संविधान की रचना एवं मूल्य
संविधान की रचना एवं मूल्य
दक्षिण अफ्रीका में लोकतांत्रिक संविधान की रचना
26 अप्रैल 1994 दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में स्वर्णिम दिन माना गया है। इसी तिथि को नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का पद ग्रहण किया। इसी के साथ दक्षिण अफ्रीका में लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पुराना श्वेत दमन और रंगभेदपूर्ण शासन के युग का अंत हो गया। भारत के संदर्भ में जो कथन प्रचलित है, वही दक्षिण अफ्रीका के संबंध में भी सत्य है। वह कथन है, व्यापारी बनकर आए और देश पर शासन करने लगे। 17वीं और 18वीं शताब्दी में दक्षिण अफ्रीका में यूरोप की कंपनियाँ व्यापार करने आई थीं और अवसर पाकर दक्षिण अफ्रीका के लोगों पर शासन करने लगीं। दक्षिण अफ्रीका के बहुसंख्यक अश्वेतों को रंगभेद की नीति का शिकार होना पड़ा। यहाँ भी भारत की तरह फूट डालो और शासन करो की नीति चरितार्थ हुई। अंतर इतना ही था कि जहाँ भारत में संप्रदाय को आधार बनाकर फूट डाला गया, वहाँ दक्षिण अफ्रीका में श्वेत और अश्वेतों के बीच, अर्थात रंग के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार किया गया। रंगभेद की इस शासन नीति में अश्वेतों पर भयंकर अत्याचार किए गए। उन्हें श्वेतों की बस्तियों में रहने-बसने की इजाजत नहीं थी। उन बस्तियों में काम करने के लिए भी उन्हें सरकार से अनुमति पत्र लेने की आवश्यकता थी। सार्वजनिक जगहों पर भी श्वेतों और अश्वेतों के बीच भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता था। स्पष्ट है कि दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत गोरी सरकार के दमन के शिकार होते रहे ।
प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है। 1947 में भारत स्वतंत्र हो चुका था। स्वाधीनता संग्राम का परिणाम विश्व के सामने था। इससे प्रेरणा लेकर दक्षिण अफ्रीका के भी अश्वेत, अन्य मिश्रित नस्ल के निवासी तथा भारतीय मूल के लोगों ने मिलकर रंगभेद की नीति के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के नेतृत्व में जिस तरह भारत का स्वतंत्रता संग्राम चला, उसी तरह दक्षिण अफ्रीका में भी अफ्रीकी नेशनल काँग्रेस के झंडे तले रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चला। महात्मा गाँधी की तरह दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने आंदोलन का नेतृत्व किया।
दक्षिण अफ्रीका में अंततः इस आंदोलन को सफलता मिली। करीब 26 वर्षों तक कैद की सजा काटने के बाद नेल्सन मंडेला 1990 में रिहा हुए। रंगभेद की नीति समाप्ति के कगार पर पहुँच गई। तत्कालीन श्वेत राष्ट्रपति डी० क्लार्क ने उदार और समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने रंगभेद समाप्त कर दिया और अफ्रीकी नेशनल काँग्रेस और अन्य अश्वेत दलों के साथ समझौते की नीति अपनाई। दक्षिण अफ्रीका एक गणराज्य बन गया। नेल्सन मंडेला ने राष्ट्रीय सरकार का गठन किया । नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त मंडेला ने राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के बाद कहा कि वे सभी नस्ल के लोगों को आदर एवं सम्मान देंगे। वे बदले की भावना से काम नहीं करेंगे। उनके लिए सब बराबर हैं । वे श्वेत या अश्वेत आधिपत्य के विरुद्ध हैं। यह देश सबका है ।
जहाँ तक दक्षिण अफ्रीका में संविधान रचना का प्रश्न है, 18 नवंबर 1993 को ही अश्वेतों को मतदान का अधिकार देने तथा अल्पसंख्यक श्वेत शासन को समाप्त करने के लिए अंतरिम संविधान की रचना कर दी गई। अंतरिम संविधान के अंतर्गत 400 सदस्यीय राष्ट्रीय सभा तथा 90 सदस्योंवाली सीनेट की व्यवस्था की गई। नवनिर्वाचित संसद को देश का स्थायी संविधान बनाने का अधिकार दिया गया। संविधान को बनाने में 1 वर्ष, 10 माह, 28 दिन लगे। इस ऐतिहासिक क्षण पर नेल्सन मंडेला ने कहा था, हम एक युग की समाप्ति और नए युग के आगमन की दहलीज पर हैं। हमारे देश के इतिहास में पहली बार 27 अप्रैल 1994 को सभी दक्षिण अफ्रीकी, चाहे उनकी भाषा, धर्म और संस्कृति कुछ भी हो, उनका रंग या वर्ग जो भी हो, समान नागरिकों के रूप में मतदान करेंगे।
