विकाश एव फैसले उग्रवाद के बीच संबध
विकाश एव फैसले उग्रवाद के बीच संबध
संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान ने एक बार कहा था, “जब तक विश्व में असंख्य लोग पीड़ित एवं वचित हैं। तब तक कोई भी व्यक्ति सहज और सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता । ” अतः अविकसित समाज का कष्टपूर्ण तथा अभाव भरा जीवन निसंदेह आंतरिक सुरक्षा के ऊपर प्रभाव डालता है।
सामान्य शब्दों में हमारे देश में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं, जैसे-रोटी, कपड़ा और मकान, लोगों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। इन क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं, जैसे-सड़क, पीने का पानी तथा बिजली का अभाव है। ऐसे मामलों में आर्थिक असुरक्षा की भावना, अनेक प्रकार के अपराध तथा समाज विरोधी गतिविधियों को जन्म देता है ।
1.आर्थिक विकास – रोजगार प्रति व्यक्ति आय, औद्योगिक विकास।
2. सामाजिक विकास – स्त्री-पुरुष में समानता, महिला सशक्तिकरण, अनेकवाद, विविधता का आदर, बच्चों की शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा इत्यादि ।
3. राजनीतिक विकास – प्रजातंत्र, राजनीतिक अधिकार तथा नागरिक स्वतंत्रता |
4. मानव विकास – स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव अधिकार, आत्मविश्वास एवं सम्मानपूर्ण जीवन।
5. मूलभूत सुविधाओं का विकास – यातायात, संचार, बड़ी सड़कें, रेलवे की सुविधा, टेलीफोन की सुविधा, फाइबर ब्रॉडबैंड नेटवर्क।
6. दीर्घकालिक विकास पारिस्थितिक सुरक्षा, वायुमंडल सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण |
7. प्रशासनिक विकास- सुशासन, समय पर आम सुविधाओं की उपलब्धता, सरकार में जनभागीदारी, पारदर्शिता, जिम्मेदारी व जनहित हिताय शासन । विकास के विभिन्न कारकों के बीच असंतुलन समस्याओं को उग्रवाद की तरफ ले जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जनजातीय क्षेत्रों में, अगर खदान खोदने और सड़क / रेल मार्ग के विकास को ही प्रगति का पैमाना माना जाता रहा और अस्पताल एवं स्कूल जैसी सामाजिक आधारभूत संरचनाओं का निर्माण नहीं किया गया, तो जनजातियों के लोग अपने आप को शोषित हुआ महसूस करेंगे। जनजातियों में अपने प्रति इस उपेक्षा को लेकर रोष उत्पन्न होगा, जिसका फायदा उठाते हुए नक्सली उन्हें अपने संगठन में भर्ती कर सकते हैं।
उग्रवाद के बढ़ने के कारण
1. जल-जंगल-ज़मीन: सदियों पुराने आदिवासी – वन संबंध में रुकावट, पारंपरिक भूमि अधिकारों का हनन, बगैर- उपयुक्त भरपाई तथा पुनर्स्थापन के भूमि अधिग्रहण करना।
2. आर्थिक मामले: बेरोजगारी, गरीबी मूलभूत सुविधाओं, जैसे- यातायात के साधनों, चिकित्सा सुविधाओं, शिक्षा, संचार तथा बिजली का अभाव और अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई। “
3. सामाजिक मामले: सामाजिक असमानता, मानव अधिकारों का हनन, प्रतिष्ठापूर्ण जीवन पर आघात।
4. राजनीतिक मामले: सरकार में जनभागीदारी का अभाव ।
5. सुशासन का अभावः अच्छे प्रशासन का अभाव, दूर-दराज के क्षेत्रों में सरकारी तंत्र का अभाव, कमजोर कानून अनुपालन, सरकारी योजनाओं का कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार।
6. जाति संबंधी
