शिक्षण कौशल से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं तीन शिक्षण कौशलों की व्याख्या कीजिये और शिक्षण अभ्यास में उनका महत्त्व निर्धारित कीजिये ।
शिक्षण कौशल से क्या अभिप्राय है ? किन्हीं तीन शिक्षण कौशलों की व्याख्या कीजिये और शिक्षण अभ्यास में उनका महत्त्व निर्धारित कीजिये ।
उत्तर— तीन शिक्षण कौशल निम्न हैं—
(i) पुनर्बलन कौशल
(ii) श्यामपट्ट लेखन कौशल
(iii) प्रदर्शन कौशल।
(i) पुनर्बलन कौशल — छात्र के उत्साहवर्धन के लिए अध्यापक उसकी प्रशंसा करता है तथा अनुशासनहीनता या सही अनुक्रिया नहीं करने पर उसे दण्डित करता है। दोनों ही रूपों में पुनर्बलन दिया जाता है । पुनर्बलन कौशल छात्र के लिए एक प्रकार से अतिरिक्त शक्ति का कार्य करता है। अधिगम प्रक्रिया बिना पुनर्बलन के प्रभावशाली नहीं बन सकती है ।
छात्र का मानसिक स्तर निम्न होता है अतः वह स्वतः प्रेरित होने में इतना परिपक्व नहीं होता है कि अभिप्रेरणा प्राप्त कर किसी अनुभव को प्राप्त करे। उसे इस हेतु तैयार किया जाता है। वह जब भी गलत अथवा सही अनुक्रिया करता है तो शिक्षक उसे दण्ड’ अथवा पुरस्कार स्वरूप शाबास, बहुत अच्छा, हाँ-हाँ, आदि कहकर पुनर्बलन प्रदान करता है । पुनर्बलन के विषय में निम्नलिखित प्रकार से अभिव्यक्ति की गई हैंशक्षक कक्षा में होने वाले वातावरण का सृजन करने वाला होता है अत: वह दण्ड तथा पुरस्कार का विधान करता है। वह दण्ड और पुरस्कार को इस प्रकार प्रयुक्त करता है जिससे अधिकाधिक अधिगम हो तथा वह प्रभावशाली हो।
पुनर्बलन का अर्थ– पुनर्बलन मनोविज्ञान की नवीनतम विधियों के स्वरूप शिक्षा में प्रयुक्त किया जाता है। बालक कक्षा में अध्यापक के सम्पर्क में आकर सूचना प्राप्त करके कुछ नवीन अनुभव प्राप्त करता है । उन अनुभवों से वह कुछ नया सीखता है और यदि कुछ नया सीख लेता है तो उसे व्यवहार में ढालता है या ढालने का प्रयास करता है । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में वह अभिप्रेरित रहता है। अभिप्रेरित अभिप्रेरणा से होता है और अभिप्रेरणा पुनर्बलन, प्रतिपुष्टि से मिलती है। छात्र को शिक्षण कराते समय शिक्षक उससे प्रश्न पूछता है, सही उत्तर बताने पर पुरस्कार स्वरूप उसे अभिप्रेरित करने वाले शब्दों— शाबास, अच्छा, very good, से सम्बोधित करता है। इन शब्दों से बालक को आत्मबल मिलता है । जिससे वह उस क्रिया में और अधिक तल्लीन हो जाता है। इसमें अध्यापक मौखिक तथा आंगिक दोनों प्रकार का पुनर्बलन देता है। आंगिक में जैसे—गर्दन हिलाना, मुस्कराना, गुस्सा दिखाना आदि क्रियाएँ करता है। समय के अनुसार ही उचित क्रिया करना बालक के लिए प्रोत्साहन का कार्य करेगी। शिक्षक का यह दायित्व बनता है कि बालक ने जो क्रिया की है उसके तत्काल बाद उसकी प्रतिपुष्टि करे। इससे शिक्षण में प्रभावकता आयेगी। अतः पुनर्बलन के अर्थ के लिए यह कहना उचित होगा कि शिक्षक द्वारा की गई वह प्रतिक्रिया, जिससे छात्र उत्तेजित हो जाए और उत्तेजना स्वरूप वह किसी कार्य को पूर्ण तन्मयता के साथ करने में जुट जाए, अभिप्रेरणा रूपिणी वही प्रतिक्रिया पुनर्बलन कहलाती है। दण्ड की अपेक्षा प्रशंसा या पुरस्कार देना ही प्रभावशाली पुनर्बलन हो सकता है।