इस प्रकार, दक्षिण अफ्रीका का नया संविधान बना जो विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान कहलाया। नागरिकों को व्यापक अधिकार प्राप्त हुए। हर समस्या के समाधान में सबों की भागीदारी सुनिश्चित की गई। विश्व के लोकतांत्रिक राज्यों के लिए दक्षिण अफ्रीका का संविधान एक मॉडल बन गया। यह कार्य दक्षिण अफ्रीकी लोगों द्वारा साथ रहने, साथ काम करने के दृढ़ निश्चय एवं पुराने कड़वे अनुभवों को आगे के इंद्रधनुषी समाज बनाने में एक सबक के रूप में प्रयोग करने की समझदारी दिखाने के कारण संभव हुआ।
संविधान का अर्थ
लोकतंत्र में मनमानी करने का अधिकार किसी को नहीं है। कुछ बुनियादी नियम हैं जिनका पालन नागरिकों और सरकार, दोनों को करना होता है। ऐसे सभी नियमों का सम्मिलित रूप संविधान कहलाता है। देश का सर्वोच्च कानून होने की हैसियत से संविधान नागरिकों के अधिकार, सरकार की शक्ति और उसके कामकाज के तौर-तरीकों का निर्धारण करता है। इस तरह, संविधान लिखित नियमों की ऐसी दस्तावेज है जिसे किसी देश में रहनेवाले सभी लोग सामूहिक रूप से मानते हैं तथा इससे लोगों और सरकार के बीच के संबंध भी तय होते हैं ।
संविधान निर्माण की आवश्यकता
प्रत्येक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए एक लिखित संविधान आवश्यक है। कुछ विद्वानों का मत है कि संविधान की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे विद्वान यह तर्क देते हैं कि ब्रिटेन का कोई संविधान नहीं है, फिर भी उसकी गणना लोकतांत्रिक शासन व्यवस्थावाले देशों में होती है। परंतु, यह तर्क गलत है। संविधान का यह अर्थ संकुचित माना जाता है कि संविधान सिर्फ लिखित नियमों का संग्रह है। संविधान का सही अर्थ यह है कि इसके अंतर्गत सभी रीति-रिवाज, परंपराएँ, अभिसमय, कानून, नियम एवं विनियम आ जाते हैं, चाहे वे लिखित हों अथवा अलिखित। जेलिनेक नामक लेखक ने सही कहा है कि बिना संविधान के राज्य नहीं रह सकता, अपितु अराजकता फैल जाएगी। दक्षिण अफ्रीका के संबंध में जो कुछ बताया गया उससे संविधान की आवश्यकता और उसकी भूमिका स्पष्ट हो जाती है। सभी नागरिकों की आस्था सरकार में होनी चाहिए। नागरिक चाहे बहुसंख्यक हों अथवा अल्पसंख्यक, उन्हें सरकार से भरोसा रहता है कि उनके हितों की रक्षा अवश्य होगी। दक्षिण अफ्रीका में जो संविधान बना उससे बहुसंख्यक अश्वेत और अल्पसंख्यक श्वेत दोनों को यह भरोसा हो गया कि सरकार उनके हितों और अधिकारों की रक्षा अवश्य करेगी। दक्षिण अफ्रीका ने एक ऐसे संविधान का नमूना विश्व के सामने उपस्थित किया जिसमें श्वेत एवं अश्वेत दोनों को समान मानते हुए सारे भेदभाव मिटा दिए गए। शासकों के चुनाव के नियम, सरकार के कार्य, नागरिकों के अधिकार, सरकार के अंगों के गठन इत्यादि का संविधान में स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है। स्पष्ट है कि संविधान लिखित नियमों का एक संग्रह होता है जिसे उस देश के सभी नागरिक स्वीकार करते हैं । यह किसी देश का सर्वोच्च कानून होता है जिसकी अवहेलना न तो शासक कर सकते हैं और न ही नागरिक । संविधान की आवश्यकता कई कारणों से है, जैसे —-
(i) इसमें सरकार के गठन और कार्यों का स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है।
(ii) इसमें सरकार के कार्यों को सीमा के अंतर्गत रखते हुए नागरिकों के अधिकार स्पष्ट कर दिए जाते हैं।
(iii) संविधान नागरिकों की आकांक्षाओं के अनुरूप समाज के गठन की व्यवस्था करता है ।
(iv) यह विभिन्न तरह के लोगों के बीच भरोसा और सहयोग की भावना को विकसित करता है।
इस प्रकार, कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के लिए संविधान अनिवार्य है। वैसे अलोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भी संविधान का अस्तित्व देखने को मिलता है। परंतु, लोकतांत्रिक शासन में लिखित संविधान का होना एक अनिवार्यता है।
भारतीय संविधान निर्माण की प्रक्रिया
