जम्मू और कशमीर में आतंवाद

जम्मू और कशमीर में आतंवाद

3.1 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
♦स्वतंत्रता – पूर्व
महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद, ब्रिटिश साम्राज्य ने सिखों के भू-भाग पर अपनी नज़र जमाई। आगामी लड़ाई में, गुलाब सिंह (जो महाराजा रणजीत सिंह के डोगरा जनरल थे और जिन्हें महाराजा ने जम्मू का राजा बनाया था) ब्रिटिश सरकार के साथ हो गए थे। इसके कारण सिखों की हार के फलस्वरूप 16 मार्च, 1846 को ‘अमृतसर समझौता’ हुआ । इस समझौते के अनुसार 75 लाख रुपये और ब्रिटिश साम्राज्य का आधिपत्य स्वीकार कर लेने के बाद कश्मीर का राज गुलाब सिंह को सौंप दिया गया। तभी से कश्मीर पर डोगरा वंश का शासन कायम हो गया।
1947 में जम्मू एवं कश्मीर एक बड़ी रियासत थी। मुस्लिम आबादी लगभग 77 प्रतिशत होने के बावजूद भी यहां एक हिन्दू महाराजा हरी सिंह का शासन था। यह राज्य बहुलवाद और सांस्कृतिक तौर पर विविध समाज के तौर पर जाना जाता था। इसके पांच मुख्य क्षेत्र थे:
♦जम्मू काफी हद तक मैदानी क्षेत्र या छोटी पहाड़ियों का क्षेत्र, पंजाब से लगती सीमा वाला हिन्दू प्रभुत्व वाला है।
♦जम्मू के उत्तर में कश्मीरी पंडितों की महत्त्वपूर्ण आबादी सहित सुन्नी मुसलमानों के • प्रभुत्व वाली कश्मीर घाटी गर्मियों में पर्यटकों की काफी चहल-पहल के साथ घाटी भारत के सबसे खूबसूरत क्षेत्रों में से एक थी। जम्मू प्रांत तथा कश्मीर घाटी दोनों में में सिखों की उपस्थिति भी काफी थी।
♦घाटी के पूर्व में शिया मुसलमानों की मामूली आबादी के साथ मुख्य रूप से बौद्ध प्रभुत्व वाला पर्वतीय क्षेत्र लद्दाख । इसकी सीमाएं तिब्बत के साथ लगती हैं।
♦आखिर में गिलगित और बाल्तिस्तान के दो क्षेत्र । इन दोनों क्षेत्रों में बहुत कम आबादी थी और इनमें से ज्यादातर शिया मुस्लिम थे। गिलगित और बाल्तिस्तान की सीमाएं अफगानिस्तान और चीन के सींकिआंग के साथ लगती है। यह पूर्व के सोवियत संघ के भी बहुत करीब था। जम्मू एवं कश्मीर राज्य की भू-राजनीतिक स्थिति ने इसे रणनीतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण बना दिया है ।
♦3.1.1 विलय और जनमत संग्रह
एक ओर भारत द्वारा बलपूर्वक विलय करने की आंशका और दूसरी तरफ (मुसलमानों के प्रभुत्व के कारण) पाकिस्तान की ओर से सांप्रदायिक प्रतिक्रिया के डर के कारण हरी सिंह ने 15 अगस्त को न तो भारत के साथ और न ही पाकिस्तान के साथ विलय किया बल्कि एक स्वतंत्र, संप्रभुत्व सम्पन्न और पूरी तरह से तटस्थ राज्य की आशा थी। लेकिन शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर के लोगों की प्रबल इच्छा भारत में शामिल होने की थी। शेख अब्दुला ने लगातार ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का खंडन किया और उसे कश्मीर में धर्मनिरपेक्षिता के एक संरक्षक के रूप में माना जाता था। हरी सिंह ने दोनों देशों से ‘स्टैंड-स्टिल’ समझौते पर हस्ताक्षर करने की पेशकश की जिसके अनुसार सीमा पार लोगों और माल की मुक्त आवाजाही की अनुमति होगी। पाकिस्तान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए लेकिन भारत ने कहा कि वह देखेगा और इंतजार करेगा। पाकिस्तान के साथ संबंध जल्दी ही खराब हो गए। सितम्बर 1947 में पाकिस्तान ने सियालकोट और जम्मू के बीच रेल सेवाओं को निलंबित कर दिया। अक्टूबर में एक तरफ शेख अब्दुल्ला कश्मीर के लोगों को शक्तियों का पूरा हस्तांतरण करने के लिए व्यापक आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था तो दूसरी तरफ पाकिस्तान आर्मी की मदद से कई पठान कबाइलियों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया।
महाराजा हरि सिंह ने नेहरू से सैन्य मदद के लिए अनुरोध किया। प्रारंभ में नेहरू ने लोगों की इच्छा जाने बिना विलय का समर्थन नहीं किया था। परंतु माउंटबेटन ने दृढ़ता से कहा कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार राज्य का भारत में औपचारिक विलय होने के पश्चात् ही सेना भेजी जा सकती है। शेख अब्दुल्ला और सरदार पटेल ने भी विलय पर जोर दिया। अंत में, 26 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह भारत के साथ ‘विलय के दस्तावेज’ पर हस्ताक्षर करने के लिए मान गए और राज्य के प्रशासन प्रमुख के तौर पर अब्दुल्ला को नियुक्त करने पर भी सहमत हो गए।
इस विलय के दस्तावेज के अनुसार रक्षा, विदेश, वित्त और संचार को छोड़कर अन्य सभी
कानूनों को लागू करने के लिए भारतीय संसद को राज्य सरकार की सहमति लेनी आवश्यक है। हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेस और महाराजा दोनों स्थाई विलय चाहते थे, लेकिन नेहरू ने घाटी में कानून व्यवस्था और शांति बहाल होने पर विलय के निर्णय पर एक जनमत संग्रह आयोजित करेंगे की घोषणा करके, एक बेहद आदर्शवादी और विवादास्पद कदम उठाया। यह निर्णय माउंटबेटन की सलाह के प्रति सम्मान और लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्धता दिखाने के लिए लिया गया था।