पुनर्बलन की परिभाषाएँ—
स्किनर के अनुसार, “पुनर्बलन वह स्थिति है जो बालक की अनुक्रिया में वृद्धि करती है । “
हल के अनुसार, “पुनर्बलन वह प्रतिक्रिया है जिसके माध्यम से छात्र (व्यक्ति) में उत्पन्न चालक की सन्तुष्टि होती है।’
इस प्रकार अध्यापक द्वारा दी गई सकारात्मक तथा नकारात्मक अभिप्रेरणा पुनर्बलन को प्रभावित करती है ।
पुनर्बलन के भेद – प्रमुख रूप से पुनर्बलन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—
(1) सकारात्मक पुनर्बलन
(2) नकारात्मक पुनर्बलन
उपर्युक्त दोनों प्रकार के पुनर्बलन का पुनः विस्तार से वर्णन करते हैं—
(1) सकारात्मक पुनर्बलन– शिक्षक के द्वारा अथवा किसी घटना, क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा की गई प्रतिपुष्टि से यदि अधिक अच्छी अनुक्रिया होती है तो इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं ।
इसके अन्तर्गत छात्र को पुरस्कार अथवा प्रशंसा प्रदान की जाती है। इससे छात्र वैसी ही अनुक्रिया करने के लिए और अधिक तत्पर होगा तथा परिणाम प्राप्त करने की चेष्टा करेगा।
सकारात्मक पुनर्बलन पुनः दो भागों में विभाजित करते हैं—
(a) सकारात्मक शाब्दिक पुनर्बलन—इसके अन्तर्गत अध्यापक का वह व्यवहार आता है जिससे बालक में अभिप्रेरणा जागृत होती है। इसमें अध्यापक शब्दों के माध्यम से बालक को प्रोत्साहित करता है। जैसे-very good, शाबाश, बहुत अच्छा आदि कर के उसका मनोबल बढ़ाता है तथा स्वयं भी उसके उत्तर की तर्क संगत व्याख्या करता है इससे छात्र अपने आपको गर्वित महसूस करता है तथा प्रक्रिया तीव्र कर देता है।
(b) अशाब्दिक सकारात्मक पुनर्बलन– अशाब्दिक सकारात्मक पुनर्बलन में शिक्षक शब्दों के स्थान पर संकेतों का प्रयोग करता है जो कि प्रभावशाली होता है। जैसे सही उत्तर प्राप्त होने पर गर्दन हिलाना, पीठ थपथपाना, उत्तर
बड़े ध्यान से सुनना, उत्तर को श्यामपट्ट पर लिखना आदि से बालक को उत्साहित करता है। इसमें जैसे पीठ थपथपाना पुनर्बलन है, यह छात्राओं को पुनर्बलन देने में उचित नहीं है।
(2) नकारात्मक पुनर्बलन– नकारात्मक पुनर्बलन में छात्र की अशुद्ध अनुक्रिया को सही करवाने हेतु दिया जाता है। कई बार छात्र या तो गलत उत्तर बताता है या बताता ही नहीं है ऐसे में उसे नकारात्मक पुनर्बलन से प्रोत्साहित किया जाता है। नकारात्मक पुनर्बलन को भी दो भागों में विभाजित करते हैं—
(a) नकारात्मक शाब्दिक पुनर्बलन– इस पुनर्बलन प्रक्रिया में अध्यापक छात्र को गलतियों के लिए, नहीं ठीक नहीं है, सोचकर बताओ, नहीं नहीं बैठेगा आदि शब्दों से उसे सही प्रतिक्रिया करने को प्रोत्साहित करता है तथा अनुचित क्रिया के लिए हतोत्साहित करता है। इससे छात्र पूर्व में की गई गलती को पुन: करने का दुस्साहस बहुत कम करता है।
(b) नकारात्मक अशाब्दिक पुनर्बलन– इस प्रकार के पुनर्बलन में अध्यापक शब्दों का प्रयोग नहीं करता है। अनुचित क्रिया को न करने का संकेत मात्र देता है। यह संकेत शिक्षक सिर हिलाकर, क्रोधी मुद्रा में छात्र को देखकर, आँखें दिखाकर, इत्यादि क्रियाएँ करके अपनी अस्वीकृति का संकेत करता है। इससे छात्र पुन: उस गलती को सुधार करने की कोशिश करेगा।