दक्षिण अफ्रीका को संविधान की रचना में जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा उनसे भारत अपने संविधान की रचना के क्रम में जूझ चुका था। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही भारत संविधान की रचना के कार्य में जुट चुका था। जिस प्रकार संविधान की रचना के पूर्व दक्षिण अफ्रीका को नस्लवाद (श्वेत और अश्वेत का भेदभाव) की समस्या से त्रस्त रहना पड़ा, उसी प्रकार भारत को भी ब्रिटिश उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष करना पड़ा। अतः, संविधान की रचना कैसे हुई, यह जानने के पूर्व भारत के सांविधानिक इतिहास का ज्ञान आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि भारत में अँगरेज व्यापारी बनकर आए और शासक बन बैठे। सर्वप्रथम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन प्रारंभ हुआ। धीरे-धीरे भारतीयों के हृदय में कंपनी शासन के विरुद्ध असंतोष की भावना फैलती गई। भारत में अनेक देशी नरेश भी थे। भारतीय देशी नरेश, जमींदार, किसान, सैनिक, आम जनता आदि सब-के-सब असंतुष्ट थे। जहाँ भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप करने से सर्वसाधारण जनता नाराज थी, वहाँ सरकारी नौकरी नहीं मिलने से मध्यम वर्ग के लोग असंतुष्ट थे। 1857 तक आते-आते असंतोष की बिखरी लहरें एक होकर विकराल हो उठीं और उसने राष्ट्रीय विप्लव का रूप धारणकर लिया। भारतीयों ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा। इससे भारतीय उत्साहित हुए और भारत के शासन में भारतीयों की सहभागिता की माँग करने लगे। 1858 में कंपनी शासन का अंत हो गया। अब ब्रिटिश सरकार के हाथों में भारत का शासन आ गया। भारत के शासन में भारतीयों की सहभागिता के उद्देश्य से 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम बना, जिसके अनुसार केंद्रीय विधानपरिषद में गैर-सरकारी सदस्यों को भी स्थान दिया गया तथा प्रांतीय विधानपरिषद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना के साथ भारत के शासन में भारतीयों की हिस्सेदारी की माँग और बढ़ गई। परिणामस्वरूप, 1892 का भारत-परिषद अधिनियम पारित हुआ। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह कही जा सकती है कि यह अधिनियम लोकप्रिय प्रतिनिधित्व देने की दिशा में पहला प्रयास था। अधिनियम द्वारा अप्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति अपनाई गई। केंद्र में शाही विधानपरिषद की स्थापना हुई और प्रेसीडेंसियों में विधानपरिषद की स्थापना की गई। प्रेसीडेंसियों की विधानपरिषदों को बजट पर बहस करने का अधिकार दिया गया। इसके सदस्यों को सार्वजनिक महत्त्व के विषयों पर प्रश्न पूछने का भी अधिकार दिया गया। परंतु, सदस्यों को मतदान द्वारा बजट पारित अधिकार नहीं दिया गया था।
1892 के बाद ब्रिटिश संसद ने 1909 में भारतीय परिषद के नाम से भी अधिनियम पारित किया। इसे मार्ले-मिंटो सुधार जाना जाता है। मार्ले उस समय भारत- सचिव थे और लॉर्ड मिंटो वायसराय। इस अधिनियम द्वारा पहली बार केंद्रीय तथा विधानपरिषदों में निर्वाचन पद्धति शुरू की गई। प्रथम बार परिषदों में निर्वाचित सदस्यों को स्थान मिला। परिषद के कार्यों में भी वृद्धि की गई । बजट पर बहस के लिए विस्तृत नियम बनाए गए। सदस्यों को अधिकार दिया गया कि वे किसी बात के स्पष्टीकरण के संबंध में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। सदस्यों को सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रस्ताव रखने का भी अधिकार दिया गया।
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ और अँगरेजों ने भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिए 20 अगस्त 1917 को एक घोषणा की कि सम्राट सरकार की यह नीति है और उससे भारत सरकार पूर्णत: सहमत है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग में भारतीयों का संपर्क उत्तरोत्तर बढ़े और उत्तरदायी शासन प्रणाली का धीरे-धीरे विकास हो, जिससे अधिकाधिक प्रगति करते हुए स्वशासन प्रणाली भारत में स्थापित हो और वह ब्रिटिश साम्राज्य के अंग के रूप में रहे।
उपर्युक्त घोषणा को साकार करने की दृष्टि से ही 1919 का भारत सरकार अधिनियम बनाया गया। इसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से भी जाना जाता है। उस समय मांटेग्यू भारत-सचिव तथा चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे। इस अधिनियम की कई विशेषताएँ थीं; जैसे—(i) प्रांतों में आंशिक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की गई। इसके लिए प्रांतों में एक नई पद्धति की शुरुआत की गई, जो द्वैध शासन पद्धति के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके अनुसार, प्रांतीय विषयों को दो भागों में बाँटा गया — हस्तांतरित एवं संरक्षित । हस्तांतरित विषयों का शासन मंत्रियों के हाथ में रहा जो विधानपरिषदों के प्रति उत्तरदायी थे। संरक्षित विषयों का शासन गवर्नर के अधीन रहा जो कार्यकारिणी परिषद की सहायता से शासन करता था । (ii) केंद्रीय विधानमंडल में दो सदनों की पहली बार व्यवस्था की गई। प्रथम सदन का नाम केंद्रीय विधानसभा और द्वितीय सदन का नाम राज्यसभा रखा गया। (iii) विधानसभा के सदस्यों की संख्या 145 निश्चित की गई जिसमें 104 निर्वाचित और 41 मनोनीत सदस्य होते थे। विधानसभा का कार्यकाल 3 वर्ष निर्धारित किया गया। (iv) राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 60 निर्धारित की गई जिसमें 33 निर्वाचित और 27 मनोनीत सदस्य होते थे।
