हाहाकार : कथानक
हाहाकार : कथानक
हाहाकार : कथानक
‘हुंकार’ काव्य-संग्रह में संकलित रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘हाहाकार’ में जनता के दुख, उसकी घोड़ा और उसके घोर अभाव का हाहाकार स्पष्ट सुनायी देता है। इस कविता में कवि का आक्रोश अपने चरम पर है। वे प्रगतिवादी कवियों की तरह शोषकों की दमन नीति को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते हैं। समाज में फैली अंतहीन विषमता ही ‘हाहाकार’ कविता का असली निहितार्थ है।
समीक्ष्य कविता में कवि कहता है कि जब से कविता मेरी संगिनी बनी, तभी से मेरी व्याकलता बढ़ती चली गयी है। मेरी कविता संसार में विन्यस्त दुखों को पता नहीं किन निगाहों से देख लाती है। मेरी कविता की आँख साफ देखती है कि भारत गांवों का देश है और गांव के लोग कृषि जीवन पर आधारित हैं। हम सभी जानते हैं कि खेती के लिए जल की आवश्यकता सर्वाधिक होती है। लेकिन जिस वर्ष ‘वर्षा नहीं होती, वहां के किसान एक-एक बूंद के लिए तरसने लगते हैं। आकाश का पानी ऊपर में ही कहीं जल गया है। संभव है सिंध का जल भी कभी मनुष्यों के आंसू से खारा हो गया हो, तब पर्वतों ने अपने हृदय को चीरकर धरती पर जल को प्रवाहित और प्रसारित होने दिया। उस जल की धारा को देखकर प्यासे ललक पड़े। कवि की कविता भी पिपासित होकर उस पर्वत की तरह स्वयं को फाड़कर प्रस्तुत हुई है, जिसमें सभी के हित की संभावना है। उस कवि को धन्य कहा जाना चाहिए जिसकी कविता में नियति की विषमता और आंधी अनावृत्त
होकर प्रस्तुत होती है। कवि दुखी मानवता को अपनी दृष्टि से दूर कर आकाश कुसुम के दिव्य नंदन-कानन में अलस बादलों की तरह विचरते नहीं रहना चाहता है।
फूलों के जिस जंगल में वस्त्र और आभूषण की तार बिजलियाँ नहीं चमकती हो, जहाँ फूलों के हार गूंथने के सिवाय दूसरा कोई काम नहीं हो, शतदल पर बसी कल्पना से युक्त कविता होती हो, जहाँ पैरों के थिरकन मात्र से ही स्वान भंग हो जाते हों, कवि की कविता भी विलासिनी हो सकती है, वह भी सुंदरता के आगे अपने शीश झुकाना चाहती है, वैसी मधुमयी कविता जहाँ-जहाँ बसी होगी वहाँ कवि वसंतालीन बनकर उतरना चाहता है।
कवि की इच्छा एक बार मुनि आश्रम देखने को भी है जहाँ मुनि बालाएँ नदी किनारे से घड़े में पानी भरकर लाती हैं। वह उस माधवी कुंज में झांकना चाहता है जहाँ स्वर्ग का सुख है। वह जनरव से दूर अपना संसार बसाना चाहता है जहाँ जनता की कराह नहीं पहुँचती हो। वह ऐसे स्वप्नों में खो जाना चाहता है जहाँ सूर्य के लहरों में झिलमिल करती किरणें मचलती और मिटती रहती है। किंतु स्वप्न रूपी आकाश में कुटी बनाना संभव नहीं। कभी कवि की कल्पना जगती है, कभी आधी कल्पना मिट जाती है तो कभी वह कल्पना उजड़ जाती है।
कुपित देवताओं की शाप-शिखा जब बिजली बनकर धरती के ऊपर छा जाती है, तब कवि का विद्रोही हृदय चीख उठता है, उसकी अन्य भावनाएं भस्म हो जाती हैं। सूर्य का मुख मंडल भी पश्चिम की दिशा में लाल बादलों में छिपकर अस्तचल गामी हो जाता है। इसके बाद कवि के अंदर की विवशता आंसूओं के रूप में पिघलने लगती है। कवि का हृदय सामाजिक विसंगतियों के प्रति खिन्नता से भर जाता है। किसानों के श्रम की ओर संकेत करते हुए कवि कहता है कि जेठ की गरमी हो या पूस की ठंढी रात हमारे किसानों को आराम नहीं मिलता। उन्हें दिन में बैल के साथ और रात में खेत में रतजगा करना पड़ता है। किसान कुमारियाँ अभाव और विपन्नता की जिंदगी जीती हुई हाहाकार करती रहती हैं।