धीरे-धीरे उस क्षेत्र को छोड़ कर जिसे भारत में ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और पाकिस्तान में आजाद कश्मीर कहा जाता है’ कश्मीर का भारत में विलय हो गया। भारतीय सेना द्वारा आक्रमणकारियों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया गया। माउंटबेटन ने भारत सरकार को कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का सुझाव दिया। अभिगमन के बाद, आक्रमणकारियों को धीरे-धीरे भारतीय सैनिकों द्वारा घाटी से बाहर निकाल दिया गया था, इस क्षेत्र को भारत में ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) और पाकिस्तान में ‘आज़ाद कश्मीर’ के रूप में जाना जाता है।
♦कश्मीर का यूएन कनेक्शन
इस स्तर पर, माउंटबेटन ने भारत सरकार को कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र में भेजने का सुझाव दिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के हस्तक्षेप के माध्यम से, भारत और पाकिस्तान 1 जनवरी, 1949 को युद्ध विराम समझौते पर पहुंचे। युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा (एलओसी) के रूप में जाना जाता है।
1951 में, संयुक्त राष्ट्र ने पाकिस्तान द्वारा उसके नियंत्रण वाले कश्मीर से सैनिकों को हटाने के बाद संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में एक जनमत संग्रह करवाने का प्रस्ताव पारित किया। यह प्रस्ताव आज तक सफल नहीं हो पाया, क्योंकि पाकिस्तान ने पीओके से अपने सैनिकों को हटाने से मना कर दिया। यद्यपि युद्ध विराम रेखा और युद्ध विराम के उल्लंघन की रिपोर्टों के पर्यवेक्षण के लिए भारत और पाकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह (यूएनएमओजीआईपी) द्वारा अभी भी पर्यवेक्षण जारी है। केवल जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एजेण्डे में अभी भी राज्य का विलय भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय है।
तब से भारत और पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों की राह में कश्मीर मुख्य बाधा रहा है। अंग माना है। पाकिस्तान का इस दावे से इंकार करना जारी है और वह इस मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफार्मों पर उठाता रहा है। जबकि भारत कहता है कि यह द्विपक्षीय मामला है।
♦जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा
जम्मू और कश्मीर के लोगों ने 1951 में एक संविधान सभा बुलाई, जिसने 1956 में एक बार फिर से भारत के प्रवेश की पुष्टि की और राज्य के लिए संविधान को अंतिम रूप दिया। जम्मू और कश्मीर संविधान यह पुष्टि करता है कि ‘राज्य भारतीय संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा’।
♦3.1.2 शिमला समझौता 1972
TERRITO संघर्ष के प्रारम्भिक चरण के दौरान भारत का प्राथमिक उद्देश्य पीओके (आजाद कश्मीर) और उत्तरी क्षेत्रों, जिसे भारत द्वारा सामूहिक रूप से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का नाम दिया गया है, से पाकिस्तानी सेना को वापिस भेजना और इस क्षेत्र को पुनः जम्मू एवं कश्मीर के साथ मिलाना था। लेकिन यह उद्देश्य धीरे-धीरे बदल गया जोकि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान और बाद में दिखाई दिया। इस युद्ध के बाद नियंत्रण रेखा (एलओसी) स्थापित की गईं यह व्यापक रूप से माना जाता है कि युद्ध के बाद ‘शिमला समझौता’ (2 जुलाई 1972) में हुई बातचीत के तहत भारत और पाकिस्तान इस रेखा को दोनों देशों के बीच स्थायी सीमा में बदलने के लिए सहमत थे। तब से भारत का प्राथमिक उद्देश्य एलओसी को अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में बदलने और यथास्थिति को बनाए रखना है।
♦3.2 कश्मीर में आतंकवाद कम तीव्रता वाला युद्ध या पाकिस्तान द्वारा छद्म युद्ध –
♦3.2.1 आतंकवाद की शुरुआत
1947 में प्रारम्भिक युद्ध और 1965 और 1971 के दो प्रमुख युद्धों में हारने के बाद पाकिस्तान को यह समझ में आ गया कि वह भारत से प्रत्यक्ष युद्ध नहीं जीत सकता तो उसने छद्म युद्ध की रणनीति का सहारा लिया। सबसे पहले इसने पंजाब में आतंकवादी आंदोलन में सहायता दी और उसके बाद 80 के दशक में कश्मीर में अलगाववादी और आतंकवादी विद्रोह शुरू किया। जेहाद के नाम पर दो देशों के बीच छद्म युद्ध आज भी जारी है। भारत के लिए यह एक चिंता का कारण है।
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तो आईएसआई ने इसे कश्मीर में फैलाने की योजना बनाईं। 1987 में कश्मीर में हुए विवादित चुनाव ने विद्रोहियों के लिए एक उत्प्रेरक का कार्य किया जब राज्य विधान सभा के कुछ सदस्यों ने सशस्त्र विद्रोही समूह गठित किए। जुलाई, 1988 में उग्र प्रदर्शन, हड़तालों और हमलों की एक श्रृंखला चली। 1989 में सीमा पार से मौन रूप से समर्थित एक व्यापक लोकप्रिय और सशस्त्र विद्रोह शुरू हुआ जो 1990 के दौरान भारत की आंतरिक सुरक्षा के अति महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से एक बन गया। 2
यह मुजाहिदीन विद्रोह का प्रारम्भ था जोकि आज भी जारी है। यह विद्रोह विस्तृत रूप से अफगानी मुजाहिदिनों द्वारा शुरू किया गया था जो सोवियत-अफगान युद्ध की समाप्ति के बाद कश्मीर घाटी में घुसे थे।