पुनर्बलन से छात्र अपनी गलतियों को सुधार सकता है। वह शिक्षक प्रदत्त शाब्दिक- अशाब्दिक, सकारात्मक-नकारात्मक सभी प्रकार के पुनर्बलन से अभिप्रेरित होता है। परिणाम स्वरूप व्यवहार में परिवर्तन करता है ।
पुनर्बलन कौशल के घटक– पुनर्बलन कौशल के निम्नलिखित घटक हैं—
(a) स्वीकारात्मक कथनों का अधिक प्रयोग।
(b) सभी को समान पुनर्बलन ।
(c) एक ‘शब्द’ को बार-बार नहीं दोहराना ।
(d) छात्रों का उत्साहवर्धन ।
(e) छात्रों के साथ सहानुभूति ।
(f) नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करना ।
(g) नकारात्मक शाब्दिक और अशाब्दिक शब्दों का प्रयोग ।
(h) विद्यार्थी की भावना को समझना।
(i) आंगिक तथा शाब्दिक दोनों का प्रयोग ।
(j) विद्यार्थी की क्रिया के अनुरूप ही पुनर्बलन प्रदान करना।
(k) सही उत्तरों को श्यामपट्ट पर लिखना।
पुनर्बलन कौशल में महत्त्वपूर्ण तथ्य—
(1) पुनर्बलन कौशल छात्र की अतिरिक्त शक्ति होती है। अतः सभी को दिया जाना चाहिए।
(2) अल्प विकसित छात्र को सकारात्मक पुनर्बलन नहीं दें। अन्य छात्रों के बीच उसकी अधूरी अनुक्रिया को भी पुनर्बलित करें।
(3) जहाँ तक हो सके सकारात्मक पुनर्बलन ही प्रदान करें।
(4) छात्र की आवश्यकता के अनुरूप ही पुनर्बलन दें ।
(5) छात्र का स्वास्थ्य भी ध्यान में रखें। कई बार स्वास्थ्य खराब होने की वजह से छात्र सही अनुक्रिया नहीं करता है। परिणामस्वरूप शिक्षक उसे दण्ड देता है। यह सर्वथा अनुचित है। अतः स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए।
(6) एक शब्द को बार-बार कहने से यह अध्यापक का उपनाम बन जाता है। अतः इसमें प्रत्येक छात्र के लिए भिन्न शब्द का प्रयोग करें।
(7) पुनर्बलन प्रदान करते समय अध्यापक विनम्र मुद्रा में ही अपेक्षाक रहें तो उपयुक्त रहता है ।
(8) पुनर्बलन में छात्र को नाम से पुकारें तो अच्छा रहता है अर्थात् अध्यापक अरे खड़ा हो, बता इसका अर्थ क्या होगा? कहते हैं यह सर्वथा अनुचित है। इससे यदि उत्तर आता है तो भी वह उसे भूल जायेगा । नाम नहीं पता तो यह कहना उचित होगा— शाबाश बेटे, खड़े होओ।
(9) छात्र को अन्योक्ति से बचायें। इससे उसका मनोबल टूट जाता है, चित्त स्थिर हो जाता है ।
(10) अनुचित व्यवहार, अनुशासनहीनता करने पर दण्ड का ही प्रयोग करें, इससे पहले छात्र के विचार जानना आवश्यक है।
(11) प्रतिभाशाली छात्र के लिए अन्य छात्रों से भिन्न शाब्दिक पुनर्बलन न हो। इससे वह उत्तेजित होगा क्योंकि ‘शाबाश’ आदि शब्द उसके लिए प्रभावी नहीं होते हैं।
(12) छात्रों के मनोभावों को भी समझें।
(13) यदा कदा सकारात्मक पुनर्बलन में पुरस्कार आदि की भी व्यवस्था करें ।
(14) जान-बूझकर पुनर्बलन देने से छात्र इसे विपरीत भाव में लेते हैं अतः शिक्षक को स्वाभाविक पुनर्बलन ही देना चाहिए।
(15) पुनर्बलन में नियमितता आवश्यक है। प्रत्येक उत्तर के लिए यह प्रक्रिया नहीं अपनानी चाहिए। इससे बालक की उत्तेजना नष्ट हो जाती है।
(16) विशेष परिस्थिति में दण्डात्मक पुनर्बलन भी अपेक्षित है। अतः उसका भी यथासम्भव प्रयोग करें।
