सृजनात्मकता की अवधारणा को समझाइए ।
सृजनात्मकता की अवधारणा को समझाइए ।
उत्तर— सृजनात्मकता की अवधारणा–वह कला है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिये नवीन सृजन करता है। इस कला का सम्बन्ध विशेषकर आत्मरंजन से है भले ही उसका अप्रत्यक्ष रूप में अर्थ से सम्बन्ध बन जावे । जैसे—एक कवि अपने मन के भावों को कविता में व्यक्त करके काव्यों का सृजन करता है ये काव्य भले ही अर्थ की दृष्टि से उपयोगी बन जावें लेकिन कवि का उद्देश्य अर्थ प्रदान नहीं होता। इसी प्रकार चित्रकार, मूर्तिकार, अपने मनोरंजन के लिये नवीन चित्रों का और मूर्तियों का सृजन करता है। महात्मा तुलसीदास ने स्वांतः सुखाय रामचरित्र मानस की रचना की। राजा रवि वर्मा ने चित्रकला की नई सृजना नहीं की वरन् आधुनिक धारा का अबोध गति से पालन किया। उन्होंने पाश्चात्य शैली का अध्ययन किया और सैकड़ों वर्षों की परम्परागत रूढ़िबद्ध चित्र प्रणाली से विमुख हुए।
प्रो. ई. बी. हैवेल एक अंग्रेज महोदय थे जो उस समय कला विद्यालय के प्रधान थे। उन्होंने भारतीय चित्रकला का अध्ययन किया और बताया कि भारतीय चित्रकला संसार की एक श्रेष्ठ कला है। आजकल विद्यालयों में समाज उपयोगी उत्पादककारी (S.U.P.W.) एक नवीन अवधारणा बताई गई है। इसके अंतर्गत कला शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया। छात्रों की सृजनात्मक प्रतिभा का विभिन्न रूपों में उपयोग करने के लिए चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला व साहित्य सृजन आदि को पाठ्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण विषय माना गया है। छात्र कक्षा में बाल सुलभ प्रतिभाओं के कारण तोड़फोड़ भी करते हैं और उन्हें यदि मार्ग सही दिया जाता है तो वे अपनी प्रतिभा व शक्ति का उपयोग नवीन वस्तु के सृजन में लगा सकते हैं, छात्र अपनी कल्पना से नये चित्र बनाते हैं। मिट्टी के खिलौने बनाते हैं, प्लास्टिक से रंग-बिरंगे चित्र बनाते हैं। सृजनात्मक कला से छात्रों का मन कला की ओर आकर्षित होता है और इस प्रकार बाल कलाकार आगे जाकर अच्छे कलाकार बन जाते हैं।
सृजनात्मकता कला का आशय–’सृजन’ करना अर्थात् नवीन निर्माण करना। सृजनात्मकता एक कल्पना शक्ति का परिणाम है। जब कोई व्यक्ति कोई मौलिक कृति बनाता है या कहीं देखकर उस आधार पर कोई निर्माण करता है तो वह किसी प्रकार का ‘सृजन’ करता है। अनेक कलाओं को कागज पर उतारना, पोस्टर बनाना, फूल-पत्तियों का निर्माण करना, किसी मूर्ति का निर्माण करना, पेन्टिंग के अनेक आयाम प्रस्तुत करना, यहाँ तक कि नारी अपने आपको संवारती है, तो वह भी एक प्रकार का सृजन ही तो करती है। मेहंदी को कई प्रकार के डिजाइनों में बनाना, फैशन डिजाइनर जब कपड़ों के डिजाइन तैयार करते हैं तब वे आधुनिकता के अनुरूप नया सृजन करते हैं।
जब कोई बालक अपनी अनुभूति को बिना किसी दबाव के स्वाभाविक रूप से जो अभिव्यक्त करता है, उसे उस बालक की सृजनात्मक अभिव्यक्ति कहते हैं। सृजनात्मकता प्रत्येक बालक में जन्मजात रूप से पायी जाती है। इस सृजनात्मक कला में बालक पेन्सिल, रंग, कोयले आदि से सफेद दीवार पर कुछ टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ खींचता तो वह चित्रकला कहलाती है और जब बालक अपनी तोतली वाणी में स्वाभाविक रूप से बोलता है तो यह अभिनय या नाट्य कला कहलाती है और जब बालक स्वतन्त्र रूप से गुनगुनाता है तो यह गायन कला कहलाती है।
टॉलस्टाय के अनुसार, रेखा, रंग, ध्वनि, शब्द रचना तथा क्रिया आदि कलाकारों के भावों की वह अनुभूति है जो दर्शक श्रोता अथवा पाठक के मन में विभिन्न भावों को जगाकर उसे आनन्दित करती है, वही सच्ची सृजनात्मक कला है। नया या पुराना होना कला की कसौटी नहीं होता बल्कि उसका मूल लक्षण सौन्दर्य – बोध है और सौन्दर्य बोध सम्बन्धी मान्यताओं में समय-समय पर परिवर्तन भी होते रहते हैं।
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