प्रारम्भ में जम्मू एवं कश्मीर में पहले से विद्यमान जम्मू एवं कश्मीर लिबरेशन फ्रंड (जेकेएलएफ) का इस विद्रोह के एक हिस्से के रूप में इस्तेमाल किया गया। जेकेएलएफ की स्थापना 1964 में की गई थी, 1971 में इसका पुनर्गठन किया गया और फिर उपर्युक्त उद्देश्य के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। 1990 में जेकेएलएफ कश्मीर का मुख्य विद्रोही ग्रुप था। जेकेएलएफ का एक नेता यासिन मलिक कश्मीर में आतंकवादी कश्मीरियों में से प्रमुख था। इसकी मुख्य मांग कश्मीर को स्वतंत्र करवाना था। 1995 से जेकेएलएफ के एक धड़े ने यासिन मलिक के नेतृत्व में हिंसा के प्रयोग का त्याग कर दिया और विवाद को सुलझाने के लिए पूरी तरह से शांतिपूर्ण तरीकों का प्रयोग करने पर बल दिया। परंतु घाटी में हिंसक गतिविधियों में हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद अल बदर हरकत-उल- अंसार. हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी (हुजी), जैसे कई नए आतंकवादी ग्रुप लिप्त थे जिन्होंने नियंत्रण रेखा पार से घुसपैठ की। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तान की सरकार ने इन आतंकवादी संगठनों को धन, प्रशिक्षण, हथियार इत्यादि मुहैया करवा कर सीधे मदद की। पंजाब की तर्ज पर घाटी में भी वैसी ही आतंकवादी गतिविधियों को जारी रखने की आईएसआई की यह एक सोची-समझी चाल थी। ये आतंकवादी संगठन घाटी से लगभग 4 लाख कश्मीरी पंडितों को जबरदस्ती भगाने में सफल रहे हैं। इनकी संपति और भूमि पर कब्जा कर लिया गया। परिणामस्वरूप घाटी की जनसांख्यिकीय आंकड़े में काफी बड़ा बदलाव आ गया। विस्थापित पंडित अभी भी सुरक्षित रूप से घाटी में अपने घरों में लौटने में असमर्थ हैं। इनमें से काफी संख्या में ? “कश्मीरी पंडित जम्मू और दिल्ली के अस्थायी शरणार्थी शिविरों / कॉलोनियों में रह रहे हैं। इनको सुरक्षा प्रदान करने में सरकार की असमर्थता सरकार की विफलताओं में से एक है।
दूसरी तरफ एसनेस्टी इन्टरनेशनल और ह्यूमन राइट वॉच (एचआरडब्लू), जैसे कई मानवाधिकार संगठन नियमित रूप से भारतीय सशस्त्र बलों पर बेकसूरों को दंडित करने, गायब करने, अत्याचार करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने, जैसे मानवाधिकार उल्लंघन करने का आरोप लगाते रहे, यद्यपि इन तथाकथित मानवाधिकार रक्षकों ने विस्थापित पंडितों के बारे में कभी आवाज नहीं उठाईं
♦3.2.2 वर्तमान स्थिति
कश्मीर में 2008 में हुए चुनावों को शरणार्थियों के संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त द्वारा आमतौर पर उचित माना गया। आतंकवादियों द्वारा मतदान का बहिष्कार करने की धमकी के बावजूद भी लोगों ने भारी मात्रा में मतदान किया और भारत समर्थक जम्मू एवं कश्मीर नेशनल कांफ्रेस पार्टी को राज्य में सरकार बनाने के लिए चुना । इस चुनाव में हुए उच्च मतदान को इस रूप में देखा गया कि कश्मीर के लोग शांति और सद्भाव चाहते हैं।
पिछले चार-पांच वर्षों में आईएसआई ने कश्मीर में अपनी रणनीति में परिवर्तन किया है। भारतीय सुरक्षा बलों को बदनाम करने और कश्मीर के मुददे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए भीड़ की लामबंदी को एक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया गया है। 2008 की गर्मियों से श्रीनगर में स्थानीय प्रदर्शनकारियों के लिए पथराव करना एक नियमित घटना बन गई है। उस समय अमरनाथ भूमि हस्तांतरण घाटी में बड़े पैमाने पर आंदोलन के लिए एक बड़ा मुद्दा बन गया था। कश्मीरी किशोरों को पथराव में शामिल किया गया। राजनीतिक लाभ पाने के लिए एक छोटी-सी-घटना का भी अलगाववादियों द्वारा बढ़ा-चढाकर प्रचारित किया जाता है। 1989 से लगातार कश्मीर में भारत विरोधी आंदोलन हो रहे हैं। ये आंदोलन विशेषरूप से भारतीय सेना के विरुद्ध शिकायतों और कश्मीर विवाद को उजागर करने के लिए किए गए थे। भारतीय संसद पर हमले के मुख्य अभियुक्त अफजल गुरू को फरवरी, 2013 में फांसी पर लटकाए जाने के बाद इन घटनाओं में वृद्धि हुई है।
2016 में बुरहान वानी की मुठभेड़ ने कश्मीर के हालात को और बिगाड़ दिया और इससे घाटी के युवाओं में आमूलीकरण बढ़ गया।
सुरक्षा की स्थिति पिछले पांच वर्षों में खराब हो गई है जो नीचे दी गई तालिका से स्पष्ट है:
जम्मू और कशमीर में आतंवाद
♦3.2.3 छद्म युद्ध क्या है? आईएसआई ने इसे क्यों अपनाया ?
वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए छद्म युद्ध एक लंबी और सोची-समझी रणनीति है जिसे प्रत्यक्ष युद्ध के माध्यम से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके निम्नलिखित रूप हो सकते हैं:
> सशस्त्र विद्रोह,
> गोरिल्ला युद्ध,
 > राजनीतिक क्रांति,
> आज़ादी की लड़ाई |
3.2.4 जम्मू-कश्मीर में छद्म युद्ध और उसकी कार्य प्रणाली 
> भारत की छवि खराब करने के लिए पाकिस्तान और पीओके से प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से दुष्प्रचार करना ।
> सीमा पार से आतंकवादियों को घुसपैठ करने की सुविधा प्रदान करवाना और भारतीय सुरक्षा बलों को आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ाई में लगातार उलझाए रखना।
