विभिन्न ऐतिहासिक कालों में महिलाओं की स्थिति का वर्णन कीजिए।

विभिन्न ऐतिहासिक कालों में महिलाओं की स्थिति का वर्णन कीजिए।

उत्तर – विभिन्न ऐतिहासिक कालों में महिलाओं की स्थिति निम्नलिखित प्रकार हैं—

( 1 ) वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति—इस काल में महिला-पुरुषों की स्थिति समान थी । इस समय लड़कियों का उपनयन संस्कार होता था और ये भी ब्रह्मचर्य आश्रम में लड़कों के समान ही शिक्षा प्राप्त करती थीं । पी. एन. प्रभु ने बताया है कि जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, महिला-पुरुष की स्थिति सामान्यतः समान थी । इस काल में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उस समय लड़केलड़कियों की शिक्षा साथ-साथ होती थी, सह-शिक्षा को बहुत नहीं समझा जाता था। इस युग में अनेक विदुषी महिलाएँ हुई हैं। इस काल में लड़कियों का विवाह साधारणत: युवावस्था में होता था बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था। लड़कियों को अपना जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता थी । विधवा अपनी इच्छानुसार पुनर्विवाह कर सकती थी तथा ‘नियोग’ द्वारा संतान उत्पन्न करने की भी छूट थी। पत्नी के रूप में महिला की स्थिति काफी उन्नत थी । अथर्ववेद में कहा गया कि नववधू ! तू जिस घर में जा रही है, उस घर की तू साम्राज्ञी है। तेरे सास-ससुर, देवर तथा अन्य व्यक्ति तुझे साम्राज्ञी मानते हुए तेरे शासन में आनन्दित हों। धार्मिक कार्यों के सम्पादन में महिला-पुरुष के अधिकार समान थे। धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने के लिए पत्नी का होना आवश्यक था । इस काल में पर्दा प्रथा नहीं थी और महिलाओं को सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार था। महिलाओं की रक्षा करना पुरुष का सबसे बड़ा धर्म माना जाता था और उनका अपमान करना पाप । इस काल में परिवार का मुखिया या पितृसत्तात्मक ही पारिवारिक सम्पत्ति का स्वामी या संरक्षक माना जाता था, पुरुषों या महिलाओं को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे। इस समय भी पुत्री के बजाय पुत्र के जन्म को विशेष महत्त्व दिया जाता था परन्तु ऐसा धार्मिक दायित्वों को पूरा करने की दृष्टि से ही था । सारांश रूप में कहा जा सकता है कि इस काल में महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे और दोनों की स्थिति सामान्यतः समान ही थी। समाज में महिलाओं को आदर की दृष्टि से देखा जाता था।
( 2 ) उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति— ईसा के 600 वर्ष पूर्व तक का समय वैदिक काल और सूत्रों, महाकाव्यों एवं प्रारम्भिक स्मृतियों का काल माना जाता है। इस समय तक महिलाओं की
दशा उन्नत और काफी संतोषजनक थी। महिलाओं की इस उच्च स्थिति के लिए कारणों की विवेचना करते हुए डॉ. अल्तेकर ने लिखा है कि पुरुषों के युद्ध कार्यों में लगे रहने के कारण महिलाएँ कृषि युद्ध सामग्री के निर्माण तथा अन्य आर्थिक क्रियाओं में सक्रिय भाग लेती थी । वे समाज की उपयोगी सदस्य थीं। वैदिक काल में युद्ध की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अधिकाधिक वीरों की आवश्यकता थी। इसी कारण प्राग् ऐतिहासिक काल में प्रचलित सती प्रथा को समाप्त किया जा चुका था, नियोग और पुनर्विवाह की आज्ञा थी । इस समय प्रत्येक दम्पत्ति को दस पुत्र सन्तों को जन्म देने का उपदेश दिया जाता था। धर्म के प्रभाव से महिलाओं की संतोषजनक स्थिति बनी रही। धार्मिक कार्यों में पत्नी की महत्त्वता को स्वीकार किया गया है। बिना पत्नी के धार्मिक क्रियाएँ सम्पादित नहीं की जा सकती थी। लड़कियों का विवाह युवावस्था में होने के कारण जीवन साथी के चुनाव में उनकी इच्छा-अनिच्छा का – ध्यान रखा जाता था ।