1919 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत 1920 में प्रथम सामान्य निर्वाचन हुआ। इस चुनाव का काँग्रेस पार्टी ने बहिष्कार किया, परंतु उदारवादी दल ने इस चुनाव में भाग लिया। विधानसभा में प्रवेशकर वे उत्तरदायी सरकार के कार्यान्वयन की समीक्षा करना चाहते थे। इस बीच चित्तरंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में स्वराज दल की स्थापना हो गई और विधानसभा के लिए हुए 1923 के दूसरे सामान्य निर्वाचन में इस दल को आशातीत सफलता मिली। विट्ठलभाई पटेल विधानसभा के प्रथम भारतीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। स्वराज दल के दूसरे लोकप्रिय नेता मोतीलाल नेहरू ने कार्यवाही में सक्रिय हिस्सा लिया और 8 फरवरी 1924 को 1919 के भारत सरकार अधिनियम में परिवर्तन करने के उद्देश्य से एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया। सरकार के विरोध के बावजूद यह प्रस्ताव पारित हो गया। विधानसभा की कार्यवाही के दौरान ब्रिटिश सरकार को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि भारत सरकार अधिनियम अनेक दोषों से परिपूर्ण है। उत्तरदायी सरकार और स्थानीय संस्थाओं के विकास की घोषणा भी घोषणामात्र ही रह गई।
सरकार पर पड़ते दबाव के कारण भारत सरकार अधिनियम के कार्यान्वयन की जाँच के लिए एक आयोग (साइमन आयोग) की नियुक्ति की गई। 1928 में साइमन आयोग का भारत आगमन हुआ, जिसका बड़े पैमाने पर बहिष्कार किया गया। भारत में सांविधानिक सुधार के लिए 1928 में सर्वदलीय सम्मेलन हुआ और मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक कमिटी बनी, जिसने भारत के संविधान की रूपरेखा तैयार की। इसे नेहरू रिपोर्ट की संज्ञा मिली। इस रिपोर्ट की मुख्य बातें थीं – (i) औपनिवेशिक स्वराज्य, (ii) प्रांतीय स्वायत्तता, (iii) सांप्रदायिक चुनाव पद्धति की अस्वीकृति और वयस्क मताधिकार की स्वीकृति, (iv) केंद्र और प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना और कार्यपालिका को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया जाना ।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन को इंगलैंड जाकर सम्राट की सरकार से विचार-विमर्श करना पड़ा। वहाँ से लौटने के बाद 31 अक्टूबर 1929 को लॉर्ड इरविन ने एक घोषणा की कि भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देना है। इस उद्देश्य से लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया। 12 नवंबर 1930 को प्रथम गोलमेज सम्मेलन लंदन में हुआ। काँग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लेने का निश्चय किया। असंतोष बढ़ता गया और 1930 में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। अँगरेजों ने भारतीयों को संतुष्ट करने की कोशिश की। 5 मार्च 1931 को महात्मा गाँधी और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ। 7 सितंबर 1931 को लंदन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन हुआ । काँग्रेस की ओर से महात्मा गाँधी ने इसमें भाग लिया। 1 दिसंबर 1931 को यह सम्मेलन बिना किसी सफलता के समाप्त हो गया। तीसरा गोलमेज सम्मेलन नवंबर 1932 में हुआ।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन में ही एक संयुक्त संसदीय समिति नियुक्त की गई, जिसकी अनुशंसा के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 पारित किया गया। इसपर ब्रिटिश सरकार द्वारा 4 अगस्त 1935 को मुहर लगाई गई। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ थीं – (i) भारतीय संघ की रचना का प्रस्ताव, (ii) संघीय कार्यपालिका का एक अंश संघीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बना, (iii) विषयों का बँटवारा कर दिया गया और तीन सूचियाँ बनाई गईं – संघ सूची में 59 विषय, प्रांतीय सूची में 54 विषय और समवर्ती सूची में 36 विषय रखे गए, (iv) संघीय न्यायालय की स्थापना का प्रावधान, (v) प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना, (vi) विधानमंडलों और मताधिकार का विस्तार इत्यादि ।
