सांप्रदायिक हिंसा
सांप्रदायिक हिंसा
भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता
भारत एक बहु-धार्मिक, बहु-जातीय, बहु-सांस्कृतिक तथा बहु-आयामी देश है। अनेकता में एकता, भारतीय सभ्यता की सुंदरता एवं अनूठापन है। भारतीय संविधान एक ऐसे प्रयास का फल है जिसका स्वभाव भारतीय राजनीति में मिश्रित संस्कृति तथा स्थाई मूल्यों को प्रोत्साहित करना है। अपनी प्रस्तावना, मौलिक अधिकार तथा निदेशात्मक निर्देश के द्वारा भारतीय संविधान ने समानता तथा निरपेक्षता के आधार पर एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की है। देश के सर्वोच्च न्याया
लय ने संविधान के मूलभूत ढांचे में ‘धर्मनिरपेक्ष’ जोड़ दिया है जिसका संसद द्वारा भी संशोधन नहीं किया जा सकता।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का अर्थ देश में सांप्रदायिक सद्भाव तथा धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए सभी धर्मों का समान आदर तथा समान व्यवहार करना है। मूलरूप से यह सिद्धांत ‘सर्व धर्म समभाव’ तथा ‘सर्व धर्म सद्भाव’ से लिया गया है। पश्चिम देशों की धर्मनिरपेक्षता, जहां राष्ट्र तथा धर्म को पृथक रखा गया है, से अलग भारतीय व्यवस्था में राज्य द्वारा सभी धर्मों के प्रति बिना भेदभाव के समान व्यवहार करना है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
वर्तमान सांप्रदायिक हिंसा का बीज स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन के दौरान ही बोया गया था। लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करना भारतीय समाज तथा भारतीय राजनीति को अंग्रेजों द्वारा सांप्रदायी बनाना माना जा सकता है। यद्यपि भारतीयों ने इस विभाजन का पुरजोर विरोध किया फिर भी इस विभाजन के पश्चात् सांप्रदायिक दंगों ने अपना सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना, 1909 में मार्ले-मिंटो सुधार द्वारा सांप्रदायिक आधार पर पृथक मतसूची का बनाना तथा 1915 में हिंदू महासभा की स्थापना आदि को भारत में वर्तमान सांप्रदायिकीकरण की शुरुआत माना जाता है। मुस्लिम लीग द्वारा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत अपनाए जाने के कारण इस देश से दो अलग स्वतंत्र राष्ट्रों की स्थापना हुई। इससे इन समूहों में अलग भाषा, संस्कृति तथा जनजाति होने के कारण भारत को हिंदू तथा मुस्लिम दो राष्ट्र के रूप में बनाने के सिद्धांत को बल मिला। देश विभाजन के कारण लगभग डेढ़ करोड़ लोग विस्थापित हुए तथा लगभग 20 से 30 लाख लोग मारे गए। विभाजन के हिंसात्मक रूप के कारण हिंदू तथा मुस्लिमों में परस्पर दुश्मनी तथा संदेह का वातावरण बना।
विभाजन के पश्चात् भी भारत के विभिन्न भागों में अनेक सांप्रदायिक दंगे हुए हैं। शाहबानो मामला तथा उत्तर प्रदेश में अयोध्या आंदोलन के दिनों में भी सांप्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला। नब्बे के दशक की घटनाओं ने हमारे समाज में गहरी सांप्रदायिकता को जन्म दिया। एक तरफ मुस्लिमों में डर की भावना पैदा हो गई थी। दूसरी तरफ हिंदुओं ने सरकार के तथाकथित नकली-धर्मनिरपेक्षता तथा तुष्टिकरण की नीति का पुरजोर विरोध किया। इससे हमारे समाज का विभाजन हो गया। इसी पृष्ठभूमि में मुंबई बम धमाकों का साक्षी बना। 