>  राज्य की धर्मनिरपेक्ष नींव पर हमला करना और घाटी से हिन्दुओं का पलायान सुनिश्चित करने के लिए कट्टरपंथी इस्लामी गतिविधियों का समर्थन करना।
> प्रत्येक मंच पर कश्मीर मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना और भारत को मुसलमानों के उत्पीड़क के रूप में प्रस्तुत करना ।
> जम्मू क्षेत्र के मुस्लिम बहुल जिलों में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ाना।
> सही समय आने पर स्वतंत्रता की लड़ाई के नाम पर कम तीव्रता वाले युद्ध को उच्च तीव्रता वाले युद्ध में बदलना।
3.2.5 कश्मीर में नागरिक अशांति, जुलाई 2016
बुरहान मुजफ्फर वानी, हिजबुल मुजाहीद्दीन का कमांडर था, जिसके सोशल मीडिया अभियान की पहुंच कश्मीरी मुस्लिम युवाओं के एक वर्ग में थी । वह 8 जुलाई 2016 को सुरक्षा बलों के साथ एक मुठभेड़ में मारा गया।
200,000 लोगों की एक अनुमानित भीड़ 9 जुलाई को उसके अंतिम संस्कार में शोक प्रकट करने के लिए एकत्रित हुई जिसे पत्रकारों ने आज तक की सबसे बड़ी भीड़ बताया। उसके अंतिम संस्कार में आतंकी भी शामिल थे।
जैसे ही उसकी मौत की खबर फैली, कश्मीर घाटी के कुछ क्षेत्रों में हिंसक विरोध शुरु हो गए। अलगाववादी नेताओं ने कश्मीर में बंद का आह्वान किया जो लगातार बढ़ाया गया। थानों और सुरक्षा बलों पर भीड़ ने हमला किया। कश्मीरी पंडितों के ट्रांजिट कैंपों सहित कश्मीर के कई हिस्सों से पत्थरबाजी की सूचना प्राप्त हुई। रेल सेवाओं सहित इंटरनेट सेवाओं को निलंबित कर दिया गया और राष्ट्रीय राजमार्ग को बंद कर दिया गया। अमरनाथ तीर्थ यात्रा अशांति के कारण कई बार निलंबित और कई बार बहाल की गई। प्रदर्शनकारियों द्वारा कैंपों पर निरंतर हमलों के कारण 12 जुलाई की रात को सैकड़ों कश्मीरी पंडित कर्मचारी ट्रांजिट कैम्पों को छोड़कर भागगए। जिस घर में बुरहान मारा गया था, भीड़ ने उसमें इस संदेह के आधार पर आग लगा दी कि इसके निवासियों ने बुरहान के बारे में सुरक्षा बलों को गुप्त सूचना दी होगी। 15 जुलाई को कश्मीर के सभी जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया और मोबाइल फोन सेवाओं को निलंबित कर दिया गया। 16 जुलाई तक, कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों में कई सुरक्षाकर्मियों सहित 43 लोग मारे गए और लगभग 3,100 लोग घायल हो गए।
12 जुलाई को नवाज शरीफ ने एक भाषण में बुरहान वानी की हत्या पर ‘सदमा’ लगने की बात कहीं, जिसकी भारत सरकार ने निंदा की। 15 जुलाई को शरीफ ने वानी को एक ‘शहीद’ बताया। इसकी प्रतिक्रिया में भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रतिबंधित आतंकी संगठनों से सम्बंध रखने वाले पाकिस्तान की निंदा की। हमारे प्रधानमंत्री ने मीडिया की यह आरोप लगाते हुए निंदा की कि वह मृत वानी को ‘नायक’ के तौर पर पेश कर रही है ।
यह काफी दुःखद है कि आतंकवाद ने कश्मीर में अब अपनी जड़े गहरी जमा ली हैं। यह भारत सरकार और सुरक्षा बलों के लिए गहरी चिंता का कारण है। आतंकवाद का महिमा मंडन और बड़ी संख्या में लोगों का ऐसा समर्थन भारत सरकार को आत्म-विश्लेषण की मांग करता है। समय आ चुका है जब भारत सरकार को अपनी कश्मीर नीति पर पुनर्विचार करना होगा।
3.2.6 ऑपरेशन ऑल आउट
यह एक आतंकवाद विरोधी अभियान था। इसे जम्मू-कश्मीर से आतंकवादियों को मार भगाने के लिए ए जुलाई 2017 में शुरू किया गया था। इसकी दूरगामी योजना घाटी में अमन कायम करना था। घाटी में जड़ें जमाये विभिन्न आतंकवादी समूहों; जैसे लश्कर, जैश, हिजबुल और अल बदर 0277124 20 के 258 आतंकवादियों को ‘ऑपरेशन ऑल आउट’ में सूचीबद्ध किया गया था, जिन्हें घाटी से wom बाहर करना था।
‘ऑपरेशन ऑल आउट’ शुरू करने के काफी पहले ही खुफिया एजेंसियों ने आतंकवादियों के छिपने के ठिकाने और उनकी आतंकी गतिविधियों की खास जगहों का पता लगाने के लिए गुप्त रूप से जिलेवार सर्वेक्षण किया था।
3.3 पुलवामा और बालाकोटः आतंकवाद विरोधी रणनीति में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव 
4 फरवरी, 2019 को जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग से गुज़र रहे सीआरपीएफ के काफ़िले पर सबसे जघन्य आत्मघाती हमला हुआ था, जिसमें 42 जवान शहीद हो गए थे। जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले के अवंतिपुरा में सीआरपीएफ के 78 वाहनों के काफ़िले पर विस्फोटक से भरी एसयूवी के जरिये हमला किया गया था।
एसयूवी के जरिये बम विस्फोट को 20 वर्षीय जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े आत्मघाती मानव बम आदिल अहमद डार ने अंजाम दिया था। बाद में, जैश-ए-मोहम्मद ने हमले की जिम्मेदारी भी ली थी। इसके पहले, 2016 में पठानकोट एयरबेस पर हुआ हमला भी जैश आतंकी समूह का ही किया-धरा था। पुलवामा हमले ने देश के नागरिकों में आहत भावनाओं का एक व्यापक ज्वार पैदा कर दिया। पूरा देश पड़ोसी देश पाकिस्तान के इस दुष्कृत्य पर उत्तेजित और उग्र हो उठा, जिसने अपनी सरज़मीं से भारत के विरुद्ध खून-खराबा करने के लिए आतंकवादी संगठनों को लगातार खुली छूट दे रखी है।
