भाषा शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।

भाषा शिक्षण के सामान्य सिद्धान्तों को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— भाषा शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त— भाषा सीखने तथा सिखाने के लिए अनेक भाषाविदों ने विचार-विनिमय करके कई सिद्धान्तों को अन्तिम स्वरूप दिया, जिनकी सहायता से बचपन से भाषा सही प्रकार से सीखी और सिखाई जाती है। यही सिद्धान्त हिन्दी भाषा शिक्षण के लिए अति उपयुक्त माने जाते हैं। उनका विवरण निम्न प्रकार से है–

(1) स्वाभाविकता का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त के अनुसार भाषा स्वाभाविक विधि से सिखाई जानी चाहिए। बालक अपनी स्वभाविक प्रवृत्ति से सीखता है । इस प्रवृत्ति के अनुसार बोलना और समझना पहले और पढ़ना और लिखना बाद में आता है। बोलना सीखते वक्त उच्चारण का स्थान प्रथम आता है। भाषाशास्त्रियों का कहना है कि प्रारम्भिक कक्षा से ही उच्चारण की शिक्षा पर बल देना चाहिए। भाषा सीखने की योग्यता प्रारम्भिक अवस्थाओं में अधिक होती है । बाल्यकाल में सीखी हुई भाषा की छाप अमिट होती है। आरम्भ से ही शुद्ध उच्चारण शिक्षा की नींव डालने से भविष्य में कठिनाइयाँ कम होती है। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत पहले मौखिक कार्य पर बल दिया जाये, जिसका अनुकरण बालक जन्म से थोड़े ही दिन बाद शुरू करता है। लेखन मूलाक्षरों से ही आरम्भ करना चाहिए। बाद में शब्द और वाक्य के प्रति प्रेरित करना आवश्यक है।
(2) अभ्यास का सिद्धान्त– भाषा एक कला है, विज्ञान नहीं। भाषा के वैज्ञानिक पक्ष अवश्य हैं, मगर कलात्मक पक्ष वैज्ञानिक पक्ष से महत्त्वपूर्ण है। विज्ञान समझने की वस्तु है, कला अभ्यास की । प्रत्येक कला को ग्रहण करने के लिए अभ्यास की तीव्र आवश्यकता है। निरन्तर अभ्यास से कठिन से कठिन कार्य भी साध्य हो जाता है।
इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र, गणित जैसे विषयों की अपेक्षा भाषा ज्ञान में अधिक समय, परिश्रम, रुचि, लगन और अभ्यास की आवश्यकता है। आमतौर पर अहिन्दी प्रान्तों में कक्षा में हिन्दी भाषा बोलने और लिखने का अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए।
(3) क्रियाशीलन का सिद्धान्त– जीवन एक निरन्तर अनुभव की पाठशाला है। हम जो क्रिया करते हैं उसका सम्बन्ध भूतकाल तथा भविष्य काल से जुड़ा हुआ रहता है। बालक जन्म से ही असंख्य क्रियाएँ करता रहता है। अपने जीवन में क्रियाशीलनों के आधार पर जो ज्ञान बालक प्राप्त करता है, वह ठोस मात्रा में होता है। साथ-ही-साथ मस्तिष्क पर उसकी अमिट छाप पड़ती है। फ्रोबेल नामक प्रख्यात शिक्षाशास्त्री ने प्रथमतः क्रियाशीलन द्वारा ज्ञान प्राप्त करने पर बल दिया। किण्डरगार्टन, बुनियादी शिक्षा, मॉण्टेसरी-पद्धति, योजना-पद्धति, डाल्टन-पद्धति, ह्यूरिस्टिक पद्धति आदि शिक्षा पद्धतियों में शिक्षण का आधार मुख्यतः बालक की जीवन क्रियाएँ ही रखी गई हैं।