2002 में गोधरा कांड के बाद फिर सामाजिक आशांति फैल गई 2013 में आपसी समुदाय क्लेश ने उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर से निकलकर उससे लगते जिलों तक को प्रभावित किया हैं। राष्ट्रीय स्तर पर जमा किए गए गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2011 के बीच सांप्रदायिक दंगों में कमी आई थी परंतु 2012-13 के दौरान इसमें तेजी से वृद्धि हुई है। 2013 के दौरान हुई धार्मिक तथा सांप्रदायिक मौतों की संख्या 2010-12 के तीन वर्ष के दौरान हुई घटनाओं से अधिक है। इस वर्ष देश में हुए सांप्रदायिक दंगों के 35 प्रतिशत दंगे उत्तर प्रदेश में हुए हैं।
हाल के वर्षों में देश में हिंदू तथा मुस्लिम कट्टरवादी संगठनों की संख्या में वृद्धि हुई है। यद्यपि भारतीय मुसलमानों ने देशद्रोह तथा धार्मिक कट्टरपंथी के सतत प्रयासों का पुरजोर विरोध किया है लेकिन सांप्रदायिक भावनाओं का राजनीतिक तथा आपराधिक दुरुपयोग के कारण मुस्लिम समुदाय के हाशिए पर रह रहे लोग भारत विरोधी ताकतों के लिए, जो सदैव इस देश के विरुद्ध परोक्ष युद्ध छेड़ने की ताक में रहते हैं; उन्हें एकत्रित करना, भर्ती करना तथा कट्टरपंथी बनाना आसान होता है।
“मुसलमान कहते हैं कि फर्जी आतंकवाद विरोधी मामलों में मुस्लिम युवा गिरफ्तार किये जा रहे हैं। यह मालेगांव बम विस्फोट और इसी तरह के अन्य मामले थे। लिहाजा, मुसलमानों में राज्य की संस्थाओं को लेकर भय बढ़ा है। “
सांप्रदायिक दंगों के मुख्य कारण
सांप्रदायिक दंगों के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेदार हैं:
1. ऐतिहासिक कारण: बंटवारे के इतिहास और द्वि- राष्ट्र सिद्धांत के कारण दोनों धर्मों के बीच सांप्रदायिकता और आपसी विश्वास में कमी आई, जिसके कारण उनके संबंधों में खटास पैदा हो गईं।
2. राजनीतिक कारण: अंग्रेजों ने ‘बांटो और शासन करो’ की नीति अपनाई और स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीतिक पार्टियों ने भी वोट बैंक की राजनीति अपनाई दोनों धर्मों में उदारता एवं प्रगतिशीलता की कमी तथा नए नेताओं के कारण भी सांप्रदायिक एकता कमजोर हुई ।
3. शैक्षिक कारण: भारतीय समाज के एक बड़े भाग के सामने आधुनिक शिक्षा की कमी है। ज्यादातर भारतीय वैज्ञानिक व तकनीकी शिक्षा को अपनाने में असफल रहे। इसलिए वे उदारता, प्रगतिशील और आधुनिक मूल्यों को अपनाने के लिए अनिच्छुक रहे।
4. सामाजिक-आर्थिक कारण: शिक्षा में पिछड़ने के कारण वे लोग कभी भी लोक सेवा, उद्योग और व्यापार आदि में अपनी भागीदारी नहीं बढ़ा सके। उनकी आर्थिक स्थिति काफी कमजोर है जिसके कारण उनमें संबंधों का अभाव पैदा हुआ और इसके कारण ही सांप्रदायिकता के बीज की उत्पत्ति हुई।
5. मनोवैज्ञानिक कारण: सांप्रदायिकता की उत्पत्ति में मनोवैज्ञानिक कारणों की अहम भूमिका है। हिंदू जाति के लोगों की नजर में मुस्लिम कट्टरपंथी और उग्रवादी होते हैं। हिंदू सोचते हैं कि मुस्लिम देशद्रोही हैं। इसके विपरीत, मुस्लिमों की धारणा है कि उन्हें भारत में द्वितीय श्रेणी का समझा जाता है और उनकी धार्मिक आस्था को निम्न स्तर का माना जाता है। मुस्लिमों में एक तरह का मनोवैज्ञानिक डर है। इस तरह की भावना सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है ।