पुलवामा हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना ने 26 फरवरी, 2019 को 12 लड़ाकू विमान मिराज-2000 के जरिये पाकिस्तान के बालाकोट और अन्य स्थानों से जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी शिविरों पर बम बरसा कर उन्हें ध्वस्त कर दिया। वायुसेना ने दावा किया कि उसके हमलों में जैश के 300 से अधिक आतंकवादी मारे गए हैं, जो वहां प्रशिक्षण ले रहे थे। यह गैर-सैन्य और पहले से विचारित आक्रमण था। भारतीय खुफ़िया एजेंसियों को यह भनक लगी थी कि आतंकवादी समूह जैश के पास और भी आत्मघाती दस्ता है, जो भारत के विरुद्ध हमले के फिराक में हैं। इसी को ध्यान में रखकर भारत ने कार्यवाही की। यह आतंकवाद के खिलाफ भारत की रणनीति में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है । इतने बड़े पैमाने पर भारत के जवाबी हमलों से आतंकवादी संगठनों के दिमाग में डर बैठ जाएगा और यह एक निवारक का काम करेगा, जिस सिद्धांत पर अमल करते हुए इज़राइल ने आतंकवाद से मुकाबले में बड़ी सफलता हासिल की है। कंधार प्रकरण में आतंकवादियों की रिहाई के 20 साल बाद भारत ने अपनी छवि एक नरम देश के बजाय एक ऐसे राष्ट्र राज्य की बना ली है, जो आतंकवाद से अपनी लड़ाई में किसी भी हद तक जा सकता है। भारतीय वायु सेना ने 1971 के युद्ध के बाद पहली बार पाकिस्तानी वायुसीमा में प्रवेश किया था।
पूर्व सुविचारित हमले की रणनीति इज़राइल मामले में दमदार साबित हुई है। भारत में इस पर पहली बार अमल किया गया है। विश्वास किया जाता है कि यह निश्चित रूप से आतंकवाद निरोधक के रूप में काम करेगी। इसके पहले तक भारत स्लीपर सेल एवं आईएसआई समर्थक आतंकियों की साजिशों का पर्दाफाश ही करता रहा है या आतंकी हमलों के बाद उनकी जांच करता रहा है। भारत की इस नीति का आतंकवादी फायदा उठाते रहे हैं। वे इस बात से भी अवगत थे कि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली उन्हें अपने को बेगुनाह साबित करने के पर्याप्त अवसर देगी और अंतत वे कानून के शिकंजे से छूट जाएंगे।
3.4 कश्मीर में भारत सरकार के विकास उन्मुख कार्यक्रम 
जम्मू-कश्मीर के लिए प्रधानमंत्री का विकास पैकेज (पीएमडीपी)-2015
माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के संरचनागत विकास के लिए 80,068 करोड़ रुपये के एक विशेष सहायता पैकेज देने की घोषणा की है। इस पैकेज में 15 मंत्रालयों/विभागों से संबद्ध 63 परियोजनाएं हैं। खास पैकेज में 62,393 करोड़ की राशि नई परियोजनाओं के लिए रखी गई है, जिसमें सड़क, ऊर्जा, नई और नवीकरणीय ऊर्जा, पर्यटन, स्वास्थ्य, शिक्षा, जल संसाधन, खेल, शहरी विकास, रक्षा, वस्त्र क्षेत्र आदि शामिल हैं। इसी में, जम्मू-कश्मीर में दो एम्स (एआईआईएमएस) की स्थापना करने और जम्मू में आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थान खोलना शामिल है। सड़क निर्माण क्षेत्र में ‘भारत माला परियोजना’ के अधीन 105 किलोमीटर लम्बी सड़क, जोजिला सुरंग, करगिल – जनसकार, श्रीनगर- सोपियाँ- काजीगंड, जम्मू-अखनूर-पुंछ सड़कें, जम्मू और श्रीनगर में अर्ध-वर्तुलाकार सड़कों (सेमी रिंग रोड) के निर्माण प्रस्तावित हैं। ऊर्जा क्षेत्र की परियोजनाओं में जम्मू और श्रीनगर में ऊर्जा वितरण प्रणाली के संरचनागत विकास के लिए विशेष सहायता, पर्यटन स्थलों, स्मार्ट ग्रिड्स और स्मार्ट मीटर्स, लेह और कारगिल में 20 मेगावाट की दो सौर ऊर्जा परियोजनाएं शामिल हैं। शहरी ढांचागत विकास के लिए स्मार्ट सिटीज, स्वच्छ भारत मिशन और अटल मिशन फॉर रीजुवेंशन और अर्बन ट्रासफॉरमेशन (एएमआरयूटी / अमरुत) के प्रावधान किये गए हैं।
नई पहलों के लिए 62,393 करोड़ रुपये के आवंटन के अतिरिक्त, 7,427 करोड़ रुपये प्रधानमंत्री पुनर्निर्माण प्लान (पीएमआरपी) 2004 की जारी/मौजूदा परियोजनाओं के लिए 7,263 करोड़ की राशि चालू बजट में शामिल परियोजनाओं के लिए और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत सड़क और उच्च पथ निर्माण की परियोजनाओं के लिए 2,985 करोड़ की राशि रखी गई है। पीएमडीपी-2015 के तहत जारी परियोजनाओं की भौतिक और वित्तीय प्रगति पर गृह मंत्रालय द्वारा नियमित निगरानी की जाती है।
उड़ान परियोजना
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर ‘उड़ान’ परियोजना को राष्ट्रीय दक्षता संवर्धन निगम और गृह मंत्रालय ने संयुक्त रूप से शुरू किया है। इसका उद्देश्य पांच साल के दौरान 40,000 युवकों का कौशल संवर्धन करना है ।
♦भारत सरकार के प्रतिनिधि की नियुक्ति
खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक श्री दिनेश्वर शर्मा की नियुक्ति भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर की गई है। इसका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, विविध संगठनों और संबद्ध नागरिकों के बीच विचार-विमर्श की पहल करना और उसे तार्किक परिणति तक ले जाना है। इस काम के लिए उन्हें भारत सरकार के कैबिनेट सचिव के समान वरीयता दी गई है। श्री शर्मा ने विभिन्न लोगों के साथ बातचीत के लिए दिसम्बर 2017 तक जम्मू-कश्मीर के तीन दौरे किये हैं।