(17) एक ही प्रकार का पुनर्बलन नहीं दें। शाब्दिक अशाब्दिक विधि से छात्र को उत्साहित करें।
(ii) श्यामपट्ट-लेखन कौशल– शिक्षण प्रक्रिया में श्यामपट्ट शिक्षक का सच्चा सहयोगी होता है उसका घनिष्ठ मित्र होता है। जब कोई तथ्य बालक मौखिक रूप से नहीं समझ पाता है तो शिक्षक इसी (श्यामपट्ट) पर ही उसे चित्रित करके अथवा अन्य विधि से बालक को समझाता है। यह सभी विद्यालयों में उपलब्ध होने वाली सामग्री है। जहाँ पर वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध नहीं हैं, वहाँ पर शिक्षक इससे ही छात्र को अधिगम करवाता है। अतः यह व्ययशील भी नहीं है और वैज्ञानिक उपकरणों का भी काम करता है। अतएव इसे शिक्षक के सच्चे सहयोगी के रूप में उल्लेखित किया जाता है।
श्यामपट्ट की सहायता से शिक्षक अपने शिक्षण को सशक्त बनाता है। शिक्षण प्रक्रिया में कई विषय तो ऐसे हैं जिनका इसके साथ घनिष्ठतम सम्बन्ध होता है, जैसे—गणित-विज्ञान आदि । शिक्षक रेखाचित्र बनाकर किसी वस्तु का चित्र बनाकर अपने अध्ययन प्रकरण को प्रभावी बनाता है। इसके माध्यम से वह छात्र को निर्देश देता है; गृह कार्य देता है । इस प्रकार यह दृश्य शिक्षण सहायक सामग्रियों में सबसे सस्ती तथा सरल सामग्री है। इसका उपयोग सभी शिक्षक करते हैं तथा कुशल विरले ही होते हैं। अपने शिक्षण में उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षक को श्यामपट्ट लेखन कौशल में प्रवीण होना चाहिए।
कक्षा-शिक्षण में श्यामपट्ट का प्रयोग— श्यामपट्ट कक्षा के छात्रों में ठीक सामने वाली दीवार पर स्थित होता है। अतः सभी छात्रों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम है। इससे बालक केन्द्रित रहते हैं। श्यामपट्ट स्वच्छ तथा पर्याप्त आकार का होगा तो शिक्षक उसका प्रयोग करने की इच्छा करेगा। यदि वह टूटा-फूटा गड्ढों वाला है तो शिक्षक इस पर कार्य करने में जी चुराने लगेगा। श्यामपट्ट का प्रयोग कब और कैसे करना चाहिए यह शिक्षक को ज्ञात होना आवश्यक है। इसके प्रयोग हेतु निम्नलिखित बिन्दु दिए जा रहे हैं—
(1) श्यामपट्ट का प्रयोग यदि आवश्यक हो तो ही करना चाहिए ।
(2) श्यामपट्ट बालकों के न अति निकट तथा न अति दूर स्थापित करना चाहिए।
(3) लेखन कार्य करते समय बालकों पर भी दृष्टि डालनी चाहिए।
(4) यथासम्भव छात्रों को भी अभ्यास कराना चाहिए।
(5) लिखी जाने वाली पंक्ति सीधी रेखा में होनी चाहिए। यह प्रयोग अध्यापकों के लिए बहुत ही सावधानी का है।
(6) पंक्तियों में उचित अन्तराल होना चाहिए । न तो बिल्कुल पास में हो और न ही अधिक दूर-दूर हो ।
(7) प्रकरण के विकास के साथ मुख्य बिन्दु अंकित करते रहना चाहिए।
(8) लिखते समय साथ-साथ बोलते भी रहना चाहिए। इससे बालक सक्रिय रह सकेंगे।
(9) एक ही तथ्य को बार-बार नहीं लिखना चाहिए।
(10) लिखने से पहले चॉक (वर्तिनी) को आगे से तोड़ लेना चाहिए।
(11) लिखते समय चॉक की आवाज (पिर-पिर) नहीं आनी चाहिए।
(12) प्रयोग में ली गई सामग्री (चित्र आदि) को साफ कर देना चाहिए।
(13) श्यामपट्ट पर लिखते समय सुन्दर लेख होना चाहिए।
(14) अक्षरों को एक के बाद एक नियोजित ढंग से लिखें।
