विज्ञान शिक्षण की किन्हीं दो शिक्षण पद्धतियों का उल्लेख कीजिए ।
विज्ञान शिक्षण की किन्हीं दो शिक्षण पद्धतियों का उल्लेख कीजिए ।
उत्तर— विज्ञान शिक्षण की शिक्षण विधियाँ–निम्नलिखित हैं–
1. प्रयोगशाला विधि–प्रयोगात्मक विधि उस विधि को कहते हैं जिसमें बालक ज्ञान को अपने प्रयासों की सहायता से प्रयोग द्वारा स्वयं प्राप्त करता है। इस विधि में करके सीखने के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया जाता है। अतः प्रयोगात्मक विधि द्वारा शिक्षण करते समय शिक्षक बालकों के मस्तिष्क में ज्ञान को बलपूर्वक नहीं ढूँसता अपितु उन्हें उन्हीं के प्रयासों की सहायता से प्रयोग द्वारा नवीन ज्ञान को खोजने की प्रेरणा देता है। इस दृष्टि से इस विधि में शिक्षक का कार्य केवल इतना ही है कि वह किसी अमुक प्रयोग का खाका तैयार करे तथा पथ-प्रदर्शक के रूप में बालकों के अन्दर इतनी जिज्ञासा जागृत कर दे कि वे प्रयोग द्वारा केवल नवीन ज्ञान को स्वयं प्राप्त कर लें। स्मरण रहे कि जब तक शिक्षक को प्रयोगशाला की आवश्यक साज-सज्जा तथा उसके उचित प्रयोग का ज्ञान नहीं होगा तब तक इस विधि का सही प्रयोग नहीं कर सकेगा । अतः शिक्षक को प्रयोगशाला के विभिन्न यन्त्रों, औजारों तथा अन्य आवश्यक सामग्री से पूर्णरूपेण परिचित होने के साथ-साथ इन सभी के उचित प्रयोग करने का ज्ञान भी होना परम आवश्यक है।
प्रयोगशाला विधि के गुण–निम्नलिखित हैं—
(1) मनोवैज्ञानिकता–यह विधि मनोवैज्ञानिक नियमों पर आधारित है। इसमें बाल1-केन्द्रित उपागम (Child-Centred approach) के अनुरूप शिक्षा दी जाती है। इसमें बालकों की स्वाभाविक रुचियों, मनोवृत्तियों को ध्यान में रखा जाता है।
(2) कार्यकुशलता एवं दक्षता–इस विधि में छात्र अपने हाथों से कार्य करते हैं, इसलिए उनमें उपकरणों को सावधानीपूर्वक प्रयोग करने की क्षमता तथा प्रयोगशाला कुशलता स्वतः आ जाती है।
(3) अच्छे गुणों के विकास में सहायक–इस विधि में छात्र स्वयं अपने हाथों से कार्य करते हैं, इसलिए उन्हें हाथ से काम करने की आदत पड़ जाती है।
(4) शिक्षक छात्र सम्बन्ध–इस विधि में छात्रों को भौतिक शिक्षक समय-समय पर आवश्यकतानुसार परामर्श एवं सहायता प्रदान करता रहता है।
(5) स्पष्ट एवं स्थिर ज्ञान की प्राप्ति–इस विधि में छात्र अधिक से अधिक अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग करते हुए स्वयं प्रत्यक्ष अनुभवों एवं प्रयोगों द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार प्राप्त ज्ञान स्पष्ट एवं स्थायी होता है।
प्रयोगशाला विधि के दोष–निम्नलिखित हैं—
(1) विषय की आंशिक उपयोगिता–यह आवश्यक नहीं है कि सामान्य विज्ञान के सभी प्रकरणों का ज्ञान इस विधि द्वारा सही तरह से दिया जा सके। कुछ ही प्रकरण ऐसे हैं जिन्हें प्रयोग द्वारा परखा जा सकता है या इसके द्वारा पढ़ाए जा सकते हैं।
(2) अधिक अध्यापकों की आवश्यकता–इस विधि के द्वारा 60-80 छात्रों की लम्बी-लम्बी कक्षाओं में पढ़ाना बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि इसमें अध्यापक छात्रों को व्यक्तिगत रूप से मार्ग-दर्शन देता है।