क्रिया सीखने का मूल सिद्धान्त है, जिससे ज्ञानेन्द्रियों को शिक्षषा मिलती है । इसी शिक्षण द्वारा आगे चलकर व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। प्राथमिक कक्षाओं में मॉडल बनाना, कागज काटना, कविता याद करना, छोटे-छोटे गेय गीत गाना, जिसमें अंग-संचालन की गुंजाइश हो । उच्च कक्षाओं में शारीरिक क्रियाओं के साथ मानसिक क्रियाशीलन पर बल देना अनिवार्य है। हिन्दी शिक्षण में अधिक सक्रियता जिन पद्धतियों से होती है उन पद्धतियों का उपयोग करना उचित माना गया है।
(4) वार्तालाप का सिद्धान्त– वार्तालाप का दूसरा नाम बोलचाल है। कोई भी भाषा वार्तालाप के जरिए जल्द से जल्द सीख सकते हैं । पुरानी शिक्षा पद्धति में पाठ पढ़ाते समय केवल अध्यापक ही पूरे कालांश तक वार्तालाप करते थे। कोई भी विषय पढ़ाते वक्त ज्यादा कार्य शिक्षक का ही होता था। इस प्रकार पाठ पढ़ाने से शिक्षक क्रियाशील वक्ता और विद्यार्थी निष्क्रिय श्रोता बन जाते हैं । यह शिक्षण प्रभावी नहीं बन सकता । इसलिए शिक्षकों को पाठ में छात्रों का सहभाग ज्यादा लेना चाहिए । बोलचाल, संवाद, वार्तालाप, प्रश्नोत्तर, याद करना, दोहराना आदि के लिए ज्यादा समय देना चाहिए, क्योंकि भाषा को पहले बोलचाल के माध्यम से पढ़ाना चाहिए। छात्रों को पहले अधिक-से-अधिक समय बोलने के लिए दिया जाये, जिससे छात्रों को बोलने का अवसर उपलब्ध हो। पढ़ने लिखने की अपेक्षा बोलने से शीघ्र सीखी जाती है। कोई भी भाषा लेखन की अपेक्षा बोलने से भाषा शीघ्र सीखी जा सकती है।
(5) अनुपात और क्रम का सिद्धान्त– हिन्दी भाषा के दो प्रमुख अंग हैं- एक ग्रहण और दूसरा अभिव्यक्तिकरण । दूसरों के विचारों को ग्रहण करने की प्रक्रिया दो प्रकार से होती है- एक सुनने से और दूसरा पढ़ने से। इसी प्रकार स्वयं के विचारों को प्रकट करने की प्रक्रिया भी दो प्रकार से होती है- एक बोलने से और दूसरी लिखने से ।
उक्त क्रम को ध्यान में रखकर हिन्दी शिक्षण को निम्न क्रम देना उचित होगा—
(i) शिक्षक का बोलना और छात्र का सुनना और समझना।
(ii) छात्र का अनुकरण करना और बोलने का अभ्यास करना।
(iii) छात्र का पुस्तक पढ़ना, शब्दावली, उच्चारण, शब्द- विन्यास ‘ के ज्ञान की वृद्धि करना, व्याकरण सीखना और भाषा समझने की योग्यता निर्माण करना ।
(6) निश्चित लक्ष्य का सिद्धान्त– किसी निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर पाठों का चयन किया जाता है। प्रत्येक पाठ का उद्देश्य अलग-अलग होता है। इसलिए शिक्षकों को हिन्दी भाषा की किसी अंग की शिक्षा देते समय उसके सामान्य और विशिष्ट उद्देश्यों को स्पष्ट करके आगे बढ़ना ही शिक्षण की सफलता होती है।
(7) चयन का सिद्धान्त– कोई भी भाषा पाठ पढ़ाते समय चयन के सिद्धान्त का उपयोग करना चाहिए। प्रथम अवस्था में पाठ के मुख्य तथ्यों का चयन करना आवश्यक है। द्वितीय अवस्था में पाठ के अन्य तथ्यों, जैसे- शब्दार्थ, रचना आदि की शिक्षा देनी चाहिए। चयन क्रम के अनुसार करना उपयुक्त होगा।
(8) रुचि या प्रेरणा का सिद्धान्त– आज की शिक्षा प्रणाली बालक के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर टिकी हुई है। कक्षा में बालक की रुचि किस विषय में है, किस पद्धति द्वारा सिखाने से बालक सीखने में प्रेरित होता है इसे अध्यापक को जान लेना अति आवश्यक है। बालक की मूल प्रवृत्तियों का अभ्यास शिक्षक को होना चाहिए क्योंकि बालक उन्हीं घटना तथा वस्तुओं में रुचि रखता है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबार्ट का कहना है कि “अध्यापक को बालकों की विभिन्न रुचियों का अभ्यास करना आवश्यक है । “