♦कुछ अन्य योजनाएं निम्नलिखित हैं। :
>  ताज़ा विकसित रेल नेटवर्क को घाटी से जोड़ा गया है।
>  900 करोड़ रुपये की लागत से नक्सल पीड़ित क्षेत्रों के समान ही जम्मू-कश्मीर में सड़क संरचनागत विकास कार्यक्रम ।
>  जम्मू-कश्मीर के युवाओं को राज्य के बाहर जाकर उच्च शिक्षा लेने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विशेष छात्रवृत्ति परियोजना चलायी गई है। इस योजना की कुल लागत 1,200 करोड़ रुपये की होगी।
>  महिला सशक्तिकरण के लिए ‘उम्मीद’ परियोजना है।
>  युवाओं की क्षमता निर्माण और रोजगार के लिए ‘हिमायत’ परियोजना
 > ‘भारत दर्शन कार्यक्रम’ के जरिये राज्य के लोगों का देश के अन्य हिस्से में रहने वाले लोगों से सम्पर्क परियोजना |
(i) अधिकतम 30 लाख रुपए तक संयंत्र और मशीनरी में किए गए कुल पूंजी निवेश पर 15 प्रतिशत सब्सिडी। लेकिन नई औद्यौगिक इकाइयों और मौजूदा औद्यौगिक इकाइयों को पर्याप्त विस्तार के लिए विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के लिए संयंत्र और मशीनरी के निवेश की अधिकतम सीमा 3.00 करोड़ रुपए और 1.50 करोड़ रुपए पर एमएसएमई पूंजी निवेश पर 30 प्रतिशत सब्सिडी की पात्र होगी।
(ii) वाणिज्यिक उत्पादन के प्रारम्भ होने की तिथि से 5 वर्ष की अवधि तक सभी नई इकाइयों को दैनिक कार्यशील पूंजी ऋण के औसत पर 3 प्रतिशत ब्याज सब्सिडी |
(¡¡¡) वाणिज्यिक उत्पादन के प्रारंभ होने की तिथि से 5 वर्ष की अवधि के लिए सभी नई और मौजूदा इकाइयों के पर्याप्त विस्तार के लिए प्रीमियम की 100 प्रतिशत प्रतिपूर्ति के साथ केंद्रीय व्यापक बीमा सब्सिडी योजना ।
♦3.5 महत्त्वपूर्ण मुद्दे  
♦3.5.1 धारा 370 व अनुच्छेद 35 (अ) का हटाया जाना धारा-370 (स)
इस धारा में रक्षा, विदेश, वित्त और संचार को छोड़कर (विलय के दस्तावेज में विनिर्दिष्ट) अन्य सभी कानूनों को लागू करने के लिए भारतीय संसद को राज्य सरकार की सहमति लेना अनिवार्य है।
इसलिए अन्य भारतीय नागरिकों की तुलना में इस राज्य के निवासी नागरिकता, संपत्ति के स्वामित्व और मौलिक अधिकारों से संबंधित कानून सहित अलग कानूनों के अंतर्गत आते हैं।
1974 के इन्दिरा-शेख समझौते के तहत भारत सरकार और जम्मू कश्मीर राज्य के साथ इस धारा की परिधि में रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
राष्ट्रपति, सरकारी अधिसूचना द्वारा इस धारा को समाप्त करने, कुछ अपवादों और संशोधनों के साथ इसे जारी रखने और इसके प्रभावी होने की तारीख की घोषणा कर सकते हैं बशर्ते कि राष्ट्रपति इस प्रकार की अधिसूचना जारी करने से पहले राज्य की विधानसभा की संस्तुति प्राप्त कर ले, जो कि अनिवार्य है।
1974 के इन्दिरा – शेख समझौते इस बात का उल्लेख है कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य, जो कि भारत संघ की एक संविधानकारी इकाई है संघ के साथ अपने संबंध में, भारत के संविधान की धारा 370 द्वारा नियंत्रित किया जाता रहेगा।
♦जम्मू एवं कश्मीर को भारत के संविधान की प्रयोज्यता
संविधान की धारा 370 के खण्ड ( 1 ) द्वारा प्रदत शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति महोदय द्वारा जम्मू एवं कश्मीर राज्य की सरकार की सहमति से संविधान बनाया जोकि 14 मई, 1954 को अस्तित्व में आया।
♦धारा 370 में संशोधन
धारा 370 (3) के तहत धारा 370 में संशोधन के लिए राज्य संविधान सभा की सहमति भी आवश्यक है। अब यह प्रश्न उठता है कि यदि राज्य की संविधान सभा मौजूद नहीं है तब हम कैसे धारा-370 में संशोधन कर सकते हैं? क्या इसके बावजूद भी संशोधन किया जा सकता है? कुछ न्यायविद कहते है कि संविधान की धारा 368 के तहत संशोधन अधिनियम द्वारा इसमें संशोधन किया जा सकता है और इस संशोधान को धारा 370 (1) के तहत भी लागू किया जा सकता है।
♦धारा 370 को रद्द करने की मांग
♦ पक्ष में दलीलः धारा-370 हटाने के पक्ष में निम्नलिखित दलीलें दी गई हैं:
>  धारा-370 के लागू होने से कुछ मानोवैज्ञानिक  व्यवधान पैदा हुए हैं जो कि जम्मू एवं कश्मीर समस्या का मूल कारण हैं।
>  यह धारा-370 ही है जो जम्मू एवं कश्मीर में और देश के अन्य भागों में दूरियाँ पैदा करती है और अलगाववाद को प्रोत्साहित करती है।
>  अधिनियम बनाने के समय यह अस्थाई व्यवस्था थी जिसे धीरे-धीरे समाप्त होना था।
>  यह जम्मू एवं कश्मीर के मुस्लिमों को लगातार याद दिलाता है कि उन्हें अभी देश के साथ पूरी तरह विलय होना है।
♦विरोध में दलील:  धारा-370 हटाने के विरोध में निम्नलिखित दलील दी गई है: इससे न केवल भारत द्वारा विलय दस्तावेज में दिए गए वचन का उल्लंघन होगा बल्कि इस मुद्दे को अधिक संवेदनशील बनाने से जम्मू एवं कश्मीर के लोगों के मन में अनावश्यक गलतफहमी पैदा होगी ।
♦अनुच्छेद-35 (अ)
भारतीय संविधान में अनुच्छेद-35 (अ) तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आदेश पर 1954 में जोड़ा गया था। यह कश्मीर के महाराजा हरि सिंह और भारतीय गणतंत्र के बीच हुए समझौते का हिस्सा था, जिसका आशय बाहर के लोगों से कश्मीरियों के विशेषाधिकार का संरक्षण करना था।