7. भौगोलिक मामले
8. ऐतिहासिक मामले
प्रथम तीन कारण विकास के अभाव से जुड़े हैं जो उग्रवाद को सीधे तौर पर बढ़ावा देते हैं। चौथे तथा पांचवें कारणों को मूल कारण नहीं कहा जा सकता, परंतु ये ऐसे विषय हैं जो पहले से विद्यमान उग्रवाद की भावनाओं को हवा देते हैं और इसी भावना को उग्रवादी अपनी उग्र विचार धारा को फैलाने में उपयोग करते हैं। छठे, सातवें एवं आठवें कारण विकास से जुड़े नहीं हैं और इनकी जड़ इतिहास, भूगोल तथा जाति व्यवस्था में है।
विकास से जुड़े कारण, जो भारत में उग्रवाद को फैलाने में सहायक हैं
किसी खास क्षेत्र में आतंकवाद के फैलाने के लिए कुछ सहायक एवं उपयुक्त आधार होना चाहिए। गरीबी, बेरोजगारी तथा विकास का अभाव ऐसे कारण हैं जो इन्हें उपयुक्त वातावरण देते हैं। आतंकवाद के साथ एक विचारधारा का होना आवश्यक होता है जो धर्म, जाति तथा क्षेत्र के नाई जाती है। यह विचारधारा माओवादियों की विचारधारा की तरह एकसमान समाज की स्थापना की भी हो सकती है। जब उपयुक्त वातावरण एवं खास विचारधारा मिल जाती है तब सुशासन के अभाव से उत्पन्न प्रशासनिक अक्षमता एवं राजनीतिक पहलुओं की विचारधारा के कठोर समर्थक उस क्षेत्र के नौजवानों को गुमराह एवं अतिवादी बनाने में उपयोग करते हैं। इसलिए विकास के अभाव का उग्रवाद के साथ सीधा एवं प्रत्यक्ष संबंध है।
1. जल-जंगल-जमीन ( सदियों पुराने आदिवासी-वन संबंधों में रुकावट)
‘अगर आदिवासियों की राय लिये बगैर विकास के खास ‘मॉडल’ को उन पर थोपा गया तो वे अपने को इन सबसे अलग-थलग महसूस कर सकते हैं। आधुनिक विकास का ऐसा मॉडल आदिवासियों पर थोपा जाना, उन मुख्य कारणों में हैं, जिनके चलते ही मध्य भारत में नक्सलियों को जनजातियों का समर्थन मिलता है। “
सदियों से आदिवासियों का वन के साथ सहवर्ती संबंध है जो उनका स्वाभाविक घर-संसार है परंतु आधुनिक कानून तथा सरकारों ने विगत सदी के दौरान आदिवासियों के वन के साथ सदियों पुराने संबंध को बदल दिया है। वन अधिनियम 1927, वन संरक्षण अधिनियम-1980 के साथ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश तथा अनेक विकास संबंधी गतिविधियाँ, जैसे- खनन, विद्युत परियोजना तथा औद्योगिकीकरण ने आदिवासियों को उनकी मूलभूत जीवन यापन की सुविधा से वंचित कर दिया है। इसमें वन संरक्षण अधिनियम-1980 सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस अधिनियम के अनुसार आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों को कम कर दिया गया है जिससे अब वे अपने जीवन यापन के लिए वन के ऊपर निर्भर नहीं रह सकते। इसके फलस्वरूप आदिवासियों के जीवन यापन के स्रोत को उनसे छीन लिया गया है जिसकी भरपाई उस स्थान पर किए गए विकास कार्यों से भी नहीं की जा सकती है। अब उनके पास न तो मूलभूत सुविधाएं (यातायात, संचार, बिजली) है और न ही विकास के कारण उन्हें कोई आर्थिक लाभ मिला है जिससे वे गरीबी से छुटकारा पा सके। इससे आदिवासियों के बीच एक गंभीर आक्रोश तथा पिछड़ेपन की भावना पैदा हुई है। इसलिए वे आसानी से उग्रवाद समर्थकों द्वारा की जा रही भर्तियों का शिकार हो जाते हैं। इसलिए आदिवासियों को खनन तथा औद्योगिक विकास से मिले लाभ में भागीदार बनाया जाना चाहिए।