6. अभिज्ञान संकट या कारण: मुस्लिम लोग देश की मुख्यधारा में घुलने-मिलने में असफल रहे हैं। ज्यादातर मुस्लिमों की धारणा है कि वे पराए हैं और इसलिए वे अपनी अलग पहचान बनाने के लिए तत्पर रहते हैं। इससे बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष भारत को बनाने में बाधा उत्पन्न होती है।
7. सांस्कृतिक कारण: दोनों समुदायों के रुढ़िवादी सदस्य पृथक समूह, अपनी सांस्कृतिक रूपरेखा तथा व्यक्तिगत कानून एवं विचार के रखने पर जोर देते हैं। दोनों समुदायों के बीच रुढ़िवादी एवं उग्रवादी विचारधारा के लोग मौजूद हैं। इस तरह की भावना से दोनों समुदायों के बीच धर्मनिरपेक्षता तथा धार्मिक सहिष्णुता को अपनाने से रोका गया है।
8. आईएसआई तथा पाकिस्तान: मुस्लिम समुदायों में उग्रवादी विचारधारा को भड़काकर सांप्रदायिक दंगे करवाने हेतु पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी परोक्ष रूप से प्रयास करती रही है। सांप्रदायिक विष को फैलाकर तथा मुस्लिम नवयुवकों को प्रशिक्षित कर आईएसआई भारत की आंतरिक सुरक्षा में खतरा पैदा करना चाहता है ।
9. अंतर्राष्ट्रीय अखिल इस्लामिक जेहादी आंदोलन का प्रभावः काश्मीर के जबरन कब्जे तथा हाल में गुजरात के दंगों के नाम पर विश्वव्यापी इस्लामिक आंदोलन भारत में भारत विरोधी जेहादी भावनाओं को हवा देते हैं। इस संबंध में अलकायदा की भूमिका बहुत खतरनाक है।
10. भौगोलिक एवं जनसांख्यिकी कारण: असम, पश्चिम बंगाल, काश्मीर घाटी में भौगोलिक नजदीकी से जनसंख्या परिवर्तन तथा आबादी के सांप्रदायिक आधार पर बंटवारे से अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सांप्रदायिक सद्भावनाओं को तोड़ने-मरोड़ने का अवसर प्राप्त होता है।
11. मास मीडिया तथा सामाजिक मीडिया: अफवाह फैलाने, फैलाने, घृणात्मक प्रचार करने तथा हिंसा को फैलाने में मास मीडिया तथा सामाजिक मीडिया की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है।
12. संगठित आपराधिक कार्यकलापः दाऊद इब्राहिम तथा छोटा शकील एवं इनके सहयोगी देश के अंदर सांप्रदायिक दंगे फैलाने के लिए असामाजिक तथा व्यावसायिक अपराधियों का सहारा लेते हैं।
13. ठोस कार्रवाई का अभाव: पुलिस द्वारा ठोस एवं निर्णायक कार्रवाई का अभाव तथा पुलिस के ऊपर पक्षपात एवं देरी से की गई कार्रवाई का आरोप लगता रहता है। सही रूप में कानून तोड़ने वाले को शायद ही कभी सजा दी जाती है और इसलिए नागरिकों में कानून के प्रति ऐसे डर का अभाव है जो उन्हें सांप्रदायिक दंगे से रोक सकें।
दंगों के तात्कालिक कारण
सांप्रदायिक दंगों के भड़कने के कई कारण हैं जो दंगों की शुरुआत का आधार बनते हैं:
a. महिला संबंधी अपराध: जैसे- छेड़छाड़, उत्पीड़न, बलात्कार, लड़कियों का दूसरे समुदाय के लोगों के साथ भाग जाना। हिंदू संगठन इस तरह भागकर शादी कर लेने की क्रिया को ‘लव जेहाद’ के तहत एक षड़यंत्र मानते हैं।
b. भूमि संबंधी झगड़ेः शमशान घाट की भूमि के मालिकाना हक के ऊपर झगड़े, नए धार्मिक स्थल का निर्माण, गैर-कानूनी निर्माण, पुराने धार्मिक स्थल के ऊपर हक का विवाद तथा इनको ध्वस्त करना।
C. धार्मिक त्यौहार: होली, ईद, मुहर्रम इत्यादि के मनाते समय दोनों समुदायों के बीच स्थानीय झगड़े होते हैं जिसके फैलने का डर बना रहता है।
फर्ज़ी खबरें ( फेक न्यूज़)
‘फर्ज़ी खबर’ जानबूझ कर रचा गया झूठ या अर्ध सत्य है, जिसे समाज के एक वर्ग को गुमराह करने या उसे नुकसान पहुंचाने के इरादे से प्रसारित की जाती है।