ईसा के 600 वर्ष पूर्व से ईसा के 300 वर्ष बाद का काल वैदिक काल के नाम से जाना जाता है। इस काल के प्रारम्भिक वर्षों में महाभारत की रचना हुई । महाभारत काल एक संक्रान्ति काल था जिसमें महिलाओं की स्थिति के सम्बन्ध में विरोधी मत पाये जाते हैं। अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने कहा है कि महिला सदैव पूज्य मानकर उससे स्नेह का व्यवहार किया जाना आवश्यक है। जहाँ महिलाओं का आदर होता है, वहाँ देवताओं का निवास होता है तथा इनकी अनुपस्थिति में सभी कार्य पुण्यरहित हो जाते हैं। अनुशासन पर्व में एक अन्य स्थान पर भीष्म पितामह ने लिखा है कि स्वभावतः महिला में लालसा को दबाने की क्षमता नहीं होती और इसीलिए उसे सदैव किसी पुरुष का संरक्षण मिलना आवश्यक होता है। आपने महिलाओं के दो प्रकार बताये हैं— साध्वी और असाध्वी । साध्वी महिलाएँ पृथ्वी की माता और संरक्षिका हैं तथा असाध्वी महिलाएँ वे हैं जिन्हें अपने पापपूर्ण व्यवहार के कारण कहीं भी पहचाना जा सकता है । ईसा के करीब 300 वर्ष पूर्व तक महिलाओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकार सुरक्षित रहे हैं। इस समय तक स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी और महिलाओं को वेदों के अध्ययन की आज्ञा थी। खुशहाल परिवारों में लड़कियों को उचित मात्रा में शिक्षा प्रदान की जाती थी । स्पष्ट है कि इस समय तक महिलाओं की स्थिति संतोषजनक थी ।
इसी काल में जैन और बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा । इन धर्मों में महिलाओं को सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। अनेक महिलाएँ धर्मप्रचार के कार्य में लगी हुई थी। इन धर्मों के पतन के साथ ही महिलाओं की स्थिति में गिरावट आना प्रारम्भ हुई। डॉ. अल्तेकर ने बताया है कि आर्य गृह में अनार्य महिला का प्रवेश महिलाओं की सामान्य स्थिति में, अवनति का मुख्य कारण है। यह अवनति ईसा के करीब 1000 वर्ष पूर्व से धीरे-धीरे अति सूक्ष्म रूप में प्रारम्भ हुई और करीब 500 वर्ष के पश्चात् काफी स्पष्ट मालूम पड़ने लगी। आर्यों के घरों में अनार्य महिलाओं के आने और कर्मकाण्डों के जटिलता के बढ़ने से महिलाओं का धार्मिक संस्कारों में भाग लेना सम्भव नहीं रहा। मनुस्मृति ने सर्वप्रथम महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया और लड़की के रजस्वला होने के पूर्व विवाह का विधान किया गया। पति की आज्ञा का पालन करना और पारिवारिक दायित्वों को निभाना ही उसका एकमात्र कार्य रह गया। अब इनके लिए उपनयन संस्कार की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी। इन तथ्यों से ऐसा ज्ञात होता है कि इस काल के अन्तिम वर्षों में महिलाओं पर सिद्धान्त रूप में कई नियंत्रण लगा दिये गये परन्तु वे व्यवहार रूप में अपने अधिकारों का उपभोग करती रहीं।
