912 ई. तक बिहार प्रांत बंगाल का हिस्सा था। बंगाली बड़े पढ़े-लिखे और रोजगारोन्मुखी थे, जबकि बिहारी शिक्षा में पिछड़े थे। इसका मूल कारण था बिहार और बंगाल की भौगोलिक पृष्ठभूमि का अलग-अलग होना, देश की राजधानी कलकत्ता में होना और ब्रिटिश हुकूमत का संचालन केन्द्र भी वहीं होना आदि। 14 अक्टूबर, 1917 को पटना विश्वविद्यालय की स्थापना से बिहार में उच्च शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1921 ई. में बिहार विधान परिषद द्वारा एक प्रस्ताव पारित कर आयुर्वेदिक शिक्षा प्रणाली प्रारम्भ की गई। 1925 में प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गई। बाद में यह पटना मेडिकल कॉलेज के नाम से जाना गया। पाश्चात्य शिक्षा को गति देने हेतु बिहार में 1938 ई. में बेसिक एजुकेशन बोर्ड की स्थापना की गई। 1940 के दशक में दरभंगा मेडिकल स्कूल की स्थापना की गई। बिहार में विज्ञान की पढ़ाई को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पटना कॉलेज से पृथक कर पटना साइंस कॉलेज की स्थापना की गई।
प्रारम्भ में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार बिहार में बहुत ही धीमी गति से हुआ। बिहार के लोग अपनी रूढ़िवादी विचार के कारण इसका विरोध करते रहे जिससे बिहार शिक्षा के मामले में लगातार पिछड़ता रहा। कुछ समय बीतने के बाद बिहार में बुद्धिजीवियों के आगमन के साथ धीरे-धीरे इसका विस्तार होना शुरू हो गया। 1912 में पृथक बिहार के बाद पाश्चात्य शिक्षा ने गति पकड़ी जो तकनीकी शिक्षा, मेडिकल शिक्षा, रिसर्च आदि क्षेत्रों के माध्यम से आज भी अनवरत जारी है।
नि:संदेह आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार राज्य के सभी भागों में धीरे-धीरे संभव हुआ । इससे बिहार के लोगों में धीरे-धीरे ही सही पर सामाजिक, राजनीतिक जागरूकता का विस्तार हुआ। पाश्चात्य शिक्षा के विस्तार के कारण ही पृथक बिहार राज्य के निर्माण में आंदोलन का सूत्रपात हुआ और तत्पश्चात बिहार प्रांत के गठन के उपरांत बिहारवासियों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व शैक्षिक स्थिति में बदलाव आ सका।
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