इसी तरह, मौजूदा समय में फर्जी वीडियो कश्मीर घाटी (दोनों पक्षों की ओर से) में प्रसारित किये जा रहे हैं, जिनमें सेना पर भीषण हमला करते हुए दिखाया जा रहा है। साथ ही, नागरिकों का दमन दिखाया जा रहा है। इसका मकसद नागरिकों के क्रोध को भड़का कर साम्प्रदायिक हिंसा को भड़काना है। नये और अत्याधुनिक तकनीक से बने फर्ज़ी वीडियो के आगमन के साथ, स्थिति नियंत्रण के बाहर जा सकती है और यह मॉब लिंचिंग समेत व्यापक स्तर पर हिंसा फैला सकती है। 1
फर्ज़ी खबर की रोकथाम के उपाय
i. सख्त निगरानी और अनुपालन तंत्र के जरिये लोगों तक सही और स्वस्थ विषय-वस्तु वाली खबरों की पहुंच सुनिश्चित की जाए। खबरों के स्रोत की जांच-परख की जाए। रिपोर्टिंग लोगों को झंडे के साथ फर्जी विषय-वस्तु वाली खबर के बारे में शिकायत करने का अवसर दिया जाना चाहिए। शिकायत सही पाये जाने पर उस दिशा में कार्यवाही करनी चाहिए। इस में संलिप्त लोगों की शिनाख्त करनी चाहिए।
ii. खबर की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सोशल मीडिया का उपयोग लोगों को जागरूक बनाने, किसी स्तर पर हो रहे भेदभाव को खत्म करने तथा सद्भाव बनाये रखने में किया जाना चाहिए।
iii. सक्षम अधिकारी के साथ नजदीकी जुड़ाव से काम करने को नैतिक जवाबदेही बनाया जाना चाहिए। संकट के समय राष्ट्रीय सुरक्षा और लोक व्यवस्था के लिए डेटा साझा करना चाहिए ।
सरकार द्वारा उठाये गए कदम
व्हॉट्सएप पर फैली फर्जी खबरों के मद्देनजर, सरकार व्हाट्सएप को उन खबरों / संदेशों के उद्गम-स्रोत का पता लगाने के लिए एक प्रौद्योगिकी समाधान खोजने पर जोर दे रही है, जिससे मॉब लिंचिंग समेत फर्जी खबरों के प्रसार को रोका जा सकता है। व्हाट्सएप ने सरकार की चिंताओं पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हुए, फर्जी खबरों से होने वाले नुकसान को नियंत्रित करने के लिए कुछ नई विशेषताओं की शुरुआत की है।
मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा किसी की हत्या )
लिंचिंग, हिंसा की एक प्रकार है, जिसमें भीड़ मौके पर त्वरित न्याय करने की गरज से बिना किसी सुनवाई के ही आरोपित को अभियुक्त मानते हुए पीट-पीट कर या उसका अंग-भंग करने के बाद जान से मार देती है। लिंच लॉ (भीड़ का कानून) शब्द का अभिप्राय एक स्व-नियोजित अदालत से है, जो बिना किसी कानूनी प्रक्रिया को अपनाए ही किसी व्यक्ति पर अपने फैसले थोप देता है।
सरकार की पहल
1. सर्वोच्च न्यायालय ने मॉब लिंचिंग रोकने के लिए सभी राज्यों को प्रत्येक जिले में पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी को एक नोडल अफसर के रूप में नामित करने का निर्देश दिया है ।
2. केंद्र और राज्य सरकारों को रेडियो, टीवी और ऑनलाइन यह संदेश तथा चेतावनी जारी करना चाहिए कि लिंचिग या भीड़ द्वारा की गई हिंसा के गंभीर दुष्परिणाम भुगतने होंगे।
इस तरह के झूठे और गैर-जवाबदेही वाले संदेश फैलाने वालों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराना चाहिए।
4. सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुपालनों में पुलिस प्रशासन की विफलता उनके द्वारा जानबूझ कर की गई लापरवाही मानी जाएगी।
5. राज्य सरकार को लिंचिंग मामलों में क्षतिपूर्ति मुआवजे का प्रावधान करना चाहिए और मृतक के सबसे नजदीकी परिजन को 30 दिनों के भीतर अंतरिम सहायता दे देनी चाहिए।