1935 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत 1937 में चुनाव हुए। इसमें काँग्रेस को पर्याप्त सफलता मिली। मंत्रिमंडल के निर्माण के प्रश्न पर मतभेद बना रहा। अंत में काँग्रेस ने अपने बहुमतवाले प्रांतों में इस शर्त के साथ मंत्रिमंडलों का निर्माण किया कि वहाँ के गवर्नर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग नहीं करेंगे । प्रांतीय स्वायत्तता को कार्यान्वित किया गया। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रश्न पर ब्रिटिश सरकार से मतभेद के कारण काँग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। 1935 के अधिनियम के अनुसार न तो संघीय योजना को कार्यरूप दिया जा सका और न ही विधानमंडल का नए सिरे से गठन किया गया। परिणामस्वरूप, भारतीयों का असंतोष कायम रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया।
संविधान सभा का निर्माण – युद्ध समाप्त होते ही 1946 में ब्रिटिश सरकार ने एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा। कैबिनेट मिशन के आगमन के साथ संविधान सभा की रचना का कार्य प्रारंभ हो गया। परंतु, इसकी रचना की प्रक्रिया को लेकर काँग्रेस और मुस्लिम लीग में मतभेद हो गया। मतभेद का मुख्य कारण ब्रिटिश प्रांतों को तीन समूहों में बाँटा जाना, तीनों समूहों को अलग रहने या संघ में मिल जाने की छूट आदि थे। इन गतिरोधों के बावजूद संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए। 9 दिसंबर 1946 तक संविधान सभा का निर्माण कार्य पूरा हो गया। संविधान सभा में 299 सदस्य थे। इनमें डॉ० राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, डॉ० अंबेडकर, तेज बहादुर सप्रू, सरोजिनी नायडू के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
संविधान सभा के सदस्य – संविधान सभा एक निर्वाचित संस्था थी। इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा हुआ था। भारत के विभिन्न भागों और वर्गों के प्रतिनिधियों को इसमें स्थान मिला। देशी राज्यों के प्रतिनिधियों को भी इसमें स्थान दिया गया। डॉ० सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे। 11 दिसंबर 1946 को डॉ० राजेंद्र प्रसाद इसके स्थायी अध्यक्ष बने।
प्रारूपण समिति का गठन – 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा द्वारा एक प्रारूपण समिति का गठन किया गया। डॉ० भीमराव अंबेडकर प्रारूपण समिति के अध्यक्ष बनाए गए। इस समिति ने काफी सोच-समझकर संविधान का प्रारूप तैयार किया। उसे फरवरी 1948 में प्रकाशित किया गया। डॉ० अंबेडकर ने 4 नवंबर 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा के सामने पेश किया। डॉ० अंबेडकर को ‘भारतीय संविधान का जनक’ कहा जाता है।
संविधान के प्रारूप की स्वीकृति – संविधान के प्रारूप पर संविधान सभा में 114 दिनों तक विचार होता रहा। उसमें 2, 473 संशोधन पेश किए गए। 26 नवंबर 1949 को नया संविधान अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया गया। इस स्वीकृत संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग तथा 8 अनुसूचियाँ थीं।
संविधान का लागू होना – 26 जनवरी 1950 को नवनिर्मित संविधान सारे भारत में लागू कर दिया गया। तत्पश्चात भारत गणतंत्र बन गया। इसी कारण 26 जनवरी को हमलोग गणतंत्र दिवस मनाते हैं।
संविधान के उद्देश्य एवं मूल्य
भारतीय संविधान के उद्देश्य एवं मूल्यों की झलक भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अंतर्गत मिलती है। परंतु, भारतीय संविधान के उद्देश्य को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने 13 दिसंबर 1946 को एक प्रस्ताव के रूप में उपस्थित किया। इसे उद्देश्य प्रस्ताव के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा था, “मैं आपके सामने जो प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहा हूँ उसमें हमारे उद्देश्यों की व्याख्या की गई है, योजना की रूपरेखा दी गई है और बताया गया है कि हम किस रास्ते पर चलने वाले हैं।” उद्देश्य प्रस्ताव में भारत को एक स्वतंत्र संप्रभुता-संपन्न
