समकालीन विश्व में लोकतंत्र

समकालीन विश्व में लोकतंत्र

इक्कीसवीं शताब्दी लोकतंत्र की शताब्दी है। विश्व के अधिकांश देश लोकतंत्र के मार्ग पर अग्रसर हैं। इस अध्याय में आप देखेंगे कि विगत सौ वर्षों में विश्व के अधिकांश देशों में लोकतंत्र ने किस प्रकार अपना पाँव जमाया है। आज विश्व के अधिकांश देशों में लोकतांत्रिक सरकारें स्थापित हो चुकी हैं और अनेक देश इसके लिए प्रयत्नशील भी हैं। लोकतंत्र का विकास विश्व में सहज ढंग से नहीं हुआ है। अनेक देशों में इसके लिए संघर्ष करना पड़ा है। इस अध्याय में लोकतंत्र के उतार-चढ़ाव की कहानी से अवगत कराया जाएगा। आज भी लोकतंत्र को संक्रमणकाल से गुजरना पड़ रहा है। जिन देशों में लोकतंत्र स्थापित हो चुका है वहाँ भी यह भय हमेशा बना हुआ है कि कब यह संकट के बादलों से घिर जाएगा। इन बाधाओं के रहते हुए भी विश्व के अधिकांश निवासियों में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ती ही जा रही है। विश्व रंगमंच पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों में ही विश्वास रख रही हैं। इस प्रकार, हमलोग वैश्विक लोकतंत्र के मार्ग पर निरंतर अग्रसर हैं।

लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष की कहानी

आपको ज्ञात होगा कि लोकतंत्र की बहाली के लिए भारत के पड़ोसी राज्य नेपाल में 6 अप्रैल 2006 से सात राजनीतिक दलों के गठबंधन द्वारा जबरदस्त आंदोलन चलाया गया और इस आंदोलन को अंततः सफलता भी मिली। इसका मुख्य कारण यह था कि इस आंदोलन को जनसमर्थन प्राप्त था । लोकतंत्र की बहाली के लिए नेपाल की जनता बेचैन थी। इसके लिए उसमें आक्रोश था और इस जनाक्रोश के सैलाब के आगे राजशाही को झुकना पड़ा। 24 अप्रैल 2006 का दिन सदा याद रहेगा, क्योंकि इसी दिन नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र ने संसद को बहालकर सत्ता सात राजनीतिक दलों के गठबंधन को सौंपने की घोषणा की थी। नेपाल में लोकतंत्र का पुनर्जन्म हुआ। विश्व के अनेक देशों के नाम गिनाए जा सकते हैं जहाँ संघर्ष के बाद लोकतंत्र की स्थापना की जा सकी। कहीं सत्ता सैनिक शासक के पास थी, तो कहीं एक राजनीतिक दल के अधिनायकत्व के पास, तो कहीं राजशाही के पास अनेक उतार-चढ़ाव के बाद अंततः सफलता लोकतंत्र को ही मिली।
जब हम इतिहास के पन्नों को उलटते हैं तो हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि लोकतंत्र की स्थापना के लिए अनेक देशों में जन-आंदोलन हुए हैं। ब्रिटेन एक ऐसा देश है जहाँ स्वतः लोकतंत्र ने धीरे-धीरे अपना पैर जमाया और राजशाही के सारे अधिकार उसके द्वारा छीन लिए गए। दक्षिणी अमेरिका के एक देश चिली में 11 सितंबर 1973 को लोकतंत्र समाप्त कर सैनिक शासन स्थापित हो गया। चिली के तत्कालीन राष्ट्रपति आयेंदे की हत्याकर शासन की बागडोर जनरल ऑगस्तो पिनोशे ने हथिया ली। वह 15 वर्षों तक चिली का राष्ट्रपति बना रहा। परंतु, पिनोशे की सैनिक तानाशाही का तो अंत होना ही था। 1988 में उसने इस प्रत्याशा में जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया कि जनता उसके शासन को जारी रखने के पक्ष में ही मतदान करेगी। परंतु, पासा पलट गया। अपार बहुमत से जनता ने पिनोशे की सत्ता को नकार दिया। चिली की जनता अपनी लोकतांत्रिक परंपरा को भूल नहीं -सकी थी और जब उसे लोकतंत्र बहाल करने का अवसर मिला तब भला वह चूक कैसे करती? अंततः, चिली में लोकतंत्र की बहाली हो गई। 2006 के जनवरी माह में ऑगस्तो पिनोशे की तानाशाही के दौरान दमन का शिकार रही समाजवादी विचारधारा की मिशेल बैशेले चिली की राष्ट्रपति निर्वाचित हुई ।
इस प्रकार, विश्व रंगमंच पर दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ – नेपाल में लोकतंत्र की बहाली और चिली में 1988 में पिनोशे की हार तथा 2006 में लोकतांत्रिक आंदोलन की नेत्री मिशेल बैशेले का राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होना लोकतंत्र में जनता की आस्था को दर्शाता है। अंतर केवल इतना ही है कि जहाँ नेपाल में राजशाही के अत्याचार के विरुद्ध आंदोलन हुआ, वहाँ चिली में सैनिक तानाशाही के विरुद्ध । परंतु, दोनों स्थितियों में लोकतंत्र की ही विजय हुई ।
