निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए—
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए—
(अ) लैंगिक समानता के निर्धारक कारक
(ब) लैंगिक समानता की आवश्यकता
(स) विद्यालय में लैंगिक असमानता
(द) विद्यालयों लैंगिक संवेदनशीलता का पोषण
उत्तर- (अ) लैंगिक समानता के निर्धारक कारक – लैंगिक समानता का निर्धारण निम्नलिखित कारकों के आधार पर किया जाता है—
( 1 ) साक्षरता दर – साक्षरता दर इस बात की द्योतक होती है कि महिला-पुरुष में साक्षरता का स्तर कितना है ? साक्षरता दर भारत वर्ष में जनगणना के फलस्वरूप प्राप्त होती है। साक्षरता दर प्रतिशत के रूप में दर्शायी जाती है। साक्षरता दर से इस बात का भी पता लगता है कि समाज उनकी शिक्षा को लेकर कितना जागरूक है ? साक्षरता दर से यह भी पता लग जाता है कि देश के विकास में उनकी कितनी भागीदारी आवश्यक है ? साथ ही यह भी पता लगता है कि समाज महिलाओं को कितना महत्त्व प्रदान करता है ? बालक-बालिकाओं को मिलने वाली सुविधाओं एवं महत्त्व में अन्तर के कारण साक्षरता दर में अन्तर देखने को मिलता है। यदि सुविधाओं में अन्तर हो और महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत कम हो तो इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शिक्षा सम्बन्धी जागरूकता कम है या ज्यादा । इससे उनके प्रति होने वाले भेदभाव का पता लग जाता है।
( 2 ) अस्तित्व – महिलाओं का अस्तित्व कितना है ? क्या वे समाज का प्रमुख हिस्सा मानी जाती हैं ? उनकी हैसियत क्या है ? यदि उनके अस्तित्व के लिए सकारात्मक कारक उपस्थित हैं तो महिलाओं की स्थिति बेहतर मानी जाती है। अस्तित्व के लिए आवश्यक परिस्थितियों का अभिप्राय यह है कि समाज या देश उनके बेहतरी और संघर्ष के बीच का अन्तराल कम कर रहा है या बेहतरी और विकास की कम सम्भावना है। उनका अधिकतम विकास इसी कारक पर निर्भर करता है ।
( 3 ) लिंग निर्धारण के लिए गर्भपात – जितना अधिक गर्भपात होगा, वह इस बात का संकेत करता है कि कितना सम्मान स्त्रियों को दिया जा रहा है। स्त्री-लिंग निर्धारण के बाद यदि कोई समाज पैदा होने से पहले ही गर्भ में मारने की बात करे तो वह समाज ही जिम्मेदार है और यह मान लिया जाता है कि स्पष्ट रूप से वहाँ लैंगिक असमानता व्याप्त है, लैंगिक असमानता को जानने के लिए इससे सम्बन्धित तथ्यों को जानना बहुत आवश्यक है।
( 4 ) महिला सशक्तीकरण – किसी भी देश में महिलाएँ कितनी सशक्त हैं ? यानि प्रत्येक क्षेत्र में कितनी जागरूकता है। अपने अस्तित्व के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं ? कितनी और किस प्रकार के अधिकार प्रदान किए गए हैं ? कितनी मात्रा में इनका प्रयोग महिलाओं के द्वारा किया जा रहा है ? देश में, समाज में व परिवार में उनकी स्थिति, राजनैतिक भागीदारी व महत्त्वपूर्ण रोजगार में बढ़िया स्थिति का अर्जन आदि, महिला सशक्तीकरण के सूचक तथा क्षेत्र हैं, जिस आधार पर महिला के सशक्तीकरण का अनुमान लगाया जा सकता है।
( 5 ) स्वास्थ्य – स्वास्थ्य के मामले में महिलाओं और पुरुषों की स्थिति को देखकर महिलाओं की तुलनात्मक स्थिति पता लगाई जाती है। स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं का प्राप्त होना एवं औसत स्वास्थ्य का स्तर इस बात की सूचक होती हैं कि महिलाओं को कितनी मात्रा में स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध हैं। इन स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत प्रसव काल के समय प्राप्त स्वास्थ्य सेवाएँ एवं अन्य बाकी दिनों में उसका स्वास्थ्य का स्तर, इस बात की ओर संकेत करते हैं कि महिलाओं का स्वास्थ्य कैसा है ?