अतः वामपंथी उग्रवादियों के लिए आदिवासियों की आबादी से भरा क्षेत्र सबसे आसान लक्ष्य है। कुप्रशासन तथा विभिन्न सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों से आदिवासियों को बहकाकर नक्सलवादी आंदोलन का हिस्सेदार बनाया जाना आसान हो गया है।
2. आर्थिक मामले
गरीबी बेरोजगारी तथा शिक्षा के अभाव को उग्रवाद का मूलभूत कारण माना जाता रहा है। गरीबी तथा बेरोजगारी के बारे में यह बताया जाता है कि यह निराशा एवं हताशा को जन्म देता है। आर्थिक रूप से कमजोर परिस्थिति आर्थिक अवसर के अभाव की ओर इशारा करती है जिसके फलस्वरूप सकारात्मक रोजगार पाने के अवसर बाधित हो जाते हैं। नौजवानों में बेरोजगारी उन्हें उग्रवाद की ओर धकेलती है। इसलिए यह आश्चर्य कि बात नहीं है कि आधुनिक युग में आतंकवाद का जन्म स्थल अफगानिस्तान, यमन, सोमालिया, पाकिस्तान एवं इंडोनेशिया है जो विश्व में सबसे गरीब तथा भ्रष्ट देशों में गिने जाते हैं। गरीबी तथा बेरोजगारी से आक्रोश, निराशा, क्रोध तथा अन्याय की भावना पैदा होती है जो नौजवान पुरुष एवं महिलाओं के दिमाग में आग लगाने का कार्य करता है। इन नौजवान दिमागों को हथियार उठाने के लिए आसानी से गुमराह किया जा सकता है। समाज के ऐसे भाग जिनके पास उच्च आय के स्रोत हैं उनमें आर्थिक कार्य कलापों के कई स्रोत उपलब्ध हैं। ऐसे समाज के आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आसार बहुत कम हैं। अत्यधिक बेरोजगारी तथा अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई भी आतंकवादी संगठनों के लिए शिक्षित बेरोजगार नौजवानों को, जो प्रभावशाली तथा घातक हमले करने में सक्षम है, भर्ती करना अत्यंत आसान बना देता है।
3. सामाजिक मामले
समाज के कुछ भागों में गंभीर सामाजिक दरार तथा बहिष्कृत एवं हासिये पर होने का मलाल भी उग्रवाद की ओर जाने के लिए प्रेरित करता है। इसके अतिरिक्त, आर्थिक विकास तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की वंचनीय स्थिति और निराशा भी उग्रवाद को बढ़ावा देती है।
‘भारत के पूर्वोत्तर में कई आदिवासी इसलिए भी उग्रवाद का समर्थन करते हैं कि उन्हें लगता है कि देश के अन्य भागों से आने वाले अप्रवासियों की वजह से उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान पर खतरा उत्पन्न हो गया है। “
4. राजनीतिक मामले
राजनीतिक कारणों से भी अप्रत्यक्ष रूप से उग्रवाद को बढ़ावा मिलता है। ऐसी जगह जहां मानवाधिकार तथा प्रजातांत्रिक मूल्यों का अभाव है, असंतुष्ट समूह हिंसा की ओर प्रेरित हो जाते हैं। नागरिक स्वतंत्रता तथा राजनीतिक अधिकारों के ऊपर कड़ी कानूनी पाबंदी उग्रवाद को हवा देने का कार्य करती है। नागरिक अधिकारों में अभिव्यक्ति, संगठन, आवाजाही की स्वतंत्रता एवं धार्मिक स्वतंत्रता, कार्य प्रक्रिया अधिकार, सरकार के अनुचित अधिकार प्रयोग के विरुद्ध नागरिकों की सुरक्षा, बहुसंख्यकों के शासनकाल के दौरान अल्पसंख्यकों के मूलभूत अधिकारों के ऊपर आघात से सुरक्षा का अधिकार शामिल है। राजनीतिक अधिकार का अर्थ ऐसे नियम एवं तंत्र (स्वतंत्र एवं स्वच्छ चुनाव) के मौजूद होने का है, जिसमें आम व्यक्ति तथा समुदायों को राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेकर सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाना है। इन्हीं राजनीतिक कारणों से आतंकवादी संगठनों द्वारा शिक्षित बेरोजगार नौजवानों को भ्रमित कर अपनी विचारधारा की ओर आकर्षित किया जाता है।