6. लिंचिंग की सुनवाई हरेक जिले में बनी त्वरित अदालत में की जाए और इसे छह महीने के भीतर पूरी कर ली जाए।
त्रिपुरा में हुई हालिया घटनाएं
त्रिपुरा के तीन जिलों में लिंचिंग के तीन मामले दर्ज किये गए। इन तीनों ही घटनाओं में आरोपितों पर बच्चों की तस्करी का शक जताया गया था। इन पीड़ितों में एक महिला थी, उत्तर प्रदेश का एक फेरीवाला था और एक वह आदमी था, जिसे त्रिपुरा सरकार ने अफवाह फैलाने वालों से लड़ने के लिए नियुक्ति किया था। लिंचिंग की इन वारदातों को देखते हुए त्रिपुरा के डीजीपी ए. के. शुक्ला ने कहा, “यह देखा गया है कि एसएमएस, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के मंच जैसे फेसबुक, ट्विटर और यूटूब के जरिये फर्जी फोटो और पाठ संदेश प्रसारित किये जाते हैं, जिनमें राज्य में बड़े पैमाने पर घृणा फैलाने की क्षमता होती है । ” “
गौ अतिसतर्कता
पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण कानून (26 मई, 2017) के तहत जब से सरकार ने पूरे देश के मवेशी बाजार में पशुओं के वध के लिए की जाने वाली खरीद और ब्रिकी को प्रतिबंधित किया है, तब से देश में गाय को लेकर सतर्कता की एक नई लहर चल पड़ी है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई 2017 के अपने फैसले में मवेशियों की बिक्री पर लगे प्रतिबंध को निलंबित कर दिया, लेकिन भीड़ के हमले में अनेक निर्दोष मुस्लिमों की हत्या कर दी गई। ये घटनाएं स्वतःस्फूर्त प्रतीत होती हैं और हिन्दुत्ववाद ताकतों की प्रतिक्रिया प्रायः अचानक होती है, जो गाय की तस्करी और उसका वध किये जाने की खबरों पर अति उग्र हो जाती है। निगरानीकर्ता समूह, जो अपने को गौ-रक्षक कहते हैं, उनमें से कई लोगों को मॉब लिंचिंग के विभिन्न मामलों में गिरफ्तार किया गया है।
भविष्य की राहें
सांप्रदायिक हिंसा के खतरे को रोकने के लिए निम्नलिखित उपायों को लागू करने की आवश्यकता है:
1. विरासत पर गर्व करना: देश की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ छेड़े गए संघर्ष में हिंदू, मुस्लिम तथा सिख समुदायों द्वारा एकजुट होकर दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान को रेखांकित करते हुए आम लोगों में राष्ट्रीयता की भावना को जागृत किया जाना चाहिए।
2. निष्पक्ष पुलिस तथा प्रशासनः अधिकांश दंगे ज्यादा समय तक चलते हैं, क्योंकि उससे प्रभावित लोग यह समझते हैं कि पुलिस प्रशासन निष्पक्ष नहीं है। इसलिए दंगों को रोकने के लिए इस प्रकार की सोच को बदलना महत्त्वपूर्ण होता है। सांप्रदायिक दंगों के दौरान प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप को रोका जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए पुलिस सुधार हेतु निर्देशों का सभी राज्यों द्वारा अक्षरसः पालन किया जाना चाहिए। जिला अधिकारी / उप-जिला अधिकारी, पुलिस अधीक्षक, थाना अधिकारी तथा क्षेत्र में तैनात अन्य अधिकारियों का कार्यकाल निश्चित होना चाहिए।