( 3 ) धर्मशास्त्र में महिलाओं की स्थिति  – ईसा के पश्चात् तीसरी शताब्दी से 11वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक का काल धर्मशास्त्रकाल के नाम से जाना जाता है। इस समय वेदों के नियमों की उपेक्षा की गयी और मनुस्मृति के आधार पर लोगों का व्यवहार किया गया। यह युग सामाजिक व धार्मिक संकीर्णता का युग था । अब महिलाएँ परतंत्र, निस्सहाय एवं निर्बल मानी जाने लगी थीं। महिला के लिए विवाह को एकमात्र संस्कार माना गया। महिलाओं को सम्पत्ति के अधिकार से वंचित कर दिया गया। उन्हें मानसिक रूप से दुर्बल माना गया। इस समय लड़की की आयु 10 वर्ष और कहीं-कहीं 12 वर्ष थी । जीवन साथी के चुनाव में लड़की की इच्छा-अनिच्छा का कोई प्रश्न नहीं रहा क्योंकि अब यह कार्य लड़की के माता-पिता द्वारा किया जाने लगा। इस काल में कुलीनता की धारणा के कारण बहुपत्नी विवाह का प्रचलन बढ़ा। अब विधुरों का विवाह भी 8 या 10 वर्ष की कन्याओं के साथ होने लगा। इस समय रखैल रखने की प्रथा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। ईसा के 1000 वर्ष बाद सम्मानित परिवारों की विधवाएँ पुनर्विवाह नहीं कर सकती थीं । निम्न जातियों ने भी उच्च जातियों का अनुकरण किया और ऐसे विवाहों पर प्रतिबन्ध लगा दिया । इस समय पतिव्रत्य का एक तरफा आदर्श प्रस्तुत किया गया। इस काल में महिलाओं की स्थिति को गिराने में शास्त्रकारों ने भी प्रमुख भूमिका निभायी। मनु ने स्वयं कहा है कि महिलाएँ कभी-कभी भी स्वतंत्र रहने के योग्य नहीं हैं। बाल्यावस्था में उन्हें पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए। इस काल में अन्तिम वर्षों में तो महिला को वस्तु के रूप में समझा जाने लगा।
( 4 ) मध्यकाल में महिलाओं की स्थिति  – मुगल शासकों के काल को मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। 11वीं शताब्दी से ही भारतीय समाज पर मुसलमानों का प्रभाव बढ़ने लगा था। इस काल में हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के नाम पर महिलाओं पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये, उन्हें अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उन पर कई निर्योग्यताएँ लाद दी गयीं। इस समय महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं रहा। अब 5 या 6 वर्ष तक की अबोध कन्याओं का विवाह किया जाने लगा। रक्त की शुद्धता को बनाये रखने और महिलाओं के सतीत्व की रक्षा के उद्देश्य से बाल-विवाहों को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया। इस काल में पर्दा प्रथा प्रचलित हुई और महिलाओं का कार्य क्षेत्र केवल घर की चहारदीवारी तक ही सीमित हो गया। अब विधवाओं को सती होने के लिए बाध्य किया जाने लगा। पुरुष ने जहाँ विधवाओं को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित कर सती होने तक के लिए विवश किया, वहाँ स्वयं एक पत्नी के होते हुए भी दूसरी और तीसरी महिला से विवाह करने लगा इस काल में महिलाएँ, पूर्णत: परतंत्र हो चुकी थी। वे आर्थिक दृष्टि से कोई भी कार्य नहीं कर सकती थीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक उन्हें पुरुष के नियंत्रण में रखा गया। इस समय पति की इच्छाओं को पूरा करना ही महिला का एकमात्र धर्म रह गया था। इस काल में महिलाओं की सामान्य स्थिति में काफी गिरावट आयी। अल्तेकर ने बताया है कि ईसा के 200 वर्ष पूर्व से 1800 वर्ष पश्चात् के करीब 2000 वर्षों के काल में महिलाओं की स्थिति लगातार गिरती गयी, यद्यपि माता-पिता उसे दुलारते थे, पति उसे प्रेम करता था और बच्चे उसका आदर करते थे। सती प्रथा के पुनः प्रचलन, पुनर्विवाह पर प्रतिबन्ध, पर्दा प्रथा के विस्तार एवं बहु-विवाह की व्यापकता ने उसकी स्थिति को बहुत गिरा दिया। यह सही है कि मध्यकाल में भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति काफी निम्न थी परन्तु पूर्व और पश्चिम के अन्य समाजों के तुलनात्मक अध्ययनों से पता चलता है कि वहाँ भी महिलाओं की स्थिति काफी गिरी हुई थी।