5. सुशासन का अभाव
ऐसे स्थानों को जहां पर कमजोर सरकारी तंत्र है या नहीं के बराबर तंत्र है, उग्रवादी अपने सुरक्षित किले के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ऐसे स्थान पर आम समुदाय भी सरकार की उदासीनता के कारण उग्रवाद को सक्रिय या अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं। ऐसे स्थानों पर सुरक्षा तथा कानून पालन के तंत्र के अभाव में उग्रवादियों के लिए अपनी शासन व्यवस्था लागू कर स्थानीय आबादी से पैसे ऐंठना तथा कैडर भर्ती करना आसान होता है।
जहां तक उग्रवाद तथा शासन के बीच संबंध का प्रश्न है, सफल प्रजातंत्र देश के अंदर असफल कार्यक्रम संबंधी राजनीतिक फीडबैक पाकर अंतद्वंद्व को प्रभावशाली ढंग से निपटाता है तथा निवारण संबंधी कार्रवाई करता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, भारत में कई वर्षों से सरकार ने इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाए हैं। सरकार द्वारा उत्तर- – पूर्व तथा दंडकारण्य क्षेत्र के आदिवासियों की विधिसंगत समस्याओं की अनदेखी की गई है। एक ऐसा समाज, जो सुशासन के सिद्धांतों का आदर नहीं करता, जो पारदर्शी या उत्तरदायी नहीं है तथा जो विधि के नियम का पालन नहीं करता, के लिए दीर्घकालिक विकास कठिन होता है, क्योंकि सुशासन तथा संघर्ष के बीच का संबंध स्पष्ट है, इसलिए विकास को भी संघर्ष तथा आतंकवाद के साथ जोड़कर देखा जाता है। दीर्घकालिक विकास के लिए सुशासन आवश्यक है जिससे संघर्ष एवं आतंकवाद को यदि रोका न जा सके तो भी इनका निपटारा करना आसान होता है। 1
6. त्रि- संगम सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार ऐसे क्षेत्र जहां तीन राज्यों की सीमाओं का संगम है, वहां पर शासन का अभाव है। इस क्षेत्र में यातायात, संचार नेटवर्क तथा मूलभूत सुविधाओं का अभाव होता है, जिसका फायदा उग्रवादी उठाते हैं। यहां उग्रवादियों के लिए सबसे लाभप्रद स्थिति यह है कि पुलिस व्यवस्था अपने राज्य की सीमाओं तक प्रतिबंधित होती है इसलिए उग्रवादी एक राज्य में आतंक की कार्रवाई के बाद दूसरे राज्य में शरण ले लेते हैं। दंडकारण्य जो देश के अंदर माओवाद से सबसे ज्यादा प्रभावी क्षेत्र है, इस सिद्धांत का सबसे बड़ा उदाहरण है।
सारांश
आतंकवाद के लिए कुछ आधार, विचारधारा और कुछ काल्पनिक लक्ष्य जरूरी होता है जिससे वह समाज के कुछ लोगों में, खासकर नौजवानों के दिमाग में रोमांचक भ्रांति पैदा करता है। कभी-कभी वे यथार्थ समस्या, जैसे- गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि का भी इस्तेमाल कर अपने उद्देश्य पूर्ति के लिए लोंगो को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। कभी-कभी इस प्रोपोगंडा का शिकार स्वतंत्र बुद्धिजीवी व अच्छे लोग भी हो जाते हैं जो सच्ची प्रकृति को समझ नहीं पाते जो इस विचारधारा हिंसा को बढ़ावा देती हैं तथा अपने समर्थकों के अतिरिक्त सभी लोगों को मार देने में विश्वास रखती है। कभी-कभी अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए वे असत्य बातों का सहारा लेते हैं, परंतु इस आंदोलन की जड़ में समाज में आर्थिक एवं सामाजिक विकास का अभाव ही प्रबल है। देश के उत्तर-पूर्व के विद्रोही आंदोलन तथा वाम-चरमपंथी की समस्या का यही प्रमुख कारण है।