विश्व में कुछ ऐसे भी देश हैं जहाँ न तो राजतंत्र की तानाशाही है और न सैनिक शासन की, परंतु वैसे देश भी तानाशाही के चंगुल से मुक्त होने और लोकतंत्र की स्थापना के लिए बेचैन हैं। पोलैंड इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। वहाँ पोलिश यूनाइटेड वर्कर्स पार्टी की तानाशाही थी। अन्य राजनीतिक दलों को राजनीति में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। एकल दल की सरकार के रवैये के विरुद्ध वहाँ के मजदूर संगठित हो रहे थे। वहाँ हड़ताल करना भी गैरकानूनी था। फिर भी, साहसकर एक महिला कर्मचारी के ‘लेनिन जहाज कारखाना’ से निष्कासन के प्रश्न पर मजदूरों ने हड़ताल कर दी। लेक वालेशा नामक कर्मचारी के नेतृत्व में पोलैंड में मजदूर संघर्ष शुरू हुआ। आंदोलन में लेक वालेशा को सफलता मिली और एक नया मजदूर संगठन ‘सोलिडरनोस्क’ (सोलिडेरिटी) का गठन हुआ। एकल राजनीतिक दल की तानाशाहीवाले राज्य में स्वतंत्र मजदूर संघ का गठन एक ऐतिहासिक घटना थी। मजदूर संघ की लोकप्रियता बढ़ते देख पोलैंड की तत्कालीन सरकार ने दिसंबर 1981 में मार्शल लॉ की घोषणा कर डाली। सोलिडेरिटी के सदस्यों को कैदकर अनेक यातनाएँ दी गईं। परंतु, पोलैंड में आंदोलन रुका नहीं। अंत में, सरकार को मजदूर संघ से समझौता करना पड़ा। सरकार द्वारा स्वतंत्र चुनाव कराने की माँग स्वीकार कर ली गई। पोलैंड की सीनेट की सभी 100 सीटों के लिए चुनाव हुआ, जिसमें सोलिडेरिटी को 99 स्थानों पर सफलता मिली। अक्टूबर 1990 में राष्ट्रपति पद के लिए भी चुनाव हुआ और लेक वालेशा पोलैंड के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
विश्व रंगमंच पर घटित उपर्युक्त तीनों घटनाएँ इस बात के द्योतक हैं कि लोग लोकतंत्र को ही सर्वोत्तम शासन मान रहे हैं। इसी आधार पर कहा जाता है कि आज लोकतंत्र का युग है। आज विश्व की अधिकांश जनता लोकतंत्ररूपी खुले आकाश के नीचे साँस ले रही है। विश्व के अधिकांश देश किसी-न-किसी रूप में लोकतांत्रिक सरकार को गले लगा चुके हैं। जहाँ सही अर्थ में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका है, वहाँ भी लोग अपने को सर्वाधिक लोकतांत्रिक देश का निवासी कहने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के पूर्व जब साम्यवादी दल का अधिनायकत्व था तब भी सोवियत नेता कहा करते थे कि उनका देश विश्व का सर्वाधि लोकतांत्रिक देश है। अपने कथन के पक्ष में वे तर्क दिया करते थे कि अन्य लोकतांत्रिक राज्यों से भिन्न सोवियत संघ आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर चुका है। काम पाने का अधिकार लोगों का मौलिक अधिकार है। लोगों को योग्यता के अनुसार काम मिलता है और आवश्यकता के अनुसार पारिश्रमिक।