(15) अक्षरों का आकार न तो अधिक बड़ा हो और न ही अधिक छोटा होना चाहिए।
(16) पाठ पूरा होने पर सामान्यीकरण हेतु श्यामपट्ट का प्रयोग अपेक्षित है।
(17) छात्र को दिया जाने वाला गृह कार्य श्यामपट्ट पर लिखना चाहिए।
(18) कालांश समाप्त होने पर स्वयं अध्यापक को श्यामपट्ट साफ करना चाहिए। छात्रों से न करायें ।
(19) अनावश्यक तथ्यों के लिए श्यामपट्ट को बचाना चाहिए। अन्यथा बालक उसे भी विषय-वस्तु में सम्मिलित कर लेंगे।
(20) कक्षा में प्रवेश करते ही कक्षा-दिनांक – विषय प्रकरण – कालांश आदि अंकित कर देना चाहिए ।
श्यामपट्ट का महत्त्व / उपयोगिता – श्यामपट्ट का महत्त्व / उपयोगिता निम्नलिखित प्रकार हैं—
(1) श्यामपट्ट विषय-वस्तु का सामान्यीकरण करने में उपयोगी है।
(2) इससे सम्पूर्ण कक्षा एक साथ लाभान्वित हो सकती है।
(3) यह गृहकार्य प्रदान करने में सहायक है, शिक्षक श्यामपट्ट पर गृहकार्य लिखकर बताता है जिससे छात्र सम्पूर्ण गृहकार्य को अपनी कॉपी में उतार सकते हैं।
(4) गणित, विज्ञान, चित्रकला (ललित कला) आदि विषयों में यह महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
(5) कठिन शब्दों के अर्थ विभिन्न विधियों से समझाये जा सकते हैं ।
(6) इस पर अंकित शिक्षण सामग्री छात्र के मानस पटल पर भी अंकित हो जाती है।
(7) श्यामपट्ट पर समझा हुआ तथ्य बालक के मस्तिष्क में चिरस्थायी रहता है।
(8) कविता शिक्षण में भी इसकी उपयोगिता है अध्यापक सम्बन्धित पद्य को श्यामपट्ट पर लिखकर शिक्षण कराने में सफल होता है। सहायक पद्म लिखकर शिक्षक दोनों के बीच तुलना कर सकता है।
(9) अवकाश आदि की घोषणा के लिए भी श्यामपट्ट उपयोगी
(10) प्रकरण – कालांश-विषय आदि का बोध भी समय-समय पर होता रहता है, जिससे शिक्षक प्रकरण से दूर नहीं जा सकता है। समयावधि से अधिक समय नहीं ले सकता है।
(11) श्यामपट्ट को अनमोल वचन लिखने तथा अन्य महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्रदान करने हेतु प्रयोग में ले सकते हैं ।
(12) श्यामपट्ट का प्रयोग करने से बालक की झिझक दूर होती है । अतः इस दृष्टि छात्र के लिए भी यह उपयोगी है।
(13) इससे बालक को व्याख्या करके समझा सकते हैं ।
(14) इसमें बालक शारीरिक और मानसिक रूप से क्रियाशील बना रहता है।
(15) यह सहायक सामग्री की पूर्ति करता है ।
(16) सम्बन्धित प्रकरण को चित्र रेखाचित्र आदि की सहायता से समझाने में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
(17) शिक्षक के लेखन कौशल को सुदृढ़ करता है और छात्र के लेखन कौशल को विकसित करने में सहायक होता है।
(18) छात्रों का ध्यान विकेन्द्रित नहीं हो पाता है।
(iii) प्रदर्शन कौशल – मेक्कल्सकी के अनुसार, “ श्रव्य अथवा दृश्य-शिक्षण शाब्दिकता का प्रतिकार है। सीखने वाले के प्राप्त अनुभवों को सुने गये अनुभवों से सम्बन्धित करके शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकता है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से इसके अर्थ को सहजता से समझा जा सकता है।