इस संबंध में जम्मू कश्मीर एक उदाहरण है जहां पर निम्न विकास उग्रवाद की जड़ में नहीं है। यहां ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा धार्मिक कारण मुख्य है। उत्तर-पूर्व में निम्न विकास की उग्रवाद की समस्या को फैलाने में प्रमुख भूमिका रही है परंतु उग्रवाद के पीछे यही एकमात्र कारण नहीं है। यहां जनजाति के साथ-साथ ऐतिहासिक तथा भौगोलिक मुख्य कारण है।
उग्रवाद को कम करने में सामाजिक आर्थिक विकास का सकारात्मक प्रभाव
सामाजिक तथा आर्थिक विकास नीतियों की शांति एवं स्थिरता बनाए रखने में अहम भूमिका है। समाज के विकसित वर्ग स्वयं ही उग्रवाद को समर्थन रोकने हेतु कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं जिससे आतंकवादियों को अपने कैडर हेतु नई भर्ती करने में कठिनाई होती है। कई आतंकवादी संगठन ऐसे समुदायों से नए सदस्यों को आकर्षित करते हैं, जिसमें अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु सामान्य तौर पर आतंकवाद का रास्ता ही आसान दिखाई देता है। कुछ आतंकवादी संगठन नए सदस्य बनाने हेतु आर्थिक सहायता के अतिरिक्त परिवार को सुरक्षा भी देते हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक तथा आर्थिक नीतियाँ ही लोगों की समस्याओं को निपटाकर तथा समुदायों को आतंकवाद के विरुद्ध एक स्वस्थ विकल्प देकर लोगों को आतंकवाद की ओर आकर्षित होने से रोक सकती हैं। उग्रवाद को रोकने हेतु विकास की नीतियों की सफलता उसके अनुपालन पर निर्भर करती है। इस संदर्भ में सफल सामाजिक तथा आर्थिक विकास नीतियाँ वे हैं जो:
1. समुदाय के नेताओं के साथ विचार-विमर्श के बाद बनाई जाती है।
2. आवश्यकता एवं मूल्यांकन पर आधारित और जो लक्षित समुदाय की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु बनाई गई है।
3. ऐसी वितरण प्रणाली की व्यवस्था जिसमें निष्पक्षता एवं समुचित वित्तीय प्रबंधन सुनिश्चित हो ।
सामाजिक तथा आर्थिक विकास नीतियों को आतंकवाद को रोकने हेतु एक ‘छड़ी’ के रूप में उपयोग किया जा सकता है। विकास से जुड़ी राशि को हिंसा से दूर रहने की शर्त पर वितरण किया जा सकता है जिसे उग्रवाद को रोकने के लिए इसे एक ‘छड़ी’ के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
हमारे यहां त्रिपुरा, मिजोरम तथा उत्तर-पूर्व क्षेत्र के अन्य भागों का ऐसा उदाहरण है जहां ठोस विकास के द्वारा बढ़ते उग्रवाद पर सफलतापूर्वक अंकुश लगाया गया है।
आदिवासी आबादी के लिए संवैधानिक तथा वैधानिक सुरक्षा
1. संविधान की 5वीं अनुसूची में संक्षेप में यह बताया गया है कि देश के अनुसूचित भाग जहां आरक्षित वन में अनुसूचित जनजाति प्रवास करती है, ऐसे क्षेत्र को राज्य के राज्यपाल द्वारा संगठित ऐसी जनजाति सलाहकार समिति, जिसमें अनुसूचित भाग या उस खास आरक्षित वन समुदाय के सदस्य शामिल हैं, द्वारा प्रशासित किया जाएगा। दुर्भाग्यवश भारत में ऐसा नहीं हुआ है। इसके विपरीत खनन के लिए वनों को पट्टे पर दे दिया गया है जिससे जनजाति समुदायों को अपने घर का त्याग करना पड़ा है। 1.