अनुच्छेद-35 (अ) भारतीय संविधान में शामिल प्रावधान है, जो जम्मू और कश्मीर विधानसभा को अपने सूबे के स्थायी नागरिक तय करने, उन्हें विशेषाधिकार प्रदान करने, सरकारी नौकरियों में खास अधिकार, राज्य में संपत्ति खरीदने का अधिकार, छात्रवृत्ति और अन्य सरकारी सहायता एवं कल्याण योजनाओं को हासिल करने का पूर्ण अधिकार देता है। अनुच्छेद-35 (अ) राज्य में अस्थायी रूप से रहने वालों को सरकारी नौकरियाँ पाने और वोट देने के उनके अधिकार को प्रतिबंधित करता है।
यह प्रावधान बताता है कि इसके अंतर्गत आने वाले किसी विधायी कार्य को संविधान के अथवा देश के अन्य कानून के हो रहे उल्लंघनों के नाम पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
राज्य की स्थायी निवासी महिलाओं से लैंगिक भेदभाव के लिए अनुच्छेद-35 (अ) को चुनौती दी जा रही है। इसके मुताबिक राज्य के बाहर के व्यक्ति से शादी करने वाली महिला सूबे में सम्पत्ति अर्जित करने के अधिकार से वंचित हो जाती है। फिलहाल, सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद-35 (अ) की वैधता की जांच कर रहा है ।
♦अनुच्छेद 370 एवं अनुच्छेद 35 (अ) को हटाने के निहितार्थ:
भारत सरकार ने 2019 के स्वतंत्रता दिवस से कुछ दिन पूर्व दोनों अनुच्छेदों को हटा दिया है और इसी के साथ जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा भी निरस्त हो गया। इन अनुच्छेदों को हटाकर सरकार ने जम्मू-क -कश्मीर एवं लद्दाख को दो केंद्र शासित राज्य बनाने की मंजूरी दे दी है, जिस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी अपनी सहमति जाहिर कर दी है। राष्ट्रपति की इस सहमति के पश्चात् ये दोनों केंद्र शासित प्रदेश 31 अक्टूबर, 2019 से अपने अस्तित्व में आ जाएंगे। जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के अनुसार केंद्र शासित जम्मू में एक उपराज्यपाल, एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के साथ विधानसभा होगी। जबकि लद्दाख केवल उपराज्यपाल के नियंत्रण में रहेगा, जिसके जरिए केंद्र इस क्षेत्र पर शासन करेगा।
हमारे दृष्टिकोण में यह कश्मीर समस्या हेतु एक साहसिक कदम एवं बड़ा बदलाव है। भारत सरकार का कहना है कि इस कदम से भारत के बाकी हिस्सों के साथ कश्मीर के एकीकरण तथा विकास की प्रक्रिया शुरू करने में मदद मिलेगी।
♦लोगों के मन में बहुत सी आशंकाएँ भी थीं:
1.  पाकिस्तान इस मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक ले जाने की कोशिश करेगा। हाँ, उसने कोशिश की लेकिन विफल रहा, चीन के अलावा पाकिस्तान को किसी भी अन्य राष्ट्र से अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल नहीं कर सका। यहां तक कि इस मुद्दे को चीन के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र में भी ले जाने की कोशिश की गई, लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक अनौपचारिक बैठक के बाद घोषित किया कि कश्मीर मुद्दे को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रूप से हल किया जाना है। इसे भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक जीत कहा जा सकता है।
2. पाकिस्तान युद्ध शुरू कर सकता है। वह विकल्प पाकिस्तान पहले ही पूर्व में इस्तेमाल कर विफल हो चुका है, इसलिए वह गलती नहीं दोहराएगा।
3. घाटी और पूरे देश में आईएसआई आतंकवाद फैलाने की कोशिश करेगी। परन्तु आईएसआई पहले से ही ऐसा कर रहा है। पुलवामा हमले ने पाकिस्तान को बेनकाब कर दिया है और बालाकोट हवाई हमले ने साबित कर दिया है कि कई बार आक्रमण सुरक्षा की प्रतिरक्षा की सबसे अच्छी रणनीति हो सकती है और यह एक प्रभावी निवारक के रूप में कार्य कर सकता है। आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाने एवं हाफिज सईद व मसूद अजहर जैसे आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से भी पाकिस्तान पर दबाव बढ़ रहा है।
4. कश्मीर में भारी अशांति होगी। लद्दाख तथा जम्मू की बहुसंख्यक आबादी ने भी एकीकरण के फैसले का स्वागत किया है। कश्मीर में पहले भी तनावपूर्ण स्थिति थी। वर्ष 1989 से यहाँ अशांति की स्थिति बनी हुई है। पिछले 30 वर्षों में 500 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। इसलिए बढ़ते केंद्रीय नियंत्रण को प्रशासन और सुरक्षा बलों के मनोबल बढ़ाने का कार्य करना चाहिए और उन्हें कानून एवं व्यवस्था को पथराव जैसी स्थितियों में भी नियंत्रित करने में मदद करनी चाहिए।
♦3.5.2 क्या जनमत संग्रह करवाया जाना चाहिए?
वर्तमान परिदृश्य में, जनमत संग्रह का कोई अर्थ नहीं होगा, क्योंकि पिछले 65 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। 1990 के दशक में लगभग चार लाख कश्मीरी पंड़ितों को जबरन विस्थापित किया गया जिससे कश्मीर की जनसांख्यिकी सहित बहुत कुछ बदल गया है। पाकिस्तान ने पीओके से सैनिकों को कभी वापिस नहीं हटाया जोकि जनमत संग्रह की पहली शर्त थी। इसलिए भारत को जनमत संग्रह की मांग से सहमत नहीं होना चाहिए।
♦3.5.3 पाकिस्तान क्यों लगातार संघर्ष विराम का उल्लंघन कर रहा है?