(3) समय का अपव्यय–इस विधि में प्रयोगों को करने, उसकी सत्यता को परखने इत्यादि सभी क्रियाएँ बहुत धीरे-धीरे सम्पन्न होती हैं। इससे परिश्रम के साथ-साथ समय भी अधिक लगता है। इस विधि द्वारा निश्चित समय में पाठ्यक्रम समाप्त नहीं हो पाता, अत: इसमें शिक्षक एवं छात्र दोनों के समय का अपव्यय होता है।
(4) प्रयोगशाला की समस्या–इस विधि से पढ़ाने में स्कूलों में आवश्यक सामान से युक्त एवं अच्छी भौतिकी प्रयोगशाला की आवश्यकता होती है। छात्र स्वयं अपने हाथों से कुछ ही सामग्री तैयार कर सकते हैं, ‘अधिकांश सामग्री बाजार से खरीदनी पड़ती है। इसलिए भारतीय परिवेश के अधिकांश विद्यालयों में धन की व्यवस्था जुटाना एक बड़ी समस्या बन जाती है।
(5) मानसिक विकास में कम सहायक–इस विधि में छात्रों की तर्कशक्ति, विचार शक्ति एवं चिन्तन शक्ति का अच्छी तरह विकास नहीं होता। प्रयोगों के द्वारा छात्रों में तथ्यों का ज्ञान तो हो सकता है।
प्रयोगशाला विधि में आने वाली कठिनाइयाँ–प्रयोगशाला में शिक्षण कार्य को सफल बनाने के लिए जिस विधि का उपयोग होता है, उसे प्रयोगशाला विधि कहते हैं। इस विधि के अन्तर्गत छात्र प्रयोगशाला में अनेक प्रकार के प्रयोग स्वयं करते हैं और अपने अवलोकन के आधार पर परिणाम निकालते हैं। इस विधि में विद्यार्थी पूर्ण रूप से सक्रिय रहता है। इस विधि के उपयोग में एक कठिनाई यह है कि सभी धारणाओं का शिक्षण इस विधि से करना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस विधि को अपनाते समय भारतीय परिवेश में अध्यापक को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जो निम्न प्रकार हैं—
(1) विद्यालयों में उपकरणों की कमी है और प्रयोग करते समय प्रत्येक विद्यार्थी को अलग-अलग उपकरणों की आवश्यकता होती है ।
(2) सभी छात्रों द्वारा इस विधि का प्रयोग करना कठिन है। केवल बुद्धिमान छात्र ही इसका उपयोग कर सकते हैं।
(3) इस विधि में समय बहुत अधिक लगता है अतः पाठ्यक्रम निश्चित समय में पूरा नहीं हो पाता।
(4) इस विधि के उपयोग के लिए बहुत स्वतन्त्रता आवश्यक है। समय, पाठ्यवस्तु और पाठ्यचर्या की सीमाओं में छात्र बंध कर कार्य नहीं कर सकते।
2. प्रदर्शन विधि–प्रदर्शन विधि में अध्यापक कक्षा शिक्षण के समय स्वयं प्रयोग प्रदर्शित करता है। यदि किसी वस्तु के विषय में उसकी संरचना, कार्य आदि की जानकारी देनी हो तो उस वस्तु को वास्तविक रूप से और यदि यह संभव न हो तो वस्तु का मॉडल प्रतिरूप, प्रदर्शित करता है। विद्यार्थी कक्षा में ही प्रयोग, वस्तु या नमूने देखते हुए ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस तरह से वे विषय वस्तु के बारे में कानों से सुनते हैं और आँखों से प्रत्यक्ष अनुभव ग्रहण करते हैं तथा यदि प्रदर्शन कार्य में छात्रों को भी सम्मिलित किया जाए तो क्रियात्मक अनुभव भी प्राप्त करते हैं। अतः शिक्षण सिद्धान्तों के अनुसार अधिकतम स्थाई ज्ञान प्राप्त करते हैं। शिक्षक छात्रों की योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार कुछ छात्रों से प्रदर्शन कार्यों में सहयोग ले सकता है, जिससे छात्रों में अधिक उत्साह व रुचि उत्पन्न होती रहे।
प्रदर्शन विधि के विभिन्न पद–सामान्य विज्ञान शिक्षक को कक्षान्तर्गत प्रदर्शन कार्य किस प्रकार करवाना है इसकी जानकारी होना आवश्यक है। इस विधि के प्रभावी सम्पादन के लिए निम्नलिखित पदों (Steps) में कार्य किया जाना चाहिए—