प्रदर्शन कौशल के अन्तर्गत वह दृश्य-श्रव्य सामग्री आती है, जिसका प्रयोग शिक्षक अपने शिक्षण के दौरान करता है। रूसो के अनुसार जिस ज्ञान को बालक ग्रहण कर रहा है वह मौखिक अभिव्यक्ति की अपेक्षा प्रत्यक्ष अवलोकन कराके अधिगम कराया जाये तो बेहतर होगा। प्रदर्शन कौशल में छात्र सूचना प्राप्ति के साथ-साथ उसका अवलोकन भी करता है इससे उसका अधिगम स्थायी रूप ग्रहण करता है। प्रदर्शन कौशल भी सभी विषयों में इतना प्रभावी नहीं बन पाता जितना गणित, विज्ञान (विज्ञान की सभी शाखायें) भौतिक शास्त्र, संगीत दि में यह सशक्त शिक्षण करवाने में समर्थ है। आज बढ़ती हुई शैक्षिक तकनीकी की प्रक्रिया में प्रदर्शन कौशल के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता है यों तो प्रभावशाली शिक्षण उपर्युक्त विषयों में ही हो पाता है प्रदर्शन कौशल से किन्तु मनोविज्ञान और वैज्ञानिक तकनीकी ने प्रदर्शन कौशल को शिक्षा में अनिवार्य कौशल बना दिया है। सभी विषयों में इसे प्रयुक्त किया जाना अपेक्षित है।
शिक्षण प्रक्रिया के साथ प्रदर्शन कौशल का समुचित प्रयोग करने से छात्रों में क्रियाशीलता बनी रहती है। वे प्रकरण के प्रत्येक पहलू पर ध्यान देने का प्रयास करते हैं। सम्बन्धित शिक्षण सहायक सामग्री विषयवस्तु को रोचक एवं आकर्षक बनाती है। छात्र के ऊपर शिक्षक की क्रियाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षण कराते समय शिक्षक अपने हाव-भावों में भी शिक्षण-क्रिया में उत्तेजना ला सकता है। मौखिक शिक्षण प्रक्रम में बालक की श्रवणेन्द्रियाँ ही सक्रिय रहती हैं जबकि साथ में प्रदर्शन कौशल को प्रयोग में लाने से बालक पूर्ण रूप से सक्रिय हो जाता है।
दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग शिक्षक को कक्षा शिक्षण में उचित समय पर ही करना चाहिए। अनावश्यक चित्र, चार्ट, मॉडल आदि प्रस्तुत करने से बालक मनोरंजन का साधन बना लेंगे जिससे शिक्षण कार्य में अनुशासन हीनता की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग पहले शिक्षक को कक्षा में यथावसर करना चाहिए। उसके बाद बालकों को उसका प्रयोग करना सिखाया जाए। जैसे संगीत आदि ऐसे विषय हैं जिसमें प्रदर्शन कौशल नितान्त आवश्यक है। यदि प्रारम्भ में ही बालक को वाद्य-यन्त्र आदि सहायक सामग्री प्रयोग हेतु दे दी जायेगी तो वह उसका समुचित प्रयोग करने में सफल नहीं होंगे। फलस्वरूप यंत्र आदि टूटने का ही डर रहता है। अतः शिक्षक को प्रदर्शन कौशल में कुशल होना चाहिए। शिक्षक कराने से पूर्व वह अभ्यास के लिए स्वयं प्रयोग करके देखे तो कला शिक्षण में प्रदर्शन कौशल प्रभावशाली बन सकेगा। छात्राध्यापक को सम्बन्धित अध्यापक से इसकी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करनी चाहिए उसके बाद ही इसे प्रयुक्त किया जाना चाहिए।
यह एक ऐसा कौशल है कि जो नीरस से नीरस प्रकरण को भी रोचक बना सकता है। अतएव शिक्षण प्रक्रिया में प्रदर्शन कौशल का अपना अलग महत्त्व है। शिक्षक को इसका कुशलता से निर्वहन करते हुए विकास करना चाहिए। इस कौशल के माध्यम से बालक प्रत्यक्ष ज्ञानानुभव करके अपने अधिगम को प्रभावशाली बनाकर वांछित व्यवहारगत परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकते हैं ।