संघर्ष विराम का उल्लंघन, जम्मू एवं कश्मीर के मुद्दे को जिंदा रखने, इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का प्रयास करने और आतंकवादियों को घुसपैठ करवाने के लिए भारतीय सुरक्षा बलों को उलझाए रखने की आईएसआई द्वारा बनाई गई सोची समझी योजना है।
♦3.5.4 कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास और पुनर्स्थापना की समस्या
कश्मीर घाटी में 1989-90 के दौरान आतंकवाद के उभार के बाद 7 लाख कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ना पड़ा था। उनमें से अधिकतर ने या तो दिल्ली या उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में शरण ली। इनमें से काफी संख्या में लोग जम्मू के बाहरी क्षेत्रों में बने शरणार्थी शिविरों / कालोनियों में रह रहे हैं।
कश्मीरी पंडित सदियों से कश्मीर के मूल निवासी है, इसलिए उन्हें वापस अपनी मातृ-भूमि में लौंटने में मदद की जानी चाहिए। हमें ऐसा माहौल पैदा करना चाहिए जिससे ये लोग वापस लौटना चाहने लगें।
2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीरी विस्थापितों की घाटी में वापसी और पुनर्वास के लिए एक विशेष पैकेज की घोषणा की। पैकेज में आवास, ट्रांजिट आवास, छात्रवृत्ति, रोजगार और ब्याज दर में भी शामिल हैं। पैकेज में घर के निर्माण के लिए प्रति परिवार 7.5 लाख की राशि दी गई है। लेकिन यह योजना आज की तारीख तक सफल नहीं हुई है।
प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज के तहत लगभग 1,900 शिक्षित युवाओं को रोजगार दिया गया था, लेकिन वे भी वर्ष 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद घाटी में हुई पत्थरबाजी की घटनाओं के बाद जम्मू में शरण लेने पर मजबूर हो गए।
वर्ष 2017 में गृहमंत्री ने कश्मीरी पंडितों के लिए 6,000 ट्रांजिट आवास बनाने की घोषणा की थी। किंतु घाटी में सुरक्षा के बिगड़े वातावरण को देखते हुए केवल उनके घरों के लिए जमीन या गुजारे के लिए रोजगार उपलब्ध करा कर पंडितों की रिहायश के लक्ष्य को हासिल करना बहुत मुश्किल है।
लद्दाख को एक अलग केंद्र शासित क्षेत्र बनाना जम्मू-कश्मीर राज्य की चौहद्दी में फेरबदल की मांग करेगा, जो अनुच्छेद 370 का उल्लंघन माना जाएगा। अतः यह विकल्प न तो अनुशंसित है और न ही व्यवहार्य ।
♦3.5.5 पत्थरबाजी
कश्मीर में पत्थरबाजी की ज्यादातर घटनाएं स्थानीय आतंकवादियों की सुरक्षा बलों से मुठभेड़ की वजह से होती हैं। आईएसआई समर्थित हुर्रियत कांफ्रेंस के सदस्यों व्हाट्सअप और फेसबुक के जरिये पत्थरबाजी को एक व्यवस्थित रूप दिया है। पत्थरबाजी के लिए पाकिस्तान से धन मुहैया कराया जाता है। हुर्रियत के अलावा, घाटी के युवा भी स्वतः स्फूर्त ढंग से पत्थरबाजी करने लगते हैं। अब तो कश्मीर में पत्थरबाजी ने बाकायदा एक उद्योग का रूप लिया है, जिसको हुर्रियत कांफ्रेंस समूह व्यवस्थित रूप से आयोजित करता है। वर्ष 2016 में सीआरपीएफ जवानों के खिलाफ पत्थरबाजी की 1,742 घटनाएं हुई। यह आम समझ है कि पत्थरबाजी आईएसआई की रणनीति का एक अंग है और पत्थर फेंकने वाले युवकों को धन का भुगतान किया जाता है।
♦सरकार द्वारा उठाये गए कदम
एनआईए ने वर्ष 2017 में कई हुर्रियत नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज कराये थे। उन पर पाकिस्तान के इशारे पर अलगाववादियों द्वारा पत्थरबाजी को आयोजित करने का आरोप लगाया था। हुर्रियत नेताओं के विरुद्ध आतंकवाद के वित्त पोषण मामले में एनआईए की कार्रवाई से घाटी में पत्थरबाजी की घटनाओं में काफी कमी आई है।
♦3.5.6 पैलेट गन
पैलेट गन भीड़ को नियंत्रित करने की विधियों का एक गैर-घातक प्रकार है, जिसका उपयोग पूरी दुनिया की पुलिस और सेना करती है। इसके अलावा, अन्य लोकप्रिय तरीकों में आंसू गैस, मिर्च का छिड़काव आदि हैं। गैर-घातक हथियारों का उपयोग उन परिस्थितियों के मुकाबले के लिए किया जाता है ताकि संघर्ष एक सीमा से ज्यादा न फैले। वहां घातक हथियारों से लैस सैन्यबल की तैनाती की मनाही है और यह अवांछनीय है।
पैलेट गन का मकसद व्यक्ति को चोटिल करना और उसे पीड़ा पहुंचाना है। यह 200 गज की दूरी से प्रभावी होता है, लेकिन अगर बहुत नजदीक से किसी को निशाना बनाया जाए तो उसकी चोट घातक हो सकती है, खास कर आंख जैसे संवेदनशील अंगों के लिए।
मानवाधिकारवादी कहते हैं कि बलों द्वारा पैलेट गन का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक नहीं है। पुलिस को चाहिए कि वह लोगों को कम से कम नुकसान पहुंचाने वाले उपकरणों का इस्तेमाल करे जिससे निशाना भी सटीक बैठे और उसके उपयोग के नुकसान से होने वाले जोखिम को कम किया जा सके। इस तरह से उसे भीड़ पर काबू पाने के अपने लक्ष्यों को हासिल करना चाहिए।
प्लास्टिक बुलेट- सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से वर्ष 2017 में पैलेट गन के बजाय अन्य असरकारक उपायों को आजमाने के लिए कहा था। तब सरकार ने सुरक्षा बलों से प्लास्टिक की गोली के इस्तेमाल का निर्देश दिया था।
पैलेट गन की समीक्षा के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा टी. एन. एस. वी. प्रसाद की अगुवाई में सात सदस्यीय कमेटी गठित की गई थी। इसने कठिन से कठिन मौकों पर ही पैलेट गन के इस्तेमाल का सुझाव दिया था। सुरक्षा बल पत्थरबाजी की घटनाओं को रोकने के लिए अन्य उपायों का भी सहारा लेते हैं, किंतु इस काम में पैलेट गन का इस्तेमाल पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है।
♦3.5.7 मानवीय कवच ( ह्यूमन शील्ड)
सैन्य अधिकारी मेजर लीतुल गोगोई ने अप्रैल, 2017 में शाल निर्माता फारूक अहमद डार को अपनी जीप के आगे बांध कर कथित रूप से पत्थरबाजी के निशाने से बचने के लिए उसका मानवीय कवच के रूप में इस्तेमाल किया था। तब मेजर ने उस समय श्रीनगर संसदीय सीट के लिए हो रहे उपचुनाव के दौरान उसके विभिन्न क्षेत्रों में भी परेड कराया था। इस घटना की फिल्म बना ली गई और उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया गया। इसको लेकर कश्मीर घाटी में मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में काफी शोर-शराबा हुआ। श्री डार का मानवीय कवच के रूप में इस्तेमाल की पूरी दुनिया में निंदा की गई। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस काम ‘निर्दयी, अमानवीय और उत्पीड़न की हद तक अपमानजनक व्यवहार’ करार दिया। इस तरह के मानवीय कवच के उपयोग को लेकर पक्ष-विपक्ष में खूब तर्क दिये जाते रहे हैं। किंतु सुरक्षा बलों के लिए यह बेहतर होगा कि वह भीड़ नियंत्रण के लिए अधिक से अधिक मानवीय तरीकों का उपयोग करे।
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