2. संविधान की 9वीं अनुसूची में यह प्रावधान है कि ऐसी खेती लायक जमीन जिस पर हजारों वर्ष से उच्च जाति का कब्जा है, को सरकार द्वारा वापस लेकर भारत के भूमिहीन लोगों को वितरित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि भूमि राजस्व राज्य का विषय है, इसलिए इस संबंध में राज्यों को भूमि सीमा कानून बनाकर जमीनदारों से जमीन हासिल कर भूमिहीन किसानों, जो सदियों से जमीनदारों के खेतों में काम करते आए हैं, को वितरण करना था। दुर्भाग्यवश इस संबंध में तीन राज्यों जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल तथा केरल ने ही 1955 तक इस संवैधानिक व्यवस्था पर भूमि सीमा कानून बनाकर इसे लागू किया था। पश्चिम बंगाल में, जोतदारों, (जमींदारों) ने सरकार तथा भूमिहीन किसानों को भूमि संबंधी कागजातों में हेराफेरी कर ठगने का प्रयास किया। जिसके फलस्वरूप नक्सलवादी गांव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एमएल) के नेतृत्व में एक विद्रोह की शुरुआत हुई। केरल में गैर- पहाड़ी जिलों में भूमि सीमा कानून को सफलतापूर्वक लागू किया गया जिससे माओवादियों को वहां आंदोलन करने में सफलता नहीं मिली।
3. पेसा (Panchayats Extension to Scheduled Areas ) अधिनियम 1996 राजनीतिक रूप से यह अधिनियम आदिवासी समुदाय को प्रशासन में सशक्त अधिकार प्रदान करता है तथा स्थानीय प्राकृतिक स्रोतों पर इस समुदाय के परंपरागत अधिकार को मानता है। यह अधिनियम न केवल आदिवासी समुदाय के रीति-रिवाज, सामाजिक तथा धार्मिक व्यवहार और सामुदायिक स्रोतों का परंपरागत प्रबंधन स्वीकार करता है, बल्कि राज्य सरकारों को इस व्यवस्था के प्रतिकूल नियम न बनाने हेतु भी निर्देश देता है। समुदाय के लिए एक स्पष्ट भूमिका को स्वीकार करते हुए यह अधिनियम स्थानीय ग्राम सभा को विस्तृत अधिकार प्रदान करता है जिससे देश के विधि निर्माताओं द्वारा आज तक उन्हें वंचित रखा गया था।
तथापि यथार्थ स्थिति बहुत भिन्न है जिसमें पेसा को एक कागजी शेर बना दिया गया है जिसके लिए दो कारण प्रमुख हैं। पहला, आदिवासी समुदाय के प्रति सरकारी तंत्र का तिरस्कारपूर्ण रवैया तथा दूसरा, राज्य सरकार के अन्य कई कानून जो पेसा अधिनियम के विरुद्ध है।
पेसा अधिनियम ग्रामीण इलाकों के लिए है। शहरी अनुसूचित क्षेत्रों के लिए इस प्रकार की समान विधि व्यवस्था के बारे में चर्चा तक नहीं की गई है। इस स्थिति का फायदा उठाते हुए राज्य सरकार आदिवासी क्षेत्रों में खनन एवं उद्योग के लिए तत्काल अनुमति दे रही है। यह कार्य करने की प्रक्रिया बहुत ही साधारण है – पेसा के प्रावधानों, जो किसी योजना के लिए ग्रामीण समिति से सहमति लेना अनिवार्य बनाते हैं, को नकारने के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में स्थित ग्रामीण पंचायत को शहरी पंचायत में परिवर्तित कर दिया जाता है।
विगत कुछ वर्षों के दौरान 600 से ज्यादा ग्रामीण पंचायतों को, जिसमें अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र में स्थित है, को शहरी स्थानीय क्षेत्र का दर्जा दे दिया गया
है तथा इन परिवर्तित क्षेत्रों में कई बड़े औद्योगिक निवेश की योजना है।
4. वन अधिकार अधिनियम 2006 : इस अधिनियम में अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत रूप से रहने वाले समुदायों, जो कई पीढ़ियों से वनों में रहते आ रहे हैं, परंतु उनके अधिकार को स्वीकार नहीं किया गया, उनके वन में रहने के अधिकार को माना गया है। यह अधिनियम जीवनयापन के लिए वन के ऊपर निर्भर समुदायों के भूमि अधिकार को सुरक्षित कर उनकी स्थित को सुधारने के लिए एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है। इस नियम के बनने से पहले ऐसे लगभग 40 लाख आदिवासी लोग थे जिन्हें अपनी भूमि के ऊपर कानूनी अधिकार नहीं था ।
“वन अधिकार अधिनियम का पूर्ण लाभ अभी तक आदिवासियों द्वारा जमीन पर नहीं उठाया जा सका है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह वन विभाग है जो वन विभाग की ‘आदिवासी विरोधी मानसिकता’ की वन अधिकार अधिनियम और आदिवासियों की शिकायत का प्रबंधन करता है । “