लिच्छवी गणतंत्र

लोकतंत्र के विस्तार के अध्ययन के क्रम में सबसे पहले प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का अवलोकन करना सही रहेगा। भारत के गंगा तट पर छठी शताब्दी ई०पू० में कई गणराज्य ऐसे थे जहाँ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं। ऐसे गणराज्य बुद्धकाल में भी फल-फूल रहे थे। ऐसे गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, कुशीनारा एवं पावा के मल्ल, मिथिला के विदेह तथा अनेक छोटे-मोटे गणराज्यों के नाम गिनाए जा सकते हैं जहाँ लोकतांत्रिक परंपरा स्थापित हो चुकी थी। परंतु, भारत के लोकतंत्र के विकास में लिच्छवी गणतंत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लिच्छवी गणतंत्र की शासन व्यवस्था लोकतंत्र के सिद्धांतों पर ही आधृत थी, जिसे भारत में आधुनिक लोकतंत्र का उद्गमस्थल कहा जा सकता है। लिच्छवी गणतंत्र की राजधानी वैशाली थी, जिसका संस्थापक राजा विशाल था। वर्तमान में वैशाली बिहार का एक जिलामात्र है, परंतु लिच्छवियों से संबद्ध होने के कारण आज भी वैशाली भारतीय मानचित्र में विशेष स्थान रखती है।
जिस समय विश्व के अधिकांश देशों में राजतंत्र प्रचलित था और निरंकुश शासन का बोलबाला था, उस समय लिच्छवी गणतंत्र में समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांत दृष्टिगोचर होते थे, जो आधुनिक प्रजातंत्र के मूलाधार हैं। लिच्छवी गणतंत्र में राज्य की समस्त शक्ति जनता में निहित थी। राजा का अस्तित्व तो था, परंतु उसकी स्थिति जनता के सेवक के रूप में मान्य थी । प्रजा की भलाई करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य था। राज्य शक्ति समूह में निहित थी। अनेक सदस्यों से बनी संस्था परिषद कहलाती थी । परिषद की कार्यवाही जिस भवन में होती थी उसे संथागार कहा जाता था। संथागार में बैठकर राज्य के सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर विचार किया जाता था। परिषद के सभापति को राजा कहा जाता था। लिच्छवी गणतंत्र में राजाओं की संख्या असंख्य ” थी। राजाओं के साथ शासन करनेवाले उपराजा, सेनापति और अन्य पदाधिकारियों की संख्या भी बहुत अधिक होती थी। परिषद की बैठक के लिए गणपूर्ति की भी व्यवस्था थी । प्रायः प्रत्येक प्रस्ताव पर गहन वादविवाद होता था । बहुमत अथवा सर्वसम्मति से ही कोई ठोस निर्णय लिया जाता था। परिषद से अनुपस्थित सदस्यों को भी यह अधिकार था कि वे लिखकर अपना मत दे सकें। उनके मतों को गुप्त रखा जाता था। इस प्रकार, लिच्छवी गणतंत्र में गुप्त मतदान पद्धति भी विद्यमान थी। परिषद की बैठकों के उचित संचालन के लिए नियम भी बने हुए थे एवं परिषद में अनुशासन का पालन होता था। किसी प्रस्ताव पर अंतिम निर्णय होने के बाद उसपर पुनर्विचार नहीं होता था। परिषद के सदस्यों के अनुचित व्यवहार की स्थिति में उनके विरुद्ध निंदा का प्रस्ताव भी लाया जाता था। परिषद का एक कार्यालय भी होता था, जहाँ अभिलेखों को सुरक्षित रखा जाता था।
लिच्छवी गणतंत्र में प्रशासन की समुचित व्यवस्था थी। शासन की सुविधा के लिए अनेक विभाग होते थे; जिनमें सेना, वित्त तथा न्याय विभाग का प्रमुख स्थान था। सेना के प्रधान को सेनापति, वित्त विभाग के प्रधान को भांडागारिक तथा न्याय विभाग के प्रधान को विनिश्चयामात्य कहा जाता था। राज्य की रक्षा के लिए प्रत्येक युवक को सैनिक शिक्षा दी जाती थी। न्यायालयों की भी समुचित व्यवस्था थी । आधुनिक युग की ही तरह दीवानी, फौजदारी तथा राजस्व न्यायालय थे । स्थानीय स्वशासन की भी व्यवस्था थी। नगर की समुचित व्यवस्था तथा शांति-रक्षा के लिए नगरगुतिक का पद था ।
उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लिच्छवियों का गणतंत्र अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण था। उनमें आदर, दृढ़ता, मतैक्य, सौहार्द जैसी भावनाओं की धारा प्रवाहित हो रही थी। लिच्छवी गणतंत्र की प्रशंसा आज भी होती है। भगवान बुद्ध लिच्छवी गणतंत्र में विद्यमान सहिष्णुता की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया था कि जब तक लिच्छवी गणतंत्र के सिद्धांतों का पालन करते रहेंगे, उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकेगा। अंत में यही कहा जा सकता है कि लिच्छवी गणतंत्र का शासन निश्चित आदर्श पर आधृत था।