गणराज्य घोषित करने की आकांक्षा व्यक्त की गई। इसमें यह भी कहा गया कि संप्रभुता जनता में निहित होगी और सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय तथा विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना और व्यवसाय की गारंटी दी जाएगी। भारतीय संविधान के उद्देश्यों एवं मूल्यों की स्पष्ट झलक भारतीय संविधान की प्रस्तावना में देखने को मिलती है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
किसी देश के संविधान की प्रस्तावना महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। अन्य देशों की तरह भारतीय संविधान की भी एक प्रस्तावना है, जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। संविधान की प्रस्तावना संविधान की कुंजी होती है। पालन्दे का कहना सही है कि प्रस्तावना जो संविधान का अंग नहीं है, संविधान के स्रोतों, आदर्शों, लक्ष्यों और राजनीतिक ढाँचे की घोषणा करती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ने से भी संविधान के उद्देश्यों और लक्ष्यों का आभास हो जाता है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना कई विचारधाराओं से प्रभावित है। कहा जाता है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर गाँधीजी की विचारधारा गूँजती है। प्रस्तावना के शब्द काफी प्रेरणा देनेवाले हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है—-
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 को इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
प्रस्तावना का महत्त्व
भारत के संविधान की प्रस्तावना का अपना महत्त्व है। इसे पढ़ने से भारतीय संविधान के उद्देश्यों की जानकारी मिलती है; जैसे —-
1. जनता का संविधान – प्रस्तावना पढ़ने से ही पता चलता है कि हमारा संविधान जनता का संविधान है। इसका अर्थ यह हुआ जनता ने यह संविधान बनाया है। इसी कारण, ‘हम, के लोग’ से प्रस्तावना शुरू की गई है। दक्षिण अफ्रीका के संविधान की प्रस्तावना भी ‘हम, दक्षिण अफ्रीका के लोग’ से शुरू होती है। अमेरिका के संविधान की प्रस्तावना ‘संयुक्त राज्य के हम सभी लोग’ से शुरू होती है।
2. आदर्शों एवं मूल्यों की झलक – संविधान की प्रस्तावना पढ़ने से भारतीय संविधान के आदर्शों एवं मूल्यों की झलक मिलती है भारतीय संविधान के उच्च आदर्श एवं मूल्य हैं— न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व, राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता ।
3. सरकार के स्वरूप की जानकारी – प्रस्तावना में सरकार का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। भारत में लोकतंत्र की स्थापना की गई है। यह एक गणराज्य है। भारत एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न गणराज्य है। इसपर आंतरिक दबाव नहीं है। बाहरी मामलों से भी यह स्वतंत्र है। इसका उद्देश्य भारत में समाजवाद की स्थापना करना है।
4. धर्मनिरपेक्षता – प्रस्तावना में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहा गया है। 1976 में प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। धर्म के आधार पर यह अपने नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करता है। सभी लोगों को अपना-अपना धर्म मानने का अधिकार है ।
स्पष्ट है कि प्रस्तावना संविधान का आधार है। प्रस्तावना ही भारतीय संविधान के मूल्यों, आदर्शों एवं उद्देश्यों का बोध कराती है। न्यायालयों ने भी प्रस्तावना के महत्त्व एवं मूल्यों को स्वीकार किया है। se
भारतीय संविधान की विशेषताएँ
प्रत्येक देश के संविधान की कुछ विशेषताएँ होती हैं। भारत का संविधान एक लिखित संविधान है। भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं
1. दूसरे देशों के संविधान का प्रभाव – हमारे संविधान पर दूसरे देशों के संविधानों का प्रभाव पड़ा है। कई देशों के संविधानों की अच्छाइयों को जमा किया गया और उन अच्छाइयों को मिलाकर भारत के लिए एक अनोखा संविधान बनाया गया। भारतीय संविधान पर ब्रिटिश संविधान का प्रभाव सबसे ज्यादा पड़ा है। अमेरिका, आयरलैंड आदि देशों के संविधानों से भी भारत का संविधान प्रभावित है।
2. विशाल संविधान – भारत का संविधान एक विशाल संविधान है। इसमें सभी बातों का सविस्तार उल्लेख कर दिया गया है। वर्तमान में इसमें 395 अनुच्छेद, 22 भाग एवं 12 अनुसूचियाँ हैं।