(1) शिक्षक द्वारा तैयारी तथा आयोजना–शिक्षक से अपेक्षित है कि वह कक्षा में प्रदर्शन करने से पूर्व समस्त तैयारी कर ले ।
शिक्षक को प्रदर्शन से सम्बन्धित पक्षों की तैयारी करनी चाहिए—
(i) विषय-वस्तु की तैयारी ।
(ii) प्रदर्शन योजना का निर्माण (पूछे जाने वाले प्रश्नोत्तर सहित)
(iii) प्रदर्शन कार्य का पूर्ण अभ्यास।
(iv) विभिन्न वस्तु, उपकरण एवं सामग्री को एकत्रित कर उन्हें व्यवस्थित करना ।
प्रदर्शन कार्य की सफलता सुनिश्चित करने के लिए शिक्षक को चाहिए कि वह पाठ्य पुस्तकों, सहायक पुस्तकों या संदर्भ पुस्तकों की सहायता से विषय-वस्तु की अच्छी तैयारी कर ले। इसके उपरांत प्रदर्शन कार्य की योजना तैयार करे। योजना में छात्रों की योग्यता व कालांश के समय को ध्यान में रखते हुए पढ़ाये जाने वाले सिद्धान्तों या प्रदर्शित वस्तु या प्रयोग व पूछे जाने वाले प्रश्नों का उल्लेख अपनी योजना में अवश्य करे । तदुपरांत प्रदर्शन कार्य के लिए आवश्यक वस्तुओं, उपकरणों एवं सामग्री की व्यवस्था कर प्रयोग प्रदर्शन का पूर्व अभ्यास कर लेना चाहिए। ध्यान रहे कि अभ्यास उन्हीं परिस्थितियों में करना है जो कक्षा में प्रदर्शन के समय होगी। कक्षा में प्रदर्शन शुरू करने से पूर्व समस्त आवश्यक वस्तुओं, उपकरणों आदि को उपयोग में लिए जाने के क्रमानुसार प्रदर्शन मेज पर व्यवस्थित कर लेना चाहिए। कई बार कुछ उपकरण प्रदर्शन के समय टूट जाते हैं, अतः टूटने वाले कुछ उपकरण अतिरिक्त संख्या में रख लेने चाहिए ।
(2) प्रदर्शन कार्य–अध्यापक को प्रदर्शन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए—
(i) प्रदर्शन मेज के समीप कुछ अतिरिक्त मात्रा में सामग्री तथा टूटने-फूटने वाले प्रकरण रख लेने चाहिए।
(ii) प्रयोग में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं होनी चाहिए तथा प्रयोग सफल होना चाहिए।
(iii) लम्बे समय का या जटिल प्रयोग प्रदर्शन के लिए नहीं चुनना चाहिए।
(iv) प्रयोग करते समय या अन्य प्रदर्शन के समय आवश्यकतानुसार व्याख्या भी करते रहना चाहिए।
(v) उपकरण आदि को प्रदर्शन में या समीपस्थ स्थान पर उसी क्रम में व्यवस्थित कर लेना चाहिए जिस क्रम में उनका उपयोग किया जाना है।
(3) श्यामपट्ट सारांश को पुस्तिकाओं में लिखवाना एवं निरीक्षण करना–शिक्षक को चाहिए कि वह श्याम पट्ट सारांश, चित्रों, रेखाचित्रों व अन्य उपयोगी बातों को छात्रों की पुस्तिका में अंकित करवा दे । शिक्षक निरीक्षण करते हुए यह ज्ञात करता है कि छात्र इन्हें सही ढंग से नोट कर रहे हैं या नहीं तथा छात्रों के समीप जाकर उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को सुनकर उनका समाधान करवाए।
(4) अध्यापक कार्य—निम्नलिखित हैं—
(i) प्रदर्शन के दौरान सैद्धान्तिक भाग का भी विकास चलता रहना चाहिए।
(ii) प्रश्नों के पूछने का ढंग एवं क्रम इस प्रकार होना चाहिए कि उत्तरों द्वारा विषय-वस्तु, समकलित रूप से अर्थात् एक इकाई के रूप में स्पष्ट हो जाये।
(iii) प्रश्नों के साथ-साथ अध्यापक को प्रदर्शन कार्य की व्याख्या भी करते रहना चाहिए।
(vi) जो साधारण व बोधगम्य प्रश्नों के द्वारा किया जा सकता है ।