आधुनिक लोकतंत्र का बदलता मानचित्र

नेपाल, चिली और पोलैंड में घटी घटनाओं के आधार पर हमलोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी लोकतंत्र के लिए संक्रमणकाल की शताब्दी रही। इस शताब्दी में लोकतंत्र को अनेक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा। यह शताब्दी लोकतंत्र के लिए चुनौतियों और संघर्ष से भरी शताब्दी सिद्ध हुई । लोकतंत्र की बहाली के लिए लोगों को जन-आंदोलन का सहारा लेना पड़ा। लोकतंत्र को समाप्त करने में चाहे सैनिक शासन का हाथ रहा हो, राजतंत्र का हाथ रहा हो अथवा किसी राजनीतिक दलविशेष का हाथ रहा हो, जनता को उसकी बहाली के लिए कठिन संघर्ष करना ।
ही पड़ा है। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद लोकतंत्र की स्थापना के लिए विभिन्न देशों में होड़ लग गई। भारतवर्ष भी द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1947 में स्वतंत्र हुआ और यहाँ भी लोकतांत्रिक शासन की स्थापना हुई। अनेक उपनिवेशों के स्वतंत्र होने का सिलसिला शुरू हुआ और लोकतंत्र की स्थापना स्वतंत्र देशों में होती चली गई। 1975 के आते-आते अनेक स्वतंत्र देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो गई। 2000 तक तो लोकतंत्र सर्वाधिक लोकप्रिय हो गया। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद 15 गणराज्यों में से अधिकांश ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को गले लगाया। विश्व के अधिकांश देशों में लोकतंत्र की स्थापना होती गई। स्वाभाविक है कि लोकतंत्र का मानचित्र बदलता चला गया। इस बदलते मानचित्र के आधार पर निम्नांकित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं
(i) बीसवीं शताब्दी में विश्व के अधिकांश क्षेत्रों में लोकतंत्र का विस्तार होता चला गया।
(ii) लोकतंत्र का विस्तार एक ही साथ सभी क्षेत्रों में नहीं हुआ। कुछ क्षेत्रों में लोकतंत्र की स्थापना का प्रभाव अन्य क्षेत्रों पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप, उन क्षेत्रों में भी लोकतंत्र की स्थापना का क्रम शुरू हुआ।
(iii) आज विश्व के अधिकांश देश लोकतांत्रिक बन चुके हैं, परंतु अभी भी कुछ देश ऐसे हैं जहाँ गैर-लोकतांत्रिक सरकारें विद्यमान हैं।