प्रदर्शन कौशल का महत्त्व– शिक्षण कौशलों के अन्तर्गत प्रदर्शन कौशल दृश्य-श्रव्य सामग्री के माध्यम से शिक्षककृत् शिक्षण को प्रभावशाली बनाता है। उचित समय पर, प्रकरण से सम्बन्धित सहायक सामग्री स्वरूपचित्र-मॉडल, मानचित्र आदि प्रस्तुत किया जाए तो वास्तव में शिक्षण प्रक्रिया प्रभावित हो सकेगी। छात्र की रुचि नहीं होने पर भी वह छात्र को पढ़ने के लिए बाध्य कर देगी। प्रदर्शन कौशल के महत्त्व को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट करते हैं—
(1) व्यावहारिक– किए गए प्रदर्शन से शिक्षक को यह अपेक्षा रखनी चाहिए की उसके द्वारा किया गया प्रदर्शन व्यावहारिक हो । अतः प्रदर्शन कौशल का अपना विशिष्ट महत्व है। यह छात्र की विषय-वस्तु में जिज्ञासा जागृत करके उसे पढ़ने के लिए उत्साहित करता है।
(2) प्रत्यक्ष अनुभव देने में उपयोगी– प्रत्यक्ष वस्तु दर्शन को विषय-वस्तु से सम्बद्ध करके प्रदर्शित किया जाए अथवा मौखिक विषयवस्तु के साथ प्रत्यक्ष वस्तु दर्शन कराया जाए तो बालक की स्मरण शक्ति स्थायी बनती है। मौखिक क्रिया को वह शीघ्र ही भूल जाता है, उसे विस्मृत कर देता है किन्तु साथ में यदि अवलोकन भी करवाया जाए तो वह स्थायी रूप से ग्रहण करने में सक्षम होगा।
(3) जिज्ञासा जागृति– शिक्षक छात्रों की मनोवृत्ति को समझकर यदि प्रकरण से सम्बद्ध कोई श्रव्य या दृश्य वस्तु का प्रयोग करता है तो छात्र उत्सुक होता है और पुनः अध्ययन हेतु उसकी जिज्ञासा जागृत होती है । इस प्रकार वह सम्यक्तया अधिगम कर सकेगा।
(4) उपयोग करने की कला का विकास– प्रदर्शन कौशल में पाठ्य-वस्तु के साथ प्रकरणवश वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। शिक्षक द्वारा बालक उसे ध्यान से देखता है तथा अध्यापक की प्रत्येक क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करता है। इससे वह स्वयं भी उस कला में सफल होने का प्रयास करता है।
प्रदर्शन कौशल के महत्त्वपूर्ण बिन्दु—
(1) प्रदर्शन कर्त्ता (शिक्षक) को अपनी कला में निपुण होना चाहिए।
(2) उचित समय पर ही प्रदर्शन किया जाना चाहिए।
(3) प्रदर्शन की गति छात्रों के स्तरानुरूप होनी चाहिए।
(4) प्रदर्शन में अनावश्यक तत्त्वों को स्थान नहीं देना चाहिए । इससे शिक्षण सरल बनने की अपेक्षा जटिल बन जायेगा ।
(5) छात्रों की प्रतिक्रिया को जानना भी आवश्यक है। अन्यथा यह पता नहीं लगा पायेंगे कि छात्र समझ भी रहे हैं या नहीं।
(6) आवश्यक सामग्री को पहले ही नियोजित कर लें, तथा अपने पास में रखें। इसमें प्रदर्शन करते वक्त विचलन नहीं हो पायेगा।
(7) प्रदर्शन के समय छात्रों से अन्तःक्रिया करते रहना अपेक्षित है। सम्बन्धित प्रयोग के विषय में छात्रों की भागीदारी होनी चाहिए।
(8) इसमें समय का विशेष ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि प्रदर्शन में एक बार लीन होने पर समय का ध्यान नहीं रहता है।
(9) पहले शिक्षक स्वयं प्रयोग करे। तत्पश्चात् ही छात्रों से करवाये ।
(10) प्रदर्शन ऐसे स्थान पर किया जाए जहाँ पर सभी छात्रों की दृष्टि पहुँच सके। इसके लिए श्यामपट्ट की सहायता ली जा सकती है।
(11) कब, कहाँ पर, कौनसा प्रदर्शन करना है यह शिक्षक पूर्व में निश्चित कर ले।