( 6 ) शिक्षा – पुरुष और महिलाओं का शिक्षा सम्बन्धी अनुपात लैंगिक समानता को दर्शाता है। जिस प्रकार की अहमियत होती है उसी अनुपात में भेदभाव का स्तर नजर आता है। शिक्षा के अनुपात इस बात की ओर इशारा करते हैं कि समाज की अभिवृत्ति कैसी है ? लोगों की मानसिकता कैसी है ? इससे यह भी पता लगता है कि शिक्षा सम्बन्धी कितनी जागरूकता है पर लैंगिक असमानता का स्तर अवश्य इस बात की ओर इशारा करता है कि महिलाओं की स्थिति कैसी है ?
( 7 ) आर्थिक भागीदारी-महिला की आर्थिक भागीदारी का भी स्तर इस बात की ओर इशारा करता है कि उसकी स्थिति कैसी है? यह सबसे अच्छे संकेतकों में से एक है क्योंकि आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो महिलाओं के सशक्तीकरण का सवाल ही पैदा नहीं होता। आर्थिक स्थिति का आकलन करते समय उसके द्वारा अर्जित आय, रोजगार में भागीदारी, व्यवसाय आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
(8) राजनैतिक सशक्तीकरण — शासन प्रक्रिया में भागीदारी एवं वोट देने के अधिकार महिलाओं के राजनैतिक सशक्तीकरण के सूचक हैं। यदि महिलाओं को राजनैतिक निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए तो वो अपने अधिकारों एवं अन्य परिस्थितियों के बारे में ज्यादा सजग हो जाती हैं और नारियों के अस्तित्व के लिए अपनी आवाज उठाती हैं साथ ही राजनैतिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं । राजनैतिक सशक्तीकरण का स्तर इस बात की तरफ इशारा करता है कि महिलाओं में अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता का क्या स्तर है ? राजनैतिक सशक्तीकरण का उच्च स्तर महिलाओं के विकास का द्योतक माना जा सकता है। जिस दौर में महिलाएँ घर से बाहर ही नहीं निकलती थी, उस समय उनकी राजनैतिक भागीदारी की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसीलिए आधुनिक दौर में महिलाओं को राजनैतिक अधिकार दिए जाने के बाद उनकी राजनैतिक सक्रियता बढ़ती रही है जिसके कारण महिलाओं की राजनैतिक सशक्तीकरण का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जो महिलाओं के विकास एवं लैंगिक समानता के लिए सकारात्मक है।
( 9 ) आय-अनुपात— पुरुष और स्त्रियों के अनुपात में ज्यादा या कम अन्तर होना, सामाजिक समानता का स्तर तय करने में कम महत्त्वपूर्ण होता है। यदि आय अनुपात काफी कम है तो इससे पता चल जाता है कि उन्हें आर्थिक अधिकार प्राप्त है या नहीं। आय-अनुपात इस बात को बताता है कि महिलाओं और पुरुषों के आय की क्या हिस्सेदारी है ? ऐतिहासिक एवं सामाजिक विकास के अनुसार स्त्रियों को ज्यादातर अनार्थिक क्रियाओं में संलिप्त पाया गया है। जिसके कारण उनकी आय सदैव ही पुरुषों की तुलना में कम ही रही है। परन्तु वर्तमान समय में रोजगार के अवसर प्राप्त होने के कारण उनको आर्थिक क्रियाओं में भागीदारी करते देखा जा सकता है जिसके कारण आय-अनुपात की खाई में कमी आ रही है। जितना कम अन्तर पाया जाता है, उतना ही इस बात को दर्शाता है कि महिलाओं की आर्थिक क्रिया एवं उत्पादन प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ती जा रही है। इस अनुपात के अन्तर को रोजगार में समानता देने के साथ-साथ सामाजिक संरचना में महत्त्वपूर्ण स्थान देकर कम किया जा सकता है। इसके लिए सरकार एवं समाज दोनों स्तरों पर व्यापक बदलाव की आवश्यकता है।