लोकतंत्र के विस्तार के मुख्य चरण

विश्व स्तर पर लोकतंत्र के विस्तार को वर्तमान स्थिति तक पहुँचने में कई चरणों से गुजरना पड़ा है। सर्वप्रथम प्राचीन यूनान के एथेंस नामक नगर- राज्य तथा भारत के कुछ क्षेत्रों में लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक शासन व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। परंतु, आधुनिक लोकतंत्र का आरंभ सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में हुआ। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ने लोकतंत्र के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी। इसी क्रांति ने विश्व में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का नारा बुलंद किया । फ्रांस को राजनीति की प्रयोगशाला कहा गया है। यहाँ सभी तरह की शासन पद्धतियों का प्रयोग हुआ। कभी निरंकुश राजतंत्र, कभी लोकतंत्र और कभी गणतंत्र को फ्रांस ने गले लगाया । लोकतंत्र में आस्था व्यक्त की गई तथा बड़े उत्साह के साथ लोकतंत्र की स्थापना भी हुई। परंतु, वहाँ स्थायी लोकतंत्र की स्थापना में सफलता नहीं मिल सकी। फ्रांस की कहानी लोकतंत्र की स्थापना करने, फिर उसे उखाड़ फेंकने, पुनः उसकी बहाली के प्रयास की कहानी है। फिर भी, यूरोप के देशों में लोकतंत्र की स्थापना में फ्रांसीसी क्रांति की भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती रहेगी।
ब्रिटेन में 1688 की गौरवपूर्ण क्रांति के साथ ही लोकतंत्र के विकास की कहानी प्रारंभ हो गई। आज तक राजतंत्र को जीवित रखनेवाला देश लोकतंत्र के विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहा। यह बात सही है कि प्रारंभ में प्रगति की गति बहुत धीमी रही। परंतु, लोकतंत्र को धीरे-धीरे राजतंत्र के सारे अधिकारों को छीनने में सफलता मिलती चली गई। लोकतंत्र की लहर उत्तरी अमेरिका के ब्रिटिश उपनिवेशों में भी फ्रांसीसी क्रांति के दो-तीन वर्ष पूर्व ही प्रवेश कर चुकी थी। परिणामस्वरूप, उत्तरी अमेरिका स्थित ब्रिटिश उपनिवेश स्वतंत्र हो गए और उन्होंने मिलकर संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन किया, जिसने 1787 में लोकतांत्रिक संविधान को गले लगाया। ब्रिटेन और अमेरिका में लोकतंत्र की तो स्थापना हो गई, परंतु दोनों देशों में मतदान का अधिकार पुरुषों तक ही सीमित रहा। मताधिकार के विस्तार की माँग शुरू हुई। इसका कारण यह रहा कि उन्नीसवीं शताब्दी तक लोकतंत्र राजनीतिक समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर ही आधृत रहा। लोकतंत्र का ध्यान सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की ओर आकृष्ट नहीं हो सका । लोकतंत्र की सही पहचान यही है कि इस शासन व्यवस्था में लोगों को अपने शासक को स्वयं चुनने का अवसर प्राप्त रहता है। यह तभी संभव है जब सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्राप्त हो। उन्नीसवीं शताब्दी तक मताधिकार को सार्वजनिक नहीं किया जा सका। मताधिकार में भी मतभेद बना रहा। कुछ देशों में मताधिकार उन्हें ही प्राप्त था जिनके पास संपत्ति थी। 1965 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में काले लोगों (नीग्रो) को मताधिकार नहीं दिया गया था। प्रायः, महिलाओं को तो मताधिकार से वंचित ही रखा गया था। अतः, पुरुष – नारी, धनी-गरीब और काले-गोरे का भेदभाव मिटाकर सबों को समान मताधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ा। 1893 तक केवल न्यूजीलैंड के नागरिकों को ही बिना भेदभाव के मताधिकार प्राप्त था। इस विवेचना से स्पष्ट है कि लोकतंत्र के विस्तार के इस चरण में यूरोप, उत्तरी अमेरिका और लैटिन अमेरिका के देशों में ही लोकतंत्र की स्थापना हो सकी और वह भी सार्वजनिक वयस्क मताधिकार की जगह सीमित मताधिकार के साथ।
एक लंबी अवधि तक एशिया और अफ्रीका के अधिकांश देश यूरोपीय देशों की पराधीनता में फँसे रहे। स्वाभाविक था कि इन देशों में स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए आंदोलन चलता रहा। ऐसे देश न केवल यूरोपीय देशों के नियंत्रण से मुक्त होना चाहते थे, बल्कि वे अपनी सरकार बनाने की चाह भी कर रहे थे। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की परिणति 1947 में स्वतंत्र भारत के रूप में हुई तथा यह लोकतंत्र के रास्ते पर चल पड़ा। यहाँ आज भी लोकतंत्र बना हुआ है। भारत की तरह अन्य देश भी स्वतंत्र होने के लिए संघर्षरत रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संघर्षरत देशों को सफलता मिलती चली गई और भारत के साथ अन्य देश भी स्वतंत्र होते चले गए। स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ-साथ ऐसे देशों में लोकतांत्रिक शासन की स्थापना का भी प्रयास शुरू हुआ। परंतु, उन देशों का भाग्य भारत जैसा नहीं रहा। पश्चिमी अफ्रीका का देश घाना 1957 में एक स्वतंत्र राज्य के रूप में उदित हुआ। बड़े उत्साह के साथ घाना में लोकतांत्रिक सरकार बनाई गई। भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मित्र एवं अफ्रीका में लोकतंत्रवादियों के प्रेरणा पुरुष एनक्रूमा घाना के प्रधानमंत्री और बाद में राष्ट्रपति बने। परंतु, उनके भाग्य में लोकतांत्रिक राज्य का राष्ट्रपति बने रहना नहीं था, जबकि उन्होंने अपने-आपको आजीवन राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित करा लिया था। 1966 में एनक्रूमा को हटाकर सैनिक शासन की स्थापना हो गई। घाना की तरह ही अन्य अफ्रीकी स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक राज्यों की दशा भी बहुत अच्छी नहीं रही। ऐसे राज्यों में लोकतंत्र अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सका।