इस अधिनियम को प्रभावशाली रूप से लागू करने में कुछ प्रमुख अड़चने हैं, जैसे-अधिकांश दावों को अस्वीकार करना, समुदायों के अधिकार तथा खासकर पीवीटीजी के प्रवास अधिकार को मान्य बनाने में अपर्याप्त सफलता, पंचायत स्तर पर ग्राम सभा की बैठकों का आयोजन, खास साक्ष्य की मांग, दावों को अस्वीकार कर सूचना नहीं भेजना तथा अपर्याप्त जानकारी।
5. अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार विरोधी अधिनियम 1989: 30 जनवरी, 1990 को इस कानून को बनाने का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जाति / जनजाति के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार को रोकना, ऐसे अपराधों के लिए विशेष न्यायालय की व्यवस्था करना, पीड़ितों को मदद देना तथा उनका पुनर्वास करना तथा इससे संबंधित विषयों का निपटारा करना था।
6. नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम ( भूमि अधिग्रहण उचित मुआवजा और पुनर्वास अधिकार पारदर्शिता अधिनियम 2013 ) में भारत में रहने वाले प्रभावित लोगों को मुआवजा देना और उनका पुनर्वास शामिल है। इस अधिनियम में जिस व्यक्ति से भूमि अधिग्रहण की जाती है उन्हें उचित मुआवजा देने का, उद्योग या मकान या अन्य सुविधाएं प्रदान करने हेतु बनी योजना लिए भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना तथा प्रभावित व्यक्तियों का पुनर्वास करने का प्रावधान है। आधुनिक भारत में नागरिक – व्यक्तिगत साझेदारी योजना द्वारा विस्तृत तौर पर औद्योगिकीकरण की योजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण हेतु बनाए गए नियमों को यह अधिनियम बल प्रदान करता है ।
“नया भूमि अधिग्रहण कानून एक लोक-समर्थक और प्रगतिशील कानून है। हालांकि, कई राज्य सरकारों ने निजी निवेशकों और विदेशी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए इस अधिनियम के प्रावधानों को लचीला कर दिया है। ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ को बढ़ाने के प्रयास में आदिवासियों और किसानों के अधिकारों को दरकिनार किया जा रहा है ” ।
क्या किया जाना चाहिए?
हमारा उद्देश्य अत्यंत गरीबी तथा बढ़ती बेरोजगारी को समाप्त कर वामपंथी उग्रवाद को खत्म करना है। नौजवान पुरुष तथा महिलाओं के दिमाग में आक्रोश, क्रोध तथा निराशा का एक मिश्रित हिंसक भाव पैदा हो जाता है। जो इस विकट परिस्थिति से निकलने के प्रति आशान्वित नहीं होते हैं, हाशिए पर रह रहे लोगों को वैश्विक आर्थिक मुख्यधारा में शामिल करने हेतु विकास का उद्देश्य गरीबी को दूर करना, एकीकृत समाज को बढ़ावा देना तथा सामाजिक न्याय देने हेतु निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए:
1. संघर्ष प्रभावित समुदायों की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा कर उनकी स्थानीय परंपराओं एवं भावनाओं के प्रति संवेदनशील बनाना।
2. समुदाय विकास, सुशासन सेवा प्रदान करना, मानव अधिकार तथा राजनीतिक समस्याओं का निवारण जैसे विषयों पर जोर दिया जाना चाहिए।
3. सुरक्षात्मक विधियों का प्रभावशाली अनुपालन।
4. निष्कर्ष निकालने हेतु लगातार बातचीत।
5. मूलभूत सुविधाओं को सुधारने पर ज्यादा से ज्यादा निवेश।
6. आदिवासी अधिकारों की सुरक्षा ।
7. ऐसे इलाकों में निवेश को बढ़ाने हेतु कर में छूट देकर रोजगार अवसरों को बढ़ाना।
8.सामाजिक सुरक्षा तथा जीवन-यापन सुरक्षा को सुनिश्चित करना।
9. शिक्षा एवं खाद्य सुरक्षा |
10. भूमि सुधार तथा मूलभूत सुविधाओं से संबंधित योजनाओं का समान वितरण ।
11. उग्रवादियों के साथ सार्थक बातचीत।
12. लोकहित।
13. भ्रष्टाचार विरोधी प्रयास ।
14. राजनीतिक वंचन, सामाजिक पक्षपात, सांस्कृतिक अपमान, सरकारी तंत्र द्वारा हिंसा, मानवाधिकार का उल्लंघन तथा सामाजिक अत्याचार को खत्म करना ।
15. श्रम कानून का प्रभावशाली अनुपालन तथा न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करना।
Note: – यह नोट्स ऑनलाइन PDF फाइल से लिया गया हैं !!!!
Credit – Ashok Kumar,IPS
Credit – Vipul Anekant, DANIPS
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here