(v) अध्यापक सरल, स्पष्ट एवं रोचक भाषा में अपने विचार एवं विषय वस्तु को प्रस्तुतीकरण करे जिसमें छात्रों को समझने में कठिनाई उत्पन्न न हो।
(5) पाठ की प्रस्तावना–निम्नलिखित प्रकार होती है—
(i) पाठ की प्रस्तावना समय के रूप में की जानी चाहिए, जिससे छात्रों में जिज्ञासा बनी रहे।
(ii) प्रदर्शित प्रयोग की सफलता सुनिश्चित होनी चाहिए, असफल प्रयोग छात्रों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं ।
(iii) प्रस्तावना हेतु पूछे गये प्रश्न छात्रों के पूर्व ज्ञान पर आधारित होने चाहिए।
(iv) अध्यापक कोई प्राकृतिक घटना या दैनिक जीवन से कुछ अनुभवों को लेकर भी पाठ की प्रस्तावना दे सकता है।
(6) श्यामपट्ट कार्य–प्रदर्शन मेज के समीप एक बड़े आकार का श्यामपट्ट भी होना चाहिए जिस पर महत्त्वपूर्ण बिन्दु, विषयवस्तु तथा निरीक्षण कार्य का सारांश तथा प्रदर्शन सम्बन्धी रेखा-चित्र, ग्राफ आदि को श्यामपट्ट पर अंकित किया जा सके। प्रदर्शन के समय अस्पष्ट भागों व आन्तरिक भागों की जानकारी भी श्यामपट्ट पर चित्र बनाकर दी जा सकती है ।
प्रभावशाली एवं सफल प्रदर्शन हेतु सुझाव–प्रदर्शन विधि का विभिन्न परिस्थितियों में प्रयोग किया जा सकता है किन्तु इसकी उपयोगिता इसके प्रभावशाली एवं सफल प्रदर्शन पर निर्भर है। इसके उत्तम प्रदर्शन हेतु कुछ सुझाव इस प्रकार हैं–
(1) कई बार सामान्य रुचि के प्रश्न बड़े ही स्वाभाविक रूप से उभर आते हैं जिनके उत्तर में प्रदर्शन किया जाना वांछनीय है।
(2) मेज पर उपकरण क्रमबद्ध तरीके से समायोजित हों ताकि प्रदर्शन के समय इधर-उधर खोज न करनी पड़े।
(3) सामान्यीकरण सम्बन्धी सारांश लिखने के लिये श्यामपट्ट का प्रयोग अपेक्षित है किन्तु प्रदर्शन के समय प्रयोग को छोड़कर श्यामपट्ट तक जाना उचित नहीं है। इससे कोई दुर्घटना घट सकती है।
(4) प्रदर्शन के दौरान छात्र प्रश्न पूछें और जिज्ञासायें शान्त करें। उन्हें प्रयोग सम्बन्धी निरीक्षणों व निष्कर्षों को अपनी प्रयोगात्मक पुस्तिका पर लिखने का निर्देश दिया जाए।
(5) प्रदर्शन से पूर्व समूची रूपरेखा तैयार कर लेनी आवश्यक है तथा प्रदर्शन के दौरान किसी भी सम्भावना को ध्यान में रखकर सावधानी लेनी चाहिए। प्रदर्शन की असफलता की दशा में उस परिस्थिति को छात्रों के सामने समस्या समाधान (Problem Solving) के रूप में प्रस्तुत किया जाये।
प्रयोग-प्रदर्शन विधि का महत्त्व–जॉनसन के अनुसार, कक्षाओं में जीव-विज्ञान के लिए प्रयोग-प्रदर्शन विधि प्रयोगशाला विधि से अधिक महत्त्वपूर्ण एवं कम खर्चीली है।”
सामान्य विज्ञान विषय के शिक्षण हेतु यह सर्वाधिक व्यावहारिक एवं उपयोगी विधि है। इसका मुख्य स्तर यह है कि छात्र जो कुछ भी सीखे प्रयोग के आधार पर सीखे। उच्च प्राथमिक स्तर पर प्रयोग प्रदर्शन विधि का प्रयोग अनिवार्य एवं उपयुक्त है।
इस विधि में शिक्षक पाठ्य विषय पढ़ाने के साथ-साथ सम्बन्धित प्रयोग भी स्वयं करके दिखाता है। छात्र अपने स्थान पर बैठे-बैठे उपकरणों एवं प्रयोगों को देखता रहता है । इस प्रकार वह विषय-वस्तु को सुनता व देखता है। फलतः शिक्षण अधिगम प्रभावशाली होता है। छात्रों को प्रदर्शन के सम्बन्ध में याद भी अधिक दिनों तक रहता है।
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