(ब) लैंगिक समानता की आवश्यकता–लैंगिक समानता को स्थापित करने की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है—
( 1 ) जीने के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न करना – पुरुष और महिला दोनों को जीने के लिए आवश्यक परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। महिलाओं के अस्तित्व (Identity) का स्तर उतना ठीक नहीं है जितनी उनकी आवश्यकताएँ हैं। महिलाओं को अपना जीवन स्वतन्त्र रूप से जीने के लिए जिस प्रकार की परिस्थितियाँ आवश्यक है, वैसी परिस्थितियाँ प्राप्त न होने की दशा में उनके व्यक्तित्व का अपेक्षित विकास नहीं हो पाता है। लैंगिक समानता इस प्रकार की परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है।
( 2 ) परम्परागत विषमता को समाप्त करना – हमारे समाज में व्याप्त परम्परागत विषमता यानि समाज में परम्पराओं के रूप में व्याप्त असमानता को समाप्त करने की आवश्यकता के लिए लैंगिक समानता आवश्यक है। जब तक लैंगिक समानता स्थापित नहीं की जाती तब तक परम्परागत विषमता के कई रूपों, जैसे विशेषाधिकार, हैसियत, निर्णय प्रक्रिया, स्वतन्त्रता सम्बन्धी असमानता को पूर्णतः दूर नहीं किया जा सकता है।
( 3 ) सन्तुलित सामाजिक विकास को सुनिश्चित करना – लैंगिक समानता की आवश्यकता इस बात में निहित है कि इससे सामाजिक विकास सन्तुलित रूप से हो पाता है। कोई भी समाज तभी ज्यादा सन्तुलित विकास कर पाएगा यदि स्त्री और पुरुष दोनों का ही विकास हो रहा हो। लैंगिक समानता सुनिश्चित करके इस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। स्त्री और पुरुष दोनों का ही पूर्ण रूपेण विकास नहीं हो पाता। लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त करके एक सन्तुलित एवं विकसित समाज की उम्मीद कर सकते हैं।
( 4 ) साक्षरता दर में समानता—किसी भी समाज के स्त्री-पुरुषों में साक्षरता समान हो तो शिक्षा का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिल सकता है। समाज के विकास दर में वृद्धि हो जाएगी। लैंगिक समानता की आवश्यकता शिक्षा सम्बन्धी अवसरों में वृद्धि के लिए है। साक्षरता में वृद्धि होने से जागरूकता में वृद्धि हो जाएगी।
( 5 ) भेदभाव समाप्त करना-किसी भी लिंग के प्रति हो रहे भेदभाव को समाप्त तभी किया जा सकता है जब लैंगिक समानता की स्थिति पैदा की जाए। महिलाएँ ही इस भेदभाव की ज्यादा शिकार होती हैं। इस भेदभाव को समाप्त करके महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को भी ठीक होने में समय नहीं लगेगा क्योंकि भेदभाव से जो मनोवैज्ञानिक तनाव महिलाओं में उत्पन्न होता है, वह उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता।
( 6 ) आर्थिक स्वावलम्बन – लैंगिक समानता का एक उद्देश्य आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त करना है। विशेषकर महिलाओं के आर्थिक पक्ष को मजबूती प्रदान करके आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना, लैंगिक समानता का उद्देश्य है। लैंगिक असमानता के प्रमुख कारणों आर्थिक स्वतन्त्रता का अभाव होता है। आर्थिक सुदृढ़ीकरण से उनके स्वतन्त्रता सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है क्योंकि आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भरता, उनकी स्वतन्त्रता में बाधा पहुँचाती है।