छात्रों में भाषा शिक्षा के प्रति रुचि तथा प्रेरणा निम्न विविध विधियों द्वारा निर्माण कर सकते हैं—
(i) प्रश्नोत्तर प्रणाली द्वारा प्रसंगानुसार प्रश्न पूछकर छात्रों में प्रेरणा निर्माण की जा सकती है।
(ii) पाठ को मूर्त बनाकर—पाठ को समझाने के लिए जीवन में प्राप्त पूर्वानुभवों का आधार लेकर शिक्षा देना ठीक होगा।
(iii) दृश्य-श्रव्य साधनों का उपयोग—उचित समय पर उचित साधन का पाठ में उपयोग करने से छात्र अभिरुचि निश्चित रूप से लेते हैं और उनके ध्यान का विचलन नहीं हो सकता।
(9) विभाजन का सिद्धान्त– हिन्दी शिक्षण में गद्य, पद्य, नाटक, कहानी, निबन्ध, व्याकरण आदि हर पाठ्य-विषय का सुगमता से कठिनता के क्रम में विभाजन होना चाहिए । पुस्तक का चयन करते वक्त सरल पाठ प्रथम तथा जटिल पाठ बाद में होने चाहिए। विविध पाठों का विभाजन बालक की कक्षा का स्तर, उसकी मानसिक योग्यता तथा रुचि के अनुसार करना उपयुक्त होगा।
(10) लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त– लोकतन्त्रीय वातावरण से शिक्षा प्रभावपूर्ण बन सकती है। कक्षा में लोकतंत्रीय वातावरण होना चाहिए। शिक्षक को छात्रों का मित्र और पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। उसे अपने प्रश्न पूछने, अपने विचारों को व्यक्त निवारण करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए। ऐसा करने से उसे छात्रों का सहयोग प्राप्त होगा और शिक्षण कार्य प्रगतिशील बनेगा।
(11) नियोजन का सिद्धान्त– किसी भी कार्य की सफलता नियोजन पर ही आधारित रहती है। अतः शिक्षण को सफल बनाने के लिए पाठ्य-विषय का पूर्व नियोजन करना आवश्यक है। किसी भी पाठ को पढ़ाने से पहले शिक्षक को यह निश्चित करना चाहिए कि उसे उसमें क्या पढ़ाना है, किस विधि को अपनाना है, किस सहायक सामग्री का उपयोग करना है? ऐसा न करने से अध्यापन के समय में संकट आ सकते हैं। पाठ नियोजन से समय की बचत होती है। व्यवस्थित और क्रमबद्धता से पढ़ाने में सहायता मिलती है ।
(12) निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का अनुकरण करने से तीन लाभ होते हैं—
(i)बालक अपनी रचनात्मक शक्ति का प्रयोग करता है,
(ii) उसमें स्वयं अध्ययन करने की इच्छा होती है,
(iii) क्रिया में उसकी शक्ति का क्षय अवश्य होता है, लेकिन मनोरंजन के कारण उसको इस बात का अनुभव नहीं होता। अतः शिक्षक को अपने शिक्षण निर्माण और मनोरंजन के सिद्धान्त का अनुसरण करना चाहिए ।
(13) आवृत्ति का सिद्धान्त– बार-बार दोहराने से अर्जित ज्ञान स्थायी बनाता है। आवर्तन से छात्र पाठ्य-विषय के सम्बन्ध में यह बात सत्य है। अगर उसे बार-बार नहीं दोहराया जाये तो छात्र उसे भूल सकते हैं। दोहराने की मात्रा पाठ पर निर्भर होनी चाहिए। पाठ – विषय को ध्यान में रखने के लिए आवृत्ति का होना अनिवार्य है।
उपर्युक्त सिद्धान्तों का उपयोग करने से भाषा शिक्षण उद्देश्यपूर्ण, सरल, सुगम एवं फलदायी हुए बिना नहीं रह सकेगा। इन सिद्धान्तों का उपयोग प्राथमिक कक्षाओं से ही करना चाहिए ।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *