शिक्षण कौशल को परिभाषित कीजिए। आपकी राय में शिक्षकों के लिए कौन-कौन से शिक्षण कौशल अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ? अपने तर्क के कारण लिखिए।
शिक्षण कौशल को परिभाषित कीजिए। आपकी राय में शिक्षकों के लिए कौन-कौन से शिक्षण कौशल अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ? अपने तर्क के कारण लिखिए।
उत्तर— शिक्षण कौशलशिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कक्षा में विभिन्न प्रकार के व्यवहार करता है। यदि शिक्षक इन व्यवहारों अथवा क्रियाओं को सुनियोजित, सुव्यवस्थित एवं संगठित ढंग से करता है तो वह एक सफल शिक्षक बन सकता है। सफल शिक्षक का अर्थ उस शिक्षक से है जो अपने शिक्षण को प्रभावशाली ढंग से सम्पादित करता है। प्रभावशाली शिक्षण के लिए उसमें विभिन्न कौशलों का समावेश आवश्यक है।
शिक्षण को कला एवं विज्ञान माना गया है। कला की दृष्टि से तो कहा जा सकता है कि शिक्षक जन्म-जात होते हैं, वही व्यक्ति शिक्षक हो सकता है जिसमें जन्म से ही शिक्षक के गुण (शिक्षण कौशल) होते हैं। विज्ञान की दृष्टि से हम देखें तो कहा जा सकता है कि शिक्षक पैदा नहीं होते हैं बल्कि बनाये जाते हैं। एक अच्छा शिक्षक बनाने के लिए उसमें कुछ कुशलताओं को विकसित करना होगा। इस प्रकार शिक्षण को चाहे कुछ भी माना जाये परन्तु उसके प्रभावपूर्ण होने के लिए उसमें विभिन्न शिक्षण कौशलों का प्रयोग करना आवश्यक है।
शिक्षण कौशल का अर्थ-शिक्षण कौशल का अर्थ समझने के लिये हमें उसकी कुछ परिभाषाओं का अध्ययन करना होगा
एन. एस. गेज के अनुसार, “शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जिसे अध्यापक अपने कक्षा शिक्षण में प्रयोग करता है । यह शिक्षण क्रम की विभिन्न समस्याओं से सम्बन्धित होता है जिन्हें शिक्षक अपने कक्षा अन्तः क्रिया में लगातार उपयोग करता है। “
बी. के पासी ने शिक्षण कौशल को इस प्रकार परिभाषित किया है —“शिक्षण कौशल का आशय सम्बन्धित शिक्षण क्रियाओं अथवा उन व्यवहारों के सम्पादन से है जो छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के इरादे से किये जाते हैं। “
इन्टीयर और व्हाईट के अनुसार, “शिक्षण कौशल, शिक्षण व्यवहारों का सम्बन्धित वह स्वरूप होता है जो कक्षा की अन्तः प्रक्रिया से उन विशिष्ट परिस्थितियों को उत्पन्न करता है जो शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं और छात्रों को सीखने में सुगमता प्रदान करते हैं। “
इस प्रकार शिक्षण कौशल से आशय शिक्षण में उन क्रियाओं एवं व्यवहारों के प्रयोग से है जिनसे छात्रों को सीखने में सुगमता एवं सरलता होती है एवं शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता मिलती है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर शिक्षण कौशल की निम्न विशेषताएँ प्रकट होती हैं—
(1) शिक्षण कौशल का सम्बन्ध शिक्षण की क्रियाओं एवं व्यवहारों से होता है।
(2) शिक्षण कौशल के प्रयोग से छात्रों को सीखने में सरलता एवं सुगमता होती है।
(3) शिक्षण कौशल शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होते हैं।
(4) शिक्षण कौशलों के प्रयोग से कक्षा में अन्तः प्रक्रिया की स्थिति उत्पन्न होती है। अर्थात् शिक्षक एवं छात्र दोनों सक्रिय रहते हैं।
(5) शिक्षण कौशल व्यवहार की एक इकाई से सम्बन्धित होते हैं।
विभिन्न प्रकार के शिक्षण कौशल— जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि एक कुशल एवं प्रभावशाली अध्यापक वही है जो अपने शिक्षण कार्य को योजनाबद्ध, सुव्यवस्थित एवं संगठित ढंग से करें, इस हेतु उसमें कुछ शिक्षण कौशलों का होना अति आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखते हुए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों के द्वारा छात्राध्यापकों को शिक्षण अभ्यास कराया जाता है। शिक्षण अभ्यास के लिए अब नईनई विधाओं का प्रयोग भी इसी बात को ध्यान में रखकर किया जाने लगा है। शिक्षण अभ्यास के माध्यम से छात्राध्यापकों को प्रभावशाली शिक्षक के रूप में तैयार करने के लिए निम्नलिखित शिक्षण कौशलों का विकास करने का प्रयत्न किया जाता है।
(1) उद्देश्य निर्धारण – जीवन में प्रत्येक कार्य करने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य होता है। बिना उद्देश्य के किया कार्य या प्रयत्न निरर्थक श्रेष्ठा होती है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक का पंचमुखी विकास करना है। यह विकास शिक्षण द्वारा उनके व्यवहार परिवर्तन से लाया जाता है। प्रत्येक विषय शिक्षण का अलग-अलग उद्देश्य होता है जिन्हें अध्यापक निश्चित अवधि में कक्षा शिक्षण द्वारा पूरा करता है। पाठ योजना बनाने से पूर्व उद्देश्यों का निर्धारण कर उसी के अनुसार कराया, शिक्षण कार्य ही शिक्षा – लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक है। एक अध्यापक जितनी कुशलतापूर्वक उद्देश्यों का निर्धारण कर शिक्षण कार्य करता है, वह उतना ही कुशल एवं अच्छा अध्यापक होता है तथा छात्रों में अधिकाधिक व्यवहार परिवर्तन ला सकता है।
शिक्षण उद्देश्यों को निर्धारण करने के लिए कुछ बातों को दृष्टिगत रखना आवश्यक है। यथा शिक्षार्थियों को ध्यान में रखकर इसमें छात्र की आवश्यकता, रुचि, योग्यता, स्तर, क्षमता आदि क्या है ? उनमें पूर्वज्ञान या अनुभव कितना है ? आदि सभी बातों को ध्यान में रखकर निर्धारित उद्देश्यों के अनुसार कराया शिक्षण, सफल शिक्षण होगा। इसके अलावा उद्देश्य निर्धारण में विषय-वस्तु की प्रकृति, समाज की आवश्यकता, आकांक्षा के अनुकूल व्यक्तित्व का सृजन करने वाली, शिक्षा मनोविज्ञान एवं शिक्षा के स्तर के अनुसार उद्देश्यों का निर्धारण होना चाहिए।
(2) व्याख्या कौशल – व्याख्या द्वारा अध्यापक विचारों, क्रियाओं एवं सम्प्रत्ययों को उदाहरणों द्वारा छात्रों तक पहुँचाता है। नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करता है तथा जिन तथ्यों या सम्प्रत्यय को छात्र प्रश्न या कथनों न समझा सकें तब अध्यापक व्याख्या कौशल का प्रयोग करता है।
व्याख्या कौशल एक पुल है जो अध्यापक द्वारा विद्यार्थी को दिये गये ज्ञान की दूरी को पूरा करता है । प्रायः अध्यापक क्यों ? व कभीकभी क्या को स्पष्ट कर रहा होता है तो वह व्याख्या कहलाती है। अध्यापक कितने अच्छे ढंग से इसे प्रयोग करता है यह उसके कौशल पर निर्भर है। इसमें व्याख्या प्रारम्भ करने का कौशल, भाषा की सहज एवं सुबोधता, बोलने की सहजता, रुचिकर युक्तियों का प्रयोग, पाठ गति का औचित्य, दृश्य-श्रव्य साधनों का उपयोग आदि तत्त्वों का जितना बाहुल्य होगा, अध्यापक में उतना ही व्याख्या कौशल होगा।
(3) वाद-विवाद कौशल – शिक्षण के समय छात्र भली प्रकार शिक्षण क्रियाओं में भाग लें, प्रश्नों का उत्तर देना, प्रश्न पूछना, अपनी बात कहना अथवा नई विचारधारा का प्रतिपादन करना आदि वादविवाद द्वारा संभव है। पाठ को प्रभावशाली बनाने के लिए छात्रों का इसमें भाग लेना अति आवश्यक है। अध्यापक छात्रों की सम्भागिता में वृद्धि इसी कौशल से करता है।
(4) प्रस्तावना कौशल – नया पाठ प्रारम्भ करने शिक्षक सर्वप्रथम उस पाठ का संक्षिप्त परिचय देता है। इसे प्रस्तावना या भूमिका कहते हैं। अध्यापक कितनी सफलता से भूमिका निर्धारित करता है कि छात्रों का पूरा ध्यान शिक्षण की ओर आकर्षित हो एवं वह शिक्षण में रुचि लेने लगे। भूमिका शिक्षक की कल्पना शक्ति तथा अनुभवों के आधार पर तैयार की जाती है। इस कौशल का प्रयोग करते समय छात्रों के पूर्व ज्ञान एवं समुचित युक्तियों एवं साधनों का उपयोग का ध्यान रखना चाहिए। इसमें उदाहरण, दृष्टान्त, प्रश्न, कहानी, दृश्य श्रव्य सहायक सामग्री प्रयोग तथा प्रदर्शन इस कौशल की विशिष्ट क्रियायें हैं। –
(5) खोजपूर्ण प्रश्न – जब शिक्षक कक्षा में पाठ के विकास के लिए या पूर्वज्ञान की जाँच के लिए प्रश्न करता है और छात्र उत्तर देने में असमर्थ होते हैं, ऐसी स्थिति में छात्रों में सही उत्तर निकलवाने के लिए कुछ खोजपूर्ण प्रश्नों की सहायता लेता है। ये प्रश्न पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान की ओर ले जाते हैं तथा पाठ्य-वस्तु की बोधगम्यता में वृद्धि लाते हैं। इस कौशल के कुछ तत्त्व निम्नलिखित हैं- 1. अनुबोधन क्रिया, 2. अधिक सूचना प्राप्ति प्रविधि, 3. पुनकेन्द्रण तकनीक, 4. पुनर्निदेशन विधि, 5. समीक्षात्मक अभिज्ञता वृद्धि प्रविधि ।
(6) छात्र संभागिता में वृद्धि का कौशल – शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान अध्यापक जितना अधिक छात्रों का सहयोग पाठ का विकास करने की दृष्टि से लेता है शिक्षण उतना ही प्रभावशाली माना जाता है । इस हेतु शिक्षक को छात्रों से अधिक से अधिक प्रश्न पूछना, उन्हें प्रोत्साहित करना, उनके व्यवहार को स्वीकार करना आदि क्रियाएँ करनी चाहिए।
(7) व्याख्यान कौशल – व्याख्यान का उद्देश्य किसी विषयवस्तु को छात्र को प्रस्तुत करना है जिसके आधार पर किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता मिलती है। कुछ शिक्षाविद इस कौशल की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि मात्र सूचना प्रदान करने तक ही सीमित है, इसके द्वारा शिक्षक एवं छात्रों के मध्य अन्तःक्रिया नहीं होती है, परन्तु फिर भी इसका उपयोग आज प्रत्येक स्तर के शिक्षण हेतु किया जाता है। यदि इसका प्रयोग शिक्षक प्रभावशाली रूप से करता है, सरल व सुबोध तथा स्पष्ट भाषा का प्रयोग करता है तो निश्चय ही यह कौशल प्रभावशाली शिक्षण में प्रभावशाली एवं उपयोगी हो सकता है ।
(8) उद्दीपन भिन्नता कौशल – शिक्षक अपने शिक्षण कार्य में इस कौशल का प्रयोग छात्रों की अध्ययन में रुचि बनाये रखने की दृष्टि से करता है। इसके अन्तर्गत शिक्षक शिक्षण के दौरान की जाने वाली क्रियाओं, हाव-भाव एवं व्यवहार में परिवर्तन करता रहता है जिससे छात्र मानसिक थकान एवं अनुभव नहीं करते हैं और अध्ययन के प्रति उनका ध्यान केन्द्रित रहता है।
(9) श्यामपट्ट उपयोग व कौशल – शिक्षण प्रक्रिया के दौरान शिक्षक के श्यामपट्ट का उचित एवं प्रभावशाली ढंग से उपयोग करना चाहिए। इसके लिए उसे श्यामपट्ट की गई विषय-वस्तु के मुख्य बिन्दु एवं सार संक्षेप में लिखना चाहिए, साथ ही उसे सुपाठ्य एवं अच्छा लेख लिखना चाहिए।
(10) कक्षा व्यवस्था का कौशल — छात्र विषय वस्तु का पूर्णतः अधिगम कर सकें इसके लिए यह भी आवश्यक है कि कक्षा का भौतिक, सामाजिक एवं शैक्षिक वातावरण उपयुक्त हो, शिक्षण-अधिगम क्रियाओं के अनुकूल हो, अतः शिक्षक को अपने शिक्षण के दौरान इस प्रकार की व्यवस्था को भी देखना चाहिए।
(11) दृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण का कौशल – शाब्दिक तथा अशाब्दिक दृष्टान्तों की सहायता से किसी मूर्त, क्लिष्ट अथवा अस्पष्ट विचार, सम्प्रत्यय, नियम, सिद्धान्त आदि को छात्रों को स्पष्ट करने की दृष्टि से, छात्रों को बोध करने की दृष्टि से इस कौशल का प्रयोग किया जाता है, जिससे शिक्षण अधिगम को रोचक, सरल, सुस्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाया जा सके ?
(12) प्रदर्शन कौशल – इस कौशल का प्रयोग शिक्षक कक्षा में दिखाये जाने वाले भौतिक उपकरणों, चार्ट, चित्र, मॉडल, मानचित्र आदि को शिक्षण के दौरान व्यवस्थित रूप में छात्रों के समक्ष प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है जिससे कि सहायक सामग्री ( श्रव्य-दृश्य सामग्री) का उचित एवं प्रभावशाली ढंग से उपयोग किया जा सके ।
(13) पुनर्बलन का कौशल – शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में पुनर्बलन के कौशल का विशेष महत्त्व है। इसके अन्तर्गत शिक्षक द्वारा कक्षा में की जाने वाली उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है जो छात्रों को वांछित व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है और अवांछित व्यवहारों को करने से रोकती है। कक्षा में शिक्षक को आवश्यकतानुसार इन क्रियाओं का उचित रूप में प्रयोग करना चाहिए।
(14) प्रश्नों में प्रवाहशीलता का कौशल – शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दौरान शिक्षक छात्रों से जितने अधिक प्रश्न पूछता है शिक्षण उतना ही सरल हो पाता है। ये प्रश्न शिक्षक के क्रमबद्ध रूप में एवं उचित तरीके से पूछे जाते हैं।
(15) मौन एवं अशाब्दिक अन्तः क्रिया का कौशल – कक्षा में शिक्षक के द्वारा शाब्दिक अन्तःक्रिया के साथ अशाब्दिक अन्तःक्रिया के लिए कुछ संकेत, हाव-भाव आदि भी शिक्षण को रोचक एवं प्रभावशाली बनाते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को अपनी बात कहने के उपरान्त, प्रश्न पूछने के उपरान्त एक-दो क्षणों के लिए मौन होना भी शिक्षण एवं अधिगम के लिए उयोगी रहते हैं, छात्र इस दौरान चिन्तन कर उस बात को समझने की चेष्ट करता है अथवा प्रश्न का उत्तर सोचने का प्रयत्न करता है।
(16) गृहकार्य देने का कौशल – वर्तमान में गृहकार्य भी ज्ञानानुभवों का एक साधन समझा जाने लगा है, यह इस प्रकार का होना चाहिए जो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो, अत: गृहकार्य देते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए।
(17) छात्र व्यवहार के अभिज्ञान का कौशल – एक प्रभावशाली शिक्षक वह होता है जो छात्रों की मानसिक योग्यता, रुचि एवं आवश्यकता एवं क्षमता को ध्यान में रखकर अपना शिक्षण कार्य करें। इन बातों की ओर बिना ध्यान दिये शिक्षण करने पर शिक्षण प्रभावशाली नहीं होगा।
(18) नियोजित पुनरावृत्ति का कौशल- इसके अन्तर्गत शिक्षक शिक्षण की गई विषय-वस्तु का प्रभावशाली ढंग से पुनरावृत्ति करता है। इसके लिए उसे छात्रों से प्रश्न पूछने चाहिए, जो शिक्षण उद्देश्यों पर आधारित एवं विषय-वस्तु से सम्बन्धित हो
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यदि शिक्षक अपने शिक्षण कार्य के अन्तर्गत उपर्युक्त कौशलों का उपयोग करता है, यदि उपर्युक्त क्रियाएँ एवं व्यवहार प्रभावशाली ढंग से शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में उपयोग में लाता है तो निश्चित ही शिक्षण को प्रभावशाली एवं अधिगम को सरल, सुबोध एवं रुचिकर बना सकता है।
(19) व्यक्तिगत भिन्नताओं का कौशल – प्रत्येक छात्र दूसरे
छात्र से कई बातों के आधार पर भिन्न होता है कुछ छात्र जल्दी समझ जाते हैं जबकि कुछ छात्रों के अधिगम की गति धीमी होती है, शिक्षक को सभी छात्रों की गति, योग्यता, क्षमता आदि का ध्यान रखकर शिक्षण •व्यवस्था करना अधिक लाभप्रद रहता है। अतः एक अच्छा शिक्षक सभी छात्रों को ध्यान में रखकर उनके अनुरूप शिक्षण की गति को व्यवस्थित करता है।
(20) प्रश्न पूछने का संकेत – शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षक को छात्रों के समक्ष इस प्रकार के प्रश्न रखने चाहिए जो उच्च स्तर के हों, जिनके उत्तर देने के लिए छात्र चिन्तन कर सकें। निम्न स्तरीय प्रश्नों को पूछने से छात्रों में चिन्तन स्तर का विकास नहीं होता है, वे इस हेतु स्मृति का प्रयोग करते हैं।
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