(12) प्रदर्शन को प्रभावशाली बनाने हेतु छात्रों की सक्रियता आवश्यक है। अतः उन्हें प्रश्नों के माध्यम से सक्रिय बनाये रखें।
(13) प्रकरण से सम्बद्ध प्रदर्शन (चित्रादि) करने का प्रयास किया जाना चाहिए।
(14) प्रदर्शन करने से पूर्व में शिक्षक को अभ्यास करना अपेक्षित।
(15) छात्रों को भी प्रायोगिक कार्य करने के अवसर प्रदान करने चाहिए।
प्रदर्शन के लिए सामग्री का चयन तथा सिद्धान्त– प्रदर्शन हेतु आवश्यक सामग्री का ध्यान शिक्षण प्रारम्भ करने से पूर्व ही कर लेना श्रेयस्कर होता है। यदि व्यवस्थित ढंग से प्रदर्शन सामग्री का चयन नहीं हो पाता है तो प्रदर्शन अपेक्षित उद्देश्यों पर खरा नहीं उतरेगा। अतः शिक्षक द्वारा कराया गया शिक्षण तथा प्रदर्शित सहायक सामग्री व्यर्थ सिद्ध होगी।
प्रदर्शन में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री— प्रदर्शन सामग्री दृश्य तथा श्रव्य दो रूपों में उपलब्ध की जा सकती है। आवश्यकता पड़ने पर दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग भी किया जा सकता है।
(1) दृश्य सामग्री–bदृश्य सामग्री के अन्तर्गत मॉडल, चित्र, मानचित्र, रेखाचित्र, फिल्म, चार्ट, ग्राफ, प्रयोग आदि सम्मिलित किए जाते हैं ।
(2) श्रव्य सामग्री– श्रव्य सामग्री में वे सभी उपकरण आ जाते हैं जिन्हें हम सुन सकते हैं, यथा— रेडियो, टेपरिकार्डर, ग्रामोफोन, लिंग्वाफोन आदि ।
(3) दृश्य श्रव्य सामग्री– इसमें उन उपकरणों को लिया जाता है जिनको देखने के साथ-साथ सुनी जा सके। जैसेटेलीविजन, वीडियो कैसेट आदि ।
इनके अतिरिक्त प्रत्यक्ष विधि में म्यूजियम, अजायबघर, रमणीयस्थल, उद्यान आदि को भी प्रदर्शन सामग्री में सम्मिलित किया जा सकता है।
प्रदर्शन कौशल की सीमाएँ—
(1) यह निम्न स्तर के बालकों के लिए अपेक्षा के अनुरूप परिणाम नहीं दे पाता ।
(2) एक प्रकरण में एक से अधिक प्रदर्शन भी करना पड़ सकता है। अतः उस हाल में पर्याप्त उपकरणों का अभाव रहता है।
(3) प्रदर्शन करने से छात्र प्रारम्भ में जिज्ञासा रखते हैं किन्तु बाद में इसे मनोरंजन के रूप में ले लेते हैं ।
(4) इससे छात्रों का मानसिक पक्ष कमजोर हो जाता है, परिणामस्वरूप बालक केन्द्रण स्वतन्त्र चिन्तन-मनन से विमुख हो जाते हैं।
प्रदर्शन कौशल को तब तक कुशलतापूर्वक प्रयुक्त नहीं कर सकते जब तक इससे प्रयुक्त करने के लिए कुशल शिक्षक नहीं होता है, क्योंकि अकेली सहायक सामग्री प्रभावशाली शिक्षण नहीं करा सकती है। जब तक उसे प्रयोग में लेने वाला शिक्षक प्रभावी नहीं होगा। उसे अपने कौशल में दक्ष होना आवश्यक होता है, कौशल कोई भी हो वह अध्यापक का आदर्श होता है। शिक्षक का व्यक्तित्व कैसा है, यह कौशलों से ज्ञात किया जा सकता है। शिक्षक को अपने नियोजित कार्यक्रम के अनुसार ही शिक्षण करना चाहिए तथा उसमें प्रयुक्त की जाने वाली दृश्य श्रव्य सामग्री का पूर्व में ही चयन कर लेना उचित होगा। प्रदर्शन कौशल में यह परमावश्यक है कि शिक्षक प्रयोग में लेने वाली सामग्री का पूर्व अभ्यास करे। तत्पश्चात् ही उसे प्रदर्शित करें ।
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