3. हिंसा के प्रति कोई समझौता न करने का सिद्धांतः इस संबंध में सरकारी नीति तथा व्यवहार बिल्कुल स्पष्ट एवं सख्त होना चाहिए तथा इसे वोट बैंक की राजनीति से अलग रखना चाहिए। पुलिस को हिंसा में लिप्त अपराधियों के प्रति, चाहे वह किसी भी समुदाय के हों, तत्काल एवं प्रभावी कार्रवाई करनी चाहिए । इसके लिए न केवल एक प्रभावशाली नागरिक प्रशासन तथा पुलिस व्यवस्था की आवश्यकता है बल्कि एक प्रभावशाली न्यायिक व्यवस्था की भी आवश्यकता है। आपराधिक न्याय व्यवस्था में इस प्रकार सुधार किया जाना चाहिए जिससे कोई भी अपराधी सजा से न बच सके। एनडीपीएस अधिनियम की तरह सांप्रदायिक हिंसा के मामले में जमानत के कठोर प्रावधान होने चाहिए।
4. शांति समितिः सभी क्षेत्रों में आवश्यक रूप से शांति समिति का गठन किया जाना चाहिए जिसमें सभी समुदायों के सच्चे धर्मनिरपेक्ष तथा दूरदृष्टिधारी लोगों को सदस्य बनाया जाना चाहिए। इस समिति में सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित लोगों, जैसे- डाक्टर, लोकोपकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को रखा जाना चाहिए। शांति समिति की नियमित तौर पर बैठक होनी चाहिए जो कागजों तक ही सीमित न हो। जिला प्रशासन को पूरे वर्ष के दौरान सांप्रदायिक सद्भाव तथा धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहित करने के लिए शांति समिति के साथ सक्रिय भाग लेना चाहिए।
5. मीडिया तथा सिविल समाज की मदद से लोगों का दिल एवं दिमाग जीतना: सिविल समाज, गैर-सरकारी संस्थाओं तथा मीडिया की मदद से स्थानीय पुलिस के प्रति आम लोगों में विश्वास पैदा किया जाना चाहिए। सूचना एकत्रित करने के लिए तथा मूलभूत सूचना के लिए कम्युनिटी पुलिसिंग तथा बीट कांस्टेबल की प्रथा सहायक है।
6. : अल्पसंख्यक समुदाय आमतौर पर पुलिस को सांप्रदायिक, असंवेदनशील तथा मुस्लिम विरोधी मानते हैं इन समुदायों के प्रति पुलिस को हमें संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। इससे पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन के प्रति अल्पसंख्यक समुदायों में विश्वास की भावना बनाने में मदद मिलेगी।
7. अल्पसंख्यक समुदाय का पूर्ण विकासः सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा अन्य विकास के लिए प्रभावशाली कदम उठाने चाहिए। इस समुदाय के लिए रोजगार के बेहतर अवसर दिए जाने चाहिए। इन्हें भारतीय समाज की मुख्य धारा में शामिल करने हेतु प्रयास किया जाना चाहिए। प्रतिनिधित्व बढ़ाने के जरिये अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाया जाए- सरकारी सेवाओं में अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि बुरी तरह कम हैं। सच्चर आयोग के मुताबिक केंद्र स्तर पर लोक सेवा में मुसलमान की तादाद महज 2 फीसदी है। अतः शिक्षा कार्यक्रमों और सकारात्मक उपायों के जरिये राज्य सरकार के शिक्षण संस्थानों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ा कर राज्य की निष्पक्षता के प्रति उनका विश्वास जमाने व बढ़ाने में मदद मिलेगी ।
8. उदार मूल्यों को बढ़ावा: सरकार को शिक्षा प्रणाली के द्वारा समाज में उदार मूल्यों को बढ़ावा देना चाहिए। विभिन्न संप्रदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्रशासन तथा पुलिसकर्मी को सॉफ्ट स्किल में भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ।