(स) विद्यालय में लैंगिक असमानता–विद्यालयों में लैंगिक भिन्नता विभिन्न आधारों पर परिलक्षित होती है जिसका वर्णन हम निम्नलिखित रूप में करने जा रहे हैं–
( 1 ) विद्यालय की पहुँच के आधार पर— सन् 1871 में हुनेडिन में लड़कियों के लिए पहला माध्यमिक विद्यालय खोला गया जो लड़कों के माध्यमिक स्कूलों के 15 वर्ष बाद खोला गया। प्राथमिक शिक्षा सन् 1977 में ही सार्वभौमिक रूप से निःशुल्क एवं अनिवार्य कर दी गई थी जिसमें बालिकाओं को प्राथमिक विद्यालय तक पहुँच स्वतः ही प्रदान कर दी गई थी लेकिन माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों की पहुँच के लिए एक विशेष सशक्त अभियान की आवश्यकता पड़ी ।
( 2 ) प्रतिबन्धक अधिगम- 1917 ई. से सभी बालिकाओं के लिए उच्च शिक्षा सम्बन्धी उपयुक्त नौकरी की कमी एवं भय को दूर करने के लिए विवाह एवं मातृत्व आधारित गृह विज्ञान अनिवार्य विषय कर दिया गया। इस प्रकार 20वीं सदी के आरम्भ में समाज एवं परिवार में महिलाओं की भूमिका सम्बन्धी अवधारणाओं ने विस्तृत परिप्रेक्ष्य में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या को आकार देना प्रारम्भ कर दिया। बालिकाओं के लिए गृह कौशल सम्बन्धी तकनीकी विद्यालय 1900 ई. में स्थापित किया गया, जिसमें लड़कियाँ टाइपिंग, आशुलिपि, बुक कीपिंग आदि व्यवसाय आधारित पाठ्यचर्या से सम्बन्धित कौशल सीखने लगीं। ये गृह कौशल कुछ तकनीकी विद्यालयों में सप्ताह में कई घण्टे सिखाए जाते थे ।
( 3 ) विषय आधारित प्रतिबन्धिता – मातृत्व को प्रोत्साहित करने के अभियान के भाग के रूप में ‘गृह विज्ञान’ विषय को 1911 ई. में प्रारम्भ किया गया जबकि चिकित्सा एवं कानून आधारित अध्ययन क्षेत्रों को महिलाओं के लिए लगभग समाप्त कर दिया गया था । कला एवं मानविकी से सम्बन्धित विषयों को महिला सम्बन्धी विषय माना जाता था । यद्यपि धीरे-धीरे विकास होने के साथ-साथ 1990 के दशक में कानून, इंजीनियरिंग एवं चिकित्सा के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई।
(4) कम अपेक्षाएँ – प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालय, छात्रों में उच्च आकांक्षाओं को विकसित करने के प्रयास कर रहे थे लेकिन परम्परागत आधार पर 20वीं सदी में बहुत सी लड़कियों को निम्न आय एवं निम्न स्तरीय रोजगार की ओर अग्रसित कर दिया गया। सन् 1970 एवं 1980 के दशक में कुछ अभिभावक, शिक्षक एवं विद्यार्थी पुनः उदित नारीवादी आन्दोलनों से प्रभावित होने के कारण लड़कियों की स्कूल आधारित अपेक्षाओं एवं अध्ययन विषय सम्बन्धी सीमाओं को चुनौती प्रदान की।
( 5 ) उपस्थिति- 19वीं सदी में बालिकाओं को शिक्षित करना अभिभावकों के द्वारा समय एवं धन का अपव्यय माना जाता था। प्राथमिक एवं माध्यमिक दोनों स्तरों पर बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का स्कूल जाना कम पसन्द किया जाता था। इसका प्रमुख कारण बालिकाओं द्वारा घरेलू कार्यों में किया जाने वाला सहयोग था। लोगों की धारणा बन गई थी कि उनकी बेटियाँ विवाह करके अपना घर सँभालें एवं बच्चों का पालन पोषण करें। बालिकाओं के लिए औपचारिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं महसूस हो रही थी परन्तु सन् 1944 में जब 14 वर्ष के बच्चों के लिए माध्यमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई तभी से विद्यालयों में लड़कियों की उपस्थिति लगभग लड़कों के समकक्ष पहुँची।