3. जनता का संविधान – भारत का संविधान भारतीय जनता का है। जनता के प्रतिनिधियों ने इसे बनाया है। इन प्रतिनिधियों को जनता ने चुना। अतः, यह जनता का संविधान है। जनता के प्रतिनिधि ही इसमें संशोधन ला सकते हैं।
4. लोकतांत्रिक गणराज्य – संविधान द्वारा भारत में लोकतंत्र की स्थापना की गई है। जनता के प्रतिनिधि ही शासन चलाते हैं। संविधान द्वारा लोकतंत्र की रुकावटें दूर की गई हैं। नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता की रक्षा की गई है। भारत को एक गणराज्य घोषित किया गया है। राज्य का प्रधान राष्ट्रपति है। राष्ट्रपति एक निर्वाचित व्यक्ति होता है। वंशपरंपरा के आधार पर कोई राज्य का प्रधान नहीं बनता।
5. समाजवादी राज्य –भारत में समाजवाद की स्थापना का प्रयास बहुत दिनों से होता आया है। जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल में समाजवादी ढाँचे के समाज की स्थापना पर विशेष बल दिया गया था । संविधान में इस शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं था। 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा पहली बार भारत को समाजवादी राज्य घोषित किया गया। प्रस्तावना में इस शब्द को पहली बार जोड़ा गया ।
6. मौलिक अधिकार –संविधान ने भारत के नागरिकों को अनेक अधिकार दिए हैं। इन्हें मौलिक अधिकार कहा जाता है। संविधान में मौलिक अधिकारों की रक्षा का भी प्रबंध किया गया है।
7. संसदीय सरकार – भारत में एक द्विसदनीय संसद की व्यवस्था की गई है। लोकसभा में जनता के प्रतिनिधि चुनकर आते हैं। इसे प्रतिनिधि सभा भी कहा जाता है। सरकार अपने कामों के लिए लोकसभा के प्रति जवाबदेह होती है। लोकसभा का नेता प्रधानमंत्री होता है। अन्य मंत्री भी संसद के सदस्य होते हैं। मंत्रिपरिषद और संसद में निकट का संबंध होता है। इसे संसदीय सरकार कहते हैं।
8. धर्मनिरपेक्ष राज्य – धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ पहले ही बताया जा चुका है। नागरिकों को अपना-अपना धर्म मानने का अधिकार है। प्रत्येक नागरिक अपने-अपने धर्म का प्रचार कर सकता है। उसे अपने धर्म के अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार प्राप्त है। राज्य धर्म के मामले में तटस्थ रहता है। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती; क्योंकि इसे धर्मनिरपेक्षता की नीति का उल्लंघन माना जाता है।
9. संघीय राज्य – भारत एक संघीय राज्य है। यह राज्यों का एक संघ है। यहाँ दो तरह की सरकारें हैं – केंद्रीय सरकार और राज्य सरकार। दोनों सरकारों के अधिकार बाँट दिए गए हैं। संविधान को सर्वोच्च माना गया है। संविधान के विरुद्ध जाने का अधिकार किसी सरकार को नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का अभिभावक बनाया गया है। केंद्रीय सरकार को अधिक शक्तियाँ दी गई हैं।
10. स्वतंत्र न्यायपालिका – देश में एक स्वतंत्र न्यायपालिका का गठन किया गया है। इसका काम संविधान की रक्षा करना है, नागरिकों को निष्पक्ष न्याय दिलाना है, नागरिकों के अधिकार की रक्षा करना है और भारत में लोकतंत्र की स्थापना में मदद करना है ।
11. वयस्क मताधिकार – नागरिक ही अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। अतः, उन्हें मतदान का अधिकार दिया जाता है। भारत में वयस्कों को यह अधिकार प्राप्त है। जिसकी उम्र कम-से-कम 18 वर्ष हो गई है, उसे मतदान का अधिकार प्राप्त है। स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, काले-गोरे सबको यह अधिकार मिला है – किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है।
12. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों की रक्षा – भारत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग बहुत पिछड़े हैं। देश के विकास के लिए उनपर विशेष ध्यान देना जरूरी है। संविधान ने भी उनपर विशेष ध्यान रखा है। उनके हितों की रक्षा के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। प्रतिनिधि सभा में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। सरकारी सेवाओं में भी उनके हितों का ध्यान रखा गया है।
13. नीति निर्देशक तत्त्व – संविधान में कुछ नीति-निर्देशक तत्त्वों की चर्चा है। ये तत्त्व राज्य के कर्तव्य की तरह हैं। राज्य को शासन के लिए नीति बनाते समय उन तत्त्वों पर विशेष ध्यान देना है। ऐसे तत्त्व लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं। इनमें सभी के कल्याण की बात कही गई है। पंचायतों के विकास पर जोर दिया गया है। बच्चे, बूढ़े और स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने पर जोर दिया गया है।