(5) ब्रिटिश काल में महिलाओं की स्थिति — 18वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व का समय ब्रिटिश काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में महिलाओं की निर्योग्यताओं में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजों ने यहाँ के लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन में किसी प्रकार का कोई हस्तक्षेप नहीं करने की नीति अपनायी। इसी नीति के कारण उन्होंने महिलाओं की स्थिति को सुधारने की दृष्टि से कोई परिवर्तन नहीं किया।
इस काल में विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की निर्योग्यताएँ बनी रही जो इस प्रकार हैं—
(1) सामाजिक क्षेत्र में महिलाओं को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे। इन्हें शिक्षा प्राप्त करने का भी अधिकार नहीं था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हमारे यहाँ महिलाओं में साक्षरता 6 प्रतिशत से भी कम थी। बालविवाह एवं पर्दा प्रथा के प्रचलन ने महिला शिक्षा में विशेष बाधा पहुँचायी। महिलाओं के सम्बन्धों का क्षेत्र पिता एवं पति के परिवार तक ही सीमित था। धार्मिक कर्तव्यों का पालन ही इनके जीवन का मुख्य कार्य रह गया।
( 2 ) पारिवारिक क्षेत्र में महिलाओं को कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं थे। सब प्रकार के अधिकार पुरुष ‘कर्ता’ में ही केन्द्रित थे। महिलाओं का मुख्य कार्य सन्तानोत्पत्ति एवं परिवार जनों की सेवा करना था। विवाह-विच्छेद के अधिकार के नहीं होने से पति के दुश्चरित्र, क्रूर और अत्याचारी होने पर भी पत्नी को उसके साथ अनुकूलन करना ही पड़ता था |
( 3 ) आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं को सन् 1937 के पूर्व विशेषाधिकार प्राप्त नहीं थे। इन्हें अधिक भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त था । महिला धन के अतिरिक्त इन्हें और कोई सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं था। महिला स्वयं वस्तु या सम्पत्ति के रूप में समझी जाती थी । महिला के द्वारा किसी प्रकार का कोई आर्थिक कार्य करना अनुचित और अनैतिक समझा जाता था। आर्थिक दृष्टि से कोई काम करना उसकी कुलीनता एवं स्त्रीत्व के विरुद्ध माना जाता था। श्री पाणिक्कर ने लिखा है कि हिन्दू समाज में पुत्री के अधिकार को कानून द्वारा समाप्त कर दिया गया, पत्नी पति के परिवार का एक अंग बन गयी और विधवाओं को सूत समान मान लिया गया। इस काल में महिलाओं को पुरुषों की दया पर निर्भर रहना पड़ा।
(4) राजनैतिक क्षेत्र में किसी भी गतिविधि में महिलाओं के भाग लेने का प्रश्न ही नहीं उठता था। जब देश परतंत्र था और पुरुष अंग्रेजों के गुलाम थे तो महिलाएँ राजनीति में भाग कैसे ले सकती थीं। उनका सम्पूर्ण जीवन तो घर की चहारदीवारी में ही बीतता था। महात्मा गाँधी द्वारा समय-समय पर चलाये जाने वाले आन्दोलन में कुछ महिलाओं ने अवश्य भाग लिया परन्तु उच्च समझे जाने वाले परिवारों में इसका विरोध किया गया। सर्वप्रथम सन् 1937 में पति की सम्पत्ति एवं शिक्षा के आधार पर कुछ महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ।
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