1980 से लोकतंत्र के विस्तार का वर्तमान चरण प्रारंभ होता है। 1980 के बाद से ही लैटिन अमेरिका के अनेक देशों में लोकतंत्र की स्थापना हुई। अनेक देशों में लोकतंत्र की स्थापना की प्रक्रिया चलती रही। सोवियत संघ के विघटन ने इस प्रक्रिया की गति को और बढ़ा दिया। सोवियत संघ के विघटन के पूर्व ही अनेक साम्यवादी देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस सहित इसमें सम्मिलित गणराज्यों में लोकतंत्र की स्थापना हो गई। इसी अवधि में भारत के पड़ोसी राज्यों में भी लोकतंत्र के लिए उत्साह जगा । पाकिस्तान और बांग्लादेश में 1990 के दशक में ही सैनिक शासन को समाप्तकर लोकतांत्रिक सरकार स्थापित हुई। नेपाल में भी नरेश ने अपने अधिकारों को लोकतंत्र के हवाले कर दिया और स्वयं सांविधानिक प्रधान बने रहना पसंद किया। दुर्भाग्यवश पाकिस्तान और नेपाल में यह परिवर्तन स्थायी रूप धारण नहीं कर सका। 1999 में पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने पुनः सैनिक शासन स्थापित कर लिया। 2005 में नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र ने निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार को पदच्युत कर दिया और लोकतांत्रिक अधिकारों से जनता को वंचित कर दिया। 2006 में नेपाल में लोकतंत्र की वापसी हो गई। मई 2008 में संविधान सभा का भी चुनाव संपन्न हो गया । नेपाल में लोकतांत्रिक गणराज्य स्थापित हो गया और राष्ट्रपति पद पर डॉ० राम बरन यादव और प्रधानमंत्री पद पर पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ पदस्थापित हुए थे। पाकिस्तान में भी जनरल मुशर्रफ को जन-आंदोलन के सामने झुकना पड़ा और चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। चुनाव संपन्न हुआ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की गठबंधन की सरकार बनी। यूसुफ रजा गिलानी को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तथा आसिफ अली जरदारी को राष्ट्रपति के पद पर पदस्थापित किया गया था। 2019 में नेपाल एवं पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारें सत्ता पर काबिज हैं।
लोकतंत्र के विस्तार के विभिन्न चरणों की विवेचना से य बात स्पष्ट हो जाती है कि लोकतंत्र आज के युग की पुकार बन चुका है। लोकतंत्र के विस्तार का वर्तमान चरण अभी अस्तित्व में है। जिन देशों में लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकी है वहाँ के लोग इसके लिए प्रयत्नशील हैं। यह बात दूसरी है कि जिन देशों में लोकतंत्र की अब तक स्थापना नहीं हो सकी है वहाँ की जनता न तो अपने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त कर सकती है और न अपने शासकों को चुन सकती है। अपने वर्तमान और भविष्य के संबंध में भी वह स्वयं निर्णय नहीं ले सकती है।
आज भी कई देश लोकतंत्र के विस्तार के लिए प्रयत्नशील हैं। म्यांमार (बर्मा) इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। 1948 में म्यांमार औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुआ और अपने यहाँ लोकतांत्रिक सरकार स्थापित करने में सफल रहा। परंतु, दुर्भाग्यवश 14 वर्षों के बाद ही 1962 में वहाँ सैनिक शासन की स्थापना हो गई । लगभग 28 वर्षों के अंतराल के बाद 1990 में वहाँ निर्वाचन हुआ और आंग सान सू ची के नेतृत्ववाली नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी नामक पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ। दुर्भाग्य की बात यह है कि वहाँ के सैनिक शासक ने निर्वाचन को अस्वीकार करते हुए अपने पद को छोड़ने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, सू ची एवं उनके समर्थक नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। लोकतंत्र के समर्थकों को अनेक यातनाएँ दी गईं। सू ची के नेतृत्व में लोकतंत्र के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो चुकी है और इसके लिए सू ची को नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। लंबे संघर्ष के फलस्वरूप मार्च 2016 के चुनाव में सूची का सपना साकार हुआ और तत्पश्चात उसकी पार्टी के उम्मीदवार राष्ट्रपति के पद पर पदासीन हुए। इस प्रकार, म्यांमार में लोकतंत्र की स्थापना हुई ।

वैश्विक लोकतंत्र की परिकल्पना

आज का युग अंतरराष्ट्रवाद का युग है। आज हम एक विश्व, एक राज्य की कल्पना करने लगे हैं। इसके साथ ही विश्व स्तर पर लोकतांत्रिक सरकार को भी साकार करने में जुट गए हैं। कहने का अर्थ यह है कि हम वैश्विक लोकतंत्र की स्थापना की ओर अग्रसर हैं। यह बात सही है कि विश्व के विभिन्न देशों की तरह विश्व स्तर पर न तो कोई सरकार है और न उसके आदेश के पालन करनेवाले लोग। विश्व स्तर पर कोई संप्रभु संस्था नहीं है। परंतु, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था अवश्य वर्तमान है जिसके 193 राज्य सदस्य हैं और यह संस्था लोकतांत्रिक ढंग से कार्य कर रही है। लोकतंत्र समानता के सिद्धांत पर आधृत है। समानता का सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र में भी विद्यमान है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा के प्रत्येक सदस्य राष्ट्र को एक ही मत देने का अधिकार है। इसकी बैठक वर्ष में एक बार अवश्य होती है। इसका अपना एक निर्वाचित अध्यक्ष होता है जिसका निर्वाचन संयुक्त राष्ट्र के सदस्य राज्यों के प्रतिनिधि मिलकर करते हैं। इसकी भूमिका लगभग वैसी ही है जैसी किसी देश की संसद की होती है। शांति तथा सुरक्षा, मानव-कल्याण और मानव अधिकारों का प्रतिपादन करनेवाले सभी मामलों पर महासभा विचार-विमर्श करती है। संयुक्त राष्ट्र का बजट पास करना भी महासभा का ही काम है।
संयुक्त राष्ट्र का दूसरा अंग 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद है । इसके पाँच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं। स्थायी सदस्यों में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन हैं। विभिन्न राष्ट्रों के अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाना सुरक्षा परिषद का ही कार्य है। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन महासभा द्वारा दो वर्षों के लिए होता है। परंतु, वास्तविक अधिकार पाँच स्थायी सदस्यों के पास ही है। प्रत्येक स्थायी सदस्य को निषेधाधिकार (वीटो) प्राप्त है। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी निर्णय पाँचों स्थायी सदस्यों की सहमति से ही लिया जा सकता है। यदि एक भी सदस्य निर्णय के विरुद्ध मत देता है तो निर्णय स्थगित हो जाता है। समानता का सिद्धांत अधिकांश देशों को संयुक्त राष्ट्र को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की माँग को उजागर करने की प्रेरणा देता है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा जैसे परिषद की तरह अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं; अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक में भी निर्णय कुछ सदस्यों की आपसी सहमति से लिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सभी 189 सदस्य राज्यों को समान मताधिकार प्राप्त नहीं है। जो सदस्य-राज्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में जितना धन देता है, उसी अनुपात में उसके मत का वजन भी होता है। विश्व बैंक की मतदान प्रणाली भी उसी तरह की है। विश्व बैंक की अध्यक्षता हमेशा कोई अमेरिकी ही करता रहा है जिसका मनोनयन अमेरिकी वित्तमंत्री करता है।
यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक में निर्णय लेने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक है? क्या अन्य लोकतांत्रिक राज्यों में कार्यपालिका अथवा संसद कुछ लोगों की सहमति से ही निर्णय ले सकती हैं? दोनों का उत्तर स्पष्ट रूप से नकारात्मक है। इससे यह निष्कर्ष निकालना भी आसान है कि विभिन्न लोकतांत्रिक राज्यों की तरह अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ लोकतांत्रिक परंपरा का निर्वाह नहीं कर रही हैं। इस संबंध में एक प्रश्न और उठता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ अधिक लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाने के लिए प्रयत्नशील हैं? दुर्भाग्यवश इस प्रश्न का उत्तर भी उत्साहवर्द्धक नहीं है। सत्य यह है कि जहाँ विभिन्न राष्ट्र अधिक लोकतांत्रिक बनने के प्रयास में जुटे हुए हैं, वहाँ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ कम-से-कम लोकतांत्रिक बनने की इच्छुक हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि जब विश्व में दो महाशक्तियों – सोवियत संघ और – संयुक्त राज्य अमेरिका में शक्ति प्रदर्शन की होड़ थी तब अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भी शक्ति-संतुलन बना हुआ था। सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व की एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरकर आने से विश्व स्तर पर लोकतंत्र का विस्तार अवरुद्ध हो गया है। अमेरिका का यह प्रभुत्व अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के क्रियाकलापों को प्रभावित करने लगा है। अमेरिका का यह तर्क है कि विश्व स्तर पर लोकतंत्र के विस्तार के लिए अलोकतांत्रिक राज्यों पर अंकुश लगाना आवश्यक है। आवश्यकता पड़ने पर अलोकतांत्रिक राज्यों की तानाशाही समाप्त करने के लिए युद्ध का सहारा लेना उचित है । इराक पर अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों के आक्रमण का उद्देश्य कभी भी लोकतंत्र की बहाली करना था, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। विश्व स्तर पर लोकतंत्र के विस्तार के लिए उसी तरह के जन-आंदोलन की आवश्यकता है जैसा नेपाल, चिली, पोलैंड आदि देशों में लोकतंत्र की बहाली के लिए हुआ । विश्व स्तर पर लोकतंत्र का विस्तार तभी संभव है जब इसे जनसमर्थन मिले और शांति का मार्ग अपनाया जाए। जिस तरह लोगों के संघर्ष एवं पहल से किसी देश में लोकतंत्र सशक्त होता है, उसी तरह वैश्विक मामलों में यह पहल भी लोगों के संघर्षों से ही मजबूत होगी और आगे बढ़ेगी।

स्मरणीय

लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष की कहानी बहुत रोचक है। नेपाल में लोकतंत्र की वापसी के लिए संघर्ष, चिली का लोकतंत्रीय आंदोलन, पोलैंड का मजदूर संघर्ष इसका स्पष्ट उदाहरण है।
 भारत के लोकतंत्र के विकास में लिच्छवी गणतंत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बिहार के वैशाली जिला में लिच्छवी गणतंत्र का प्रादुर्भाव हुआ था। यहाँ राजा जनता के सेवक के रूप में पदस्थापित था। लिच्छवी गणतंत्र लोकतंत्र के सिद्धांतों पर आधृत था।
 लोकतंत्र ने आधुनिक विश्व के मानचित्र को ही बदल डाला है। अधिकांश देश लोकतांत्रिक बन चुके हैं। फिर भी, कुछ देश ऐसे हैं जहाँ गैर-लोकतांत्रिक सरकार विद्यमान है।
 लोकतंत्र के विस्तार को तीन चरणों में बाँटा गया है।
 आज विश्व स्तर पर लोकतंत्र का विस्तार हो चुका है। हम वैश्विक लोकतंत्र की स्थापना की ओर अग्रसर हैं। विश्व स्तर पर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था भी लगभग लोकतांत्रिक ढंग से कार्य करने का प्रयास कर रही है।

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