कवि का ध्यान किसान के पशुओं को और भी जाता है। उन निरीह मूक पशुओं की यातना कथ का भी अंत नहीं है। ऐसे अभावपूर्ण घर में सर्वाधिक दुर्गति बच्चों की होती है। ऐसा अबोध शिशु जो आंसू रोक पाने का अर्थ भी नहीं समझता है, वह भूखी माता के सूखे स्तन को चूसते-चूसते, रोते-रोते भूखा सो जाता है। ऐसी स्थिति में उस अभागी माँ को क्या दशा होती होगी, कल्पना करना दुष्कर है। वह अपने बच्चे को भूख से बिलबिलाते देख, सोचती है कि यदि हमारी छाती फट जाती तो, मैं उसे अपना खून पिलाकर उसको भूख शांत कर देती। न जाने कितने अबोध शिशु भूख से बिलबिलाकर दम तोड़ देते हैं, कब्र में उनकी हड्डियाँ भी रोती रहती हैं।
कवि का मन को तार-तार कर देने वाला सवाल है कि जब यहाँ के छोटे-छोटे बच्चे भूख से बिलबिला रहे हों, भगवान पाथर बने क्या देखते रहते हैं। कवि तारों से पूछता है कि इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं? कवि बच्चों के लिए दूध खोजने के लिए बेचैन है। दुनियाँ तो निश्चिंत से सोयी हुई है। कवि देवताओं से निवेदन करता है कि वे दूध के कुछ बूंद बच्चों के भूखे मुँह में टपका दें। कवि गंगा से निवेदन करते हैं कि तुम अपने पानी को ही दूध में तब्दील कर दो। कवि धनाढ्यों पर कुपित होकर कहता है कि यहाँ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अपने कुत्तों को दूध से नहलाते हैं दूसरी ओर वैसे बच्चे भी हैं जो कब्र से दूध-दूध चिल्लाते रहते हैं ―
ये भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं।
ये बच्चे भी यहीं, कब्र में ‘दूध-दूध’! जो चिल्लाते हैं।
कवि हिमालय को कोसता हुआ कहता है कि तुम खड़े-खड़े क्या मुँह ताक रहे हो, तुम्हारे बच्चे भूख से तड़प रहे हैं। अंत में कवि दूध लाने की भीष्म प्रतिज्ञा करता हुआ कहता है कि जैसे भी हो दूध का इंतजाम करना ही होगा। उस मंजिल तक पहुंचना जरूरी है, जहाँ दूध के घड़े रखे हुए हैं। कवि धरती, आकाश, पर्वत तथा सागर की जय जयकार करता हुआ कहता है कि मेघ के रास्ते में आनेवाली बाधाओं मेरा रास्ता छोड़ो, हम स्वर्ग लूटने के लिए आ रहे हैं। दूध-दूध चिल्लाते हुए भूखे-अधनंगे बच्चों के लिए दूध खोजने हम आ रहे हैं। इस कविता की यह मार्मिक पंक्ति ऐतिहासिक पंक्ति बन गई है ―
“हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम जाते हैं,
‘दूध-दूध’ ओ वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।”
उक्त पक्ति में दूध खोजने के लिए स्वर्ग लूटने का मतलब ऐसे अमीरों की अकुत सम्पत्ति पर धावा बोलना है, जहाँ कालाबाजारी एवं अन्य गलत धंधों से सम्पत्ति अर्जित किए हुए हैं। यह कविता सामाजिक विषमता पर कवि के आक्रोश की अभिव्यक्ति है। यहाँ कवि का यथार्थ बोध सघन रूप से उपस्थित हुआ है।