9. ठोस कानूनी कार्रवाई: आशंकित गड़बड़ी फैलाने वालों की अग्रिम पहचान स्थापित करने हेतु तथा कानून की धारा के अनुसार समय पर रोकने की कार्रवाई करने के लिए पुलिस को समुचित कदम उठाने चाहिए। सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने वालों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। आम लोगों में तथा मीडिया में भड़काऊ भाषण देने वाले धार्मिक नेताओं के खिलाफ शुरुआत से ही ठोस एवं सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए ।
10. जागरुकता के लिए सामाजिक मीडिया तथा मास मीडिया का सकारात्मक उपयोगः सामाजिक मीडिया तथा मास मीडिया का दुरुपयोग रोका जाना चाहिए। मास मीडिया के द्वारा लोगों का दूसरे समुदाय के प्रति रवैये में परिवर्तन लाने हेतु प्रयास किया जाना चाहिए। लोगों को सांप्रदायिक विचारधारा की बुराईयों के प्रति सजग किया जाना चाहिए । सरकार को सांप्रदायिक सद्भाव तथा धर्मनिरपेक्षता के प्रसार के लिए बनी फिल्मों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
11. सोशल मीडिया तथा थोक एसएमएस के ऊपर समुचित प्रतिबंधः जिससे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता को हानि पहुंचाए बगैर- अफवाह / घृणा फैलाने वाली बातों को रोका जा सके। भारत सरकार ने 2018-19 में सोशल मीडिया; जैसे- फेसबुक और व्हॉट्सएप के अधिकारियों को, उस प्रविधि को जानने के लिए बुलाया था, जिसके जरिये सांप्रदायिक और गैर सामाजिक तत्व इन मंचों का दुरुपयोग कर सकते हैं।
12. सांप्रदायिक दंगों को प्रारंभ में ही रोकने के लिए प्रारंभिक चेतावनी सिग्नल व्यवस्था को विकसित करने की आवश्यकता है।
13. चुनाव में प्रतिबंधित भागीदारी: ऐसे व्यक्ति जिन्हें सांप्रदायिक हिंसा में भाग लेने के लिए चार्जशीट किया गया है, को मतदान में भाग लेने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
14. सांप्रदायिक दंगे संबंधी मामलों को निपटाने हेतु विशेष न्यायालयः सांप्रदायिक दंगों से संबंधित मामलों का द्रुत गति से निपटारे हेतु विशेष द्रुत न्यायालय होने चाहिए। ऐसे मामले में जमानती प्रावधानों को सख्त किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अपराधियों को कठोर सजा मिले।
15. पुलिस विभाग में पुलिस कर्मियों की कमी को पूरा किया जाना: भारत में प्रति 1 लाख की आबादी पर पुलिस कर्मियों की संख्या मात्र 130 है, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानक के अनुसार इसकी संख्या कम-से-कम 220 होनी चाहिए। इस प्रकार हमारे यहां लगभग 6 लाख पुलिस कर्मियों की कमी है जिसे पूरा जाना चाहिए।
16. पुलिस तथा अन्य सुरक्षा बलों में समाज के हाशिए पर रह रहे सभी वर्गों का उपयुक्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए ।
17. पुलिस विभाग को मजबूत बनाना तथा पुलिस सुधार सुझावों को लागू करना ।
18. दंगा भड़काने वालों की पहचान तथा उनके विरुद्ध कठोर कानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए।
19.दंगों की वीडियोग्राफी करना तथा दंगा करने वालों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करना ।
20. सांप्रदायिक संवेदनशील इलाकों में मुखबिरों का जाल फैलाना ।
21. शहरी क्षेत्रों में सामुदायिक आधार पर मोहल्ले के निर्माण पर रोक ।
22. धार्मिक कट्टरपंथी विरोधी तथा कट्टरपंथियों को पुनः सामान्य बनाने हेतु नीतियों को बनाना।
Note: – यह नोट्स ऑनलाइन PDF फाइल से लिया गया हैं !!!!
Credit – Ashok Kumar,IPS
Credit – Vipul Anekant, DANIPS
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