(6) कठिन एवं बहुमूल्य विषय- माध्यमिक स्तर की पाठ्यचर्या में विभिन्न असमानताएँ थीं। लड़कियों के लिए गणित विषय को बहुत क्लिष्ट विषय माना जाता था। विज्ञान विषय को भी लड़कियों के पढ़ने के लिए कम महत्त्व दिया जाता था। इसका मुख्य कारण इन विषयों में प्रशिक्षित महिला अध्यापिकाओं की कमी सबसे बड़ी समस्या थी ।
( 7 ) लड़कों के विरुद्ध भेदभाव- प्राथमिक शिक्षा स्तर पर लड़कों की शिक्षा के साथ-साथ महिला अध्यापिकाओं का आधिपत्य लड़कियों की शिक्षा को समर्थन देता महसूस किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि 1990 के दशक में जैसे ही बालिका शिक्षा के परिणाम बेहतर हुए लड़कों के साथ भेदभाव सम्बन्धी मुद्दे भी उदित हुए। इसके पीछे सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियाँ एवं पृष्ठभूमि भी इसके कारण बनें क्योंकि लड़कों को महिला शिक्षिकाओं द्वारा पाठन के प्रति आधारित गतिविधियाँ आकर्षित नहीं कर सकीं।
1990 ई. के शोध से यह प्रकट होता है कि शिक्षकों द्वारा पढ़ाए जाने पर लड़कों की शैक्षिक उपलब्धि में कोई कमी नहीं पाई गई।
(द) विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता का पोषण – लैंगिक संवेदनशीलता लैंगिक मुद्दों को पहचानने और समझने के लिए एक । प्रत्यय है । लैंगिक संवेदनशीलता लिंगों के बीच युद्ध नहीं हैं और यह पुरुषों के विरुद्ध प्रत्यय भी नहीं है। विद्यालयों में जहाँ लड़के व लड़कियाँ दोनों ही पढ़ते हैं। उन दोनों में लैंगिक विभेद या असमानता न पनपे, इसके लिए यह आवश्यक है कि विद्यालयों में लैंगिक संवेदनशीलता में वृद्धि की जाए ताकि लैंगिक समानता स्थापित की जा सके।
लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने के लिए निम्न तीन स्तरों पर सतर्कता एवं नियोजन की आवश्यकता है–
(1) प्रबन्धकीय नीतियाँ – प्रबन्धकीय स्तर पर जो नीतियाँ बनाई जाए उनमें इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि लैंगिक समानता में वृद्धि करने से सम्बन्धित नीतियाँ भी बनाई जानी चाहिए, जैसे-पुरुष एवं महिलाओं में भेदभाव न करने वाली नीतियाँ।
( 2 ) शिक्षक–शिक्षक को कक्षा में लैंगिक-तटस्थ की भूमिका निभानी चाहिए। कोई भी कार्य हो, लड़के-लड़कियों दोनों की समान भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। शिक्षकों को किसी खास लिंग के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखना चाहिए। सर्वनाम के प्रयोग में सावधानी बरतनी चाहिए। पढ़ाते समय He और She शब्दों को बिना किसी रूढ़िवादिता एवं पूर्वाग्रह के तटस्थ रूप में प्रयोग करना चाहिए।
( 3 ) छात्र—छात्रों को अपने विपरीत लिंग वाले छात्रों के साथ समान व्यवहार करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। छात्रों के व्यवहार एवं सोच को लैंगिक समानता की तरफ अग्रसित करने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए।
उपर्युक्त प्रक्रियाओं एवं पहलुओं के सन्दर्भ में लैंगिक समानता को समझने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि इन सभी प्रक्रियाओं में जो भी छात्र-छात्राएँ और शिक्षक-शिक्षिका सम्मिलित होते हैं वो ही लैंगिक असमानता को जन्म देते हैं इस प्रकार कक्षागत परिस्थितियाँ और प्रक्रियाएँ भी लैंगिक असमानता को जन्म देती हैं।
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