14. मौलिक कर्तव्य – संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा नागरिकों के कुछ मौलिक कर्तव्य निश्चित कर दिए गए हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण मौलिक कर्तव्य हैं- संविधान का पालन करना, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करना, भारत की एकता की रक्षा करना, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना इत्यादि ।
15. विश्वशांति का समर्थक – भारतीय संविधान विश्वशांति का समर्थक है। संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि भारत अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील रहेगा। भारत की वैदेशिक नीति का मुख्य आधार विश्वशांति ही है।
16. एकल नागरिकता – हमारे देश में राष्ट्रीय अखंडता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता पर विशेष बल दिया गया है। इसी उद्देश्य से एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है। इससे स्थानीय एवं क्षेत्रीय भावना का विकास नहीं होकर राष्ट्रीय एकता का विकास होता है। संपूर्ण देश के नागरिक एक सूत्र में बँध जाते हैं। स्वाभाविक है कि राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान मिल-जुलकर करने में वे समर्थ हो जाते हैं।
इस प्रकार, भारत का संविधान अनेक विशेषताओं से भरा है। आवश्यकता पड़ने पर इसमें संशोधन होते रहते हैं। अब तक संविधान में कई संशोधन हुए हैं। इस प्रकार, भारत का संविधान परिवर्तनशील है। परंतु, संविधान की सफलता बहुत हद तक उसे कार्यान्वित करनेवालों की कुशलता पर निर्भर है।
स्मरणीय
>> भारत में लोकतंत्र की स्थापना में सबसे बड़ा योगदान भारतीय संविधान का है।
>> भारतीय संविधान में ही घोषणा कर दी गई है कि भारत एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। भारतीय लोकतंत्र को प्रतिनिधिक लोकतंत्र कहा गया है। इसीलिए, प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए विशेष व्यवस्था की गई है।
>> 9 दिसंबर 1946 को भारत के लिए संविधान बनाने हेतु संविधान सभा का गठन हुआ।
>> संविधान सभा के सदस्य निर्वाचित होकर आए थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद इसके अध्यक्ष थे।
>> संविधान बनाने के लिए 29 अगस्त 1947 को एक प्रारूपण समिति बनी। इसके अध्यक्ष डॉ० भीमराव अंबेडकर थे। उन्होंने संविधान का प्रारूप तैयार किया।
>> 26 नवंबर 1949 को नया भारतीय संविधान तैयार हुआ। संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। इसी कारण संपूर्ण भारत में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया जाता है।
>> अन्य देशों की तरह भारत के संविधान की भी एक प्रस्तावना है। प्रस्तावना से कई बातों की जानकारी मिलती है; जैसे— जनता का संविधान, आदर्शों एवं मूल्यों की झलक, सरकार के स्वरूप की जानकारी, धर्मनिरपेक्षता इत्यादि।
>> भारत में लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई है।
>> संविधान शासन की वह रूपरेखा है जिसके द्वारा राज्य विभिन्न आदर्शों की पूर्ति का प्रयास करता है।
>> प्रत्येक देश का अपना संविधान होता है और उसकी अपनी विशेषताएँ भी होती हैं।
>> भारतीय संविधान की कई विशेषताएँ हैं। इसपर अन्य देशों के संविधानों का भी प्रभाव है।
>> भारत का संविधान विशाल है। यह भारतीय जनता का संविधान है। इसके द्वारा भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है।
>> संविधान द्वारा भारत में संसदीय सरकार, संघीय राज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य और स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की गई है।
>> नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार दिए गए हैं। वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई है।
>> अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों पर विशेष ध्यान दिया गया है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में लोककल्याण की बात कही गई है।
>> संविधान में अब तक कई संशोधन हो चुके हैं। संविधान की सफलता उसे कार्यान्वित करनेवालों की कुशलता पर निर्भर है।